बुद्ध की करुणा
बुद्ध को करुणा का प्रतीक समझा जाता है। चित्रकार जब करुणा को दर्शाता है तब उसकी कुची, बुद्ध को तलाश रही होती है। कवि जब करुणा को तलाशता है, उसकी कल्पना में बुद्ध जीवंत हो उठते हैं। रचनाकार की रचना हो या कवि की कल्पना, करुणा के सागर बुद्ध ही रहते हैं। उन्हें दसरथ सुत राम या राधा के स्याम में, करुणा के दर्शन नहीं होते । प्रश्न है, बुद्ध ही करुणा का प्रतीक क्यों ?
इसका उत्तर बुद्धचरित है। स्मरण करिए, सिद्धार्थ के घायल हंस वाला दृश्य। वह करुणा ही थी, जो घायल पक्षी की जान बचाती है। अन्य धार्मिक प्रसंगों में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जो करुणा को इस तरह परिभाषित करता हो। और यही कारण है कि बुद्ध करुणा के रूप है, करुणा और मैत्री का अर्थ बुद्ध है।
बुद्ध की करुणा का मात्र यही एक रूप नहीं है। "एक आदमी दूसरे का शोषण करें, क्या इसे ठीक कहा जायेगा ?" या "पर, माँ, एक क्षत्रिय को क्यों लड़ना चाहिए ? एक आदमी का दूसरे आदमी को मारना धर्म कैसे हो सकता है ? " -कथानक हो, या नदी जल विवाद पर; "क्या बिना युद्ध किए हम शांति से नहीं रह सकते ? युद्ध हमारा अंतिम अस्त्र होना चाहिए, जब सारे प्रयास चूक गए हो" अथवा रोगी भिक्खु की सेवा करने का कथानक, बुद्ध का कारुणिक रूप हृदय को छू लेता है। मैं सुखी रहूँ , मेरे सम्बन्धी सुखी रहे और सभी प्राणी सुखी रहे; का अनुपालन और देशना बुद्ध सतत करते रहे (बुद्धा एंड हिज धम्मा :डॉ बी आर अम्बेडकर )।
धम्म दार्शनिकों ने भी आगे चल कर, बुद्ध की करुणा को जन-जन तक पहुँचाया। दूसरे प्राणियों को दुक्ख से छुड़ाने में जो आनंद मिलता है, उसके सामने अपने लिए सुख की तलाश बहुत क्षुद्र है। प्राणि-मात्र के सुख के लिए बोधिसत्वों द्वारा अपने शरीर के अंग अथवा शरीर अर्पण करने की पराकाष्ठा ने जनता के हृदयों को बहुत कोमल और दुक्ख-सहिष्णु बना दिया। भारत की आज भी साधारण मनोवृति दुक्ख सह लेनी की है, दूसरों को दुक्ख देने की नहीं(भूमिका: बोधिचर्यावतार)।
बोधिसत्वों की चर्या के मर्म स्थान का; सातवीं सदी में नालंदा विश्वविद्यालय बौद्धाचार्य शांतिदेव के प्रसिद्द ग्रन्थ 'शिक्षा-समुच्चय' में इस प्रकार जिक्र है- "आत्म भावस्य भोगाना त्रयध्ववृते: शुभस्य च। उत्सर्ग: सर्व सत्त्वेभ्यस्त द्रक्षा शुद्धिवर्धन।।" अर्थात सम्पूर्ण प्राणियों के हित के लिए अपने आत्म-भाव (मनोवचन सहित शरीर) अपनी भोग सामग्री और अपने पुण्य का उत्सर्ग कर देना चाहिए और उत्सर्ग के लिए ही उनकी रक्षा, शुद्धि और वृद्धि करनी चाहिए(वही)।
बुद्ध को करुणा का प्रतीक समझा जाता है। चित्रकार जब करुणा को दर्शाता है तब उसकी कुची, बुद्ध को तलाश रही होती है। कवि जब करुणा को तलाशता है, उसकी कल्पना में बुद्ध जीवंत हो उठते हैं। रचनाकार की रचना हो या कवि की कल्पना, करुणा के सागर बुद्ध ही रहते हैं। उन्हें दसरथ सुत राम या राधा के स्याम में, करुणा के दर्शन नहीं होते । प्रश्न है, बुद्ध ही करुणा का प्रतीक क्यों ?
इसका उत्तर बुद्धचरित है। स्मरण करिए, सिद्धार्थ के घायल हंस वाला दृश्य। वह करुणा ही थी, जो घायल पक्षी की जान बचाती है। अन्य धार्मिक प्रसंगों में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जो करुणा को इस तरह परिभाषित करता हो। और यही कारण है कि बुद्ध करुणा के रूप है, करुणा और मैत्री का अर्थ बुद्ध है।
बुद्ध की करुणा का मात्र यही एक रूप नहीं है। "एक आदमी दूसरे का शोषण करें, क्या इसे ठीक कहा जायेगा ?" या "पर, माँ, एक क्षत्रिय को क्यों लड़ना चाहिए ? एक आदमी का दूसरे आदमी को मारना धर्म कैसे हो सकता है ? " -कथानक हो, या नदी जल विवाद पर; "क्या बिना युद्ध किए हम शांति से नहीं रह सकते ? युद्ध हमारा अंतिम अस्त्र होना चाहिए, जब सारे प्रयास चूक गए हो" अथवा रोगी भिक्खु की सेवा करने का कथानक, बुद्ध का कारुणिक रूप हृदय को छू लेता है। मैं सुखी रहूँ , मेरे सम्बन्धी सुखी रहे और सभी प्राणी सुखी रहे; का अनुपालन और देशना बुद्ध सतत करते रहे (बुद्धा एंड हिज धम्मा :डॉ बी आर अम्बेडकर )।
धम्म दार्शनिकों ने भी आगे चल कर, बुद्ध की करुणा को जन-जन तक पहुँचाया। दूसरे प्राणियों को दुक्ख से छुड़ाने में जो आनंद मिलता है, उसके सामने अपने लिए सुख की तलाश बहुत क्षुद्र है। प्राणि-मात्र के सुख के लिए बोधिसत्वों द्वारा अपने शरीर के अंग अथवा शरीर अर्पण करने की पराकाष्ठा ने जनता के हृदयों को बहुत कोमल और दुक्ख-सहिष्णु बना दिया। भारत की आज भी साधारण मनोवृति दुक्ख सह लेनी की है, दूसरों को दुक्ख देने की नहीं(भूमिका: बोधिचर्यावतार)।
बोधिसत्वों की चर्या के मर्म स्थान का; सातवीं सदी में नालंदा विश्वविद्यालय बौद्धाचार्य शांतिदेव के प्रसिद्द ग्रन्थ 'शिक्षा-समुच्चय' में इस प्रकार जिक्र है- "आत्म भावस्य भोगाना त्रयध्ववृते: शुभस्य च। उत्सर्ग: सर्व सत्त्वेभ्यस्त द्रक्षा शुद्धिवर्धन।।" अर्थात सम्पूर्ण प्राणियों के हित के लिए अपने आत्म-भाव (मनोवचन सहित शरीर) अपनी भोग सामग्री और अपने पुण्य का उत्सर्ग कर देना चाहिए और उत्सर्ग के लिए ही उनकी रक्षा, शुद्धि और वृद्धि करनी चाहिए(वही)।
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