पिछले अक्टू 2011 को हमारा जाना मेरे ब्रदर-इन-ला प्रदीपजी के यहाँ हुआ था. प्रदीपजी रेशम विभाग में हैं. वे बागबाहरा जिला रायपुर(छत्ति.) में पदस्थ हैं. मुझे यह तो मालूम था की वे रेशम विभाग में हैं. किन्तु , रेशम कैसे पैदा किया जाता है, यह मालूम नहीं था. प्रदीपजी भी उनके रेशम फार्म्स मुझे दिखाने काफी उत्सुक थे. उन्हें मालूम था, मैं लेखक हूँ. उन्हें यकीं था की जरुर मैं इस पर कोई लेख तैयार करूंगा.तो जनाब, लेख प्रस्तुत है, जैसे मैंने देखा और इस सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त किया-
रेशम वास्तव में प्राकृतिक रेशा है. इस कपड़े की चमक, दरअसल रेशम रेशे के तिकोने प्रिज्म रूपी स्ट्रक्टचर के कारण होती है जिससे सूर्य की किरणे परावर्तित होती है. रेशम के उत्पादन अर्थात खेती को सेरिकल्चर (sericultur) कहा जाता है.
रेशम का उत्पादन चीन में ईसा पूर्व 3500 साल में किये जाने का उल्लेख है. आपने 'चिनाम्बरा '(Chinambara) का नाम तो सुना होगा. चिनाम्बरा का मतलब है- सुनहरे रंग का चीन में निर्मित धागा. हमारे देश में रेशम के व्यापर का उल्लेख हमें सर्वप्रथम मगध राज्य के राजा अजातशत्रु के शासन काल में मिलता है. इसका भी उल्लेख मिलता है कि ईस्वी 320-480 के दौरान बिहार के भागलपुर क्षेत्र में रेशम का व्यापार अपने चरम पर था.
आज चीन के बाद भारत, विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेशम-उत्पादक देश है. इसके बावजूद भी स्थानीय मांग की पूर्ति नहीं हो पाती है तभी तो दूसरे देशों से मॉल मांगना पड़ता है. हमारे यहाँ अधिकत्तम रेशम मैसूर और उत्तरी बंगलौर (कर्नाटक) में पैदा किया जाता है. इसके बाद भूदान पोचमपल्ली, धरमावाराम (आन्ध्र.) कांचीपुरम (तमिलनाडू),बनारस मुर्शिदाबाद-मालदा (पश्चिम बंगाल) और आसाम तथा कश्मीर में रेशम का उत्पादन किया जाता है.
आप सभी ने रेशम के कपड़े जरूर पहने होंगे. वस्त्र उद्योग में रेशम का महत्त्वपूर्ण स्थान है. कोई भी, फिर आदमी हो या महिला; रेशम के कपड़े पहन कर कुछ खास महसूस करता है. जाहिर है, देश और विदेशों में रेशम की बड़ी मांग है. रेशम का धागा सुनहरा, मुलायम और लुभावना होता है. इसके बुने हुए वस्त्र पहनने में आरामदायक और मौसम के अनुकूल होने की क्षमता रखते हैं.
रेशम को प्राचीन काल से ही आदिवासी संस्कृति से जोड़ कर देखा जाता है. वनांचलों में रहने वाले आदिवासी प्राकृतिक रूप से उत्पादित कोसे को एकत्र कर अपनी रोजी-रोटी चलाते थे. यद्यपि आज यह उद्योग काफी विकसित हो चुका है तथापि यह आज भी स्पष्ट तौर पर आदिवासी और वन-क्षेत्र पर ही ज्यादा निर्भर है.
रेशम की किश्में-उत्पादन की प्रक्रिया के परिपेक्ष्य में रेशम दो प्रकार का होता है- शहतूती रेशम (Mulberry Silk) और गैर-शहतुती रेशम (Non-Mulberry Silk).
1.शहतूती रेशम (Mulberry Silk)- शहतूत (मलबरी) पौधों की पत्ती खा कर रेशम-कृमि (कीड़ा) जो रेशम बनाता है, उसे शहतूती रेशम कहा जाता है.शहतूत की पत्तियां प्राप्त के लिए शहतूत के पौधों की खेती की जाती है. इस विधि में कृमि(कीड़ा )पालन घर के अन्दर किया जाता है.
2. गैर शहतुती रेशम - इसके अंतर्गत तसर (कोसा) तथा मूंगा और एरी(अरंडी) रेशम आते हैं.
I. तसर (कोसा) रेशम -इस कृमि के खाद्य वृक्ष साल, अर्जुन इत्यादि है. इन वृक्षों की पत्तियां खा कर रेशम
कृमि जो रेशम बनाता है, वह तसर या कोसा रेशम कहलाता है. इस विधि में कृमि पालन खुले आकाश
में किया जाता है. इस लेख में तसर रेशम कैसे पैदा किया जाता है, इसे ही दिखाया गया है.
II. ओक तसर रेशम -यह बाज आदि पौधों की पत्तियों पर आधारित है.
III. मूंगा रेशम - इस रेशम के कृमि के खाद्य वृक्ष सोम तथा सोलू है जो मुख्यत: आसाम में पाए जाते हैं.
IV. एरी या अरंडी रेशम-इस रेशम के कृमि का कृमि पालन अरंडी के पौधों पर किया जाता है.
तसर कृमि का जीवन-चक्र-
तसर रेशम के कृमि चार अवस्थाओं से गुजर कर जीवन चक्र पूरा करते हैं.
तसर कृमि का जीवन-चक्र-
तसर रेशम के कृमि चार अवस्थाओं से गुजर कर जीवन चक्र पूरा करते हैं.
1. अंडा 2. इल्ली या लार्वा
3. संखी या प्यूपा 4. शलभ या मंथ
तसर कृमि के अंडे के अन्दर उसके भ्रूण का विकाश होता है जिससे छोटी-छोटी इल्ली या लार्वा बाहर निकलते हैं जो तसर कृमि के भोज्य पौधों यथा आसन, अर्जुन, साल आदि की पत्तियां खाकर वृद्धि करते हैं. लार्वा परिपक्व हो कर अपने मुहं से एक विशेष प्रकार की लार निकालते हैं, जो हवा के सम्पर्क में आ कर रेशम धागा बन जाता है. लार्वा अपने चारों तरफ एक कवच या कोसा (cacoon) बना कर उसके अन्दर प्यूपा में रूपांतरित हो जाता है. कोसा के अन्दर प्यूपा निष्क्रिय-सा दीखता है.लेकिन इसके अन्दर अनेकों जैविक क्रियाएं चलती रहती हैं. जिसमें उसके अंगों का विघटन,तथा प्रजनन अंग बनाना प्रमुख होते हैं. कोसा के अन्दर ही प्यूपा माथ में परिवर्तित होता है जो बाद में कोसा को भेद कर बाहर निकलती है. माथ की उपयोगिता मात्र प्रजनन के लिए होती है. नर तथा मादा मेटिंग करते हैं तथा इसके बाद मादा अंडे देती है. इस तरह इनका जीवन चक्र चलता है.
तसर कृमि की मादा माथ एक बार में 150 से 250 तक अंडे देती है. निषेचित अण्डों में से अंडा देने के 9 से 10 दिन बाद मौसम के अनुरूप नवजात लार्वा निकलते हैं. अंडे से बाहर निकलते से ही लारवा खाद्य पौधों की पत्तियां खाना प्रारंभ करके शरीर की वृध्दि करते हैं. इस वृध्दि के समय लार्वा 5 अवस्थाओं से गुजरता है. लार्वा पांचवीं अवस्था में परिपक्व होने पर अपने मुह से लार निकालते हुए कोसा बनाते हैं, जो हवा के सम्पर्क में आ कर कठोर हो जाता है.
संखि या प्यूपा, तसर कृमि के लार्वा द्वारा निर्मित कोसा कवच (cocoon ) के अन्दर स्थित होता है.प्यूपा तसर कृमि की एक महत्वपूर्ण लेकिन निष्क्रिय अवस्था है जिसकी चयापचय (metabolism) की गति अत्यंत धीमी होती है. इस अवस्था में ही भोजन अंग एवं प्रजनन अंग बनते हैं.
तसर कोसा या ककून का रंग भूरा-पीला होता है. तसर लार्वा परिपक्व हो कर जब कोसा बनाने के लिए तैयार होता है, तब वह 3-4 पत्तियों के समूह का हेमक (Hammock) बनाने के लिए चयन करता है. हेमक बनाने के लिए वह पत्तियों को जोड़ता है तथा अनियमित रूप से रेशम धागा छोड़ता है. लार्वा लगभग 6 घंटा हेमक बनाने में लगाता है.
तसर कोसे का उपयोग दो प्रकार से किया जाता है-प्रजनन हेतु अर्थात डोडा निर्माण के लिए तथा दूसरे, रेशम धागा बनाने के लिए.
माथ, तसर कृमि की वयस्क अवस्था होती है. इसके मुखांग विकसित नहीं होते. अत: यह भोजन नहीं करता है. इसका कार्य मात्र प्रजनन करना तथा अंडा देना होता है. यह मात्र 7 -10 दिनों तक ही जीवित रहता है.
तसर कोसा से माथ मुख्यत: रात/सुबह में निकलती है तथा कोसा के बाहर आते ही मेटिंग (mating) शुरू हो जाता है.
वृक्षों से कोसा की कटाई उसके कोसा बनाने के 6-7 दिन बाद, जब कोसा के अन्दर शंखी बन जाती है, किया जाता है. कोसे को उसके छल्ले के समीप से काट कर टहनियों से अलग किया जाता है. कोसा कटाई के बाद बीज(Grainage) हेतु अच्छा कोसा छांट कर अलग किया जाता है और शेष को धागाकरण के लिए इकट्ठा किया जाता है. रेशम निकलने का प्रतिशत 40-45% अर्थात 0.20 गाम प्रति कोसा के करीब है.
तसर कृमि की मादा माथ एक बार में 150 से 250 तक अंडे देती है. निषेचित अण्डों में से अंडा देने के 9 से 10 दिन बाद मौसम के अनुरूप नवजात लार्वा निकलते हैं. अंडे से बाहर निकलते से ही लारवा खाद्य पौधों की पत्तियां खाना प्रारंभ करके शरीर की वृध्दि करते हैं. इस वृध्दि के समय लार्वा 5 अवस्थाओं से गुजरता है. लार्वा पांचवीं अवस्था में परिपक्व होने पर अपने मुह से लार निकालते हुए कोसा बनाते हैं, जो हवा के सम्पर्क में आ कर कठोर हो जाता है.
लार्वा पत्ती को किनारे से खाना शुरू करते हैं. लार्वा अपनी पांचवीं अवस्था के अंतिम समय में पत्ती खाना बंद कर देता है. वह अपनी आंत से भोजन के सभी अपशिष्टों को शरीर से बाहर निकालता है तथा अपने मुंह से लार निकलते हुए कोसा बनाता है, जो हवा के सम्पर्क में आ कर कठोर हो जाता है. तसर कृमि का एक लार्वा अपने जीवन काल में कोसा बनाने तक लगभग 300 ग्राम पत्तियां खाता है.
संखि या प्यूपा, तसर कृमि के लार्वा द्वारा निर्मित कोसा कवच (cocoon ) के अन्दर स्थित होता है.प्यूपा तसर कृमि की एक महत्वपूर्ण लेकिन निष्क्रिय अवस्था है जिसकी चयापचय (metabolism) की गति अत्यंत धीमी होती है. इस अवस्था में ही भोजन अंग एवं प्रजनन अंग बनते हैं.
तसर कोसा या ककून का रंग भूरा-पीला होता है. तसर लार्वा परिपक्व हो कर जब कोसा बनाने के लिए तैयार होता है, तब वह 3-4 पत्तियों के समूह का हेमक (Hammock) बनाने के लिए चयन करता है. हेमक बनाने के लिए वह पत्तियों को जोड़ता है तथा अनियमित रूप से रेशम धागा छोड़ता है. लार्वा लगभग 6 घंटा हेमक बनाने में लगाता है.
कोसा के अन्दर प्यूपा, माथ में रूपांतरित हो जाता है. प्यूपा एक विशेष प्रकार का एंजाइम निकालता है जिससे कोसे के अन्दर की सतह गीली हो जाती है तथा कोसे के धागे ढीले हो जाते हैं. इसमें माथ को कोसे से बाहर निकलने में आसानी होती है.
तसर कोसे का उपयोग दो प्रकार से किया जाता है-प्रजनन हेतु अर्थात डोडा निर्माण के लिए तथा दूसरे, रेशम धागा बनाने के लिए.
माथ, तसर कृमि की वयस्क अवस्था होती है. इसके मुखांग विकसित नहीं होते. अत: यह भोजन नहीं करता है. इसका कार्य मात्र प्रजनन करना तथा अंडा देना होता है. यह मात्र 7 -10 दिनों तक ही जीवित रहता है.
तसर कोसा से माथ मुख्यत: रात/सुबह में निकलती है तथा कोसा के बाहर आते ही मेटिंग (mating) शुरू हो जाता है.
वृक्षों से कोसा की कटाई उसके कोसा बनाने के 6-7 दिन बाद, जब कोसा के अन्दर शंखी बन जाती है, किया जाता है. कोसे को उसके छल्ले के समीप से काट कर टहनियों से अलग किया जाता है. कोसा कटाई के बाद बीज(Grainage) हेतु अच्छा कोसा छांट कर अलग किया जाता है और शेष को धागाकरण के लिए इकट्ठा किया जाता है. रेशम निकलने का प्रतिशत 40-45% अर्थात 0.20 गाम प्रति कोसा के करीब है.
तसर कर्मी के भोज्य पौधे- तसर कृमि एक बहुभक्षी कृमि है. अर्थात वह अनेक प्रकार के पौधों की पत्तियां खा कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं. जैसे आसन या साज(Tomentosa) तथा अर्जुन(Arjuna) की पत्तियां खा कर गुणवत्ता युक्त कोसा बनता है. इसके आलावा वह साल(Shorea Robusta), सिध्दा,जामुन, बेर इत्यादि अनेक पौधों की पत्तियां भी खाता है. लेकिन इस पर उत्पादित कोसा की गुणवत्ता कम होती है.