Sunday, November 7, 2010

क्या कभी बदलाव आएगा ?

             बिलासपुर-कटनी रेल्वे रूट पर अनुपपुर,अमलाई,बुढ़ार ८-९ कि मी की दूरी पर पास-पास के स्टेशन हैं. बुढ़ार के बाद शहडोल ३० कि मी है.अनूपपुर तथा बुढ़ार छोटे-मोटे ओद्योगिक नगर हैं जबकि, अमलाई 'ओरियंट पेपर मिल' तथा 'कास्टिक सोडा फेक्टरी' के कारण फेमस है. दुसरे,चचाई जो रेल्वे रूट से हटकर अनुपपुर और अमलाई के बीच  दोनों से  करीब ८-९ की मी दूरी पर स्थित है, थर्मल पावर जनरेशन का बहुत बड़ा केंद्र हैं. और इससे बड़ी बात, ये सभी साऊथ- इस्टर्न कोल बेल्ट में होने के कारण ओद्योगिक क्षेत्र हैं.                
          मैंने अमलाई से ट्रेन पकड़ी थी और गन्तव्य स्टेशन बीरसिंहपुर था. स्टेशनों के  पास-पास होने से कभी-कभी बड़ी कोफ़्त होती है,खास कर जब ट्रेक में स्पीड कम हो.बुढ़ार के बाद अब सीधा शहडोल आना था. मगर, फिर ट्रेन रुकी.मैंने खिड़की के बाहर झाँका.कोई स्टेशन जैसी बात नहीं थी. तभी सिहंपुर का ध्यान आया,जो पिछले ५० वर्षों से बनने की अवस्था में ही चल रहा हैं.हमारे यहाँ स्टेशन बनने में बरसों लगते हैं. मैं दरवाजे के पास वाली बर्थ पर बैठा था. तभी टॉयलेट के तरफ वाले स्पेस से दस-बारह औरतें हडबडाहट में उतरते दिखी. औरतें,जिनमे जवान ज्यादा थी,मटमैले थैले और गठरियाँ सिर पर लादे ट्रेन से उतरी और रेल्वे ट्रेक पार करते हुए गाँव की पगडण्डी की ओर सरपट भागने लगी. दूर घरों से धुंआ उठते हुए कच्चे मकानों वाला गाँव, मैं खिड़की से देख रहा था.
           मगर, ये क्या ? औरतों के सिर पर थैले ओर गठरियों के अलावा चप्पलें भी लटक रही थी. प्रथम दृष्टया ये मुझे बेवकूफी नजर आयी. आखिर, चप्पलें सिर पर लटकाने की क्या जरूरत है ? ठीक है, उतरने की अफरा-तफरी में पैर से निकाल लिया होगा. मगर वे घर ही जा रही थी,ट्रेन से  उतर कर आराम से पहन सकती थी ?
            एकाएक मुझे ३०-३५ वर्ष पहले गाँव में बचपन के दिन याद आये.घर के सभी सदस्यों के बीच 'एसाइन किये गये वर्क' के तहत मेरा काम सबेरे उठ कर  मुंह-अँधेरे में जानवरों को बांधे जाने वाले कोठे से गाय-बैलों को निकाल आंगन में बांध वहां की साफ-सफाई करना था. इस चक्कर में, जानवरों के मूत्र से सना  घास और गोबर बड़े से डल्ले में सिर पर रख कर दूर बाड़ी  के किनारे बने घूरे में फैकना होता था. और ये कार्य मैं, बदन पर पहनी बनियान या शर्ट निकाल कर नंगे-बदन किया करता था फिर चाहे मौसम गर्मी का हो या ठण्ड  का. निश्चित रूप से वैसा उस समय मैं, सिर पर रखे गोबर-मूत्र के रिसाव से अपनी बनियान या शर्ट को गन्दा होने से बचाने के लिए करता था.प्रथम दृष्टया यह दृश्य किसी को भी बेवकूफी नजर आ सकता है.मगर, गाँव में साबुन-सोडा इतनी आसानी से मिलता कहाँ हैं ?

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