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Friday, May 25, 2018

फाह्यान

फाह्यान(भारत प्रवास- 399-411 ई.)
बौध्द धर्म के गौरवशाली काल में सूदूर पूरब से जो यात्राी भारत आए, उनमें चीन के फाह्यान का नाम प्रथम है। फाह्यान जिस समय भारत आया उस समय यहां बौध्द धर्म अपनी चरम सीमा में था। इस समय मगध में चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-414 ईस्वी) का शासन था।

राहुल सांकृत्यायन ने फाह्यान के आने का वर्ष 368 ईस्वी लिखा है और भारत में ठहरने का समय 15 वर्ष। जबकि आचार्य धर्मकीर्तिजी ने लिखा है, वह ईस्वी 401 यहां आया और ईस्वी 410 तक ठहर कर उसने पैदल ही सारे भारत का भ्रमण किया। (भगवान बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन)। जबकि  प्रसिद्द इतिहासकार रोमिला थापर ने इसे ईस्वी 405-11 बतलाया है(भारत का इतिहास, पृ. 256 )।

फाह्यान का जन्म चीन में वर्तमान के शान्शी प्रांत में हुआ था। बचपन से ही उसके माता पिता ने उसे विहार में ले जाकर सामणेर बना दिया था। भिक्षु-नियमों के बारे में अधिक जानने की चाह से फाह्यान ने भारत की ओर रूख किया।
वह मेसोपोटामिया, गोबी से होता हुआ तुर्फान पहुंचा। तकलामकान के रेगिस्तान को 35 दिन में बड़ी कठिनाई से पार कर वह खोतान पहुंचा। खोतान चार सदियों पहले ही बौध्द देश था। यहां के भिक्खुओं को देखकर वह बहुत खुश हुआ। खोतान से 54 दिन चलने के बाद वह कश्मीर पहुंचा और फिर पंजाब। पंजाब में पवित्र स्थानों के दर्शन के बाद वह बंगाल पहुंचा। ताम्रलिप्ती (तमलुक) से जहाज द्वारा वह सिंहल गया। सिंहल के विभिन्न विहारों में रहकर उसने कई सारी बातें नोट की। इस तरह देश-देशांतर में घूमते वह चीन लौटने के लिए जावा पहुंचा और 5 महिने जावा में बिताने के बाद वह चीन लौट गया। राजा और प्रजा सबने उसका बड़ा सम्मान किया। फाह्यान शेष जीवन विहारों में विनय पिटक का प्रचार करते 86 वर्ष की उम्र में परिनिब्बुत्त हुए।

फाह्यान अपने मध्य एशिया की यात्रा के लिए काफी प्रसिध्द हुआ। उसने तुर्कों, कास्पियन समुद्र के पास बसने वाली जातियों और अफगानिस्तान में बौध्द धर्म को बड़ी समृध्द अवस्था में में देखा(बौध्द संस्कृति, पृ. 378-379)।
धर्मकीर्तिजी लिखते हैं कि फाह्यान ईस्वी 408 में नालंदा विश्वविद्यालय आया था। उसने काश्गर की ‘पंच परिषद’ में भाग लिया। पेशावर में सम्राट कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप देखा। उसने बौध्द धर्म के हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त किए। विनय पिटक आदि ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार की और 6 वर्ष भारत में बिता कर वह सिंहल पहुंचा। वहां वह 2 वर्ष ठहर कर जल मार्ग से 90 दिन में जावा पहुंचा और वहां से अपनी जन्मभूमि चीन(भगवान बुद्ध का इतिहास और धम्म दर्शन: पृ. 385)।

फाह्यान हमें बताता है कि मथुरा से दक्षिण की ओर का प्रदेश ‘मध्य देश’ कहलाता था।यह प्रदेश ब्राह्मण-धर्म का दृढ़ केन्द्र था। सारे देश में लोग जीव-हत्या नहीं करते, न नशेदार पदार्थ पीते हैं और प्याज या लहसुन भी नहीं खाते। केवल चाण्डाल ही ऐसा करते हैं। क्रय-विक्रय में कौड़िया प्रयोग होती हैें। फाह्यान वर्णन करता हैं कि चाण्डाल लोग अन्य लोगों से अलग रहते हैं। वे शहर या बाजार में जाते थे तो अपने आने की सूचना में उन्हें लकड़ी से आवाज करनी पड़ती थी ताकि दूसरे लोग उनसे छू कर अपवित्र न हो जाऐ(प्राचीन भारत का इतिहासः वी डी महाजन, पृ. 497) )।

फाह्यान के वर्णनानुसार उस समय सारीपुत्त, मोग्गल्यायन  तथा आनन्द और अभिधम्म, विनय सुत्तों के सम्मान में पगोड़े बनाये जातें थे। भिक्षुओं की वार्षिक वापिसी के पश्चात् उनके लिए विभिन्न वस्त्र तथा अन्य वस्तुएं जुटाने के लिए धार्मिक परिवार चन्दा इकट्ठा करते थे। भ. बुध्द के निर्वाण के समय से राजा, सरदार और गृहस्थ सभी ने भिक्षुओं के लिए विहार बनवाए हैं और उनके लिए खेत, घर, बाग, सेवक और पशु दान में दिए हैं। ताम्र-पत्रों पर लिख कर विहारों की सम्पत्ति उनके लिए आरक्षित कर दी जाती है। सभी स्थानीय भिक्षु जिन्हें विहारों में कमरे दिए जाते हैं, उन्हें बिस्तर, चारपाइयां, खाना, पेय पदार्थ आदि भी मिलते हैं। वे अपना समय दया-धर्म के कार्य करने, धार्मिक पुस्तकों का पाठ करने और आत्म-चिन्तन में व्यतीत करते हैं। यदि कोई विदेशी यात्री किसी विहार में आता है तो उसकी पदवी पूछकर उसका यथोचित सम्मान किया जाता है(वही,  पृ. 498)।

पाटलिपुत्र और अशोक के महल से फाह्यान अत्यन्त प्रभावित था। अशोक के बनवाए एक स्तूप के निकट दो विहार थे। एक में महायान और दूसरे में हिनयान शाखा के बौध्द भिक्षु रहते थे। दानों विहारों में 600-700 भिक्षु रहते थे। भिक्षु अपनी विद्वता के लिए इतने प्रसिध्द थे कि दूर-दूर से विद्यार्थी तथा जिज्ञासु उनके भाषण सुननें आते थे। स्वयं फाह्यान ने संस्कृत भाषा सीखने में तीन वर्ष लगाए( वही, पृ. 498-99)।

फाह्यान बताता है कि गया शहर खाली और उजड़ा हुआ था। बोधगया के पवित्र स्थानों के चारों ओर जंगल बन गए थे। कपिलवस्तु और कुशीनगर के पवित्र स्थान भी उजाड़ और खाली थे। बहुत थोड़े भिक्खु और उनके सेवक अब भी उनकी पवित्रता और अपनी श्रध्दा के कारण वहां रहते थे और दान पर निर्वाह करते थे(वही, पृ. 499)। 

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