Wednesday, August 31, 2011

समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और दलित सरोकार


- हिन्दू ,जो इस देश  के अधि-संख्यक हैं,का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन सुचिता से लबरेज नहीं है.वो जिन संस्कारों में पलता-बढ़ता है,वे व्यक्ति की सामाजिक-नैतिकता को सपोर्ट नहीं करते हैं.

- प्रत्येक दिन स्नान करने के बाद हम घर या मन्दिर में भगवान की पूजा करते हैं.अपने अराध्य देवी या देवता को अगरबत्ती लगा के प्रार्थना करते हैं कि हमें फलां-फलां काम में सफलता मिले.हम में से बहुत-से लोग तो इससे भी दो हाथ आगे बढ कुछ 'कमिटमेंट' कर लेते हैं.मुझे लगता हैं कि हमारे दिन की शुरुआत यहीं से गलत होती हैं.नैतिक भ्रष्टाचार यहीं से आरम्भ होता है और ये 'लेन-देन' का काम देर रात तक चलते रहता है

- हमारे यहाँ सबसे बड़े भ्रष्टाचार के अड्डे तो देवी-देवताओं के मन्दिर है.यहाँ बेहिसाब पैसा है.यहाँ लोगों की आस्था को दुहा जाता है.वास्तव में व्यक्ति के सामाजिक जीवन की सुचिता को यहीं भंग किया जाता है.पण्डे-पुजारियों की जमात ने हिन्दुओं के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को भ्रष्ट कर दिया है.

        हमारा देश धर्म-निरपेक्ष है.लोगों को अपने-अपने विचार रखने की आजादी है.मगर आप अयोध्या का मुद्दा उठा कर चुनाव नहीं लड़ सकते ?अगर बी जे पी जैसी प्रमुख विपक्ष की पार्टी पंडा-पुजारियों का इस्तेमाल कर राजनितिक रोटियां सेकती हैं तो फिर आप भ्रष्टाचार कैसे समाप्त कर सकते हैं ?

- हमारे यहाँ कानून घूस लेने वालों को ध्यान में रख कर बनाये गए हैं.दूसरे, अधिकतर कानून सामाजिक और आर्थिक असमानता को बढ़ावा देने वाले हैं.कानूनों को लागू करने के तरीके भी भेदभाव पूर्ण हैं. अगर भ्रष्टाचार मिटाने में आप गम्भीर हैं, तो जरुरत पहले इन कानूनों को बदलने की है.
          20/- रुपये लुटने वाले को  7 वर्ष की सजा होती है.मगर, 47 करोड़ के बैंक घोटाले में महज 1 वर्ष की सजा होती है !
            उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार प्रबंधन को यह अधिकार दिया गया है की यदि कोई श्रमिक 10/- रुपये की भी अगर गडबडी करे तो उसे सेवा से हटाया जा सकता है.क्योंकि, उसने प्रबंधन का विश्वास खो दिया है.       

- हमारे यहाँ उच्च श्रेणी और निम्न श्रेणी के वेतनमानों में जमीन आसमान का अंतर है.आखिर इतना भारी अंतर रखने की भला क्या जरुरत है ? क्या श्रम के प्रति यह घोर उपेक्षा और घृणा का परिचायक नहीं है ?लोवर पेड कर्मचारियों में व्याप्त यह आर्थिक असंतोष कहीं न कहीं भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है.
           
-जैसे की राहुल गाँधी ने कहा है, चुनाव में आने वाला भारी भरकम खर्च राजनीतिक भ्रष्टाचार की जड़  है.इसे सीमित कर भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जा सकता है.या चाहे तो इसे सरकार वहन कर सकती है.

- भरी संसद में करोड़ों रुपये के नोटों के बण्डल सांसदों द्वारा लहराए जाते हैं ! बाद में पता चलता है कि सरकार को अस्थिर करने के लिए कुछ विपक्षी सांसदों  द्वारा रचा गया यह एक षड्यंत्र का हिस्सा है ! वह भी कब ? जब देश का सर्वोच्च न्यायालय केस को दबाने के लिए सीबीआई को फटकार लगाता है.अब किरण बेदी कहती है कि उसने रामलीला मैदान में सांसदों को जो आइना दिखायी है,वह उससे भी बड़ा आइना दिखाएगी, तो इस में बुरा मानने की क्या बात है ?                                                                        
                                                                                                              ...........................क्रमश:

Dragon Palace Temple (Kamthi)

          While on return from Nagpur via Kamthi, we made visit the famous Dragon Palace Temple this time also. It is a Buddhist temple.It is situated in Kamthi ( कामठी), hardly 25 to 30 Km from  Nagpur city
https://lh3.googleusercontent.com/-qJCGFSakGAw/TVfao7oY-VI/AAAAAAAAAFM/sRFKGBOcb-o/DSC_1056.JPG.Nagpur (M.S) is the historic place where Baba sahib Dr B. R. Ambedkar embraced Buddhism with his lacs of followers in 1956.
    The Dragon Palace Temple  is dedicated to Lord Buddha.The temple was founded by Mother Noriko Ogawa Society of Japan in 1999 with association Ms Sulekha Kumbhare, the then Mayer of Kamthi city.Currently, she is  Maharashtra state minister for water supply and sanitation. 
https://lh6.googleusercontent.com/-S5ejR2VckfY/TUAaFSuACsI/AAAAAAAAAFM/9vVB0D_wgtg/ryuuguuji252.JPG           Dadasaheb Kumbhare ,father of Ms. Sulekha Kumbhare, was a devout follower of Dr. Ambedkar, serving as a member of the Indian Parliament. He devoted himself for the improvement of society. When he died at the age of 59, his daughter, Ms. Sulekha Kumbhare became a politician to accomplish the tasks left by her father.
https://lh3.googleusercontent.com/-YmW8eMpyVb8/TVfat3380bI/AAAAAAAAAFM/UzemTRHuriU/DSC_1068.JPG The Dragon Palace Temple  is sprawled over an area of approximately 10 acres,comprises of a magnificent Buddhist prayer center, which offers peace and serenity to visitors. Enshrined on the first floor of the Meditation Hall of the temple is a colossal statue of Lord Buddha. The idol is said to have been carved out of a single block of sandalwood.
      Some time back, Dragon Palace Temple of Kamptee was felicitated with the International Award for the best concrete structure of the world.

https://lh3.googleusercontent.com/-cwMWO5c49Qs/TVfapKentOI/AAAAAAAAAFM/N4L4uCD-gig/DSC_1043.JPG     The walls of the temple have been painted in a bright white color, which is meant to symbolize calm, clarity and divinity. It is also known as the 'Lotus Temple of Nagpur' and stands encircled by lush green, landscaped gardens, blooming with colorful flowers.
        Devotees congregate at the temple everyday and pay their tribute during the meditating hours.Even on big congregation,pin drop silence is always there.
       The Ogawa society has also undertook the responsibility of provided social services, like those of a mobile hospital, a welfare centre, an orphanage and school for poor etc.

Friday, August 26, 2011

Dutch town Weesp

              तो बात मैं अपने नीदरलैंड प्रवास की कर रहा था.हम लोग डच टाउन वेस्प  (Dutch town Weesp) गये थे.वहां जोई को वेक्सिनेशन कराना था. इसके आलावा भी सोनू को कुछ काम निपटाने थे जो काफी दिनों से पेंडिंग चल रहे थे. यहाँ मैं बता दूँ कि राहुल पहले वहीँ रहता था.शादी के बाद भी तीन-चार महीने ये लोग वेस्प में ही रहे थे. इसी कारण लोकल रेसिडेंस से सम्बन्धित सारे काम इनके वहीँ से हो रहे थे.
         वेस्प को यहाँ टाउन/ विलेज (गाँव ) कहा जाता हैं.यह एम्स्टरडम के आउट-स्कर्ट(out-skirt) में है.मगर यहाँ रईस लोग रहते हैं. कुछ अजीब-सा लगता है न ! मगर ये सच है. असल में गाँव को यहाँ शहर के भीड़-भाड़ और कोलाहल से दूर शांत एरिया माना जाता है जहाँ रईस (rich)लोग रहना पसंद करते हैं.और सच में मैंने देखा वहां गाँव का माहौल तो कहीं भी नहीं था. मगर, शहर का माहौल  भी नहीं था. ऊंची-ऊंची बिल्डिंगे नहीं थी.गली-सडकों में लोग झुण्ड के झुण्ड बेमतलब-से नहीं घूम रहे थे...वगैरे..वगैरे.
        यहाँ हर मकान के सामने और लान में गार्डनिंग बेहतरीन तरीके से सजी थी जैसे आपको कुछ पल रूक कर देखने को निमंत्रित कर रही हो.मकान सिंगल स्टोरी वाले ज्यादा दिख रहे थे, जैसे, वे बतला रहे हो कि आप किसी सिटी (city) में नहीं वरन गाँव में हैं.
        यह तो आप को मालूम ही है कि यूरोप के लोग फूलों के  बेहद शौक़ीन होते हैं.शहर हो या गाँव, जगह-जगह फूलों के गमलों से लदी दुकाने आप को दिखती हैं.इन दुकानों से लोग उसी तरह भीनी-भीनी सुगन्धित फूलों के गुलदस्ते/गमले खरीदते हैं, जैसे कि अन्य खरीदारी करते हैं.
       मैंने जानना चाहा कि आखिर यहाँ के लोग फूलों को इस तरह क्यों चाहते हैं ?
         ऐसे लगता है कि चूँकि, यहाँ का क्लाइमेट इसके फेवर में है और स्वाईल(soil ) भी फूलों की फसल के अनुकूल है अत: लोगों का टेस्ट भी वैसा हो, यह स्वाभाविक ही था.
          एक और बात, हमारे यहाँ घर/आँगन  में मकान मालिक के आराध्य किसी-न-किसी देवी-देवता की मूर्ति  या छोटा-सा मन्दिर मिलना स्वाभाविक-सा  रहता है.मगर अम्स्टरडम में मुझे ये नजारा देखने नहीं मिला. यहाँ देवी-देवता की जगह किसी कलाकार की काष्ठ या पत्थर की  बनायीं कलाकृति देखने मिलती है.यह कलाकृति पारम्परिक बकरी को दोनों हाथ में उठाए हुए किसान की हो सकती है या फिर आधुनिक निपट कलात्मक कारीगरी अर्थात माडर्न आर्ट.
यहाँ पर आपको गली/सडक के किनारे या पार्क में पेड़ों की कतारे एक ही साईज की बड़ी ही सुन्दर लगेगी. इसलिए कि ये सब योजना बध्द तरीके से लगाये गए हैं. सबकी ऊँचाई और आयतन एक-सा दीखेगा. सूखी जमीं कहीं भी आप नहीं पाएंगे.बिना हरी घास के एक इंच जमीन भी यहाँ खाली नहीं होती.लानों में घास बाकायदा ट्रीम की हुई मिलेगी.हमारे यहाँ गलियों में टी वी केबल जैसे इधर के उधर क्रास करते हुए मिलते हैं, यहाँ पर आपको स्ट्रीट लाइट के बल्ब पुरे केबिनेट के साथ क्रास वायर से लटकते मिलेंगे. और इसके बीच-बीच आकर्षक फूलों के बड़े-बड़े गमले इसी स्टाइल में लटकते दीखेंगे.आकर्षक फूलों के गमले आपको  खम्बे (पोस्ट) में, ओव्हर ब्रिज में लटकते दिखेंगे.इनमे रंग-बिरंगी फूलों की लदी टहनियां उसी तरह लटकती मिलती हैं जैसे दीपावली में हमारे यहाँ जगमग रंग-बिरंगे छोटे-छोटे विद्युत् बल्ब की लड़ियाँ घर और आँगन में सजी दिखती हैं.
          मकान शीर्ष पर स्टिप टेपर (steep taper) रहते हैं. बर्फ जो साल के   7-8 महीने गिरते रहता है.कांच का व्यापक प्रयोग होता है मकान और बिल्डिंगे बनाने. कांच सूर्य की किरणों को अन्दर पहुँचाने का एक अच्छा माध्यम है. चूँकि, यहाँ का औसत टेम्परेचर काफी कम है अत: लोगों को धूप की आवश्यकता बनी रहती है. दूसरे, बिजली की खपत भी कम होती है. हमारे यहाँ दिन में भी आफिसों में बिना बिजली की रौशनी के काम नहीं होता.यहाँ बिल्डिंगे बनायीं ही ऐसी जाती है कि दिन के समय बिजली न जलाना पड़े.स्थान-स्थान पर स्पेस बना कांच की खिड़कियाँ लगा कर सूर्य की रोशनी को अन्दर पहुँचाया जाता है. हाँ, इससे कास्ट तो बढती ही होगी. मगर, यहाँ पैसा भी तो काफी है.
    यहाँ की सड़के कुछ अलग होती है. पहली बात, इधर दाए से चलने का रूल है. यु हेव टू किप राइट.कार हो या बस, ड्राइविंग व्हील राइट में होता है.यहाँ पर फोर व्हीलर सडक के साथ एक और सडक जो सायकिल वालों के लिए होती है, साथ में समानांतर चलती है. एक तीसरी सडक पैदल चलने वालों के लिए होती है जिसे पेडस्टेरियन पाथ (pedestrians path) कहा जाता है.ट्राफिक नियमों के अनुसार, पहली प्राथमिकता फुट-पाथ पर चलने वालों की होती है. कार वाला, अगर आप स्ट्रीट  क्रास करना चाहते हैं तो वह रुक जायेगा और आपको सडक क्रास करने देगा. मगर, मुख्य सडक मार्ग में स्थान-विशेष बने होते  है,जैसे कि हमारे यहाँ. इधर, एक अतिरिक्त सोह्लियत होती है- पोल में प्रोवाइड किये गए स्विच के द्वारा उसे आप दबा क़र और पेडस्टेरियन  (pedestrians)  को जाने देने का चिन्ह आने प़र सडक क्रास कर सकते हैं. आने वाले फोर व्हीलर्स तब रुके रहेंगे.सडकों में जगह-जगह पार्किंग प्लेस बने होते हैं.पेसेंजर बस कहीं भी नहीं रुक सकती.दूसरे, ड्रेगिंग बेग जो व्हील वाले ड्रेगिंग सूटकेस की तरह होते हैं,या छोटे बच्चों को केरिंग(carrying) करने की गाड़ियाँ, इनके लिए सडकों में प्रावधान बने होते हैं की आप कहाँ से क्रास कर सकते हैं या एक स्ट्रीट से दूसरी स्ट्रीट में जा सकते हैं.
                    यहाँ पर सायकिल चलाना आम बात है. सायकिल चलाना यहाँ गरीबी की पहचान नहीं मानी जाती जैसे कि अपने यहाँ  होता है. बड़ा से बड़ा आदमी भी सायकिल चलाना पसंद करता है.सायकिल चलाने के कई फायदे हैं.पहला तो सेहत तंदुरस्त रहती है.यूरोपियन लोग स्वास्थ्य के प्रति बेहद कांशस (conscious) होते हैं.प्राय: फूट-पाठ पर लोग दौड़ते हुए दिख जायेंगे.दूसरे,इस तरह आप प्रदूषण कम करने में सहायक होते हैं.सायकिल यहाँ इतनी आम है कि इसके लिए एक अलग से समानांतर रोड (parallel )चलती है.
             यहाँ पर गलियां और आवासीय सडकें इंटों की बनी होती है.चूँकि, ईंटों को डिजाइन दिया जा सकता है, इसलिए ये सडकें बड़ी सुन्दर लगती है. गली और सडकों को साफ़ करने की मशीने होती है. चूँकि, यहाँ श्रम बेहद महंगा है इसलिए अधिकतर काम मशीनों द्वारा किया जाता है.           

Thursday, August 25, 2011

पूजा और फूल

          बहुतों को मैंने सबेरे-सबेरे उठ कर हाथ में लम्बी-सी लकड़ी ले सडक-किनारे-किनारे दूसरों की बाड़ी और बगीचे के फूल तोड़ते देखा हैं.शायद वे घर या मन्दिर में पूजा के लिए फूल इकट्ठा करते हैं.मुझे इतराज उनकी पूजा पर नहीं है,क्योंकि हरेक को ये अधिकार है कि आप चाहे जैसी और जितनी लम्बी पूजा कर  सकते हैं.हाँ, मुझे एतराज उनके फूल तोड़ने के तरीके पर जरुर है.आखिर आप अपने घर की बाड़ी /बगीचे में भी तो फूल ऊगा सकते हैं ?
        एक मेरे साथी हैं.वह मेरी ही तरह पेशे से इंजिनियर है.वे बड़ी लम्बी पूजा करते हैं. यही कोई आधा घंटा. वह भी कम-से.हम दोनों साथ-साथ में ड्यूटी जाते थे क्योंकि,उस वक्त एक ही गाड़ी शेयर कर रहे थे.क्वार्टर से निकल पहले मन्दिर जाते और फिर पावर-हॉउस.मन्दिर में जाने के पहले गाड़ी रोक कर हम कुछ फूल जरुर इकट्ठा कर लेते.मंदिर में वे पूजा करते और मैं गाड़ी में बैठ कर साहब का इन्तजार करता.आधे घंटे में वे माथे पर टीका और हाथ में प्रसाद लेकर आते.मैं प्रसाद लेता और रास्ते में नारियल और मीठी तिरंजी का स्वाद लेते रहता.हम काफी लम्बे अरसे तक  एक-साथ रहे. मगर,न उन्होंने मुझे टोका और न ही मैंने उन्हें.आपको जान कर ताज्जुब होगा की हम लम्बे समय तक गाड़ी ही नहीं क्वार्टर भी शेयर करते रहे. 
            साहब इंजिनियर है.उनका तकनीकी ज्ञान विशद है.चूँकि,पूजा का मामला है.और हमारे देश में पूजा पर्सनल है.आप किसी की पूजा या उस में लगने वाले समय पर कमेंट्स नहीं कर सकते.कुछ चीजे बहुत निजी होती है.हमारे देश में पूजा बहुत निजी है.वह नितांत व्यैक्तिक है.ड्यूटी के समय कोई नमाज अदा करने गया हो तो इस बात का नोटिश लेना अव्यवहारिक होगा.ड्यूटी-प्लेस में दुर्गा या हनुमान जी का फोटो लगाना आपकी आस्था का मामला है.मशीन कई दिनों से बंद है और उसे चालू करना है तो आपको पहले पूजा करनी होगी. एक बार इसी तरह की पूजा में HOD होने के नाते पंडित मुझे पूजा में बैठने का आग्रह करने लगा.बड़ी मुश्किल से मैं कोई आवश्यक कार्य होने की बात कह टाल सका. ऐसे समय पूजा में बैठे बड़े साहब के सामने सिचुअशन बड़ी आड हो जाती है.एक दूसरे हमारे साहब, पूजा के दौरान अगरबत्ती लगा कर आँख बंद किये हुए हाथ जोड़े इतने देर खड़े रहते हैं कि कई लोगों के पैर थरथराने लगते है.
        पूजा का समय होता है, प्रात: 8 से 9 बजे के बीच.यह समय बड़ा क्रिटिकल होता है,.साहब के लिए नहीं,लोगों के लिए.मेम छूटते ही कह देती हैं कि साहब, पूजा में हैं.गोया कि आप प्रात: 8 से 9 बजे के बीच
साहब से बात नहीं कर सकते.कितना भी जरुरी काम हो,आपको इस काल-खंड को बड़े धैर्य से पास करना होगा
          पूजा में नारियल और फूल जरुरी हैं.इन दोनों के बिना पूजा हो ही नहीं सकती.नारियल सडा भी निकल जाये तो कोई बात नहीं मगर, फूलों का ताजा होना जरुरी है.एक दिन   प्रात: भ्रमण के दौरान मैंने एक फूल तोड़ने वाले से पूछा-
"तुम ये फूल एक ही जगह से इकट्ठा क्यों नहीं करते ? क्यों अलग-अलग पेड़ों से तोड़ते हो ?
"सर,दूसरे-दूसरे पेड़ों से फूल इकट्ठा कर भगवान् को भोग लगाने में ज्यादा पुण्य मिलता है."-उसने मेरे ज्ञान में वृध्दि की.

Tuesday, August 23, 2011

अन्ना हजारे का आमरण अनशन और दलित सरोकार(Anna Hazare & Dalit cencern)

                  इसमें कोई दो राय नहीं की अन्ना हजारे और उनकी टीम ने संसद और विधान सभाओं में पैदा हुए नेताओं की लूट-खसूट पर जो उंगली उठायी है,व्यवस्था के नाम पर जन्मी भ्रष्ट्र-अफसरशाही और राशन कार्ड से लेकर पासपोर्ट बनाने में बरती गयी बाबुओं की लाल-फीताशाही को बेपर्दा किया है, ने लोगों के मन में देश के डेमोक्रेटिक सेट-अप की लाचारी और नपुंसकता को सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया है.लोग यह मान कर चल रहे थे की नेताओं को झेलना डेमोक्रेटिक सेट-अप की अंतर्भूत कमी हैं.निश्चित रूप से नेता और अफसर शाही के गठ-जोड़ ने कारपोरेट जगत के साथ मिल कर आम जनता को बेवकूफ बनाने का जो सिस्टम विकसित किया है,लोगों को इससे उबरने का रास्ता नहीं सूझ रहा था.
             मगर, किसी ने सच कहा है, लोगों को लम्बे समय के लिए बेवकूफ बना कर नहीं रखा जा सकता.आप दो या न दो, बरसात का पानी अपना रास्ता खुद-ब-खुद बना लेता है.प्रकृति का स्वभाव जो ठहरा.इतिहास गवाह है,राजनितिक क्रांतियाँ इसी तरह हुई है.
             अगर,अन्ना कहते हैं की खतरा चोरों से नहीं पहरेदारों से है तो इसमें गलत क्या है ? बेशक, संसद जनता के प्रति जवाबदेह है.मगर, यह भी उतना ही सच है की राजनितिक पार्टियों ने मिल कर इस तरह का चुनावी सिस्टम बना लिया है की जनता के पास उन्हीं भ्रष्ट नेताओं को चुनने के आलावा अन्य दूसरा विकल्प नहीं होता.आज सांसद लोकसभा का चुनाव जीतने के लिए करोड़ों रुपया खर्च करता है.भला, एक आदमी सांसद बन कर इतना पैसा किस तरह कमा सकता है ? और फिर, चुनाव में लगा पैसा वापस पाना भी तो होता है, तभी आप अगला चुनाव लड़ सकते हैं.जाहिर है,बनिया,पूंजीपति,बड़े-बड़े सरकारी और प्राइवेट संस्थान के हेड और कार्पोरेट जगत की हस्तियाँ सांसद को पैसा मुहैया कराते है.सांसद पैसा लेता है और उनके लिए काम करता है.इधर, जिन एजेंसियों ने सांसद को पैसा मुहैया कराया है,वे उस दिए पैसे को आम जनता से वसूल करने की कोशिश करते हैं.इस तरह भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक चल पड़ता है.
               इधर आम आदमी सोचता है की ये सांसद तो उसके वोट से जीत कर आया है फिर, वह काम उनका क्यों नहीं करता? तब, उसे खीज होती है-व्यवस्था के प्रति,शासन-प्रशासन के प्रति.एक और बात,सांसद महोदय आम आदमी से भी पैसा लेकर ही काम किये जाने की अपेक्षा करता है.क्योंकि,उसका नजरिया सेवा का कम व्यावसायिक ज्यादा हो जाता है. और इस तरह भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक फलता-फूलता है.
             निश्चित रूप से चुनाव में आने वाला भारी भरकम खर्च पहली नजर में तो भ्रष्टाचार की जननी है.यह उसी तरह है कि लडकी की शादी में अगर आपने भारी दहेज दिया है तो लडके की शादी में भी आप बहू के साथ भारी दहेज की अपेक्षा रखते हैं. अब, सवाल यह है कि क्या ये दहेज के लेन-देन का क़ानूनी पहलू है या सामाजिक.दूसरे, यह बात नहीं कि इनको रोकने  कानून नहीं बने हैं.मगर, क्या कानून से फायदा भी हुआ है ?
              बस यही अंतर है,एंटी-करप्शन के प्रति अन्ना टीम के द्वारा चलाये जा रहे मूवमेंट की सोच और दलित नजरिये का.देश का दलित भी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को ख़त्म करना चाहता है.मगर,यह कैसे ख़त्म
 हो,उसके तरीके पर जरूर दलितों की सोच अलग है.
              दलितों की सोच है की भ्रष्टाचार का सम्बन्ध सामाजिक सरोकार से ज्यादा है.क्योंकि,अगर आप नैतिक है,मोरल है तो फिर आप भ्रष्टाचार नहीं करते हैं.सवाल यह है की यह नैतिकता कहाँ से आती है ? नैतिकता आती  है आपके परिवार से,आपके कल्चर से.अगर आपका कल्चर अच्छा है,आपके संस्कार अच्छे हैं,तो फिर आपका जीवन शुचिता से लबरेज होगा.आप गलत चीजों को बर्दास्त नहीं करेंगे.नहीं आप गलत रास्ते पर चलेंगे और नहीं किसी को उस रास्ते पर चलते देखना पसंद करेंगे.
             मगर मुझे भारी मन से कहना पड़ रहा है कि हिन्दू ,जो इस देश  के अधि-संख्यक हैं,का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन सुचिता से लबरेज नहीं है.वो जिन संस्कारों में पलता-बढ़ता है,वे व्यक्ति की सामाजिक-नैतिकता को सपोर्ट नहीं करते हैं.आप जिन दोहरे माप-दंड वाले सामाजिक मूल्यों में जीते हैं,उनको दिल और दिमाग में रख कर करप्शन के विरुद्ध खड़े नहीं हो सकते.हाँ,करप्शन कर सकते हैं और अपने आस-पास करप्शन होते देख सकते हैं.
               करप्शन के विरुद्ध अगर खड़े होना है तो अपने सामाजिक जीवन में सुचिता लानी होगी,दोहरे मापदंड वाले सामाजिक  मूल्यों में परिवर्तन लाना होगा.उन पौराणिक प्रतीकों,मिथकों को त्यागना होगा जो आपको सामाजिक जीवन में दोहरे मापदंड अपनाने की प्रेरणा देते हैं.हिन्दू इस देश में अधिसंख्यक है.उनके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन-दर्शन का प्रभाव देश की संस्कृति और शासन-प्रशासन पर पड़ता है.आप सिर्फ कानून बना कर भ्रष्टाचार नहीं रोक सकते.कानून के साथ-साथ आपको सामाजिक सुचिता लानी होगी.
                आपको जानकर आश्चर्य होगा,मगर ये सच है की हमारे यहाँ सबसे बड़े भ्रष्टाचार के अड्डे तो देवी-देवताओं के मन्दिर है.यहाँ बेहिसाब पैसा है.यहाँ लोगों की आस्था को दुहा जाता है.वास्तव में व्यक्ति के सामाजिक जीवन की सुचिता को यहीं भंग किया जाता है.पण्डे-पुजारियों की जमात ने हिन्दुओं के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को भ्रष्ट कर दिया है. अगर बी जे पी जैसी प्रमुख विपक्ष की पार्टी पंडा-पुजारियों का इस्तेमाल कर राजनितिक रोटियां सेकती हैं तो फिर आप भ्रष्टाचार कैसे समाप्त कर सकते हैं ?
            दूसरे, हमारा डेमोक्रेटिक सेट-अप विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका में बंटा है.यद्यपि ये तीनों संस्थाओं के कार्य और शक्तियां अलग-अलग परिभाषित हैं फिर भी वे एक-दूसरे पर चैक रखती हैं.अन्ना हजारे की टीम जिस जन-लोकपाल की बात करती है,उसे पुलिस,जज और जेलर तीनों के अधिकारों से लैस किये जाने की मांग है, जो कि देश के डेमोक्रेटिक सेट-अप के विपरीत है.
         और सबसे अहम बात ये कि हमारे देश का शासन-प्रशासन सांप्रदायिक और जातिवादी है. बात चाहे पुलिस की हो,न्यायालय की या फिर विधायिका की.इसलिए लोकपाल में दलितों का प्रतिनिधि रखना जरुरी है,जैसे की उ.प्र की मुख्यमंत्री मायावती जी ने मांग की है.ताकि जातिवादी हिन्दुओं से उनकी कुछ तो रक्षा हो सके.आये दिनों दलितों को झूठे फसाया जाता है.अगर लोकपाल में दलितों का प्रतिनिधि नहीं रखा जाता तो यह देश के दलित-जमात को मान्य नहीं होगा.

Friday, August 5, 2011

और फिर कभी उसने थाली का झूठा खाना नहीं खाया

कहीं पर पढ़ा हुआ संस्मरण - 
         उस  समय बाबासाहेब औरंगाबाद  कालेज में पढ़ाते थे, उनके घर में शिवराम  नाम का एक लड़का घर के छोटे-मोटे काम किया करता था. शिवराम के पिता का नाम आनंद राव जाधव था.
         एक दिन बाबा साहब जब भोजन  करने के बाद उठे तो शिवराम उनकी थाली उठा कर ले जाने लगा. थाली में शिवराम को बाजरे की रोटी का टुकड़ा और बचा हुआ सरसों का थोडा-सा साग दिखा.मगर,उसे बाबासाहेब के द्वारा थाली में छोड़ा गया खाना कहीं फेंकना ठीक नहीं लगा.उसने उसमे से एक  निवाला मुँह में डाला ही था कि बाबासाहेब ने उसे देख लिया.
         दूसरे ही क्षण बाबासाहेब चिल्लाते हुए उस के पास गए और शिवराम के गाल पर एक जोर का थप्पड़ रसीद किया.
"मूर्ख,थाली का झूठा खाता है..." बाबासाहेब ने गर्जना की.
         बालक की आँखों से आंसू बह चले.कुछ समझ नहीं पाया कि क्या गलत हुआ.इतना  घबराया कि अगले दो दिन काम पर नहीं जा पाया. इधर बाबासाहेब परेशान हो गए.उन्होंने कॉलेज से किसी को आनंद राव  के घर शिवराम को बुलाने भेजा.
 बाबासाहेब का संदेश पाकर शिवराम और उनके पिता आनंदराव दोनों बाबासाहेब के सामने हाजिर हुए.बाबासाहेब ने उन्हें प्रेम से बैठाया और पूछने लगे -
"क्यों आनंदराव, तुम्हारा लड़का शिवराम काम पर क्यों नहीं आ रहा है ?" 
"बाबा....वो कह रह रहा है,आपने उसे थप्पड़ मारा...."
"अरे ! पर उससे पूछा कि मैने उसे क्यों मारा ...?"  बाबा साहेब ने आनंदराव से पूछा-
आनंदराव चुप.वह अपने लडके शिवराम जो सिर लटकाए नीचे देख रहा था, को देखने लगा.
".... मेरी थाली से झूठा खा रहा था .... अरे ...दूसरों की थाली का और कितने दिन झूठा खाओगे तुम लोग ? मैं क्यों इतनी जद्दोजेहेद कर रहा हूँ ... कष्ट उठा  रहा हूँ ....खाना-सोना सब हराम कर रखा है.... क्या इसलिए कि तुम लोग दूसरों का झूठा खाओ...उतरा हुआ पहनों. तुम लोगों को इंसान का दर्जा मिले,इसलिए तो मेरी सारी लड़ाई है...बाबा साहेब ने कहा.
उस थप्पड़ के बाद शिवराम ने फिर कभी किसी की थाली का झूठा खाना नहीं खाया.

'हंस' की रजत जयंती: एक रपट

           उस दिन मैं  दिल्ली में था. तीन महीने के यूरोप प्रवास के बाद जब मैं  28 जुलाई को एम्स्टरडम से दिल्ली आया तो 2-3  दिन का दिल्ली प्रवास स्वाभाविक था. मेरी भांजी डा हेमलता महिस्वर आजकल दिल्ली में ही है. वह जामिया मिलिया में हिंदी की प्रोफ़ेसर है. मेरा दिल्ली प्रवास उनके आथित्य में ही था. चूँकि, मैं गुरगाँव में डा. हेमलता महिस्वर के यहाँ रुका था, स्वाभाविक है , हंस के 31 जुलाई  11 वाले  रजत जयंती समारोह में शिरकत करता. 
        आप जब साहित्यिक हस्तियों  के आथित्य में रहते हैं तो अपने-आप फिर आप उन अवसरों को पाने के भी हकदार हो जाते हैं जो इनकी राह में तके रहते हैं. 'युद्धरत आम आदमी' की एडिटर  रमणिका गुप्ताजी से पुन: रूबरू होना इसी तरह का एक अवसर था.एक दूसरा अवसर प्रसिध्द हिंदी साहित्यिक प्रत्रिका 'हंस'  के रजत जयंती समारोह का था. यह एक ऐसा अवसर था जब बड़ी से बड़ी  साहित्यिक हस्तियाँ आपके बगल में या  बिलकुल सामने बैठी होती हैं.
        यूँ राजेंद्र यादव मेरे लिए  नए नहीं हैं और न ही नामवर सिंह जी.हंस पत्रिका को मैं 1981-82  से जानता हूँ. तब हम दोस्तों के बीच में हंस,सारिका, कादम्बिनी,नवनीत जैसी  पत्रिकाएं पढ़ने का बड़ा क्रेज था. हम न सिर्फ ये पत्रिकाएं पढ़ते थे वरन बकायदा इनमे चर्चित कंटेंट पर बहस और चर्चा भी करते थे. साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रति रुझान मेरा स्कूली पढ़ती हालत से ही था. क्यों था ? ये रिसर्च का विषय हो सकता है. 
        अगर राजेंद्र यादव की बात करूँ तो ये पर्सनालिटी मुझे काफी इम्प्रेस्ड करती है. बैसाखी पर टिकी गजब की  बेफिक्री , यारों के बीच साफगोई और बेहद अनौपचारिक तथा सामाजिक सरोकार से जुड़ने का माद्दा... ऐसा ही कुछ  व्यक्तित्व है, हिंदी साहित्य की शीर्षस्थ  पत्रिका 'हंस ' के कर्मठ और जुझारू सम्पादक  आदरणीय राजेन्द्र यादव जी का.
           'हंस' किसी समय एक खास  पाठक-वर्ग की बपौती रहा करता था, आपने उसमें  समसामयिक सामाजिक सरोकार की बातें उठा कर उसे गली-कुचों में पहुंचा दिया.मैं ऊपर कादम्बिनी, नवनीत जैसी हिंदी डायजेस्ट पत्रिकाओं की बात कर रहा था.  वे हिंदी डायस पर बैठी थी, बैठी रही.इन पत्रिकाओं ने अपने 'डायस' से उतर कर पब्लिक में जाने की जुर्रत नहीं की. अब कादम्बिनी हो या नवनीत, अपने डायस पर बैठे रहने के अपने फायदे हैं और डायस से उतर कर पब्लिक में जाने के अपने.और फिर, बैसाखी पर टिकी गजब की  बेफिक्री,यारों के बीच साफगोई और कुछ नया कर गुजरने की हिम्मत,सबके पास तो होती नहीं न .
      अब मैं कुछ बात करूँ, देश के चोटी के साहित्यिक हस्ती आदरणीय  नामवरसिंह जी की. नामवर सिंह जी से मैं काफी समय से परिचित हूँ. परिचय से मेरा मतलब उनके साहित्य से है.अन्य विधा के अलावा इतिहास के आप शीर्षस्थ हस्ताक्षर हैं. मुझे नहीं लगता कि हमारे देश में और कोई साहित्यिक पर्सनालिटी है जो आपके साथ खड़ा होने का साहस कर सके.
          तो बात मैं कर रहा था 'हंस' के रजत जयंती समारोह की.मंच सञ्चालन अजय नावरिया कर रहे थे.डायस पर नामवर सिंह,टी.यम ललानी,अर्चना वर्मा आदि विराजमान थे.कार्य क्रम का आयोजन मंडी-हॉउस  के पास 'ऐवाने ग़ालिब'  में किया गया था.ऐवाने ग़ालिब पूरी तरह पेक हो चूका था. दर्शक दीर्घा में, देश का बड़े से बड़ा साहित्यिक विराजमान था. बंगला देश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन भी दर्शक दीर्घा में तशरीफ़ लाई थी.
       चूँकि  'हंस' के रजत जयंती समारोह का कार्य-क्रम था, जाहिर है, किसी साहित्यिक गंभीरता की दरकार नहीं थी.संचालक महोदय अजय नावरिया जी ने बिलकुल यही किया.स्वाभाविक था,दर्शक दीर्घा भी उसी मूड में रहती; सबके सब कवि और लेखक जो बैठे थे. 'हंस' की  रजत जयंती का कार्य-क्रम यानि  की जैसे की नामवर सिंह कह रहे थे, राजेन्द्र यादव का उनके  80  साल की उम्र में रजत जयंती समारोह मनाया जा रहा था. चूँकि लोग हंस के मायने राजेन्द्र यादव और राजेन्द्र यादव के मायने हंस समझने लगे हैं.  

    परम्परागत रूप से इस तरह के कार्यक्रम मैंने सरस्वती पूजा से शुरू होते देखे हैं. मगर, यहाँ ऐसा नहीं हुआ. मुझे अच्छा लगा. मुझे नहीं मालूम कि मेरे आलावा यह बात कितनों ने नोट करी. आप साहित्य  के द्वारा समाज को बदलने की बात करते हुए सरस्वती के फोटो पर फूलों की माला नहीं चढ़ा सकते.साध्य को पाने का लक्ष्य साधन की पवित्रता से तय होता है. शायद गाँधी जी यही कहते थे. मगर, हमारे यहाँ साहित्यिक मंचों पर अक्सर उल्टा  होता है.सरस्वती जी के फोटो पर श्रध्दा सुमन अर्पित कर समाज को बदलने की शुरूआत की जाती है. गाँधी जी प्राय: दो अर्थों वाली वाणी का प्रयोग करते थे. हो सकता है साहित्यिक लोग दूसरी वाणी के अर्थों में सरस्वती के फोटो पर माला चढाते हो ?
          बहरहाल,तमाम टोका-टोकी और राजेन्द्र जी के न चाहने के बावजूद लोग उनकी प्रशंसा करते रहे.आखिर, अच्छी बातो को एप्रेसियेट किये जाने का दूसरा तरीका भी तो नहीं है.
               शीघ्र ही नामवर सिंह जी को संचालक महोदय ने प्रमुख वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया.नामवर सिंह जी को 'साहित्यिक पत्रकारिता और हस ' विषय पर अपने विचार रखने थे. मुझे लगता है, सभी वक्ताओं को इसी टापिक पर अपने विचार रखने थे, जैसे की राजेन्द्र यादव की सोच होगी.
           नामवर सिंह जी को मैंने पहली बार इतने करीब से देखा. 85  वर्ष आयु वाले व्यक्ति में ऐसा दम-ख़म होना वाकई बड़ी चीज है. शुध्द भारतीय परिवेश का पहनावा अर्थात धोती-कुरता और लम्बा-चौड़ा डील- डोल.सही में आकर्षक पर्सनालिटी है.मगर मुझे उनके वक्तव्य ने उसी अनुपात में इम्प्रेस्ड नहीं किया. मैं सोचा करता था की ऐसे कालजयी पुरुष नए इतिहास को रचते हैं. उनके मुखार-बिन्द से निकला हर-एक शब्द एक नए आयाम को इंगित करता  है.वे किन्ही चौखटों, स्थापित  पम्पराओं की परवाह नहीं करते....वगैरे ..वगैरे
             मगर अफ़सोस, ऐसा नहीं था. वे उसी मट्टी से बने थे जिससे कि और लोग बने थे. उनको उन्हीं स्थापित परम्पराओं का नाज था जिसमे की और लोग जी रहे थे. वे उन्हीं चौखटों पर अपना सीर झुका रहे थे जिस पर की और लोग अपना सीर पटक रहे थे.नामवर सिंह जी जिस तरह पौराणिक प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी बात रख रहे थे,मुझे उनके अंदाज में कुछ नया नहीं लगा. आप किसी बड़ी जगह आते हैं, किसी बड़ी हस्ती से मिलते हैं, स्वाभाविक है आप कुछ हट कर चाहते हैं. कुछ नया चाहते हैं. वर्ना यह सब तो आपके आस-पास ही मिल जाता है, जहाँ आप रहते हैं.फिर, इतनी दूर आने की क्या जरुरत है ? 
            अक्सर आपने देखा होगा कि लोग अपनी बात को स्वीकारे जाने के लिए पौराणिक प्रतीकों का सहारा लेते हैं.वे चाहते हैं कि लोग उनकी बातो को उतनी ही श्रध्दा से ग्रहण करे जिस श्रध्दा और विश्वास से पौराणिक चरित्रों को स्वीकारते हैं. मुझे ऐसे लोग, सच पूछा जाये तो साहित्यिक कम धर्म-गुरु अधिक लगते हैं .क्या यह सच नहीं कि ऐसा कर आप कितने ही नकारे पौराणिक चरित्रों को पुन: स्थापित, प्रासंगिक और ग्राह्य बना लेते  हैं ? सील-ठप्पा लगा कर री-रेगुलराईस्ड करते हैं ? एक दूसरी बात, मुझे उनकी बातों में कहीं  भी गुरु-गम्भीरता नहीं दिखी जो कि वक्त की मांग थी. क्योंकि, उनके आलावा बताये विषय पर अन्य किसी आमंत्रित वक्ता ने ध्यान ही नहीं दिया. जाहिर था कहने-सुनने को सिर्फ वही थे. एक अन्तिम बात और. 'हंस' पर उनकी टिप्पणी को मुझे नहीं लगता किसी ने गम्भीरता से लिया.
              दूसरे दिन अर्थात 1 अग. 11  को जामिया मिलिया जाने का अवसर मिला. हम हिंदी के हेड आफ डीपाट (HOD)  अब्दुल बिस्मिल्लाह  के चेंबर में बैठे थे. भांजी डा. हेमलता महिस्वर अपना पीरियड लेने क्लास में गई थी. मुझे भान था की मैं कहाँ बैठा हूँ. बिना वक्त गवाएं मैं अब्दुल बिस्मिल्लाह से मुखातिब हुआ-
"सर, जब हिन्दू आपस में बैठते हैं तो मुसलमानों के विरुध्द डेरोगेट्री रिमार्क पास करते हैं. पहले तो आप  बताइए, क्या ऐसा है ? और अगर ऐसा है तो इसे आप कैसे लेते हैं ?" - मैंने उनकी आँखों में करीब-करीब झांकते हुए पूछा
"यह तो दोनों तरफ होता है. कौन-सा एक तरफ होता है." - अब्दुल सर  ने मेरी ओर देख कर कहा .
"ओह ! ये बात है ." - मैंने राहत की साँस ली.
"मगर आप को नहीं लगता की ये घृणा और तिरस्कार सामाजिक सोहार्द के लिए ठीक नहीं है ?"
"हाँ , बिलकुल ठीक नहीं है. मगर, आप क्या करोगे ? असल में व्यवस्था चाहती ही हैं कि यह  घृणा और तिरस्कार  कभी खत्म न हो."
"जे एन यू और जामिया मिलिया जैसी देश की उच्चतम शैक्षणिक संथाओं का इस दिशा में कोई योगदान नहीं है ?- मैंने जानना चाहा.
"क्या योगदान है ? ....हमें तो... जो ऊपर से आदेश आते हैं, बस उनको फालो करना होता है. you have to do what you are instructed . अब्दुल बिस्मिल्लाह जी ने मुझे समझाते हुए कहा. इसी बीच अजय नावरिया जी आ गए. बातो का क्रम गडबडा गया.
"सर नमस्कार." -मैंने दुआ सलाम की.
"आप.. ?"
"जी मैं अ.ला. उके. डा हेमलता महिस्वर का मामा. ..प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों से सम्बध्द साहित्यिक हस्तियों को इस तरह से परिचय देने में  उन्हें सोहलियत होती है.
"ओह .." अजय नावरिया जी मेरी ओर सरसरी निगाह डालते हुए एच ओ डी  के पास कुर्सी पर बैठ गए.
"सर, आपने कल बहुत  ही अच्छे  ढंग से कार्य-क्रम का संचालन किया." - मैंने उस चेंबर में खुद को जस्टिफाई करने के लिहाज से कहा.
"ओह , धन्यवाद ." अजय ने मुस्करा कर मुझे सहज किया.
"मगर सर, नामवर सिंह जी का वक्तव्य मुझे कुछ खास नहीं लगा.
"कैसे  ?"
" वे जिस तरह  पौराणिक कथानकों का जिक्र कर रहे थे... मुझे  ऐसे लगा कि नकार चुके पौराणिक प्रतीकों से उनका मोह अभी गया नहीं है. सर, आप ही बताइए,हम कब तक इन पौराणिक चरित्रों को सांस्कृतिक थाती के नाम पर ढोते रहेंगे ?"
" अरे, तो आपने उठ कर बोलना था न. मौका तो दिया गया था." अजय नावरिया  ने मेरी बात को समझने का प्रयास करते हुए कहा.
" सर, एक लडके के अपनी बात रखने के तुरंत बाद तो प्रोग्राम समेट ही लिया गया." - अजय ने मेरी हाँ में हाँ मिलाना ही उचित समझा.