Thursday, December 27, 2018

अनुज्ञा परस्सपद

आओ पालि सीखें
इन क्रियाओं का ध्यान से देखें-
देहि- दो(क्रिया- देति)।  वदेहि- कहो( क्रिया- वदति)।
पठाहि- पढ़ो(क्रिया- पठति)। खमतु- क्षमा करे(क्रिया- खमति) आदि अनुज्ञा परस्पद की क्रियाएं हैं।
अनुज्ञा परस्सपद
क्रिया ‘पठति’(धातु पठ) का प्रयोग
अनुज्ञा परस्सपद आदेश, प्रार्थना, सलाह, इच्छा आदि को व्यक्त करने प्रयोग होता है।
पुरिस एकवचन अनेकवचन
उत्तम पुरिस          अहं पठामि। मयं पठाम।
मैं पढ़ूं। हम पढ़ें।
मज्झिम पुरिस   त्वं पठ/पठाहि। तुम्हे पठथ।
तुम पढ़ो। तुम लोग पढ़ो।
पठम पुरिस            सो पठतु।  ते पठन्तु।
वह पढ़े। वे पढ़ें।
वाक्य रचना-
इध(यहां) आगच्छ/आगच्छाहि(आओ)।
सदा माता-पितुन्न वचनकरा भवथ(हों)।
अनुपाहनेन(जूते-चप्पलों के) बिना मा चलथ(चलो)।
मम(मेरा) आसयं(आश्य) सुणोतु(सुनो)।
दन्ते(दोतों को) मञ्जेय (मांजो)।
इदानि(ये) पोत्थकानि यथा ठानं ठापय(रखो)।
द्वारं उग्घाटेतु(खोलो)।
सतं वस्सं(वर्ष) जीवतु(जीवो)।
यानं मन्दं चालेतु।
आसन्दं इध आनेतु।
विजनं(फंखा) चालेतु।
अजयं(अजय को) इदं(यह) सूचेतु(सूचित करो)।
अज्ज चलचित्तं पस्साम(देखते हैं)।
अवगच्छन्तु(समझे)?
आम, अवगच्छाम(समझ गए)।
यमहं(एवं-अहं)(जैसे मैं) वदामि तं(उसे) वदेहि/वदेथ(कहो)।

अनुज्ञा परस्सपद के (निषेधात्मक) वाक्यों में ही ‘मा(मत)’ का प्रयोग होता है-
मा(मत) गच्छ(जाओ)।
मा अगमासि(आओ)।
मा अठासि(खड़े हो)।
मा भुञ्जि(खाओ)।
अनुपाहनेन बिना मा चलथ(चलो)।
-अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Tuesday, December 25, 2018

पुप्फ पूजा

पुप्फ पूजा 
वण्ण-गन्ध-गुणोपेतं,  एतं कुसुम-सन्ततिं।
वण्ण(वर्ण)-गधं और गुण-उपेतं(गुणों से युक्त) एतं(ऐसे) कुसुम-गुन्थित सन्तति(माला) से
पूजयामि   मुनिन्दस्स,  बुध्दपाद1 -सरोरूहे।।
पूजयामि(मेरे द्वारा पूजा की जाती है) मुनिन्दस्स(महामुनि), बुद्ध के पाद सरोरुहे(कमलों) की।

पूजेमि  बुध्दं  कुसुमेन-नेन, पुञ्ञेन  मेत्तेन लभामि मोक्खं।
मैं पूजा करता हूँ, बुध्दं(बुध्द की) कुसुमेन-अनेन(इन पुष्पों के द्वारा) पुञ्ञेन(पुण्य से), मेत्तेन(मैत्राी से) लभामि(लाभ प्राप्त होता है, मुझे) मोक्खं(निब्बान) का।

पुप्फं मिलायति यथा इदं मे, कायो तथा याति विनासभावं।।
पुप्फं(पुष्प) मिलायति(कुम्हलाता है) जैसे(यथा), इदं मे(यह मेरी) काया वैसे ही(तथा) विनाश-भाव को याति(जाती है)।  प्रस्तुति- अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com
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1. मूलपाठ- सिरिपाद। संस्कृत शब्द ‘श्री’ को पालि में ‘सिरि’ कहा गया है। ‘श्री’ का अर्थ ‘लक्ष्मी’ से अभिप्रेरित है। बौद्ध ग्रंथों का भाषानुवाद जब संस्कृत में हुआ, उस काल में इस तरह के कई शब्दों का प्रयोग, चाहे-अनचाहे संस्कृत विद्वानों द्वारा किया गया। किन्तु अब ऐसे अ-बौद्ध शब्दावली का स्थानापन्न चरणबध्द रूप से करने की आवश्यकता है। 


Saturday, December 22, 2018

तीनों काल में किरिया(क्रिया) के रूप-

2. तीनों काल में कुछ क्रियाओं के रूप-
  1. वर्तमानकाल      भूतकाल अनागतकाल
  2. करोति(करना) करि करिस्सति
  3. चलति(चलना)- चलि चलिस्सति
  4. धावति(दौड़ना) धावि  धाविस्सति
  5. खादति(खाना)- खादि  खादिस्सति
  6. वदति(कहना)- वदि  वदिस्सति
  7. पूजति(पूजा करना) पूजि  पूजिस्सति
  8. पठति(पढ़ना)-       पठि  पठिस्सति
  9. लिखति(लिखना)- लिखि  लिखिस्सति
  10. याचति(याचना करना)- याचि  याचिस्सति
  11. पिबति(पीना)- पिबि  पबिस्सति
  12. नच्चति(नाचना)- नचि नच्चिस्सति
  13. गायति(गाना)- गायि  गायिस्सति
  14. वादेति(बजाना)- वादि  वादिस्सति
  15. सुणोति(सुनना)- सुणि  सुणिस्सति
  16. धोवति(धोना)-   धोवि धोविस्सति
  17. वसति(निवास करना)- वसि  वसिस्सति
  18. रुदति(रोना)- रुदि  रुदिस्सति
  19. होति(होना) अहोसि  हेस्सति
  20. भवति(होना)  भवि भविस्सति
  21. सयति(सोना)- सयि  सयिस्सति
  22. पतति(गिरना)  पति  पतिस्सति
  23. पुच्छति(पूच्छना) पुच्छि  पुच्छिस्सति
  24. गण्हाति(ग्रहण करना) गण्हि  गण्हिस्सति
  25. लभति(प्राप्त करना)  लभि  लभिस्सति
  26. चजति(त्याग करना)  चजि चजिस्सति
  27. वदति(बोलना)  वदि  वदिस्सति
  28. भासति(बोलना)  भासि भसिस्सति
  29. हसति(हंसना)  हसि  हसिस्सति
  30. रक्खति(रक्षा करना)  रक्खि  रक्खिस्सति
  31. खिप्पति(फैंकना)  खिप्पि खिप्पिस्सति
  32. निसीदति(बैठना)- निसीदि  निसीदिस्सति
  33. उट्ठहति(उठना)  उट्ठहि  उट्ठहिस्सति
  34. सेवति(सेवा करना)-  सेवि  सेविस्सति
  35. कम्पति(काम्पना)     कम्पि   कम्पिस्सति
  36. इच्छति(इच्छा करना)   इच्छि  इच्छिस्सति
  37. देति/ददाति(देना)  ददि  ददिस्सति
  38. भु×जति(खाना) भुि×ज  भुि×जस्सति
  39. जलति(जलना)- जलि  जलिस्सति
  40. पापुणोति(प्राप्त करना)  पापुणि  पापुणिस्सति
  41. पप्पोति(पाना)  पप्पोसि  पप्पोस्सति
  42. अधिगच्छति(प्राप्त करना)  अधिगच्छि अधिगच्छिस्सति
  43. अवगच्छति(समझना) अवगच्छि अवगच्छिस्सति
  44. कत्तेति(कातना) कत्तेसि  कत्तेस्सति
  45. लज्जति(लज्जाना)- लज्जि लज्जिस्सति
  46. सोभति(सोभा देना) सोभि  सोभिस्सति
  47. रुच्चति(रुचिकर लगना)  रोचि  रोचिस्सति
  48. निन्दति(निन्दा करना)  निन्दि  निन्दिस्सति
  49. जीवति(जीना)  जीवि  जीविस्सति
  50. पालेति(पालना)  पालेसि  पालेस्सति
  51. पवहति(प्रवाहित होना) पवहि  पवहिस्सति
  52. नहायति(नहाना)  नहायि  नहायिस्सति
  53. पाठेति(पढ़ाना)  पाठेसि  पाठेस्सति
  54. आचरति(आचरण करना)  आचरि  आचरिस्सति
  55. सरति(स्मरण करना)  सरि  सरिस्सति
  56. पेसेति(प्रेषित करना)  पेसेसि  पेसेस्सति
  57. पसंसति(प्रसंशा करना)  पसंसि  पसंसिस्सति
  58. सिब्बति(सिलाई करना)  सिब्बि  सिब्बिस्सति
  59. तिट्ठति(खड़ा होना)  तिट्ठि  तिट्ठिस्सति
  60. जानाति(जानना)  जानि  जानिस्सति
  61. सक्कोति(सकना)  सक्कि  सक्किस्सति
  62. गच्छति(जाना)  गच्छि  गच्छिस्सति
  63. आगच्छति(आना)  आगच्छि  आगच्छिस्सति
  64. नेति(ले जाना)  नेसि  नेस्सति
  65. आनेति(लाना)  आनेसि  आनेस्सति
  66. आरोहति(नीचे उतरना)  आरोहि  आरोहिस्सति
  67. ओतरति(उतरना)  ओतरि    ओतरिस्सति
  68. भमति(घूमना) भमि  भमिस्सति
  69. फलति(फलना)  फलि  फलिस्सति
  70. पविसति(प्रवेश करना)  पविसि  पविसिस्सति

Friday, December 21, 2018

धार्मिक आतंक

धार्मिक आतंक 
'आदमी से अधिक गाय की अहमियत' मोदी काल पर प्रसिद्द सिने अभिनेता नसरुद्दीन साह का गुस्सा सही में डर पैदा करता है. इसके पहले आमिर खान ने इस पर खुल कर बोलने की हिम्मत की थी. निस्संदेह देश का मुस्लिम डरा हुआ है, गुस्से में है. मुस्लिम समाज के ऐसे प्रतिष्ठित लोग, जो एक मुकाम हासिल कर चुके हैं, भी इस खौप को खुले में कहने से डरते हैं. क्योंकि उन्हीं के घरों के आस-पास अनुपम खेर जैसे लोग भी रहते हैं जो इस धार्मिक आतंक को 'बुद्धिजीवियों की गेंग' कह कर तरफदारी करते हैं ! 
और मुस्लिम ही क्यों, दलित क्या कम डरे हैं ? क्रश्चियन क्या कम डरे हैं ? बात हिम्मत की है, बेशक मुस्लिम समाज ने बड़ी ही बहादूरी से इस डर का मुकाबला किया है. दलित समाज इसके लिए उन्हें सलाम करता है. वर्तमान में, हिंदी राज्यों में कांग्रेस का उभरना फिलहाल हम समझते हैं, इस दक्षिणी धूर्व के डैने फैलाते गिद्ध के परों को कतरेगा, शक्ति कम करेगा.
गाय हो या सुअर, ये पशु हैं. आदमी और पशु में अन्तर है. जो भी हो, आदमी पशु नहीं हो सकता ? आदमी को हर हालत में आदमी बने रहना है. उसे आदमी और पशु में हर हालत में फर्क समझना है. सत्ता का मद आदमी को पशु नहीं बनाता. सनद रहे, जिन्होंने सत्ता के मद में आदमी को पशु समझा है, इतिहास ने उन्हें माफ़ नहीं किया है . उनके शरीर पर कीड़ें पड़े हैं.  

Tuesday, December 18, 2018

विभक्ति

पाठ 2
विभक्ति
संस्कृत की तरह पालि में भी 8 विभक्तियां होती हैं- पठमा, दुतिया, ततिया, चतुत्थी, पंचमी, छट्ठी, सत्तमी, आलपण। अकारान्त, आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, ऊकारन्त आदि शब्दों के रूप थोड़े अलग- अलग होते हैं।
बुद्ध(अकारान्त पुल्लिंग)
कारक विभक्ति           एकवचन                  अनेकवचन
पठमा(कर्ता) ने             बुद्धो                         बुद्धा
दुतिया(कर्म) को                     बुद्धं                          बुद्धे
ततिया(करण)         से,द्वारा               बुद्धेन                        बुद्धेहि,बुद्धेभि
चतुत्थी(सम्प्रदान) को,के,लिए        बुद्धाय, बुद्धस्स बुद्धानं
पञ्चमी(अपादान)   से                    बुद्धा,बुद्धम्हा,बुद्धस्मा   बुद्धेहि,बुद्धेभि
छट्ठी(सम्बन्ध) का,के,की           बुद्धस्स                      बुद्धानं
सत्तमी(अधिकरण)   में,पर,पास        बुद्धे,बुद्धेम्हि,बुद्धिेस्मिं   बुद्धेसु
आलपण (सम्बोधन) हे, अरे!            बुद्ध! बुद्धा!                   बुद्धा!
अभ्यास-
1. पालि में केवल दो वचन होते हैं- एकवचन, अनेकवचन(बहुवचन)।
2. विभक्तियों को आप ऐसे याद कर सकते हैं- कर्तरि, कम्मत्थे, साधने, दानत्थे, विच्छेदे, सम्बन्धे, आधारे, सम्बोधने।
3. चतुत्थी और छट्ठी के विभक्ति रुप बहुधा समान होते हैं। इसी प्रकार ततिया और पञ्चमी के अनेकवचन में कारक रूप बहुधा समान होते हैं। पञ्चमी की विभक्ति ‘से’ दूरी को दर्शाती है।
4.अन्य अकारान्त (पु.) शब्द- धम्म, संघ, नर, मनुस्स, जनक, पुत्त, सहोदर, मातुल(मामा), किंकर(नौकर), धनिक, सिंह, सावक, गज, अज(बकरा), अस्स(घोड़ा), गदभ(गदहा), कुक्कुर/सोण(कुत्ता), वानर, महिस(भैंस), सकुण(चिड़िया), काक(कौआ), सुक(तोता), बक(बगुला), मोर, सप्प(सांप), नकुल, निगम, गोप(ग्वाला), पब्बत, तड़ाग(तालाब), लोहकार, सुवण्णकार, कुम्भकार, आचरिय(आचार्य), सिस्स(सिस्य), समुद्द(समुद्र), रुक्ख, अनल(आग), अनिल(हवा), आकास, सुरिय, चन्द, लोक, संसार, पोत, रथ, गाम, देस, भूप, पासाद, मज्जार(बिल्ली), बिडाल(बिल्ला), पमाद(प्रमाद), खय(क्षय), सारम्भ(झगड़ा) आदि।

5. अकारान्त (नपुं) शब्द- नगर, रट्ठ(राष्ट्र), पण्ण(पत्ता), मूल, तीर, खेत, जल, खीर, मंस(मांस), फल, पुप्फ, धञ्ञ(धान), सुवण्ण(सुवर्ण), पाप, कुल, नेत्त(नेत्र), मत्थक(मस्तक), सोत, मुख, पीठ, हदय, मञ्च, भत्त, धन, सुख, दुक्ख, कारण, बिम्ब, पोत्थक, चित्त, पुञ्ञ, हिरञ्ञ(सोना), आयुध, चीवर, ओदन(भात), ञाण(ज्ञान), वन, अरञ्ञ (जंगल) आदि।

‘फल’(अकारान्त नपुंसकलिंग )
पठमा         फलं फला,फलानि
दुतिया फलं फले,फलानि
-शेष रूप ‘बुध्द’ शब्द के समान।
-अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

Friday, December 14, 2018

वर्ण परिचय

आओ पालि सीखें-
वर्ण परिचय
बुद्धकाल में हुए भदन्त कच्चायन ने पालि भाषा का व्याकरण तैयार किया था। उन्होंने उसमें  8 स्वर और 33 व्यंजन, इस तरह  41 वर्ण माने थे। स्मरण रहे, वैदिक भाषा में 64 और संस्कृत भाषा में 50 अक्षर होते हैं। भदन्त कच्चायन के अनन्तर भदन्त मोग्गलायन ने अपने व्याकरण में 10 स्वर और 33 व्यंजन माने जिसमें  स्वरों में ‘ऐ’ और ‘औ’  को और मिलाया गया था। किन्तु वर्तमान में कच्चायन व्याकरण ही मान्य है जिस में 8 स्वर और 33 व्यंजन होते हैं-
स्वर : अ  आ  इ  ई  उ  उ  ए  ओ
व्यंजनः क
 च झ  ञ
 ट
 त
 प
 य
 स अं

1. पांच-पांच वर्ण के पांच वर्ग होते हैं, जैसे क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग। क वर्ग में क ख ग घ ड ये पांच वर्ण आते हैं, इस प्रकार 33 वर्ण हैं। प्रत्येक वर्ग का पांचवां वर्ण ‘अनुनासिक’ होता है।
2. पालि में अं( ं ) को निग्गहित(अनुस्वार) कहते है। इसे व्यंजन माना जाता है। इसका उच्चारण ‘अं ’ और ग को मिलाकर किया जाता है। जैसे,  बुद्धं = बुद्ध-अं।
3. ङ और अं के उच्चारण में कोई अन्तर नहीं होता। ‘ङ’ कभी भी शब्द के अन्त में नहीं आता है, बल्कि उसके साथ सदैव उसी वर्ग का कोई व्यंजन रहता है।
4. ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ का उच्चारण ‘ह’ ध्वनि के साथ किया जाता है।
5.  पालि भाषा में विसर्ग( : ) और हलन्त( ् ) का प्रयोग नहीं होता है। सभी शब्द स्वरान्त होते हैं।
6. पालि में ‘ऋ’ वर्ण नहीं होता। इसके स्थान पर अ, इ, उ  वर्ण प्रयोग होते हैं।
यथा-  गृह - गहं। नृत्यं- नच्चं। यहां अ का उच्चारण हुआ।
ऋण- इणं। ऋषि - इसि। यहां ‘ऋ’ का इ और ‘षि’ का सि हुआ।
ऋतु- उतु। ऋषभ- उसभ। यहां ‘ऋ’ का उ हुआ।
7. पालि में मूर्धन्य ‘ष’ तथा तालव्य ‘श’ नहीं होते हैं। इन दोनों के स्थान पर दन्त्य स का प्रयोग होता है।
 यथा- यश- यस। शिष्य- सिस्स आदि।
8. हिन्दी का क्ष पालि में ‘क्ख’  हो जाता है। यथा-  शिक्षा- सिक्खा आदि।
9. इसी प्रकार ‘ऐ’ और ‘औ’ पालि में ए और ओ हो जाता है। यथा-
ऐरावण- एरावण। वैमानिक- वेमानिक। वैयाकरण- वेयाकरण।
कभी.कभी ‘ऐ’ का इ अथवा ई हो जाता है। यथा-
गैवेयं- गीवेय्यं। सैन्धव- सिन्धवं। औदरिक- ओदरिक। दौवारिक- दोवारिक।
कभी.कभी ‘औ’ का अथवा उ हो जाता है। यथा-
मौत्त्किक- मुत्तिक। औद्धत्य- उद्धच्च।
10. पालि में आधा 'र ’ नहीं होता। उसके स्थान पर निम्नानुसार शब्द-रूप बनते हैं-
कर्म- कम्म। सर्व- सब्ब। तर्हि- तरहि। महार्ह- महारहो। आर्य- अरिय। सूर्य- सूरिय। भार्या- भरिया। पर्यादान- परियादान। कृत- कित। प्रेत- पेतसमग्र- समग्ग। इन्द्र- इन्दो, आदि।
 -अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

Thursday, December 13, 2018

'सत्ता परिवर्तन' में दलित नेता ?

मध्य भारत के तीन बड़े राज्यों में भाजपा से सत्ता छिनना दलित परिप्रेक्ष्य में, देश के जन-तांत्रिक ढाँचे के लिए एक बड़ी उपलब्धि के साथ आशा का सन्देश है. मगर, इस 'सत्ता परिवर्तन' में रामविलास पासवान, उदितराज जैसे दलित नेताओं की चुप्पी बेहद डरावनी है ! रामदास आठवले सुर्ख़ियों में आए भी तो 'थप्पड़ खाने' जैसे असोभनीय प्रसंग में ? सनद रहे, भाजपा में होते हुए भी SC/ST Atrocity सम्बन्धी मामलों पर इन नेताओं ने बेहद कड़ा रुख अख्तियार किया था, जिसे हम इतने शीघ्र विस्मृत नहीं कर सकते.

Wednesday, December 12, 2018

बसपा में स्थानीय नेतृत्व ?

बहुजन समाज पार्टी के संगठणात्मक ढाँचे से प्रतीत होता  है कि बहन मायावती, किसी तगड़े दावेदार से आवश्यकता से अधिक आशंकित रहती है और यही कारण है कि उ प्र सहित चाहे जो स्टेट हों, किसी सशक्त नेतृत्व को उभरने नहीं दिया जाता. हमने म प्र में फुलसिंग बरैया का हश्र देखा है.
बेशक, देश में बसपा चौतरफा जनाधार वाली पार्टी है. मगर, इसका श्रेय बहन मायावती से कहीं अम्बेडकर-मूव्हमेंट को है जिसकी पैठ और व्यापकता दलित-आदिवासियों से लेकर ओबीसी और अल्पसंख्यकों तक है. कांसीराम साहब और उनसे उत्तराधिकार में प्राप्त यह आन्दोलन बहन मायावती के कन्धों पर स्वाभाविक रूप से है.
दलित, स्वाभाविक रूप से बसपा को अपनी पार्टी मानते हैं. वे दलित, जो किन्हीं कारणों-वश विरोधी पार्टियों में हैं, बसपा को 'दलित स्वाभिमान' के रूप में ही देखते हैं. सवाल है, आप प्रभारी भेज कर कब तक काम चलाओगे ? प्रभारी की अपनी सीमा होती है. आखिर, म प्र में स्थानीय नेतृत्व को क्यों उभरने नहीं दिया जाता ?

Sunday, December 9, 2018

बौद्ध धर्मान्तरण का प्रश्न ?

बौद्ध धर्मान्तरण का प्रश्न ?
भारतीय समाज धर्म के खानों में बंटा है है है. यहाँ बिना धर्म के आप रह नहीं सकते, कानूनी या व्यवहार में. यहाँ आपको किसी न किसी खाने में रहना होता है, वर्ना आप सरवाईव नहीं कर सकते. बौद्ध धर्म ही सबसे अच्छी च्वाईश थी, तब बाबासाहेब अम्बेडकर के पास. लगातार 30 वर्ष सतत मनन और अध्ययन के बाद 1956 में अन्तत; उन्होंने इस पर अमल किया. बात सिर्फ एक अकेले बाबासाहेब की नहीं थी, उनके दलित-शोषित समाज की थी, जिनके मानवीय अधिकारों का प्रश्न उनके अपने व्यक्तित्व से बड़ा था. 
प्रश्न, अम्बेडकर को प्रश्नगत करने या न करने का नहीं है, और न प्रश्न करने वाले की योग्यता और हैसियत का ? प्रश्न बेशक, किए जाने चाहिए. और होते रहेंगे. क्योंकि इससे चिंतन के नए-नए आयाम खुलते हैं. प्रश्न ति-पिटक में घुसे ब्राह्मणवाद से है, तो निस्संदेह उसे दूर किया जाना चाहिए और बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा लिखित 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' उसी दिशा में कदम था. किन्तु अगर प्रश्न अम्बेडकर मुव्हमेंट को कटघरे में करने का है तो उसके दुष्परिणामों की भी चिंता उसी सिद्दत से की जानी चाहिए. आरएसएस और विश्व-हिन्दू परिषद के लोग तो तके बैठे हैं, इसे डायलुट और दिशा-भ्रम करने ?

Saturday, December 8, 2018

अट्ठङग उपोसथ-सीलं

अट्ठङग उपोसथ-सीलं
1. पाणातिपाता वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि ।। 1।।
    मैं पाणा-इति-पाता(प्राणी-हिंसा) से विरति(विरत रहने) की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
2. अदिन्नादाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 2।।
    मैं जो दिया गया न हो(अदिन्न) को न लेने (अ-दाना)  की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
3. असाधुचरिया1 वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 3।।
    मैं असाधु- आचरण (चर्या) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
4. मुसावादा वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 4।।
   मैं झूठ(मूसा) वचन(वादा) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ .
5. सुरा मेरय मज्जप्पमादट्ठाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 5।।
    मैं सुरा, मेरय, मज्ज(मद्य) और प्रमाद उत्पन्न होने के स्थान (प्रमाद-ट्ठाना) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण         करता/करती हूँ .
6. विकाल-भोजना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 6।।
    मैं विकाल(दोपहर 12 बजे से के बाद) भोजन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
7. नच्च-गीत वादित-विसूकदस्सन माला-गंध-विलेपन-धारण-मण्डन-विभूसनट्ठाना वेरमणी, सिक्खापदं            समादियामि।। 7।।
    नाच-गाना, बजाना, विसूकदस्सन(अशोभनीय खेल-तमाशे देखना), माला, सुगंध, विलेपन, मण्डन-                   विभूसनट्ठाना(सिंगार आदि स्थान) से विरत रहने की मैं शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।
8. उच्चासयन-महासयना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।। 8।।
    मैं ऊंचे, महासयना(विलासिता-पूर्ण सयन) से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता/करती हूँ।

भन्ते-   तिसरणेन सह अट्ठङग समन्नागतं उपोसथ-सीलं धम्मं साधुकं सुरक्खितं कत्वा अप्पमादेन                           सम्पादेहि।
  ति-सरण  के साथ (ति-सरणेन सह) आठ अंगों से(अट्ठङग) युक्त (समन्नागतं) उपोसथ सील-धम्म को साधुकं(भलि-भांति) सुरक्खितं कत्वा(सुरक्षित कर) अ-पमादेन(अ-प्रमाद के साथ) सम्पादेहि(सम्पादन करो)।

उपासक/उपासिका- आम, भंते!

अभ्यास
अट्ठङग- आठ अंग। समन्नागतं- युक्त। असाधुचरिया- असाधु-आचरण।
विकाल भोजन- दोपहर 12 बजे के बाद किया जाने वाला भोजन।
नच्च-गीत वादित- नाच-गाना बजाना। विसूकदस्सन- अ-शोभनीय(वि-सूक) खेल-तमाशे देखना। माला-गंध- माला, सुगन्ध।विभूसनट्ठाना- आभूषण आदि धारण करने के स्थान। महासयना- विलासिता-पूर्ण सयन । समादियामि- मैं अंगीकार करता हू।
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1. मूलपाट- अब्रह्मचरिया।  देवी, देवता, स्वर्ग, नरक, ईस्वर, ब्रह्मा, श्री, ओंकार आदि अबौद्ध संस्कृति के शब्द हैं। यथा प्रयास इनका स्थानापन्न आवश्यक है।
उक्त आठ शील बौद्ध उपासक/उपासिका अथवा सामणेर/ सामणेरी उपोसथ के समय पालन करते हैं। महावग्ग(अंगुत्तर निकाय)  के उपोसथ सुत्त में बुद्ध ने मिगारमाता(विसाखा) को उपोसथ की महिमा बतलाते हुए इन आठ शीलों को सही अर्थों में पालन करने कहा है। दोनों पक्ष की अष्टमी, अमावस की चतुर्दशी और शुक्लपक्ष की पूर्णिमा; ये चार दिन उपोसथ के दिन माने जाते हैं।
-अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Thursday, December 6, 2018

अम्बेडकर

यूं तो गुलशन में पैदा हुए, गाँधी और नेहरू भी।
मगर, फुल खिलें हैं जुबां-जुबां पर, तो अम्बेडकर ही।
कि तासीर हम कहें क्या उनकी, और उनके कैफियत की।
ढूंढते हैं, लोग निशां उनके, दरो और दीवारों पर।
कि करोगे क्या, शोहरत और पैसा, सब धरे रह जाएँगे,
लटका के जब हाथ चले जाओगे, इन्ही मीनारों पर।

Wednesday, December 5, 2018

वर्ण परिचय

 पाठ 1
वर्ण परिचय
बुद्धकाल में हुए भदन्त कच्चायन ने पालि भाषा का व्याकरण तैयार किया था। उन्होंने  उस में  41 वर्ण और 33 व्यंजन माने थे। स्मरण रहे, वैदिक भाषा में 64 और संस्कृत भाषा में 50 अक्षर होते हैं। भदन्त कच्चायन के अनन्तर भदन्त मोग्गलायन ने अपने व्याकरण में ‘ऐ’ और ‘औ’ को मिलाकर 10 स्वर और व्यंजन 33  ही माने। वर्तमान में कच्चायन व्याकरण ही व्यवहार में है, जिस में निम्नानुसार  8  स्वर और 33  व्यंजन होते हैं-
स्वर : अ  आ  इ  ई  उ  उ  ए  ओ
व्यंजनः क
 च झ  ञ
 ट
 त
 प
 य
 स अं
1. पांच-पांच वर्ण के पांच वर्ग होते हैं, जैसे क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त
वर्ग, प वर्ग। क वर्ग में क ख ग घ ङ ये पांच वर्ण आते हैं, इस प्रकार
33 वर्ण हैं। प्रत्येक वर्ग का पांचवां वर्ण ‘अनुनासिक’ होता है।
2. पालि में अं को निग्गहित(अनुस्वार) कहते है। इसे व्यंजन माना जाता है। इसका उच्चारण ‘अं ’ और ग को मिलाकर किया जाता है। जैसे बुद्धं = बुद्ध - अं।
3. ङ और अं के उच्चारण में कोई अन्तर नहीं होता। ‘ङ’ कभी भी शब्द के अन्त में नहीं आता है, बल्कि उसके साथ सदैव उसी वर्ग का कोई व्यंजन रहता है।
4. ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ का उच्चारण ‘ह’ ध्वनि के साथ किया जाता है।
5.  पालि भाषा में विसर्ग( : ) और हलन्त( ् ) का प्रयोग नहीं होता है। सभी शब्द स्वरान्त होते हैं।
6. पालि में ‘ऋ’ वर्ण नहीं होता। इसके स्थान पर अ, इ, उ  वर्ण प्रयोग होते हैं। यथा-   गृह - गहं। नृत्यं- नच्चं। यहां अ का उच्चारण हुआ।
ऋण- इणं। ऋषि - इसि। यहां ‘ऋ’ का इ और ‘षि’ का सि हुआ।
ऋतु- उतु। ऋषभ- उसभ। यहां ‘ऋ’ का उ हुआ।
7. पालि में मूर्धन्य ‘ष’ तथा तालव्य ‘श’ नहीं होते हैं। इन दोनों के स्थान पर दन्त्य स का प्रयोग होता है। यथा-  यश- यस। शिष्य- सिस्स आदि।
8. हिन्दी का क्ष पालि में ‘क्ख’  हो जाता है। यथा-  शिक्षा- सिक्खा आदि।
9. इसी प्रकार ‘ऐ’ और ‘औ’ पालि में ए और ओ हो जाता है। यथा-
ऐरावण- एरावण।
वैमानिक- वेमानिक।   वैयाकरण- वेयाकरण।
कभी.कभी ‘ऐ’ का इ अथवा ई हो जाता है। यथा-
गैवेयं- गीवेय्यं।  सैन्धव- सिन्धवं।
औदरिक- ओदरिक। दौवारिक- दोवारिक।
कभी.कभी ‘औ’ का अथवा उ हो जाता है। यथा-
मौत्त्किक- मुत्तिक। औद्धत्य- उद्धच्च।
10. पालि में ‘आधा र ’ नहीं होता। उसके स्थान पर निम्नानुसार शब्द-रूप बनते हैं-
कर्म- कम्म। सर्व- सब्ब।
तर्हि- तरहि। महार्ह- महारहो।
आर्य- अरिय। सूर्य- सूरिय।
भार्या- भरिया। पर्यादान- परियादान।
कृत- कित। प्रेत- पेत।
समग्र- समग्ग। इन्द्र- इन्दो, आदि।

Sunday, December 2, 2018

बहू-बेटियों की दोहरी जिम्मेदारियां

बहू-बेटियों की दोहरी जिम्मेदारियां 
आजकल हमारी बहू-बेटियां सार्वजनिक/निजी प्रतिष्ठानों में काफी मात्रा में काम करती हैं. परन्तु दोनों के कार्य-प्रकृति के अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. आदमी के लिए मालिक प्रथम होता है. अर्थात वह ड्यूटी पर घर को परे रख, अपने काम और काम के प्रति जिम्मेदार होता है. जबकि बहू-बेटियों के लिए घर अथवा पति प्रथम होता है. वे आफिस में काम करते हुए भी घर की जिम्मेदारी से चाह कर भी अलग नहीं हो पाती. उनकी यह दोहरी जिम्मेदारी कई बार आफिस अथवा घर में कलह का कारण भी बन जाती है. तत्सम्बंध में यह निहायत जरुरी है कि हम अपेक्षित उदारता और सहनशीलता का परिचय दें .

कन्यादान

कन्यादान
दलित समाज के लोग जो अभी हिन्दू संस्कृति और संस्कारों से अलग नहीं हो पाएं हैं, विवाह के अवसर पर 'कन्यादान' की रस्म करते पाएं जाते हैं.'कन्यादान' और उसका महिमागान अनैतिक और असामाजिक है. यह पितृत्व प्रधान समाज की लोप हो रही संस्कृति का हिस्सा है. 

कन्या कोई गाय नहीं जिसे विवाह के अवसर पर दान किया जाए. हम विवाह में पारम्परिक रस्म के तौर उसे दान देकर स्वभावत समाज के सामने:वर के हाथों 'उपभोग की वस्तु' साबित करते हैं. यह सामाजिक कबूलनामा उसे ताउम्र खुद को दान की वस्तु समझने का अहसास दिलाता है, दासी के रूप में प्रस्तुत करने बाध्य करता है.

 'कन्यादान' की रस्म हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम, क्रश्चियन बौद्धों आदि समुदायों में नहीं होती. यह हिन्दुओं और सिर्फ हिन्दुओं में होती है.

नाम-रूप एक दूसरे पर निर्भर

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-
"भंते नागसेन !
कतमं नामं, कतमं रूपं ?"
"नाम क्या चीज है और रूप क्या चीज है ?"
"यं तत्थ महाराज ! ओळारिकं,
महाराज ! जितने स्थूल चीजें हैं,
एतं रूपं
सभी रूप हैं और
ये तत्थ सुखुमा चित्त-चेतसिका धम्मा
जितने सूक्ष्म मानसिक धर्म हैं
एतं नामं।"
सभी नाम हैं।"

"भंते ! केन कारणेेन
"भंते ! किस कारण से
नामं एव न पटिसंदहति
केवल नाम का ही पुनर्मिलन नहीं होता
रूपं येव वा ?"
अथवा रूप का ही ?"

"अञ्ञमञ्ञ  उपनिस्सिता
महाराज !  एक-दूसरे की निर्भरता से
एते धम्मा एकतोव उप्पज्जन्ति। "
ये धर्म एक साथ पैदा होते हैं। "

"ओप्पमं करोहि। "
"कृपया उपमा देकर समझाएं ?"

"यथा महाराज ! कुक्कुटिया कललं न भवेय्य
"महाराज ! जैसे मुर्गी को कलल  न हो
अंड अपि न भवेय्य
तो अंडा भी न हो।

यं च तत्थ कललं, यं च अण्ड
जहाँ कहीं कलल है, वहां अण्डा  है
उभोपेते अञ्ञमञ्ञ  उपनिस्सिता
 दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं
एकतोव नेसं उप्पति होति
उनकी(नेसं) उत्पत्ति एक साथ  होती है


एवमेव खो महाराज !
इसी तरह महाराज  !
यदि तत्थं नामं न भवेय्य
यदि नाम न हो
रूपं अपि न भवेय्य
तो रूप भी न हो

यंचेव तत्थ नामं, यंचेव रूपं
जहाँ कहीं नाम होगा, रूप भी होगा
उभोपेते  अञ्ञमञ्ञ  उपनिस्सिता
दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं
एकतोव नेसं उप्पति होति
उनकी उत्पत्ति एकसाथ होती है
एवमेतं दीघ अद्धानं संधावितं।"
यह अनंत काल से होता चला है।"

"कल्लोसी भंते नागसेन !"
"भंते ! आपने ठीक कहा।"
-अ  ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com   

Saturday, December 1, 2018

कर्म का सिद्धांत (मिलिंद पन्ह)

कर्म का सिद्धांत
.‘‘भन्ते नागसेन, को पटिसन्दहति?’’ राजा आह।
‘‘भन्ते नागसेन, कौन पुनर्मिलन करता है?’’
‘‘नामरूपं महाराज, पटिसन्दहति।’’ थेरो आह।
‘‘महाराज! नाम और रूप पुनर्मिलन करता है।’’
‘‘किं इमं येव नामरूपं पटिसन्दहति?’’
‘‘क्या यही नाम और रूप पुनर्मिलन करता है?’’
‘‘न खो महाराज, इमं येव नामरूपं न पटिसन्दहति।
‘‘ नहीं महाराज, यही नाम और रूप पुनर्मिलन नहीं करता।

इमिना पन, महाराज, नामरूपेन कम्मं करोति, कुसलं वा अकुसलं वा
किन्तु महाराज, इस नाम और रूप से कर्म करता है; कुशल आय अकुशल
तेन कम्मेन अञ्ञंं नामरूपं पटिसन्दहति।’’
उस कर्म से दूसरा नाम और रूप पुनर्मिलन करता है।’’

‘‘यदि भन्ते, न इमं येव नामरूपं पटिसन्दहति
‘‘यदि भन्ते! यही नाम और रूप पुनर्मिलन नहीं करता
ननु सो मुत्तो भविस्सति अकुसलेहि कम्मेहि ?’’
तो निश्चय ही वह अकुशल-कर्मोंसे मुक्त होगा ?’’

‘‘यदि न पटिसन्दहेय्य, मुत्तो भवेय्य अकुसलेहि कम्मेही
‘‘यदि पुनर्मिलन न हो, तो मुक्त हो अकुशल कर्मों से
यस्मा च खो महाराज, पटिसन्दहति, तस्मा न मुत्तो अकुसलेहि कम्मेहि।’’
जब तक पुनर्मिलन होता है, तब तक अकुशल-कर्मों से मुक्ति नहीं।’’
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टीप-  भदन्त आनंद कोसल्यायन के शब्दों में, धम्म-ग्रंथों की बातें छान कर ही ग्रहण करने योग्य है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार मिलिंद पन्ह के पहले तीन परिच्छेद ही असली मालूम पड़ते हैं(दर्शन दिग्दर्शन पृ  550 )। बी एम बरुआ(प्रि-बुद्धिस्ट इंडियन फ़िलासफ़ी ), मल्ल शेखर आदि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त लेखकों और इतिहासविदों ने मिलिंद पन्ह की विषय सामग्री पर कई सवाल खड़े किए हैं (देवी प्रसाद चटोपाध्याय : लोकायत पृ  406)।

 बाबासाहेब डॉ आम्बेडकर ने मिलिंद पन्ह के उक्त ‘कर्म’ की ब्राह्मणी थ्योरी को यह कहते हुए अस्वीकार किया है कि बुद्ध के कर्म के सिद्धांत का संबंध मात्र ‘कर्म’ से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से(देखें- बुद्धा एॅण्ड धम्माः दूसरा भागः चतुर्थ काण्ड, कर्मः 2/3, पृ. 269)। कर्म की निरंतरता को पुनर्जन्म से जोड़ना महायानी संकल्पना है जो इस जन्म भूमि से बुद्धिज्म के ध्वंश का कारण  बनी।
-अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com