Saturday, October 30, 2010
Contesting more than one constituecies must be stopped
Political leader are allowed to contest more than one constituencies. This is not fair. It must be stoped. If they wins from both, they have to left one and retains other.Re-election have to done for left one. Is this not a over/additional loading on our country in term of manpower, draining of thousand corers rupees and political nuance ?
Friday, October 29, 2010
अमीरों के कब्ज़े में हमारी न्याय व्यवस्था
एक नवीनतम दिलचस्प फैसला-
स्थान- यूनियन कार्बाइड, भोपाल
समय- ३ दिस १९८४
दुर्घटना- जहरीली गैस का रिसाव
परिणाम- -३५,००० लोगों की मौत
-प्रभावितों की संख्या ५,००,००० और अपाहिज १,२०,०००
-अपार जन-धन की हानि
-दुर्घटना के २५ साल बाद, आज भी करोड़ों रु प्रभावित लोगों के इलाज पर खर्च
फैसले में लगा वक्त - २० साल और
फैसला- दोषियों को मात्र २-२ वर्ष की सजा तथा २-२ लाख रु का जुर्माना
कुछ और दिलचस्प फैसलें-
1. २० रूपये लुटने वाले को सात साल की सजा - नई दिल्ली: अतिरिक्त सेशन जज वी के बंसल ने जाकिर और जितेन्द्र को सजा सुनाते हुए कहा कि केवल २० रुपये का मामला होने के कारण अपराध की गम्भीरता कम नहीं हो जाती. दोनों ने चौकीदार को लुटते समय उसके पास से सब कुछ छीन लिया . हालाकि उसके पर्स में केवल २० रुपये थे. दोनों पर २-२ हजार रुपये का जुर्माना भी किया गया (स्रोत- दैनिक भास्कर जबलपुर २ जन ११).
2. ४७ करोड़ रूपये के बैंक घोटालेबाज को १ वर्ष कैद की सजा . बैंक घोटालेबाज केतन पारिख,हितेन दलाल एवं अन्य ने बैंक से ४७ करोड़ रूपये की धोकाधडी कर उसे शेयरों में निवेश कर दिया था.इन दो अभियुक्तों को एक-एक वर्ष की तथा एक अन्य को उसका बुढ़ापा देखते हुए ६ महीने कैद की सजा मुंबई की एक विशेष अदालत द्वारा दी गई थी( वही,अंक १४ मई ०८)
३. १० रूपये की भी गडबडी पर श्रमिक को सेवा से हटाया जा सकता है- उच्चत्तम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार प्रबन्धन को अधिकार है कि यदि कोई श्रमिक १0 रूपये की भी गडबडी करे तो उसे सेवा से हटाया जा सकता है. क्योंकि, उसने प्रबन्धन का विश्वास खो दिया है( वही).
तस्वीर का दूसरा पहलू-
देश का संविधान (अनुच्छेद ७) कानून के समान संरक्षण की बात करता है. अर्थात कोई कानून के ऊपर नहीं है और इसकी रक्षा के लिए न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतंत्र बनाया गया है. अब, अगर ऐसे में हम कहें कि हमारी न्याय व्यवस्था अमीरों के कब्ज़े में हैं तो इस में बुरा क्या है ?
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स्थान- यूनियन कार्बाइड, भोपाल
समय- ३ दिस १९८४
दुर्घटना- जहरीली गैस का रिसाव
परिणाम- -३५,००० लोगों की मौत
-प्रभावितों की संख्या ५,००,००० और अपाहिज १,२०,०००
-अपार जन-धन की हानि
-दुर्घटना के २५ साल बाद, आज भी करोड़ों रु प्रभावित लोगों के इलाज पर खर्च
फैसले में लगा वक्त - २० साल और
फैसला- दोषियों को मात्र २-२ वर्ष की सजा तथा २-२ लाख रु का जुर्माना
कुछ और दिलचस्प फैसलें-
1. २० रूपये लुटने वाले को सात साल की सजा - नई दिल्ली: अतिरिक्त सेशन जज वी के बंसल ने जाकिर और जितेन्द्र को सजा सुनाते हुए कहा कि केवल २० रुपये का मामला होने के कारण अपराध की गम्भीरता कम नहीं हो जाती. दोनों ने चौकीदार को लुटते समय उसके पास से सब कुछ छीन लिया . हालाकि उसके पर्स में केवल २० रुपये थे. दोनों पर २-२ हजार रुपये का जुर्माना भी किया गया (स्रोत- दैनिक भास्कर जबलपुर २ जन ११).
2. ४७ करोड़ रूपये के बैंक घोटालेबाज को १ वर्ष कैद की सजा . बैंक घोटालेबाज केतन पारिख,हितेन दलाल एवं अन्य ने बैंक से ४७ करोड़ रूपये की धोकाधडी कर उसे शेयरों में निवेश कर दिया था.इन दो अभियुक्तों को एक-एक वर्ष की तथा एक अन्य को उसका बुढ़ापा देखते हुए ६ महीने कैद की सजा मुंबई की एक विशेष अदालत द्वारा दी गई थी( वही,अंक १४ मई ०८)
३. १० रूपये की भी गडबडी पर श्रमिक को सेवा से हटाया जा सकता है- उच्चत्तम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार प्रबन्धन को अधिकार है कि यदि कोई श्रमिक १0 रूपये की भी गडबडी करे तो उसे सेवा से हटाया जा सकता है. क्योंकि, उसने प्रबन्धन का विश्वास खो दिया है( वही).
तस्वीर का दूसरा पहलू-
देश का संविधान (अनुच्छेद ७) कानून के समान संरक्षण की बात करता है. अर्थात कोई कानून के ऊपर नहीं है और इसकी रक्षा के लिए न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतंत्र बनाया गया है. अब, अगर ऐसे में हम कहें कि हमारी न्याय व्यवस्था अमीरों के कब्ज़े में हैं तो इस में बुरा क्या है ?
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Thursday, October 28, 2010
ममता तपोभूमि -एक खोज परक रिपोर्ट
तपस्वनी के आसन की ओर जाने का रास्ता |
विगत दिनों अपने गृह जिला बालाघाट (म.प्र ) जाने के दौरान मुझे एक ऐसे स्थान पर जाने का अवसर मिला जिसके बारे में मैंने पिछले कई वर्षों से काफ़ी-कुछ सुन रखा था.
ममता ! 'ममता' नाम है उस लड़की का जिसके बारे में तरह-तरह की खबरें मैं पिछले 18-19 वर्षों से सुन रहा था. यह कि वह रात के घोर अँधेरे में लगभग 12 बजे के आस-पास घर से गायब हो गयी थी. यह की उस का नाम 'ममता' है. यह की उसके पिता का नाम पूनाराम मेश्राम है . यह कि यह घटना ग्राम नांदी-मोन्ह्गांव (कटंगी के पास )की है. यह कि यह एक गरीब परिवार की घटना है.
यह की लड़की ममता एकाएक घर छोड़ कर चली गयी थी. अब, लोग परेशान. परिवार और सगे-सम्बन्धी परेशान. 12 वी कक्षा में पढने वाली लड़की भला रात के अँधेरे में कैसे जा सकती है ? क्या वह अकेले ही गायब हुई या उसके साथ कोई और था ? वह क्यों गायब हुई ? आखिर, उसके माँ-बाप क्या कर रहे थे ? क्या वह नार्मल थी या किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त थी ? ...ऐसे सैकड़ों और हजारों प्रश्न थे जिनका उत्तर घर-परिवार और गाँव के लोग खोज रहे थे.
जो लोग देख आये थे, उनके द्वारा मालूम हुआ कि यह लड़की ममता एकाएक घर छोड़ कर निर्जन जंगल में जाकर पहाड़ की गुफा में बैठ गयी थी जो उसके निवास स्थान से करीब 11-12 की. मी. की दूरी पर स्थित है. यह की लड़की बकायदा होशों-हवाश में है. यह की उसे कोई बीमारी नहीं है और की उसका स्वास्थ्य ठीक-ठाक है.
पहाड़ और चट्टानें |
10-12 साल पहिले जब मैं अपने गृह नगर गया था, तो पता चला था कि वहां पर काफ़ी लोग झुण्ड के झुण्ड जाते हैं और अपने-अपने हिसाब से इस घटना को देखते हैं. कोई पूजा-अर्चना करता है तो कोई आशीर्वाद मांगता है. कई एक ऐसे भी थे जो उसे पागल बतला रहे थे.हमारे गुरु बालकदास साहेबजी ने मुझे बतलाया था की उनका वहां प्रवचन हो चुका है और कि वह जगह काफी अच्छी है,शांत है... तपोभूमि है. उनका प्रवचन जो 'ममता, तू न गयी मेरे मनते...' भजन पर था, उस तपस्वी लड़की ने बड़े ध्यान से सुना था. यह कि वह कम बोलती है,इंटरेक्ट कम करती है.
इस बार जब बालाघाट गया तो जिज्ञासा थी ही. मैंने वहां जाने के लिए हर संभव कोशिश करने की ठान ली. सौभाग्यवश मुझे साथ भी अच्छा मिला. 24 अक्टू 10 को हमने अपने गृह ग्राम सालेबर्डी जो रामपायली-गर्राचौकी-बोनकट्टा रोड पर रामपायली से 8-9 की. मी. की दूरी पर है, से वहां के लिए प्रस्थान किया. दिन के बारह-एक बजे का समय होगा.हम 9-10 लोग बड़ी-सी फोर-व्हीलर गाड़ी में थे. गर्राचौकी के 3 की. मी. पहिले ही हथोंड़ा गाँव के लिए डायवर्शन है. साथ में जानकार लोग हमने रख लिया था जो वहां दो-तीन दफा हो आये थे. ग्राम हथोडा से 3 की. मी. कपूरबिहरी नामक गाँव निकलते ही जंगल शुरू होता है.कपूरबिहरी के लोगों ने बतलाया कि रास्ता दुर्गम है और कि आगे, नाले में पानी है. अक्टू माह बरसात ख़त्म होने का समय होता है.नतीजन, हमें गाड़ी लौटानी पड़ी.
आगे पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि बोनकट्टा के पास हरदोली नामक गाँव से वहां पर जाया जा सकता है.बोनकट्टा, मोहनदास-हरगोविन्ददास बीडी स्टॉक के लिए फेमस है. हम पूछते-पूछते हरदोली पार कर जंगल में घुसे. लोगों के आने-जाने से जो रास्ते जंगल में बनते हैं, बरसात में वे अपनी पहचान खो देते हैं. हालाकि बरसात ख़त्म हो चुकी थी, मगर वे रास्ते, अभी इससे उबर नहीं पाए थे.जंगल में हमें कई स्थानों पर अपनी गाड़ी रोकनी और मोड़नी पड़ी. रास्ते के अभाव में आगे बढ़ना खतरनाक हो सकता है, का परामर्श साथ गाड़ी में बैठने वाले दे रहे थे. मगर, मेरा मानना था कि अवसर बार-बार नहीं आते. मौके का फायदा जरूर उठाया जाना चाहिए.
अब पीपल का पेड़ जो काफ़ी ऊँचा है, दिखने लगा था.मगर आगे बढना अब एक नाले के कारण मुश्किल था. हमने गाड़ी वहीँ पार्क की और जैसे कि गाँव के लोग जो दूर जंगल- खेतों में काम करने जाते हैं, बीच-बीच में हम उनसे पूछ रहे थे, के अनुसार हम वह नाला पार कर एक पहाड़ पर पहुंचे.
पहाड़, खासा ऊँचा नहीं है. पहाड़ के तीन ओर खेत हैं जिनमें खड़े धान की फसल लहरा रही थी. पहाड़ के एक ओर झील है, जिसमें काफ़ी पानी भरा था. जल्दी ही हमें एक साफ कराया गया रास्ता नजर आया. जैसे ही रास्ते को फालो-अप करते हुए ऊपर चढ़े, एक लडके ने हमें अभिवादन किया और अपने साथ आने का इशारा किया. हम ऊपर बढ़े.एक नियत स्थान पर उसने हमें जूते-चप्पल उतार कर रखने का अनुरोध किया. फिर आगे बढ़ने पर एक जगह उसने हम लोगों को हाथ-पैर धोकर फ्रेस होने को कहा. हम 9-10 लोग थे. मैं साथ ही साथ इधर-उधर का मुआयना भी कर रहा था. मैंने देखा की हाथ-पैर धोने के लिए बकायदा हैण्ड -पम्प और लम्बा-चौड़ा बाथ-रूम था.
दर्शनार्थियों के ठहरने हेतु आवास |
मैंने देखा उस चट्टान से लग कर एक आसन लगा है और उस पर वह तपस्वनी भगवान बुध्द की लेती हुई मुद्रा में विराजमान है. उस लडके ने तब उस तपस्वनी को माथा टेक कर प्रणाम किया.शायद, वह हम लोगों को फालो-अप करने के लिए था. हमारे साथ के सभी लोगों ने वैसा ही किया. वह तपस्वनी उसी मुद्रा में लेटी रही.चेहरे के हाव-भाव में अपेक्षित चेंज, मैंने नोट नहीं किया था. उम्र 34-35 के करीब लग रही थी.कलर साफ और बाल खुले हुए ही थे. चेहरा ओज-पूर्ण और संसारिक विकारों से दूर लगा.साथ में एक और तपस्वी कुर्सी में विराजमान थे.मैंने उन्हीं से मुखातिब होना ठीक समझा. मैंने तपस्वनी की ओर इशारा कर पूछा कि क्या वे बात नहीं करती ?
"करती है." -बावजूद, तपस्वनी के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया मैंने नोट नहीं की.
"नहीं."
"शायद, टी वी/चैनल में कोई न्यूज नहीं चाहते होंगे ?"
"टी वी चैनल में आ कर क्या होगा ?" -तपस्वनी मेरी जिज्ञासा को सुन रही थी मगर, इस सब के लिए ही शायद वह तपस्वी था. तपस्वनी के लिए ये बातें बेमतलब थी.
"प्रचार से क्या होता है ? अगर प्रचार हेतु रहता तो इस वीरान जंगल के क्या मायने हैं ?" -तपस्वी तौल-तौल कर बोलते हुए जैसे मुझे निरुत्तर कर रहा था.
"यहाँ, आने के लिए रास्ता अभी खुल नहीं पाया है. हमें काफ़ी दूर अपनी गाड़ी रखनी पड़ी. हम लोग इस तरफ से आये हैं " -मैंने विषय से हटना चाहा.
"नहीं, उस तरफ से गाड़ियाँ तो आती हैं.-तपस्वी ने समाधान किया.
दरअसल, वहां का नैशार्गिक शांत और गंभीर माहौल जिसे तपस्वनी का कम बात करना और गहराई प्रदान कर रहा था, मैं भरसक प्रयास कर रहा था कि वह बना रहे. घना जंगल, जंगल में पहाड़, पहाड़ में ऊँचे-ऊँचे पेड़, बड़ी-बड़ी काले पत्थरों की चट्टानें, नीचे पानी की झील वास्तव में तपस्वनी के मन-मुद्रा के साथ एक खास वैचारिक सामंजस्य जोड़ रहे थे.मैं सोच रहा था कि न मालूम कितनी परतें हैं मनुष्य की और, जानने, समझने के लिए. क्या ये कोई 'सर्च' है जैसे की सिद्धार्थ गौतम निकले थे घर-परिवार छोड़ कर तलाश में अपनी..जग की ? या वर्ध्दमान महावीर निकले थे खोजने खुद को..दुनिया को ? मुझे लगा, दूर खड़े धान से भरे लम्बे-लम्बे खेत यहाँ ऊग रही इस वैचारिक उर्वरता के साक्षी बन रहे हैं.
"तपोभूमि जैसा लगता है, यहाँ." -मैंने वैचारिक तन्द्रा भंग की.
"अच्छा !" तपस्वी ने आश्चर्य व्यक्त किया. इसी बीच हमारे साथ के एक सज्जन ने माथा टेक अभिवादन किया- "माताजी, मैं बहुत परेशानी में हूँ ."
लेखक |
"..................... ."
मैं तपस्वनी के चेहरे पर नजरे गड़ाएं था. उनके चेहरे पर कुछ भाव तो पैदा हुए मगर, वे शायद शब्दों में ढल न सके. कुछ ही पलों में चेहरा एक तपस्वनी के चहरे की तरह सपाट था. जैसे ये बीमारी और इस तरह के दुःख-दर्द उसके लिए नए नहीं थे.
"गले और सिर में मिटटी का लेप करें...." कुर्सी पर बैठे तपस्वी ने सलाह दी.
"...लम्बे समय तक करने से आराम होगा." -तपस्वी ने आगे कहा. मुझे लगा, तपस्वी की सलाह में लाग-लम्पट नहीं था,जैसे अक्सर 'बाबाओं' में होता है.
मेरे ख्याल से करीब आधा घंटा हो गया होगा. कुछ तो तपस्वी से जानने और उससे अधिक तपस्वनी को जानने की उत्कंठा में, उनसे न पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में. ऐसा होता है कि आप के पास ठेर सारे प्रश्न होते हैं,आप को परेशान करते हैं मगर, जब मौका आता है 'अथारिटी' से पूछने का तो सारे प्रश्न 'फ्रीज' हो जाते हैं,या तो उनके उत्तर अपने-आप मिलने लगते हैं ! हो सकता है यह उस अथारिटी के 'ओरे' का कमाल हो या आपके अपने उस समय के 'ओरे' का जो एक खास परिस्थिति और मन स्थिति में खुद-ब-खुद 'अथारिटी' हो जाता है.आखिर, मनुष्य ही तो हैं जो बुद्ध या महावीर बन जाता हैं !
बहरहाल, मुझे लगा कि अब और अधिक बैठना उचित नहीं होगा, मैंने खड़े हो कर हाथ जोड़ विदा ली और कहा-"जी हम अब चलते हैं,क्योंकि शाम के करीब 5 बज रहे हैं और जाने में रात हो सकती है ." तपस्वनी एकाएक उठ कर बैठ गयी और बकायदा विदा करने की मुद्रा में उन्होंने सिर हिलाया.
हम लोग उस दिन आ तो गए थे मगर, जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी.मुझे लग रहा था अभी और खोज करने की जरुरत है.इसी बीच मार्च 11 में फिर उस क्षेत्र में जाना हुआ. इस बार मैंने ममता के बारे में और जानकारी जुटाने की सोची.हम सीधे उनके पेत्रक गावं नवेगावं पहुंचे.वहां ममता के काका रामचंद्र मेश्राम से मुलाकात हुई.वे हमारे रिश्तेदार निकले. रामचंद्र जी से जो जानकारी मिली, वह इस प्रकार है-
ममता के गावं जा कर जानकारी लेते लेखक |
ममता के काका रामचन्द्र मेश्राम |
Wednesday, October 27, 2010
भगवा आतंकवाद
दुनिया के सभी देशों में चाहे वे कितने ही सभ्य हो , वहां पर रहने वाले विभिन्न धर्म/सम्प्रदाय और संस्कृतियों के बीच सांस्कृतिक संघर्ष होता रहता है. वास्तव में, यह सांस्कृतिक संघर्ष, वहां के बहुसंख्यक के द्वारा अल्पसंख्यकों के विरूद्ध वर्चस्व की लड़ाई है. यह सांस्कृतिक संघर्ष 'सर्वाईव आफ द फिटेस्ट (survive of the fittest ) से गवर्न होता है. मगर, इस प्राकृतिक नियम की अपनी कुछ परिणतियाँ भी हैं. अच्छी भी, बुरी भी. बुरी इस तरह की यह सर्वाईव (survive ) करने के लिए अल्पसंख्यकों को, बहुसंख्यकों के विरूद्ध हथियार उठाने बाध्य करती है.
सवाल यह है कि इसका हल क्या है ? देश के संविधान सभा की प्रोसिडिंग में इसका हल पहले ही कर दिया गया है. विभाजन के दौरान जब देश का संविधान बना तो डॉ आम्बेडकर ने चेतावनी भरे लहजे में कहा था - देश की संसद, जिसमे निश्चित रूप से हिन्दू बहुसंख्यक हैं, को यह बतलाने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए क्या-क्या किया है,कौन -कौनसी सुविधाएँ दी है और उनके हित में कौन- कौन से कानून बनाये हैं. बल्कि, अल्पसंख्यकों को यह लगना चाहिए कि बहुसंख्यक हिन्दुओं ने उन्हें क्या दिया है,कौन-कौन-सी सुविधाएँ दे रखी हैं और उनके हित में कौन- कौन से कानून बनाये हैं.जब देश के अल्पसंख्यक खुद-ब-खुद यह बतलाने लगेंगे तभी यह देश शक्तिशाली हो सकता है और विश्व में तीसरी शक्ति बन सकता है.
सवाल यह है कि हो क्या हो रहा है ? क्या बहुसंख्यक हिन्दू , संख्या या शक्ति से अल्पसंख्यकों की आवाज को दबा सकते हैं ? आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए दबा सकते हैं, उनकी आवाज़ बंद कर सकते हैं. मगर आप उनकी आवाज़ हमेशा-हमेशा के लिए बंद नहीं कर सकते, सिवाय उनको मिटाने के.
अल्पसंख्यक वैसे भी डरे रहते हैं. उनमे बहुसंख्यकों की संख्या और शक्ति का भय हमेशा समाया रहता है. अच्छा है, बहुसंख्यक उदारवादी दृष्टीकोण अपनाये. दूसरी ओर, अल्पसंख्यक भी इस उदारवादी दृष्टीकोण को बहुसंख्यकों की मज़बूरी न समझे.
दुनिया में ऐसे बहुतेरे देश हैं जो धर्म विशेष के आधार पर अस्तित्व में आये हैं. मगर धीरे-धीरे व्यवसाय व् अन्य कारणों से लोगों के इधर-उधर जाने के कारण चाहे-अनचाहे धर्म और संस्कृतियों का मिश्रण हुआ. धर्म और संस्कृतियों के इस मिश्रण को रोकना ना मुमकिन है. आज मानव, अपनी उन्नत सभ्यता की बात करता है. शिक्षा और विज्ञान के उंच्च मानवीय मूल्यों की वकालत करता है. अतः अच्छा है कि प्रत्येक समुदाय चाहे वह अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक, अपनी संख्या और शक्ति का इस्तेमाल सह-अस्तित्व और सामंजस्य के लिए करे बजाय अस्तित्व की लड़ाई में अपव्यव करने के.
सवाल यह है कि इसका हल क्या है ? देश के संविधान सभा की प्रोसिडिंग में इसका हल पहले ही कर दिया गया है. विभाजन के दौरान जब देश का संविधान बना तो डॉ आम्बेडकर ने चेतावनी भरे लहजे में कहा था - देश की संसद, जिसमे निश्चित रूप से हिन्दू बहुसंख्यक हैं, को यह बतलाने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए क्या-क्या किया है,कौन -कौनसी सुविधाएँ दी है और उनके हित में कौन- कौन से कानून बनाये हैं. बल्कि, अल्पसंख्यकों को यह लगना चाहिए कि बहुसंख्यक हिन्दुओं ने उन्हें क्या दिया है,कौन-कौन-सी सुविधाएँ दे रखी हैं और उनके हित में कौन- कौन से कानून बनाये हैं.जब देश के अल्पसंख्यक खुद-ब-खुद यह बतलाने लगेंगे तभी यह देश शक्तिशाली हो सकता है और विश्व में तीसरी शक्ति बन सकता है.
सवाल यह है कि हो क्या हो रहा है ? क्या बहुसंख्यक हिन्दू , संख्या या शक्ति से अल्पसंख्यकों की आवाज को दबा सकते हैं ? आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए दबा सकते हैं, उनकी आवाज़ बंद कर सकते हैं. मगर आप उनकी आवाज़ हमेशा-हमेशा के लिए बंद नहीं कर सकते, सिवाय उनको मिटाने के.
अल्पसंख्यक वैसे भी डरे रहते हैं. उनमे बहुसंख्यकों की संख्या और शक्ति का भय हमेशा समाया रहता है. अच्छा है, बहुसंख्यक उदारवादी दृष्टीकोण अपनाये. दूसरी ओर, अल्पसंख्यक भी इस उदारवादी दृष्टीकोण को बहुसंख्यकों की मज़बूरी न समझे.
दुनिया में ऐसे बहुतेरे देश हैं जो धर्म विशेष के आधार पर अस्तित्व में आये हैं. मगर धीरे-धीरे व्यवसाय व् अन्य कारणों से लोगों के इधर-उधर जाने के कारण चाहे-अनचाहे धर्म और संस्कृतियों का मिश्रण हुआ. धर्म और संस्कृतियों के इस मिश्रण को रोकना ना मुमकिन है. आज मानव, अपनी उन्नत सभ्यता की बात करता है. शिक्षा और विज्ञान के उंच्च मानवीय मूल्यों की वकालत करता है. अतः अच्छा है कि प्रत्येक समुदाय चाहे वह अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक, अपनी संख्या और शक्ति का इस्तेमाल सह-अस्तित्व और सामंजस्य के लिए करे बजाय अस्तित्व की लड़ाई में अपव्यव करने के.
Tuesday, October 19, 2010
दलितों को अब, नौकरी नहीं व्यवसाय में जाना चाहिए.
आज, पूरी दुनिया हमारे देश को एक बड़े बाजार और अवसर के रूप में देख रही है। ज़ाहीर है, इसका लाभ देश के अमीरों के साथ-साथ इस देश के दलितों को भी उठाना चाहिए । अब समय आ गया है कि दलित समाज के लोग इसे एक अवसर के रूप में देखे । दलित समाज के उन नौकरी पेशा लोगों को जिनकी एक-दो पीढियां बीत चुकी हैं, अब बिजनेस में उतरना चाहिए। क्योंकि, नौकरी में ज्यादा गुंजाईश नहीं है। नौकरी में आप परिवार पाल सकते हैं, बच्चों को पढ़ा सकते हैं और मकान बना सकते हैं। इससे ज्यादा नौकरी के मथ्थे कुछ नहीं किया जा सकता।
मगर, क्या इतना ही किया जाना चाहिए है ? निश्चित ही आज, देश का दलित इससे आगे जाना चाहेगा. निश्चित ही वह समृद्ध भारत का हिस्सेदार होना चाहेगा। आप व्यवसाय में जाकर दस लोगों को नौकरी दे सकते हैं।
आज हमारे देश में दलित समाज के कुछ लोग ने, भले ही वे उँगलियों में गिनने लायक हो, खासा नाम कमाया है। मसलन, कामायनी ट्यूब्स की मालकिन कल्पना सरोज, एपीए इन्फ्रास्ट्रक्चर पाली के सर्वेसर्वा संजय क्षीर सागर, प्रसिद्ध व्यवसायी सुनील खोब्रागड़े, आगरा के हेरिटेज अस्पताल के संचालक हरिकृष्ण पिप्पल, जीटी पेस्ट कंट्रोल प्राइवेट कम्पनी के मालिक राजेन्द्र गायकवाड़ , एवरेस्ट स्पून पाइप इंडस्ट्री (महा ) के नामदेव जगताप, महाराष्ट्र के ही चीनी मिल मालिक स्वप्निल भिन्गारदेवे, यूनाइटेड इंटरनेशनल के अविनाश काम्बले आदि ने अपने दम पर अपना व्यवसाय खड़ा किया हैं (स्रोत: दैनिक भास्कर जबलपुर १७ अक्टू १०) । फिक्की, एसोचेम, सीआइआइ की तर्ज पर जिस तरह पुणे के मिलिंद काम्बले ने 'हम कर सकते हैं ' - की थीम पर दलित इन्डियन चेम्बर्स आफ कामर्स ( डिक्की) की स्थापना कर दलित छोटे व्यावसायिकों को प्रमोट किया , इसी तरह के और भी व्यावसायिक मंच खड़े कर निश्चित रूप से दलित आज तेजी से बढ़ते समृद्ध भारत में अपनी व्यावसायिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकते हैं।
मगर, क्या इतना ही किया जाना चाहिए है ? निश्चित ही आज, देश का दलित इससे आगे जाना चाहेगा. निश्चित ही वह समृद्ध भारत का हिस्सेदार होना चाहेगा। आप व्यवसाय में जाकर दस लोगों को नौकरी दे सकते हैं।
आज हमारे देश में दलित समाज के कुछ लोग ने, भले ही वे उँगलियों में गिनने लायक हो, खासा नाम कमाया है। मसलन, कामायनी ट्यूब्स की मालकिन कल्पना सरोज, एपीए इन्फ्रास्ट्रक्चर पाली के सर्वेसर्वा संजय क्षीर सागर, प्रसिद्ध व्यवसायी सुनील खोब्रागड़े, आगरा के हेरिटेज अस्पताल के संचालक हरिकृष्ण पिप्पल, जीटी पेस्ट कंट्रोल प्राइवेट कम्पनी के मालिक राजेन्द्र गायकवाड़ , एवरेस्ट स्पून पाइप इंडस्ट्री (महा ) के नामदेव जगताप, महाराष्ट्र के ही चीनी मिल मालिक स्वप्निल भिन्गारदेवे, यूनाइटेड इंटरनेशनल के अविनाश काम्बले आदि ने अपने दम पर अपना व्यवसाय खड़ा किया हैं (स्रोत: दैनिक भास्कर जबलपुर १७ अक्टू १०) । फिक्की, एसोचेम, सीआइआइ की तर्ज पर जिस तरह पुणे के मिलिंद काम्बले ने 'हम कर सकते हैं ' - की थीम पर दलित इन्डियन चेम्बर्स आफ कामर्स ( डिक्की) की स्थापना कर दलित छोटे व्यावसायिकों को प्रमोट किया , इसी तरह के और भी व्यावसायिक मंच खड़े कर निश्चित रूप से दलित आज तेजी से बढ़ते समृद्ध भारत में अपनी व्यावसायिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकते हैं।
Sunday, October 17, 2010
हिन्दुओं में बकरे की बलि पर प्रतिबंध तो मुसलमानों में क्यों नहीं ?
दैनिक भास्कर जबलपुर (म प्र ) १६ अक्टू १० में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, छतीसगढ़ में बलि प्रथा पर एक नई बहस सांसद दिलीपसिंह जूदेव द्वारा शुरू की गई है।
हुआ ये की पिछले दिनों भाजपा के ही एक विधायक युद्धवीरसिंह जूदेव ने चंद्रहासिनी देवी के मंदिर में बकरे की बलि दी। अब, विपक्ष को बैठे-बिठाए मुद्दा मिल गया। जाहिर है, हाय- तौबा तो मचना था। और हुआ भी यही। अब बड़े भाई सांसद दिलीपसिंह जूदेव कैसे पीछे रहते ? श्री जूदेव ने कहा कि ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि युद्धवीरसिंह बलि प्रथा की शुरुआत कर रहे हैं। जबकि, वास्तव में यह बलि प्रथा हजारों साल पुरानी है। हम अपनी आस्था के साथ बलि चढाते हैं। हम अपनी यह सदियों पुरानी परम्परा कैसे बंद कर दे ? यह तो उसी तरह की बात हुई कि होली पर पानी मत बहाओं। दीपावली पर पटाखें मत फोड़ों। श्री जूदेव ने आगे कहा कि परम्परा के साथ की जाने वाली बलि पर एतराज करने वालों को यह भी मांग करनी चाहिए कि बकरीद पर बकरे की क़ुरबानी बंद कर दो ?
बिलकुल सही फरमाते हैं जूदेवजी। पाठकों को याद होगा की सिखों के कृपाण पर देश में एक लम्बी बहस छिड़ी थी। इसी तरह, नंग-धडंग जैन मुनियों के प्रदर्शन पर भी लोगों ने सवाल उठाए थे। मगर, सवाल धार्मिक परम्पराओं का है। अब धार्मिक परम्पराओं में नैतिक मूल्यों का क्या ?
वास्तव में धार्मिक परम्पराओं का 'रिव्यू' होते रहना चाहिए। धार्मिक परम्पराओं को जड़ नहीं होना चाहिए। अगर समय गतिशील है, तो धार्मिक परम्पराओं को गतिशील होना चाहिए। जड़ता मनुष्य का स्वभाव नही है । धर्म मनुष्य के लिए है, न की मनुष्य धर्म के लिए। मनुष्य प्रकृति का अंग है। प्रकृति परिवर्तनशील है। जाहीर है, धर्म में परिवर्तन अवश्यसंभाव्य है।और नहीं, तो धर्म में जड़ता इसी तरह की सड़ांध पैदा करेगी। फिर,चाहे जो धर्म हो।
एक दूसरी बात, हमें किसी और की ओर ऊँगली दिखाने की बजाय पहले, खुद अपनी ओर क्यूँ नहीं देखना चाहिए ?
हुआ ये की पिछले दिनों भाजपा के ही एक विधायक युद्धवीरसिंह जूदेव ने चंद्रहासिनी देवी के मंदिर में बकरे की बलि दी। अब, विपक्ष को बैठे-बिठाए मुद्दा मिल गया। जाहिर है, हाय- तौबा तो मचना था। और हुआ भी यही। अब बड़े भाई सांसद दिलीपसिंह जूदेव कैसे पीछे रहते ? श्री जूदेव ने कहा कि ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि युद्धवीरसिंह बलि प्रथा की शुरुआत कर रहे हैं। जबकि, वास्तव में यह बलि प्रथा हजारों साल पुरानी है। हम अपनी आस्था के साथ बलि चढाते हैं। हम अपनी यह सदियों पुरानी परम्परा कैसे बंद कर दे ? यह तो उसी तरह की बात हुई कि होली पर पानी मत बहाओं। दीपावली पर पटाखें मत फोड़ों। श्री जूदेव ने आगे कहा कि परम्परा के साथ की जाने वाली बलि पर एतराज करने वालों को यह भी मांग करनी चाहिए कि बकरीद पर बकरे की क़ुरबानी बंद कर दो ?
बिलकुल सही फरमाते हैं जूदेवजी। पाठकों को याद होगा की सिखों के कृपाण पर देश में एक लम्बी बहस छिड़ी थी। इसी तरह, नंग-धडंग जैन मुनियों के प्रदर्शन पर भी लोगों ने सवाल उठाए थे। मगर, सवाल धार्मिक परम्पराओं का है। अब धार्मिक परम्पराओं में नैतिक मूल्यों का क्या ?
वास्तव में धार्मिक परम्पराओं का 'रिव्यू' होते रहना चाहिए। धार्मिक परम्पराओं को जड़ नहीं होना चाहिए। अगर समय गतिशील है, तो धार्मिक परम्पराओं को गतिशील होना चाहिए। जड़ता मनुष्य का स्वभाव नही है । धर्म मनुष्य के लिए है, न की मनुष्य धर्म के लिए। मनुष्य प्रकृति का अंग है। प्रकृति परिवर्तनशील है। जाहीर है, धर्म में परिवर्तन अवश्यसंभाव्य है।और नहीं, तो धर्म में जड़ता इसी तरह की सड़ांध पैदा करेगी। फिर,चाहे जो धर्म हो।
एक दूसरी बात, हमें किसी और की ओर ऊँगली दिखाने की बजाय पहले, खुद अपनी ओर क्यूँ नहीं देखना चाहिए ?
Friday, October 15, 2010
हम और हमारी परम्पराएँ
दैनिक भास्कर जबलपुर (म प्र) १५ अक्टू १० में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, नवरात्र अष्टमी के दिन देश की धार्मिक नगरी उज्जैन में दो हजार वर्षों से चली आ रही पुरानी परम्परा के तहत तीन दर्जन से अधिक देवी-देवताओं के मन्दिरों में माता मन्दिर से लेकर भैरव मन्दिर तक २६ कि मी लम्बी शराब की धार से तांत्रिक पूजा की जाती है । महाकालेश्वर मंदिर के समीप स्थित २४ खम्बा माता मन्दिर से शुरू होने वाली यह शासकीय नगर पूजा जिले के कलेक्टर सहित अन्य उंच्च अधिकारीयों द्वारा जनता की सुख-शांति, समृधि, आपसी सद-भाव तथा किसी अनिष्ट, महामारी और प्राकृतिक आपदा के निवारणार्थ की जाती है। ताम्बे के कलश में छिद्र के माध्यम से शराब की धार से २६ की मी की यह नगर पूजा सुबह से रात्रि तक चलती है ।
Monday, October 11, 2010
सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर देश के बढ़ते धन कुबेर
एक सर्वे के अनुसार, देश में धन कुबेरों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है। मगर दूसरी ओर, एक औसत भारतीय की आज भी सालाना आय रु. ५०००० रु से अधिक नहीं है । अब ऐसे में, नक्सलवादी पैदा नहीं होंगे तो और क्या होगा ? पूँजी को कुछ ही घरों में जमा करने वाली व्यवस्था कहाँ तक जायज हैं ?
Saturday, October 9, 2010
परिवर्तन की विवशता
दलित चेतना के चलते गाँव में परिवर्तन मिशन स्कूल पिछले दो वर्षों से चल रहा था। नया शिक्षहा-सत्र प्रारम्भ होते ही बच्चे अगली कक्ष्हा में प्रवेश ले रहे थे।
'जय भीम गुरूजी।"
"जयभीम।" - शिक्ष्हक ने बच्चे का अभिवादन स्वीकार किया।
"और आनंद, अकेले आये हो ? तुम्हारे पिताजी कहाँ हैं ?" - शिक्ष्हक ने ओपचारिकता वश पूछा।
"जी, दारू पीकर पड़े है।" बच्चे ने सकुचाते हुए जवाब दिया।
'जय भीम गुरूजी।"
"जयभीम।" - शिक्ष्हक ने बच्चे का अभिवादन स्वीकार किया।
"और आनंद, अकेले आये हो ? तुम्हारे पिताजी कहाँ हैं ?" - शिक्ष्हक ने ओपचारिकता वश पूछा।
"जी, दारू पीकर पड़े है।" बच्चे ने सकुचाते हुए जवाब दिया।
Wednesday, October 6, 2010
राम एक आस्था-पुरुष, न की इतिहास पुरुष
दैनिक भास्कर ६ अक्टू जबलपुर के लेख "अयोध्या के आगे" में डॉ वेदप्रताप वैदिक लिखते हैं-
राम कोई इतिहास पुरुष तो थे नहीं । वे इतिहास के आर-पार रहे है। वे आस्था-पुरुष है । स्मृति-पुरुष है, भाव -पुरुष हैं । ऐसी आस्था, ऐसी स्मृति और ऐसा भाव जो करोड़ों लोगों के ह्रदय में सदा-सनातन से, अविरल और अविछिन्न रहा है । यह भाव ऐसा है जो सिर्फ हिन्दुओं में ही नहीं पाया जाता है, मुसलमानों, ईसाईयों ,यहूदियों, काले -गोरों सब में पाया जाता है । यह भाव, तर्क और बुद्धि से परे होता है ।
निश्चित ही राम एक आस्था-पुरुष है , भाव-पुरुष है न की इतिहास-पुरुष जैसे की वैदिकजी लिखते हैं। मगर, दूसरी ओर राम को इतिहास-पुरुष मानने वाले भी कम नहीं हैं ? विश्वविद्यालयों में ढेरों थीसिस मिल जायेंगे, राम को इतिहास-पुरुष सिद्ध करने के लिए। न्यूज़ चेनल वाले भी लोगों के दिल-दिमाग में ठूसते रहते हैं कि राम इतिहास-पुरुष हैं.
दुसरे, राम आस्था-पुरुष हैं । मगर, सिर्फ वैदिकजी जैसे ब्राह्मणों के और पुरे ब्रह्मण वर्ग के। राम, ब्राह्मण वर्ग के आलावा अन्य वर्ग/जातियों के आस्था का विषय नहीं हो सकते। सवाल ये है की राम के क्या आदर्श हैं ? सीता की अग्नि-परिक्षहा लेकर और शम्बूक का वध कर राम कोनसे आदर्श स्थापित करते हैं ? क्या ये आदर्श कम से कम हिन्दू नारियों के लिए आस्था का विषय है ? क्या इन आदर्शों पर इस देश के दलित-आदिवासियों को आस्था है ? राम, वैदिकजी के आस्था-पुरुष हो सकते हैं, उच्च जाति हिन्दुओं के आस्था-पुरुष हो सकते है जिनके लिए मानस में लिखा है- पुजिय विप्र शील गुन हीना, शूद्र न गुन ग्यान प्रवीना'। मगर हिन्दू नारी, जो आज भी अग्नि-परीक्षहा देने को बाध्य हो , राम को आदर्श क्यों माने ? ढोल गवांर शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी 'मानस' को क्यों माने ? इस देश का आदिवासी, जो आज भी आदिम शैली में जंगलों में रहने अभिशप्त है, कथित रामराज्य को आदर्श क्यों माने ? ऊँच-नीच की घृणा और जातिगत श्रेष्ठता की वकालत करने वाले 'रामराज्य' को दलित क्यों माने ?
राम कोई इतिहास पुरुष तो थे नहीं । वे इतिहास के आर-पार रहे है। वे आस्था-पुरुष है । स्मृति-पुरुष है, भाव -पुरुष हैं । ऐसी आस्था, ऐसी स्मृति और ऐसा भाव जो करोड़ों लोगों के ह्रदय में सदा-सनातन से, अविरल और अविछिन्न रहा है । यह भाव ऐसा है जो सिर्फ हिन्दुओं में ही नहीं पाया जाता है, मुसलमानों, ईसाईयों ,यहूदियों, काले -गोरों सब में पाया जाता है । यह भाव, तर्क और बुद्धि से परे होता है ।
निश्चित ही राम एक आस्था-पुरुष है , भाव-पुरुष है न की इतिहास-पुरुष जैसे की वैदिकजी लिखते हैं। मगर, दूसरी ओर राम को इतिहास-पुरुष मानने वाले भी कम नहीं हैं ? विश्वविद्यालयों में ढेरों थीसिस मिल जायेंगे, राम को इतिहास-पुरुष सिद्ध करने के लिए। न्यूज़ चेनल वाले भी लोगों के दिल-दिमाग में ठूसते रहते हैं कि राम इतिहास-पुरुष हैं.
दुसरे, राम आस्था-पुरुष हैं । मगर, सिर्फ वैदिकजी जैसे ब्राह्मणों के और पुरे ब्रह्मण वर्ग के। राम, ब्राह्मण वर्ग के आलावा अन्य वर्ग/जातियों के आस्था का विषय नहीं हो सकते। सवाल ये है की राम के क्या आदर्श हैं ? सीता की अग्नि-परिक्षहा लेकर और शम्बूक का वध कर राम कोनसे आदर्श स्थापित करते हैं ? क्या ये आदर्श कम से कम हिन्दू नारियों के लिए आस्था का विषय है ? क्या इन आदर्शों पर इस देश के दलित-आदिवासियों को आस्था है ? राम, वैदिकजी के आस्था-पुरुष हो सकते हैं, उच्च जाति हिन्दुओं के आस्था-पुरुष हो सकते है जिनके लिए मानस में लिखा है- पुजिय विप्र शील गुन हीना, शूद्र न गुन ग्यान प्रवीना'। मगर हिन्दू नारी, जो आज भी अग्नि-परीक्षहा देने को बाध्य हो , राम को आदर्श क्यों माने ? ढोल गवांर शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी 'मानस' को क्यों माने ? इस देश का आदिवासी, जो आज भी आदिम शैली में जंगलों में रहने अभिशप्त है, कथित रामराज्य को आदर्श क्यों माने ? ऊँच-नीच की घृणा और जातिगत श्रेष्ठता की वकालत करने वाले 'रामराज्य' को दलित क्यों माने ?
Tuesday, October 5, 2010
जुलुशो में हथियारों का प्रदर्शन धार्मिक उन्माद पैदा करता है.
दैनिक भास्कर जबलपुर ५ अग. १० की खबर के अनुसार, हाईकोर्ट के चीफ जस्टिक की अध्क्षता वाली युगलपीठ ने पुलिस से पूछा है कि विगत २ सित. को जन्माष्टमी पर्व पर निकाली गई रैली में कथित रूप से हथियारों का प्रदर्शन किये जाने के मामले पर अब तक क्या करवाई की गई ? तत्सम्बंध में दायर अपील में इसी कोर्ट की एकलपीठ के उस आदेश को चुनौती दी गई है जिसमे इसी मुद्दे पर दायर याचिका पर विगत २२ सित को हस्तछेप करने से इंकार कर दिया गया था।
आये दिनों देखा जाता है की आर एस एस , विश्व हिन्दू परिषद् , बजरंगदल आदि संगठनों द्वारा निकाले गए जुलुशो में हथियारों का प्रदर्शन किया जाता है और पुलिस तमाशाबीन बनी रहती है । इस देश में भाजपा प्रमुख राजनीतिक दल है। कई राज्यों में उसकी सरकारे है। केंद्र में वह रह चुकी है। क्या एक राष्ट्रीय पार्टी को इस पर चितन नहीं करना चाहिए ? निश्चित रूप से जुलुशो में हथियारों का प्रदर्शन धार्मिक उन्माद के साथ जनमानस में भय का वातावरण पैदा करता है। देखे, उक्त अपील पर पुलिस क्या जवाब देती है ।
आये दिनों देखा जाता है की आर एस एस , विश्व हिन्दू परिषद् , बजरंगदल आदि संगठनों द्वारा निकाले गए जुलुशो में हथियारों का प्रदर्शन किया जाता है और पुलिस तमाशाबीन बनी रहती है । इस देश में भाजपा प्रमुख राजनीतिक दल है। कई राज्यों में उसकी सरकारे है। केंद्र में वह रह चुकी है। क्या एक राष्ट्रीय पार्टी को इस पर चितन नहीं करना चाहिए ? निश्चित रूप से जुलुशो में हथियारों का प्रदर्शन धार्मिक उन्माद के साथ जनमानस में भय का वातावरण पैदा करता है। देखे, उक्त अपील पर पुलिस क्या जवाब देती है ।
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