Wednesday, July 31, 2019

सड़े आदर्श

सड़े आदर्श
परिवार हो या समाज, हमारी माँ-बहनें, पुरुष के हवश की शिकार होती रही है, होती रहेगी. 
जब तक 'सीता' घर से निष्कासित की जाती रहेगी, स्त्री, पुरुष के हवश की शिकार होती रहेगी. 
जब तक 'द्रोपदी' 'पांडवों' की जांघों पर बैठती रहेगी, स्त्री, पुरुष के हवश की शिकार होती रहेगी. 
जब तक 'अहिल्या' का 'शील' भंग होते रहेगा, स्त्री, पुरुष के हवश की शिकार होती रहेगी.

Tuesday, July 30, 2019

भारतीय छात्रों के लिए दरवाजे खोलता जर्मनी

भारतीय छात्रों के लिए दरवाजे खोलता जर्मनी
विदेशों में पढ़ाई की ख्वाहिश रखने वालों के लिए सबसे बड़ी चुनौती पैसे की कमी होती है, लेकिन अगर किसी देश में मुफ्त पढ़ाई हो, तो यह छात्रों के लिए खुशखबरी से कम नहीं। यूरोप में भारतीय छात्र सबसे ज्यादा ब्रिटेन जाना पसंद करते हैं लेकिन जर्मनी जल्दी ही उसे पीछे छोड़ने वाला है। और इसकी सबसे बड़ी वजह जर्मन यूनिवर्सिटी‍यों में मुफ्त पढ़ाई का नियम है।
अंतरराष्ट्रीय शिक्षा पर नजर रखने वाले भारतीय संगठन एमएम एडवाइजरी के ताजा सर्वे में बताया गया है कि पिछले साल जर्मनी में करीब सवा तीन लाख छात्र पढ़ने आए, जबकि ब्रिटेन में लगभग साढ़े चार लाख। यह अनुपात तेजी से बदल रहा है और जहां तक भारतीय छात्रों की बात है, तो जर्मनी जाने वालों की संख्या में जबरदस्त तेजी आई है, जबकि ब्रिटेन में पढ़ाई करने वाले भारतीय छात्रों की संख्या पिछले साल लगभग 10 फीसदी घट गई है।
भारत से लगभग दो लाख छात्र हर साल विदेशों में पढ़ने जाते हैं, जिनका लक्ष्य इंग्लिश बोलने वाले विकसित देश यानी अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड होता है। एक लाख यानी लगभग आधे छात्र अमेरिका जाना चाहते हैं, जबकि 38000 छात्रों के साथ ग्रेट ब्रिटेन दूसरे नंबर पर है और फिर ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा का नंबर आता है। जर्मनी में बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था होने के बाद भी यह भारतीयों के लिए अनुकूल नहीं माना जाता था क्योंकि जर्मन एक मुश्किल भाषा है और यहां पढ़ाई करने के लिए जर्मन आना लाजमी समझा जाता था, पर हाल के दिनों में यह मिथक टूटा है और जर्मनी ने विदेशी छात्रों के लिए अपने दरवाजे खोले हैं।
पढ़ाई पर खर्च : समझा जाता है कि विदेशों में पढ़ाई के लिए मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है। ज्यादातर देशों के मामले में यह बात सही भी है। अमेरिका में औसत सालाना फीस लगभग 30000 डॉलर (20 लाख रुपए) है, जबकि ब्रिटेन में पिछली सरकार ने विश्वविद्यालयों की सालाना फीस 9000 पाउंड (लगभग नौ लाख रुपए) तय कर दी थी। इससे उलट जर्मनी के सभी 16 प्रांतों ने सरकारी विश्वविद्यालयों की फीस खत्म कर दी है। अब यहां मुफ्त पढ़ाई की जा सकती है। हालांकि जर्मनी में प्राइवेट विश्वविद्यालय भी हैं और उनकी औसत फीस 15000-20000 यूरो (12-15 लाख रुपए) है। लेकिन छात्र आमतौर पर सरकारी यूनिवर्सिटीयों में पढ़ाई करना चाहते हैं, जिनकी अंतरराष्ट्रीय मान्यता है और जिन्होंने अर्से से अपनी साख बना रखी है। पहले मुफ्त पढ़ाई की सुविधा सिर्फ जर्मन और यूरोपीय संघ के छात्रों को थी, जो अब विदेशी सहित सभी छात्रों के लिए कर दी गई है।
विषय और स्कॉलरशिप : जर्मनी अपनी तकनीकी दक्षता, मशीनरी रिसर्च और कार टेक्नोलॉजी के लिए जाना जाता है। इस वजह से यह इंजीनियरिंग के छात्रों और रिसर्च स्कॉलरों की पहली पसंद है। लेकिन वास्तव में यहां बायो टेक्नोलॉजी, मैनेजमेंट, इतिहास और अर्थशास्त्र की भी विश्वस्तरीय पढ़ाई होती है। यहां के बर्लिन, लाइपजिश, म्यूनिख और आखेन जैसे कुछ विश्वविद्यालय दुनियाभर में अव्वल माने जाते हैं। भारत से जर्मनी आने की इच्छा रखने वाले छात्रों को जर्मन एक्सचेंज एजुकेशन प्रोग्राम यानी डाड की वेबसाइट (daad.de) पर नजर रखनी चाहिए। डाड हर साल अलग-अलग विषयों में भारतीय छात्रों को जर्मनी में रिसर्च और पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप देता है। यूरोपीय संघ की संस्था एरासमुस (ec.europa.eu) पूरे यूरोप में सबसे ज्यादा स्कॉलरशिप देने वाली संस्था है, जो जर्मनी में पढ़ाई के लिए भी छात्रवृत्ति देती है। वैसे अलग-अलग विषयों में मिलने वाली स्कॉलरशिप के बारे में इस लिंक (http://goo.gl/JHs137) से ज्यादा जानकारी मिल सकती है।
रहने का खर्च : स्कॉलरशिप न मिले, तो भी कम पैसों में जर्मनी में पढ़ाई संभव है। दाखिला लेने के लिए यहां की यूनिवर्सिटीयों में सीधे संपर्क किया जा सकता है। ज्यादातर यूनिवर्सिटी की वेबसाइट इंग्लिश में उपलब्ध है। छात्रों के लिए जर्मनी में सबसे बड़ा खर्च मकान का किराया होता है। डाड ने जर्मन छात्रों के लिए औसत खर्च का अनुमान लगाया है, जिसके मुताबिक म्यूनिख जैसे दक्षिणी शहरों में कम से कम 350 यूरो (27000 रुपए) प्रतिमाह से कम किराए पर एक कमरे का मकान नहीं मिल सकता है, लेकिन अगर स्टूडेंट हॉस्टल (प्राइवेट) का विकल्प देखा जाए, तो यह लगभग 240 यूरो (19000 रुपए) में मिल सकता है।
डाड ने अपने पास उपलब्ध डाटा के अनुसार बताया है कि जर्मनी में छात्रों को खाने-पीने के लिए हर महीने 165 यूरो, कपड़ों के लिए 52 यूरो, ट्रांसपोर्ट के लिए 82 यूरो, टेलीफोन और इंटरनेट के लिए 33 यूरो, पढ़ाई से जुड़ी सामग्री के लिए 30 यूरो और दूसरे खर्चों के लिए 68 यूरो की जरूरत पड़ती है। ट्यूशन फीस मुफ्त है यानी महीने में 670 यूरो (54000 रुपए) में छात्र आराम से रह सकते हैं। जर्मनी में स्वास्थ्य बीमा अनिवार्य है, जो इस खर्च में नहीं जुड़ा है। छात्रों का स्वास्थ्य बीमा लगभग 90 यूरो प्रतिमाह में हो सकता है। दूसरी ओर ब्रिटेन में छात्रों का औसत खर्च 2000 पाउंड (दो लाख रुपए) प्रतिमाह बताया जाता है।
जर्मनी में छात्र आमतौर पर अपने खर्च का बहुत बड़ा हिस्सा खुद ही कमा लेते हैं। यहां पढ़ाई के साथ काम करने की इजाजत है और छात्र हर साल 120 दिन काम कर सकते हैं। उन्हें हफ्ते में 20 घंटे काम की इजाजत है। आमतौर पर वे शाम को रेस्त्रां या दुकानों में तीन-चार घंटे काम कर लेते हैं। जर्मनी में न्यूनतम तनख्वाह साढ़े आठ यूरो प्रति घंटा है और इस तरह से उनके पास अपना खर्च चलाने के लिए पर्याप्त पैसे जमा हो जाते हैं।
भाषा की समस्या : जर्मन दुनिया की सबसे मुश्किल भाषाओं में गिना जाता है। हालांकि अब कई यूनिवर्सिटी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करा रही हैं, लेकिन जर्मनी में रहने और यहां काम करने के लिए जर्मन भाषा की बुनियादी जानकारी होना बेहतर है। यहां लगभग सभी शहरों में जर्मन भाषा सीखने की सुविधा होती है। अंतरराष्ट्रीय छात्रों पर सर्वे करने वाली संस्था एमएम एडवाइजरी की एमएम मथाई ने यूनिवर्सिटी वर्ल्डन्यूज से कहा, जर्मनी विदेशी छात्रों को जो पैकेज दे रहा है, वह इतना आकर्षक है कि छात्र जर्मन भाषा की बाधा को पार करने के लिए तैयार हो रहे हैं। जर्मनी यूरोप में सबसे आगे के देशों में गिना जाता है और तकनीकी तौर पर बेहद सशक्त देश है। फिलहाल भारत के करीब 12000 छात्र जर्मनी में पढ़ते हैं।
इमिग्रेशन पॉलिसी : अमेरिका या ब्रिटेन के मुकाबले जर्मनी में इमिग्रेशन पॉलिसी आसान है। ब्रिटेन की एक मुश्किल यह है कि वहां छात्र वीजा पर रहने वाले लोग काम नहीं कर सकते। अगर पढ़ाई के बाद ब्रिटेन में गैर यूरोपीय संघ के देशों के छात्रों को काम मिल भी जाता है तो उन्हें पहले अपने देश लौटना पड़ता है और वहां से वर्क वीजा लेकर आना पड़ता है। पहले ऐसा नहीं था। ब्रिटेन ने यह नियम वीजा फ्रॉड को रोकने के लिए बनाया है, लेकिन इससे वहां छात्रों की संख्या कम हो रही है। जर्मनी में यह बंदिश नहीं है। यहां पढ़ाई के दौरान काम को प्रोत्साहित किया जाता है और कोशिश होती है कि छात्रों को जर्मनी के अंदर नौकरी मिल जाए। पढ़ाई खत्म होने के बाद अगर काम न मिले, तो भी 18 महीने का वर्क सर्च वीजा मिल सकता है। जर्मनी शेंगन क्षेत्र में आता है यानी यहां पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए शेंगन इलाके के दूसरे बड़े देश फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड्स और स्कैंडिनेवियाई देशों के दरवाजे भी खुले रहते हैं, उन्हें वहां भी नौकरी मिल सकती है, जबकि ब्रिटेन इससे बाहर है और वहां के लिए अलग वीजा लेना पड़ता है।
अनवर जमाल अशरफ

Monday, July 29, 2019

बुद्ध के मूल सिद्धांत

बुद्ध के मूल सिद्धांत
1. मनुष्य स्वयं अपना मालिक है।  यह सिद्धांत किसी ब्रह्मा/ईश्वर आदि मान्यता को अस्वीकार करता है।
2. अनित्यता सिद्धांत । यह सिद्धांत 'आत्मा' जैसी किसी चीज को नकारता है। बुद्ध का यही सिद्धात सिद्ध करता है कि 'जगत सतत परिवर्तनशील' है।
अनित्यता के सिद्धांत को ही प्रतीत्य-समुत्पाद (पटिच्च समुप्पाद) कहा जाता है। एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति। बुद्ध का प्रत्यय ऐसा हेतु है, जो किसी वस्तु या घटना के उत्पन्न होने के पहले के क्षण सदा लुप्त होते देखा जाता है। प्रतीत्य-समुत्पाद का नियम कार्य-कारण के नियम को अविछिन्न नहीं,  विछिन्न प्रवाह सिद्ध करता है(राहुल सांकृत्यायन : दर्शन- दिग्दर्शन,  पृ 514)। बुद्ध के अनुसार सारे धर्म प्रतीत्य-समुत्पन्न हैं।
आगे चलकर नागार्जुन ने इसे ही 'शून्यता' कहा. नागार्जुन के अनुसार विश्व और उसकी सारी जड़-चेतन वस्तुएं किसी भी स्थिर अचल तत्व से बिलकुल शून्य हैं(विग्रह-व्यावर्तनी कारिका 22)। अर्थात विश्व घटनाएं हैं, वस्तु-समूह नहीं(दर्शन- दिग्दर्शन, पृ 572)।
भदन्त आनन्द कौसल्यायन इसे बड़े सीधे और सरल अर्थ में बतलाते है- पटिच्च-समुप्पाद का अर्थ है; ऐसा होने पर ऐसा होता है, ऐसा नहीं होने पर ऐसा नहीं होता। उदाहरणार्थ, पानी होने पर भाप होती है, पानी नहीं होने पर भाप नहीं होती है। अथवा तेल होने पर दीपक जलता है, तेल न होने पर दीपक नहीं जलता। पटिच्च-समुप्पाद के नियम के अनुसार जो कुछ भी हमें दृष्टिगोचर होता है, हर वस्तु की, हर क्रिया की, हर धम्म की एक पूर्वावस्था होती है। यदि वह पूर्वावस्था न हो तो उसकी उत्तरकालीन अवस्था न हो। क्योंकि उसकी पूर्वावस्था होती है, इसलिए उसकी उत्तरावस्था होती है(संदर्भ- दर्शनः वेद से मार्क्स तक; डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन )।

प्रतीत्य-समुप्पाद का अर्थ है; प्रवाह(प्रत्यय) में विनाश(अत्यय) के साथ उत्पाद(समुप्पाद)। पहली वस्तु के विनाश के साथ दूसरी वस्तु की उत्पत्ति। जैसे दूध से दही का बनना। दूध जब दही हो जाता है, तब वह दूध नहीं रहता। और यह भी कि दूध के अलावा दूसरी वस्तु से दही नहीं बनता। यदि दूध है तो उसका दही हो सकता है। कलि में ही फूल है; कहना अयर्थाथ है। यर्थाथ कलि से ही फूल होता है। इस प्रकार प्रतीत्य-समुत्पाद अविच्छिन्न नहीं, विच्छिन्न प्रवाह है(भगवान बुद्ध का इतिहास एवं धम्मदर्शन, पृ. 177-178)।

अस्तित्व का अर्थ है- होना। बौद्ध दर्शन में प्राणी एक ‘सन्तति-प्रवाह’ है। इस सन्तति-प्रवाह में पदार्थ और मानसिक कारक अर्थात ‘रूप’ और ‘नाम’ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह ‘सत्व’ या प्राणी लोक-व्यवहार में ‘पंच-स्कन्धों का सम्बोधन है। इसके भीतर या बाहर इन स्कन्धों के अतिरिक्त उसको निर्देशित करने वाली कोई तत्व या कारक नहीं है। यही बौद्ध धम्म का प्रख्यात ‘अनत्ता’ या अनात्मवाद है।
 
3. किसी ग्रन्थ को स्वत: प्रमाण न मानना। यह सिद्धांत वेदों सहित अन्यन्य धर्म-ग्रंथों की प्रमाणिकता को प्रश्नांकित करता है। किसी ग्रन्थ का स्वत: प्रमाण मानना उसमें वर्णित विषयों पर संदेह न कर आगे की जिज्ञासा को रोक देता है। बुद्ध चाहते थे कि मनुष्य अपनी बुद्धि का इस्तेमाल स्वतंत्रता पूर्वक करें। वह किसी घेरे में कैद होकर न रह जाए।
4.     

निर्वाण

निर्वाण
दुक्ख के क्षय को 'निर्वाण' कहा गया है। किन्तु दुक्ख का क्षय किस तरह संभव है, इसके लिए सुत्तनिपात, जो बुद्धवचनों की प्रमाणिकता के लिए अधिक विश्वनीय है, में एक गाथा आयी है-
नन्दी-संयोजनो लोको, वितक्कस्स विचारणा।
तण्हाय विप्पहानेन, निब्बानं 'ति वुच्चति।। सुत्त निपात : 1109।।
नन्दी (तृष्णा/लोभ) वह तंतु है जिससे लोक-बंधन में मनुष्य गुथा होता है। तृष्णा को नियंत्रित करना ही 'निर्वाण' है.
सुत्तनिपात से ही एक और गाथा देखें-
यस्मिं कामा न वसन्ति, तण्हा यस्स न विज्जति ।
कथंकथा च यो तिण्णो, विमोक्खो तस्स न परो।। 1089।।
इसी तारतम्य में मराठी का एक अभंग देखें-
देह हाड़का च किल्ला, रक्त मासाने लिपिला।
मृत्यु आणि वृद्धपन, तैसे मत्सर अभिमान।
सर्वे वैरी हे आपुले, देह लपुनि बसले।
देह आशक्ति धरु नका, सांगे तथागत लोका।।

वर्ण/जाति-व्यवस्था/ ब्राह्मणवाद/भाग्य/पुनर्जन्म/सर्वज्ञता/चमत्कार/ज्योतिष के विरुद्ध बुद्ध की सामाजिक क्रांति

पटिच्च सम्मुप्पाद(ईश्वरवाद का खंडन) - 1. दीघनिकाय(महानिदान सुत्त)-  2.2
                                                             2.मज्झिम निकाय  1.3.8

आत्मवाद का खंडन- 1. मज्झिम निकाय(महातन्हासंखय सुत्तन्त) -  1.4.8     -भिक्खु साति केवट्ठ  पुत्त के विञ्ञान(जीव) के आवागमन की बात करने पर बुद्ध की फटकार।
2. मज्झिम निकाय 1.1.2
3. मज्झिम निकाय(चुलसच्चक सुत्त) 1.4.5
4. दीघनिकाय(पथिक सुत्त) - 3.1   -सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, आत्मा, ईश्वर का खंडन।
4. दीघ निकाय (केवट्ठसुत्त)        - ईश्वर, ब्रह्मा का परिहास।
दीघ निकाय(तेविज्ज सुत्त)- 1. 13  ब्रह्मा का परिहास ; ब्राह्मण  अंधे के पीछे चलने वाले अंधों की भांति बिना जाने देखे ईश्वर(ब्रह्मा) और उसके लोक पर विश्वास रखते हैं।
5. मज्झिम निकाय(ब्रह्मा निमन्तिक सुत्त)  1.5.9   -ईश्वर, ब्रह्मा का परिहास।

सन्दक सुत्त- निगंठनाथ पुत्त की 'सर्वज्ञता' का मजाक।
तेविज्ज वच्छगोत्त सुत्त (म. नि.- 71)-  बुद्ध ने अपनी 'सर्वज्ञता' से इंकार किया।
                          मिलिंद पन्ह-  मिलिंद के प्रश्न (129 ) के ऊतर में नागसेन ने बुद्ध को सर्वज्ञ
                          बताया था(भूमिका:बोधिचर्यावतार)।

जन्म से नहीं, कर्म से ब्राह्मण-
1. संयुक्त निकाय भाग-2: पृ 499 : मथुरा के राजा अवंतिपुत्र और आयु. महाकात्यायन के मध्य संपन्न संलाप।
अवंतिपुत्र - भो कात्यायन! ब्राह्मण कहते हैं कि ब्राह्मण ही सर्व श्रेष्ठ हैं। अन्य वर्ण हीन हैं। ब्राह्मण ब्रह्मा के दायाद (उत्तराधिकारी) हैं ?
महाकात्यायन- तुम्हें समझना चाहिए कि लोक में यह कोलाहल मात्र है(बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज पृ 87)।

संयुक्त निकाय (लोहिच्च सुत्त )- ब्राह्मणों द्वारा जातीय-उच्चता का दंभ  (लोहिच्च ब्राह्मण और बुद्ध सावक  महाकात्यायन संवाद)।

2. मज्झिम निकाय (माधुरी सुत्त पृ 343)- जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता।
वशिष्ठ माणव- जन्म से ब्राह्मण होता है या कर्म से ?
बुद्ध-  वशिष्ठ! माता की योनि से उत्पन्न होने के कारण मैं किसी को ब्राह्मण नहीं कहता। कर्म से ही कोई ब्राह्मण होता है और कर्म से ही अब्राह्मण।


3. मज्झिम निकाय - 2/5 -8 :पृ 413-15

4.  संयुक्त निकाय(सुंदरिक सुत्त: 7/1-9) -
1. जाति मत पूछो, कर्म पूछो।
2. कर्मकांड का विरोध-  बुद्ध - हे ब्राह्मण(सुंदरिक भारद्वाज) ! लकड़ियाँ जलाकर अपनी शुद्धि होना न समझो।  यह बाहरी आडम्बर(ढोंग) है।

मज्झिम निकाय पृ 405: छुआछूत के विरोधी।  स्वच्छता केवल ब्राह्मणों के लिए ही नहीं,  सभी के लिए आवश्यक है।

सुत्तनिपात(पराभव सुत्त)- जो नर जाति, धन और गोत्र पर अभिमान करता है और जो अपने बंधुओं का अपमान करता है, वह उसकी अवनति का कारण बनता है।
सुत्तनिपात(वसल सुत्त- 7 )- न कोई जाति से वसल होता है, न कोई जाति से ब्राह्मण। मनुष्य कर्म से वसल होता है और कर्म से ही ब्राह्मण। बुद्ध ने इस सम्बन्ध में चाण्डाल पुत्त मातंग का उल्लेख कर उसका यशोगान किया .

सुत्त निपात;
         "          वासेट्ठ सुत्त (35)                "
         "         ब्राह्मण धम्मिक सुत्त (19) ब्राह्मण अधोगति
         "         कसि भारद्वाज सुत्त (4)

1. दीघ निकाय(लोहित सुत्त)- 1. 12 लोहित को ऐसा भ्रम हुआ था कि संसार में ऐसा कोई समण या ब्राह्मण नहीं है, जो अच्छे धर्म को जान कर दूसरे को समझा सकें।  भला, दूसरा, दूसरे के लिए क्या करेगा ? नए धर्म की बात करना ऐसे ही है जैसे पुराने बंधन को काट कर एक दूसरा नया बंधन डालना ? लोहित इसे पाप(बुराई) और लोभ की बात समझता था।
-बुद्ध ने उसकी शंका का समाधान कर उपदेश दिया।

मज्झिम निकाय(वासेट्ठ सुत्त,  पृ 413)-  बुद्ध-वासेट्ठ संवाद ;
बुद्ध-   वशिष्ठ, प्राणि, तृण, वृक्ष, कीट-पतंग, चींटी और जानवरों में प्राकृतिक भेद है किन्तु मनुष्यों में कोई प्राकृतिक भेद नहीं है। मनुष्यों में कर्म मुख्य है। कर्म से लोग जाने जाते हैं।

दिव्यादान (323: 14)-  बुद्ध जाति-भेद मिटाना चाहते थे।  वे एक मानव जाति की कल्पना करते थे।  मानवों में उनको परस्पर कोई अंतर दिखाई देता था। उनके अनुसार सभी वर्णों के लोगों के शरीर के अंग एक सामान हैं।

मज्झिम निकाय (एसुकारिक सुत्त)-
बुद्ध- ब्राह्मण ! न मैं सबको परिचरणीय(सेवनीय) कहता हूँ और न मैं सबको अपरिचरणीय(सेवनीय) कहता हूँ। ब्राह्मण ! जिसका परिचरण करने से श्रद्धा बढ़ती है, शील बढ़ता है, श्रुत बढ़ता है, ज्ञान बढ़ता है, उसे मैं परिचरणीय कहता हूँ।

सुत्तनिपात (मेत्त सुत्त): प्राणी-मात्र की रक्षा।
माता यथा नियं पुत्तं, आयुसा एक पुत्तं अनुरक्खे।
एवं पि सब्ब भुतेसु, मानसं भावये अपरिमाणं।।

सुत्त निपात(माघ सुत्त)- दान की महिमा।

अंगुत्तर निकाय 3. भौतिकवाद का खंडन
दस अव्याकृत बातें - मज्झिम निकाय - 2.2.3

उपनिषदों और ब्राह्मण के तत्व ज्ञान 'सत-चित-आनंद' के उलट बुद्ध द्वारा  'असत-अनित्य-दुक्ख' का उपदेश।

Saturday, July 27, 2019

एकता न होने की वजह

एक-दूसरे पर मिमियाती बकरियों के झुण्ड में एक भेड़िया ने कहा-
"तुम अगर चाहो तो शेर का शिकार होने से बच सकती हों ?" 
" कैसे ?"
"शक्ति के प्रदर्शन से ?"

"पर शक्ति आएगी कहाँ से ?"
"एकता से."
"पर हम एक नहीं हो सकते ?"
"क्यों ?"
"क्योंकि, तब शेर खायेगा क्या ?"

-अ ला ऊके

Wednesday, July 24, 2019

रामपुरवा के दो अशोक स्तम्भ; राहुल सांकृत्यायन

ठोरी से दक्षिण-पूर्व 5 मील पर पिपरिया गाँव है। पिपरिया के पास ही रामपुरवा के दो अशोक-स्तम्भ हैं। एक ही स्थान पर दो-दो अशोक स्तम्भ विशेष महत्त्व रखते हैं।  पुरात्व की खुदाई में एक स्तम्भ के ऊपर का बैल भी मिला है। परम्परा से जन श्रुति चली आ रही है कि एक खम्बे के ऊपर पहले मोर था। खम्बे की पेंदी में मोर खुदे अब भी मौजूद हैं।  खुदाई में यद्यपि कोई मोर नहीं मिला, तो भी इसमें तो कोई संदेह नहीं है कि दूसरे खम्बे के शिखर पर जरुर कुछ था।
दीघनिकाय के महापरिनिब्बान सुत्त में हम जानते हैं कि पिप्पलीवन के मौर्यों ने भी गौतम बुद्ध की अस्थियों का एक भाग पाया था, जिस पर उन्होंने स्तूप बनवाया।  इसी मौर्य-वंश का राजकुमार चन्द्रगुप्त पीछे मगध के मौर्य-साम्राज्य का संस्थापक हुआ।  ऐसी अवस्था में सम्राट अशोक ने बुद्ध भक्त अपने पूर्वज मौर्यों के आदि स्थान पर यदि ये दो स्तम्भ गडवाये हों, तो कोई आश्चर्य नहीं( राहुल सांकृत्यायन : पुरातत्व निबन्धावली पृ 119)।


शायद 12 वीं शताब्दी के पहले बोधगया मंदिर के नमूने बन कर बिका करते थे।  तिब्बत के यात्री अपने साथ इन नमूनों को ले गए थे। उन्हें देखने से मालूम होता है बोध गया के प्रधान मंदिर, जिसके पूरब तरफ तीन दरवाजे थे, के पश्चिम की ओर बोधि वृक्ष के पास भी एक दरवाजा-सा था।  उसके आस-पास बहुत से स्तूप और मंदिर थे और सभी एक चहार दिवारी से घिरे थे; जिसमें दक्षिण, पूर्व,उत्तर की ओर तीन विशाल द्वार भिन्न-भिन्न आकार के थे। वर्त्तमान बोधगया मंदिर का जब पिछली शताब्दी में जीर्णोंध्दार हुआ तो उसके कितने ही भाग गिर गए थे।  और जीर्णोध्दारकों के सामने पुराने मंदिर का कोई नमूना नहीं था इसलिए तिब्बत में प्राय: नमूने से वर्तमान मंदिर में कहीं-कहीं भिन्नता पाई जाती है(वही, पृ 251-52 )।

विक्रमशिला- दसवीं से बारहवीं तक विक्रमशिला नालंदा के समकक्ष विहार था। पाल वंश का राज गुरु इसका प्रधान होता था। 

Tuesday, July 23, 2019

हम, बिके हुए समाज के लोग ?

हम, बिके हुए समाज के लोग ?
दलित समाज के लोग बिक बड़ी जल्दी जाते हैं. कभी नौकरी के नाम पर तो कभी छोकरी/छोकरा के नाम पर. और इसलिए, दलित समाज के लोगों को उच्च शिक्षित होकर, अब व्यवसाय में आना चाहिए. नौकरी से आप भले ही शान-शौकत से रह पाएं, किन्तु समाज को ज्यादा कुछ नहीं दे पाते हैं.
सरकारी नौकरी जहाँ आदमी को लाचार और आलसी बनाती है, वहीँ प्राईवेट नौकरी आपका कचमूर निकाल देती है. आपको समय ही नहीं होता कि आप, समाज के लिए कुछ करे, सोचें. अतयव जो समर्थ हैं, उन्हें नौकरी देने वाला बनना चाहिए. चाहे दो को नौकरी दो या पचास को.
IAS/IPS बन कर बड़ी जल्दी हमारे बच्चे बिकने लग जाते हैं, कभी नौकरी के लिए तो कभी छोकरी/छोकरा के लिए !

Monday, July 22, 2019

महावंस

महावंस
पालि वांगमय में, तिपिटक और उसकी अट्ठकथाओं के बाद ऐतिहासिक वर्णन की दृष्टि से दीपवंस और महावंस ग्रंथों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इन दोनों ही ग्रंथों में भगवान बुद्ध के काल से ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक सिंहलदीप/लंकादीप के बौद्ध राजाओं का तथा प्रसंगवश तत्कालीन भारतीय राजाओं का, बौद्ध स्थविरों का एवं महाविहारों का तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का प्रमाणिक विवरण सुरक्षित है। इस समय के इतिहास का सम्यक अनुशीलन करने वाले किसी भी अनुसन्धाता के लिए इन दोनों ही ग्रंथों का अध्ययन अत्यावश्यक है।

महावंस का रचनाकाल स्पष्ट तौर पर ज्ञात नहीं है और न ही इसके रचयिता का नाम। यद्यपि महावंस का दूसरा भाग ‘चूळवंस’ जो बाद का प्रतीत होता है, के अड़तीसवें परिच्छेद का उल्लेख कर इसका खुलासा करने का प्रयास हुआ है। यह खुलासा महावंस के टीकाकार ने किया है। विदित हो कि महावंस की टीका 12 वीं सदी में लिखी गई थी। महावंस-टीकाकार के अनुसार ‘महावंस’ के रचियता का नाम महानाम स्थविर है। महावंस टीकाकार ने महानाम स्थविर को सिंहलदीप के शासक धातुसेन (460-478 ईस्वी)  के समकालीन बतलाया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि महावंस के कम-से-कम 5 सदी/150 वर्स पहले सिंहलदीप का ऐतिहासिक ग्रंथ ‘दीपवंस’ लिखा गया था। दोनों ग्रंथों का वर्णित विषय एक है। शंका होती है कि तब, महावंस क्या आवश्यकता थी? इस प्रश्न का उत्तर महावंसकार ने ग्रंथ के प्रारम्भ में ही दे दिया है। उसके अनुसार, दीपवंस बहुत ही संक्षेप में था। दीपवंस के विषय को ही महावंस में विस्तार देकर उसे क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित बनाया गया है। ग्रंथ में सरलता से समझने वाली भाषा-शैली का प्रयोग किया गया है। महावंस, पालि भाषा में लिखित ऐतिहासिक महाकाव्य है। 
महावंस में सिंहलदीप और भारत के इतिहास की मूल उपादान सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसमें बौद्ध राजाओं, उनके वंशों, बौद्ध महास्थविरों, भिक्खुओं का प्रमाणिक वर्णन मिलता है जिन्होंने इतने दीर्घकाल तक बौद्ध धम्म को सुप्रतिष्ठित कर अपना जीवन समर्पित कर दिया। इसमें बुद्धकाल से ईसा की चतुत्थ सदी तक 850 वर्ष का बौद्ध धर्म का इतिहास दर्ज है जिसे इतिहासविदों और पुरातत्वविदों ने उत्खनन आदि प्रमाण स्रोतों से प्रमाणित कर दिया है।

महावंस का अंग्रेजी अनुवाद 1837 ईस्वी में जार्ज टर्नर महोदय ने किया था। इसके बाद विल्हेल्स गायगर के सम्पादन में 1908 ईस्वी में इसका दूसरा प्रकाशन हुआ। भदन्त आनन्द कोसल्यायन के द्वारा इसी का अनुवाद 1942 ईस्वीं में  ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग’ से प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ का मूल (पालि) पाठ नागरी लिपि में हिन्दी अनुवाद के साथ महात्मा गांधी विद्यापीठ वाराणसी ने ‘बौद्ध आकर ग्रंथ माला’ के तहत 1996 ईस्वी में प्रकाशित हुआ।

महावंस अपने मौलिक रूप में 37वें परिच्छिेद की 50वीं गाथा पर ‘महावंसो निट्ठितो’ ऐसे लिखे हुए वाक्य पर समाप्त हो जाता हैॅ। किन्तु, बाद में , आगे चलकर इस ग्रंथ में अन्य लेखकों द्वारा परिवर्धन-संवर्धन भी होता रहा है। इस बाद के अंश को ‘चूळवंस’ कहते हैं।

महावंस के ततिय, चतुत्थ और 5 वें परिच्छेद में तीन बौद्ध संगीतियों का क्रमवार वर्णन है। छटवें से 10 तक के परिच्छेदों में लाड़ नरेश सिंहबाहु के पुत्रा विजय का सिंहलदीप आगमन, राज्यभिषेेक एवं उनके वंश के राजाओं का वर्णन है। एकादस परिच्छेद से राजा देनानम्पिय तिस्स का वर्णन है। यही वह समय है जब बौद्ध धर्म यहां व्यवस्थित रूप से पहुंचा। इसी परिच्छेद से ज्ञात होता है कि राजा देवानम्पिय तिस्स ने सम्राट अशोक को बहुत से अमूल्य उपहार भेजे थे। बदले में सम्राट अशोक ने देवानम्पिय तिस्स को सिंहलदीप का राजा स्वीकार किया था। सिंहलदीप से पाटलिपुत्त तक का स्थल और जल-मार्गों का इसमें वर्णन है।

द्वादस परिच्छेद में मगध से विश्व के विविध देशों में जाकर बौद्ध स्थविरों द्वारा किए गए सद्धर्म प्रचार का क्रमानुसार वर्णन है। तेरहवें से चौदहवेंपरिच्छेदों में महिन्द स्थविर एवं संघमित्रा का सिंहलदीप में आगमन का विस्तार से वर्णन है। पन्द्रहवें से बीसवें परिच्छेदों में राजा देवानम्पिय तिस्स द्वारा बौद्ध धम्म के प्रचारार्थ किए गए कार्य, संघमित्रा द्वारा पाटिलपुत्त से सिंहलदीप में महाबोधि वृक्ष का आनयन, महिन्द स्थविर का परिनिर्वाण आदि वर्णित है।

इक्कीसवें परिच्छेद में देवानम्पिय तिस्स के बाद राजा वट्ठगामणी के पूर्व पांच राजाओं का वर्णन है। बावीसवें से बत्तीसवें परिच्छेदों में राजा वट्ठगामणी के कार्य-कलाप, द्रविड़ों का सिंहलदीप से निष्कासन आदि का  वर्णन है। संैतीसवें परिच्छेद की पचासवीं गाथा तक राजा महासेन के शासन-काल का वर्णन है।

महावंस में वर्णित सूचनाएं अन्य ग्रंथों तथा पुरातत्व के अनुसन्धानों से समर्थन प्राप्त कर चुके हैं। सम्राट अशोक के द्वारा सद्धम्म प्रचारार्थ विदेशों में भेजे गए बौद्ध-स्थविरों के नाम भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा सांची-स्तूप में किए गए अनुसन्धान से प्रमाणित हो चुके हैं। इसी प्रकार संघमित्रा द्वारा  सिंहलदीप में बोधि-वृक्ष जाने का वर्णन सांची स्तूप के नीचे वाले तथा बीच के द्वारों पर अंकित  है। महावंस में राम-रावण कथा ऐतिहासिक समर्थन करने वाली सामग्री का कोई उल्लेख नहीं है।

महावंस में घटनाओं का काल-निर्धारण बुद्ध महापरिनिर्वाण (ई. पू. 544) से किया गया है। यही कारण है कि सिंहलदीप में बुद्ध का महापरिनिर्वाण 544 ई. पू. माना जाता है। सभी बौद्ध देशों में काल-गणना किए जाने वाले बुद्धाब्द का प्रारम्भ भी यही तिथि है। बौद्ध देशों की उपरोक्त परम्परा की मान्य तिथि और भारतवर्ष में उपलब्ध अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से जो तिथि निश्चित की गई है, उसमें लगभग 60 वर्ष का अन्तर आता है।
 
महावंस में कवि की भगवान बुद्ध में अत्यधिक श्रद्धा-वश कहीं-कहीं  काल्पनिक कथानक भी आए हैं।उदाहरणार्थ ग्रंथ के प्रारम्भ में ही प्रथम और दुतिय परिच्छेद में भगवान बुद्ध का सिंहलदीप में दो बार आगमन और उनके द्वारा यक्षदमन, नागदमन का वर्णन दिखाया गया है। इसी प्रकार कल्याणी नदी पर नागों पर कृपा करने हेतु बुद्ध का तीसरा आगमन वर्णित है। स्मरण रहे, इसी कथानक के आधार पर सिंहलदीप निवासी वहां के समन्तकूद पर्वत पर अंकित चरण-चिन्हों को भगवान बुद्ध का मानती है।

इसी प्रकार बुद्ध के जन्म आदि से संबंधित कई काल्पनिक और अविश्वनीय कथानकों ने बुद्ध के मानवीय पहलू और संदेश को ढंक दिया है। अन्य धर्म के लोगों द्वारा अपने-अपने इष्ट महापुरुषों को दैवीय और चमत्कारिक बतलाने का साफ असर यहां महावंस के रचनाकार पर दिखता है। निस्संदेह, महावंस में जो कुछ लिखा है, सारा का सारा मानने योग्य नहीं है, छलनी से छान कर ही ग्रहण करने योग्य है(महावंसः सम्पादकीय एवं भूमिका)।

छाती ठोकून सांगतोय

मुर्त्यांना पुजण्यापेक्षा,
माणूसकिला पूजतो मी
काल्पनिक देवांना न मानता,
फुले, शाहू, आंबेडकरांना वाचतो मी
छाती ठोकून सांगतोय,
असत्य नाकारणारा नास्तिक आहे मी

पोथ्या, पुराणे वाचण्यापेक्षा
शिवरायांना वाचतो मी
दगडासमोर त्या कशाला झुकू
जिजाई, सावित्री, रमाईपुढे नतमस्तक होतो मी
छाती ठोकून सांगतोय,
असत्य नाकारणारा नास्तिक आहे मी

घामाचे पैसे दानपेटीत टाकून,
भटांची घरे भरत नाही मी
तहानलेल्यांना पाणी,
भूकेलेल्यांना अन्न देऊन,
त्यांच्यातच देव शोधतो मी
छाती ठोकून सांगतोय,
असत्य नाकारणारा नास्तिक आहे मी

हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई म्हणून जगण्यापेक्षा,
माणूस म्हणून जगतो मी
धर्मातील पाखंडांना न जपता,
माणूसपणालाच जपतो मी
छाती ठोकून सांगतोय,
असत्य नाकारणारा नास्तिक आहे मी

कर्तुत्ववान माणसापेक्षा,
दगडाला श्रेष्ठ समजत नाही मी
मंत्र, होमहवन, कर्मकांड यांना पायाखाली तुडवून,
मनगटावर भरवसा ठेवतो मी
छाती ठोकून सांगतोय,
असत्य नाकारणारा नास्तिक आहे मी

मांजर आडवी गेली म्हणून न थांबता,
थेट माझ्या ध्येयाजवळ त्या पोहोचतो मी
अंधश्रद्धेला मातीत लोळवून,
विज्ञानवाद स्विकारतो मी
छाती ठोकून सांगतोय,
असत्य नाकारणारा नास्तिक आहे मी

-डॉ.नरेन्द्र दाभोळकर

अंधड़

अंधड़ 
अगर दलित सवालों का कोई हल है- तो वह है, बीएसपी.वर्तमान में, किसी दूसरी पार्टी में इतनी कूबत नहीं है कि वह इस चुनौती का जवाब दें. बीजेपी हर हथकंडा अपनाएगी, उसे कुचलने की. किन्तु सर्वाईव वे होते हैं, जी जीवट होते हैं.बहन मायावती को तन कर चट्टान की तरह खड़ा रहना होगा, सारी विरोधी पार्टियाँ उसके साथ हैं. अंधड़ आती है, चली जाती है . किन्तु बहनजी के एतिहासिक कार्य जो दलित अस्मिता की निधि है, उसे आवश्यक संबल प्रदान करते रहेंगे. हमारा गौरव का इतिहास है. वह हमें हताश नहीं होने देगा, चाहे जुल्म जितने हों.

पुण्णमी आनिसंस

पुण्णमी आनिसंस(महिमा)
फुस्सी पुण्णमी (पौष)- राजा बिम्बिसार की धम्म-दीक्षा।
माघी पुण्णमी(माघ)- बुद्ध के द्वारा अपने महापरिनिब्बान की घोषणा।
फग्गुणी पुण्णमी(फाल्गुन)- राहुल और नन्द की धम्म-दीक्षा।
चेत्ती पुण्णमी(चेत)- सुजाता द्वारा बुद्ध को खीर-दान, कालामो को कालाम-सुत्त उपदेश।
वेसाखी पुण्णमी(वैशाख)- (बुद्धपूर्णिमा) जन्म, सम्बोधि प्राप्ति और महापरिनिब्बान।
जेट्ठी पुण्णमी(ज्येष्ठ)- संघमित्रा द्वारा सिंहलद्वीप के अनुराधापुर में बोधिवृक्ष की शाखा
का प्रत्यारोपण/सुजाता को धम्म-उपदेश।
आसाढ़ी पुण्णमी(आषाढ़)- महामाया देवी द्वारा गर्भ-धारण, अभिनिष्क्रमण(गृह-त्याग), इसिपतन
                        के मिगदाय में पांच समणों को प्रथम धम्मोपदेश, वस्सावास प्रारम्भ।
सावनी पुण्णमी(श्रावण)- अंगुलिमाल की धम्मदीक्षा, प्रथम धम्म-संगीति।
भद्दपदी पुण्णमी(भाद्र-पद)- वस्सावास(मधु पूर्णिमा)।
अस्सिनी पुण्णिमी(अश्विन)- वस्सावास समापन/पवारणा।
कत्तिकी पुण्णमी (कार्तिक)- सारिपुत्त परिनिर्वाण/महामोग्गलायन की ब्राह्मणों द्वारा निर्मम हत्या
(घटना ई. पू. 485-84ः राहुल सांकृत्यायनः बुद्धचर्या)।
मग्गसिसी पुण्णमी(मार्ग-शीर्ष)-नालागिर हाथी पर विजय, संघमित्रा की उपसम्पदा।
.............................................
सिद्धार्थ का जन्म- पुष्य नक्षत्रा( शुक्रवार 12 बजे दोपहर), वैशाख पूर्णिमा ई. पू. 563, लुम्बिनी
धम्मचक्कप्पवत्तन- आषाढ़ पूर्णिमा ई. पू. 528, ऋषिपतन मृगदाय(सारनाथ)
महापरिनिब्बान- वैशाख पूर्णिमा, ई. पू. 483(ई. पू. 486, रोमिला थापरः प्राचीन भारत का इतिहास) कुशीनारा

Wednesday, July 17, 2019

लिखो

असम के कवि हफ़ीज़ अहमद की कविता का हिंदी अनुवाद 
लिखो
मैं मियां हूँ
NRC में मेरा नम्बर 200543 है
मेरे दो बच्चे हैं
और एक आने वाला है
अगली गर्मियों में
क्या तुम उससे इतनी ही नफरत करोगे
जितनी तुम मुझसे करते हो
लिखो
मैं मियां हूँ
मैंने बंजर , दलदली
ज़मीन को
धान के हरे-भरे लहलहाते खेतों में तब्दील किया
ताकि तुम्हारा पेट भर सके
मैं ईंटें ढोता हूं
तुम्हारी इमारतें बनाने के लिए
तुम्हारी कार चलाता हूँ
तुम्हारे आराम के लिए;
मैं तुम्हारी गन्दी नालियां साफ़ करता हूँ
ताकि तुम रह सको तन्दरुस्त
मैंने हमेशा तुम्हारी सेवा की है
लेकिन फिर भी तुम रहे असंतुष्ट
लिखो
कि मैं मियां हूँ
एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, गणतंत्र में
एक नागरिक
बिना किसी अधिकार के
मेरी माँ को डी वोटर (doubtful voter ) क़रार दिया गया
हालांकि उसके माँ-बाप तो हिंदुस्तानी ही हैं
अगर तुम चाहो तो मुझे जान से मार सकते हो
मुझे मेरे गाँव से खदेड़ सकते हो
मुझसे मेरे हरे-भरे खेत छीन सकते हो
तुम्हारा रोलर
मेरे बदन को कुचल सकता है,
बिना किसी सज़ा के
तुम्हारी बंदूक की गोलियाँ मेरी छाती छलनी कर सकते हैं
लिखो
मैं मियां हूँ
ब्रह्मपुत्र के किनारे रहते हुए
सहते हुए तुम्हारे ज़ुल्म
मेरा बदन काला पड़ गया है
मेरी आँखे आग से लाल हैं
ख़बरदार
अब मेरे भीतर सिर्फ़ ग़ुस्सा ही भरा है
दूर रहो
या
फिर
भस्म हो जाओ

Tuesday, July 16, 2019

बोधिसत्व जन्म कथा

बोधिसत्व 
गौतम बुद्ध को जन्म से बुद्धत्व प्राप्त करने तक उन्हें 'बोधिसत्व' कहने की परम्परा बहुत प्राचीन है। ति-पिटक अंतर्गत ग्रंथों में सबसे प्राचीन ग्रन्थ* 'सुत्तनिपात' में कहा गया है-
"सो बोधिसत्तो रतनवरो अतुल्यो। 
मनुस्स लोके हित सुखाय जातो।
सक्यानं गामे जनपदे लुम्बिनेय्य।।"
धीरे-धीरे उनके साथ पूर्वजन्म की कथाएँ भी जोड़ दी गई जो कि ब्राह्मण/क्षत्रिय कुल से आए उनके अनुयायियों के लिए बिलकुल स्वाभाविक था।  

बोधिसत्व जन्म कथा-
ललितविस्तर हो, या दीघनिकाय का महापदानसुत्त अथवा जातक कथा; बोधिसत्व का जन्म कम चमत्कार भरा नहीं है ? बौद्ध राजदरबारी कवियों और कथाकारों ने हिन्दू उपनिषदों की तर्ज पर कल्पना के आकाश में उड़ने की कोई कसर नहीं छोड़ी।
महामाया पि देवी दस मासं कुच्छिना(कोख में) बोधिसतं परिहरि(धारण किया)। ञाति(सम्बन्धी) घरं गन्तुकामा(जाने की इच्छा से) महाराजस्स(महाराज को) आरोचेसि(सूचित किया)। राजा ‘साधू‘ ति सम्पटिच्छि(स्वीकार किया)।

कपिलवत्थु तो देवदह नगरा(नगर तक) याव मग्गं(मार्ग) समं(समतल) कारेसि(किया)। उभयं नगर वासीनं पि लुम्बिनी वनं नाम सालवनं अहोसि(था)। देवी सालवनं पाविसि(प्रवेश किया)। सा साल साखं गण्हि(पकड़ा)। तावदेव(उस समय) तस्सा(उनको) कम्मज-वाता(प्रसव-वेदना) चलिंसु(हुई थी)। अथ(तब) तस्सा(उसको) साणिं(कनात) परिक्खिपिंसु(चारों ओर घेरा)।

बोधिसत्तो धम्मा सनतो धम्म-कथिको विय निक्खमि(पैदा हुए)। दस पि दिसा अनु-दिसा विलोकेसि(देखा)। उत्तरायं दिसायं सत्त-पदं(सात कदम) वितिहारेन(चल) अगमासि(आएं)। ततो सत्तमे पदे(सातवें कदम पर) अट्ठासि (खड़े हो गए)।
‘अग्गो’(अग्र) अहं(मैं) अस्मि(हूं) लोकस्स(लोक में) ति आदिकं(आदि) आसभिं(वृषभ गर्जना) वाचं(शब्द) निच्छारेसि(निकालें)। सिहनाद नदि(गर्जना की) (भदंत आनंद कोसल्यायन: आवश्यक पालि 31 दिन में)।
और जब बाबासाहब डॉ.अम्बेडकर ने बौद्ध ग्रंथों में ही बुद्ध को चमत्कारों की भर्त्सना करते देखा, कालाम सुत्त की आगाज सुनी, अपने 'अप-कृत्यों' से निजात पाने निगंठनाथ (वर्द्धमान महावीर) अनुयायियों के उनकी पुनर्जन्म सम्बन्धी संकल्पना को झिड़कते देखा, जन्म से ब्राह्मण सिद्ध करने वाली अग्नि भारद्वाज ब्राह्मण की थ्यौरी को नकारते देखा, उनके अपने अनुयायियों को उन्हें 'सर्वज्ञ' कहे जाने पर निंदा करते देखा, तो विद्वान् डाक्टर को यह समझते देर नहीं लगी कि बुद्ध वैसे कदापि नहीं है, जैसे कि उन्हें दिखाया किया जाता है। बुद्ध ने इन अनर्गल बातों का न सिर्फ कडाई से खंडन किया बल्कि, उन्हें भी लताड़ते रहें जो उनके नाम पर इस तरह का कु-प्रचार करते रहे.
और इसलिए, बाबासाहब अम्बेडकर को 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' लिखना आवश्यक जान पड़ा। बुद्ध अनुयायियों के लिए यह ग्रन्थ एक रिफरेन्स ग्रन्थ है, बुद्ध को समझने और जानने का । यद्यपि 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' ति-पिटक ग्रंथो से ही लिखा गया है तो भी सामान्य पाठकों को ति-पिटक ग्रन्थ अत्यंत सावधानी से पढ़ने की जरुरत है.
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स्रोत -1. भगवान बुद्ध; जीवन और दर्शन पृ 78: धर्मानंद कोसंबी। 
आधार ग्रन्थ-  1. ललितविस्तर 2. 'जातक' की निदान कथा 3. महापदान सुत्त(दीघनिकाय)
*अशोक के भाबरू वाले शिलालेख में जिन 7 बुद्धोपदेशों को भिक्खुओं, भिक्खुनियों, उपासकों, उपासिकाओं को बार-बार सुनने और कंठस्त करने का सम्राट ने आग्रह किया है, उन में से 3 सुत्त निपात से हैं( भगवान बुद्ध; जीवन और दर्शन पृ 21-22).

राजा ढाले: बकलम संजीव चन्दन

राजा ढाले जितना सहज और सुमुख थे उतना ही आक्रामक विचारक।
कई बार उनके बयानों ने, लेखों ने महाराष्ट्र और देश में हंगामा खड़ा किया था। उन्होंने 'दलितों, दलित महिलाओं' की पीड़ा के बरक्स तिरंगे के सम्मान को देखते हुए तिरंगे के खिलाफ बयान दिया था, उसे तुच्छ बताया था। कथित राष्ट्रवादी तब भड़क गये थे।
राजा ढाले ने बाला साहेब ठाकरे की सभा के दौरान हिन्दू पवित्र ग्रन्थों को जलाने की चेतावनी भी दी थी। ऐसा उन्होंने बाला साहेब के एक बयान के बाद किया था। बाला साहेब ने बयान दिया था कि बौद्ध युवक हिन्दू ग्रन्थों का सम्मान नहीं करते।

ढाले साहेब ने वेदों को पहले प्राकृत में लिखा गया बताया जिसे उनके अनुसार बाद में संस्कृत में प्रस्तुत किया गया। वे वेदों की अपौरुषेयता को चुनौती देते थे। वे रामायण और महाभारत के रचनाकारों को कोली समाज यानी मछुआरों के समाज का भी बताते थे।
ढाले साहेब अम्बेडकरवाद को वामपंथ के साथ जोड़ने के पक्ष में भी नहीं थे। नामदेव ढसाल वामपंथियों के ज्यादा करीबी थे जबकि राजा ढाले इससे इत्तेफाक नहीं रखते थे।
उन्होंने 1972 में स्थापित दलित पैंथर को जल्द ही भंग करने की योजना बनाई। कार्यकर्ताओं को पोस्टकार्ड तक लिख दिया था जिसे बाद में रामदास आठवले ने अपने स्तर पर नेतृत्व दिया। इस बिंदु पर दोनो में मतभेद भी हुए। आठवले साहेब ने पिछले दिनों उन्हें सम्मानित किया।
दलित पैंथर ने महाराष्ट्र में दलित युवाओं को आत्मविश्वास से लैस किया। यह आंदोलन बाबा साहेब के बाद के नेतृत्व से मोहभंग से आक्रोशित युवाओं द्वारा खड़ा हुआ था-जिनमें राजा ढाले, नामदेव ढसाल, जेवी पवार, अरुण काम्बले आदि प्रमुख थे। रामदास आठवले भी उससे जुड़े, तब वे उनके कनिष्ठ कार्यकर्ता के रूप में जुड़े थे और बाद में नेतृत्व में आये।

अलविदा; राजा ढाले

दलित पेंथर' को फिर जिन्दा करने की जरुरत
दलित पेंथर के तीन सूत्रकारों में एक सूत्रकार राजा ढाले अंतत: चल बसे. काश, वे चन्द्रशेखर जैसे दलित योद्धाओं को यह बता गए होते कि क्यों कर उन्हें दलित पेंथर बनाना पड़ा था. हमें लगता है कि परिस्थितियां उससे भी आज ज्यादा खतरनाक हैं.
ढाले, ढसाल हों या अरुण कामले, अथवा पासवान, आठवले हों या उदित राज, क्रांति इनके बस में नहीं है. ये क्रांति को अपनी मौत मरते देखने वाले हैं.
एक दलित क्रन्तिकारी, किस-किस तरह के समझौते करता है, करने बाध्य होता है, राजा ढाले हो या ढसाल इसके उदहरण हैं. दलित पेंथर किस तरह खत्म हो गया, दलित आन्दोलनकारियों के लिए अन्वेषण का विषय है.
वर्त्तमान परिदृश्य में, तमाम शक्ति और सामर्थ्य के साथ लड़ने के बावजूद कितने ही दलित आन्दोलनकारी किस तरह चुनाव में खेत रहें, हम देख ही रहे हैं. 
तो भी हमारा सेल्यूट है, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को. निस्संदेह, उनकी रचनाओं में जो उष्णता है, वह ठन्डे गोश्त में भी उबाल पैदा करती है.

Monday, July 15, 2019

दलितों की पीड़ा-2

दलितों की पीड़ा-2
'साहित्य समाज का दर्पण होता है' यह उक्ति, एक सवर्ण साहित्यकार की सवर्णों के लिए हो सकती है, भला इसमें अवर्ण क्यों अपना चेहरा देखते हैं ?
प्रेमचंद हो या हजारीप्रसाद द्विवेदी, काश ! ये साहित्यकार अपनी-अपनी जातियों के दड़बों से बाहर निकले होते ? चाहे 'ठाकुर का कुआ' हो या 'कबीर'; इन स्व-नाम धन्य साहित्यकारों ने वहीँ तक शूद्रों और दलितों के प्रति सहानुभूति दिखाई जहाँ तक उनके जातीय दर्प को खतरा न हो. जहाँ और जब उन्होंने खतरा देखा, अपने मान-सम्मान के लिए संघर्षरत दलित नायक/नायिका की बलि देने वे जरा भी नहीं हिचकें.

मसला पुत्री के 'विद्रोह' का

मसला पुत्री के 'विद्रोह' का
व्यक्तिगत-स्वतंत्रता और सामाजिक मर्यादा एक-दूसरे के पूरक है, इसलिए कि व्यक्ति,
एक सामाजिक प्राणी है.
किन्तु,
यदि किसी कारण-वश इनमें परस्पर संघर्ष की स्थिति निर्मित हो, वैसी परिस्थिति में सामाजिक मर्यादा के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बलि नहीं दी जा सकती.
ऐसा करना न सिर्फ गैर-कानूनी है बल्कि अनैतिक भी है.

समसामयिक

समसामयिक
"बकरी, मैं तुझे खाऊंगा ?" - दहाड़ते हुए शेर ने कहा.
"जरूर खाओ, मगर, एक विनंती है."
"क्या ?"
"मेरी खाल बचा देना."
"क्यों ?"
"ताकि उसे देख फिर कोई बकरी बनने की जुर्रत न करे ?"

लीक-लीक सब कोई चले

लीक-लीक सब कोई चले
कल एक प्रोफ़ेसर से बात हुई- 
"हेलो, मैं मेश्राम बोल रहा हूँ."
" सर, जयभीम. क्षमा चाहता हूँ, सर, समयाभाव के कारण मैं चाह कर भी मिलने नहीं आ पाया." 
"कोई बात नहीं. अच्छा !, यह बताईये, आप पालि पढ़ाते हैं ?"
"जी, जो कुछ बनता है, कोशिश करता हूँ "
"क्या पढ़ाते हैं ?"
"जी, व्याकरण लेकर पढ़ाता हूँ "
"व्याकरण तो अच्छी बात है. किन्तु यह ध्यान रखना कि पालि-गाथाओं का जो परंपरागत अर्थ है, उस पर टीका-टिपण्णी न हों."
"सर, शायद, आप कालेज में प्रोफ़ेसर हैं ?"
"जी."
"सर, क्या विषय पढ़ाते हैं ?"
"मेथ्स."
"धन्यवाद, सर ! "

Saturday, July 13, 2019

साक्षी, समाज, प्रतिक्रान्ति और मीडिया;संजीव चन्दन

साक्षी, समाज, प्रतिक्रान्ति और मीडिया...
भारत के समाज ने प्रतिक्रान्ति के प्रति अपनी कितनी ताकत लगाई है यह जानने के लिए कुछ मसले समय-समय पर सामने आते ही रहते हैं. हालांकि लोकतांत्रिक संस्थाएं क्रान्ति की पक्षधरता के लिए सैद्धांतिक रूप से बाध्य होती हैं, व्यवहार में उनका भी टेस्ट होता रहता है. इस बार भी मीडिया इसी सिद्धांत और व्यवहार के बीच संतुलन बनाने को बाध्य है. प्रतिक्रान्ति की तासीर को समझने का ढ़िया मुद्दे होते हैं जाति के लेकिन जब जाति और जेंडर दोनो मसले जुड़ जाते हैं तो वह सबसे बेहतर पैमाना होता है प्रतिक्रान्ति की तासीर, ऊर्जा को समझने का.
समाज ने हमेशा प्रतिक्रान्ति का पक्ष लिया है. ऐसा दुनिया के सारे देशों में होता रहा है भारत में कुछ ज्यादा ही है. 19 वीं सदी के सुधार आन्दोलन हों या 20 वीं सदी के महिला आन्दोलन. रूपकंवर सती काण्ड हो या शाहबानो- जाति और जेंडर के पैमाने पर समाज की जड़ता खूब उभर कर आयी है. रूपकंवर के दौरान मीडिया को याद करें-तब मीडिया में दोनों बाजू के स्वर थे. लेकिन जनसत्ता जैसे अखबार का सम्पादकीय राजपूत गरिमा से जोड़कर सती प्रथा को देख रहा था-राजाराम मोहन राय के लगभग 200 साल बाद सती को परम्परा से जोड़ रहा था.
अभी तो समय ही हिन्दू-गौरव का है. प्रतिक्रान्ति को सत्ता का ठौर मिल गया है-उन लोगों का जो तीन तलाक के जरिये भ्रमित क्रान्ति का स्वांग करते हैं और सबरीमाला में हिन्दुओं के मर्दवादी उन्माद का समर्थन. अभी हिंदुत्व की ऐसी गंगोत्री जटाधारी जी की जटा से बह रही है कि वे लाख तांडव की भूमिका बनायें उनकी गंगोत्री में प्रज्ञाठाकुर से लेकर बलात्कारी, व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, लम्पट सब डुबकी लगाकर हिंदुत्व के प्रतीक आत्माएं हुई जा रही हैं. गंगोत्री से इस पुनर्जन्म के बाद ठीक किनारे पर मीडिया की ललनाएं उनके लिए सोहर गान के लिए खड़ी हैं और जटाधारी के लिए वे स्तुति गान कर रही हैं.
मीडिया इस भूमिका के बावजूद साक्षी मिश्रा के मामले में रस्सी-संतुलन कर रही है. देख रहा हूँ कि आजतक जैसा घोर प्रतिक्रियावादी चैनल भी साक्षी मिश्रा के मामले में बेमन से ही सही एक सही पोजीशन में होने की कोशिश कर रहा है. और समाज- समाज को समझने के लिए सोशल मीडिया में आ रही प्रतिक्रियाएं देखे जाने लायक है. सवर्ण लम्पटों की आह और सवर्ण बुद्धिजीवियों की कराह देखते बन रही है. उधर गैर सवर्ण समूहों से भी ऐसे मसलों पर स्त्रीविरोधी और जातिवादी तेवर देखने को मिलते हैं. साक्षी और नुसरत के प्रसंग में कराह और वाह को देखकर इसे समझ सकते हैं. एक समूह के लिए वे कुलटा-काफिर हो जाती हैं और एक समूह की सामूहिक भाभी.
हालांकि नुसरत और साक्षियां क्रान्ति की दिशा में हमारा सुकून हैं.

Wednesday, July 10, 2019

यहूदी: रियाजुद्दीन अंसारी

1..यहूदियों के अलावा दुनिया के सारे इन्सान #गोयन्स हैं मतलब सब हयुमन, मतलब मनुष्य के रूप में जानवर, पूर्ण मनुष्य सिर्फ़ यहूदी हैं!
2. इसलिए यहूदियों का अधिकार है कि वह #गोयन्स का चाहे जैसे इस्तेमाल करें। जैसे हम जानवरों का इस्तेमाल चाहे जैसे कर सकते हैं!
3. तलमूद के मुताबिक़ यहूदियों को अधिकार है कि #गोयन्स के साथ किसी भी तरह का ज़ुल्म किया जा सकता है चाहे मार पीट की जाय... चाहे गुलाम बनाया जाए... यहां तक कि उसकी हत्या भी की जा सकती है, इस पर कोई गुनाह नहीं..!!
4. तलमूद के मुताबिक अर्ध मनुष्यों की औरतों का चाहे वह बलात्कार करें... चाहे उनसे वेश्यावृति करायें... इन पर कोई गुनाह नहीं..!!
5. यहूदियों में आपस में ब्याज़ लेना देना गुनाह है मगर वह बाकी सब हयुमन से ब्याज़ ले सकते हैं...!!
6. यहूदियों में खिंज़ीर (सुअर) खाना हराम (निषेध) है मगर वह बाकी अर्ध मनुष्यों को सुअर खिला सकते हैं..!!
7. तलमूद के मुताबिक यहूदियों को ईश्वर ने पूरी दुनिया के अर्ध मनुष्यों पर शासन करने के लिए पैदा किया है यही वजह है कि इनकी #ज़ायोनिज़्म तहरीक सारी दुनिया की अर्थ व्यवस्था को अपने क़ब्ज़े में करना चाहती है..!!
8. तलमूद के मुताबिक बाकी अर्ध मनुष्यों को ईश्वर ने इनकी सेवा करने के लिए पैदा किया है।
इसके अलावा भी और बहुत सी बातें हैं जो तलमूद में लिखी हैं। तलमूद यहूदियों की ऐसी किताब है जो 576 से 300 ई. के बीच लगभग 800 साल में तैयार की गई। इस किताब को यहूदी रब्बियों ने तौरात की व्याख्या के नाम पर तैयार किया यह किताब सैंकड़ों जिल्दों (भागों) में है और बेहद गोपनीय है इस किताब के कुछ हिस्से मुस्लिम स्पेन के पतन के बाद कैथोलिक ईसाइयों के हाथ लगे... जिससे उपरोक्त जानकारी मंज़रे आम पर आ सकी फिर जर्मनी में हिटलर के शासन के दौरान कई ईसाइयों ने दुबारा यह जानकारी छापी..!!
आज कंडीशन यह है कि यहूदियों के लिए तौरात में से सिर्फ़ "टेन कमांडमेंट्स" ही पढ़े जाते हैं वह भी सिर्फ़ सवाब हासिल करने के लिए... अमल करने के लिए तलमूद ही असल किताब है और #इस्राईल के स्कूलों में यहूदी स्टूडेंट्स के लिए तलमूद के स्पेशल कोर्स कराये जाते हैं..!!
#यहूदी एक नस्लवादी क़ौम है। नस्ली बरतरी का घमंड इनमें कूट कूट कर भरा हुआ है... यह एक बेहद बुज़दिल क़ौम है जो सिर्फ़ साज़िश करना जानती है इनका इतिहास ख़तरनाक साज़िशों से भरा हुआ है इनकी साज़िशों की वजह से ही जर्मनी की पहले विश्व युद्ध में करारी हार हुई थी और हिटलर की यहूदियों से दुश्मनी भी इनकी गद्दारियों की वजह से ही हुई थी इसीलिये उसने इनके लिए "फाइनल सोल्युशन" का इंतज़ाम किया था।
इस क़ौम से जिसने हमदर्दी या दोस्ती की उसने नुक़सान उठाया है...।।

दलितों की पीड़ा

दलितों की पीड़ा
चाहे 'आर्टिकल 15' हो या 'अछूत कन्या', यह साहनभूति-जन्य साहित्य की परिधि में आता है.
फिल्म निर्माण पैसे वालों का काम है. दलितों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे इस क्षेत्र में उतरें. बाबासाहब अम्बेडकर के बाद, यह दूसरी पीढ़ी है जो शिक्षा और नौकरी में आयी है. निस्संदेह, दलितों को अपनी आपबीती परदे पर उकारने समय लगेगा. हो सकता है, तब फिर उनके नजरिये में भी बदलाव हों ?
बहरहाल, पर- अनुभूति और स्व अनुभूति में अन्तर तो होगा ही. दलितों की पीड़ा, फिर चाहे वे आर्थिक रूप से समृद्ध ही हो, अलग तरह की होती है. देश का राष्ट्रपति जब मंदिर की सीढियों पर पूजा करने विवश होता है, तो उसकी पीड़ा वह ही जानता है.
दर्शक दीर्घा में पीड़ा की अनुभूति सहानुभूति-जन्य प्रस्तुतीकरण में भी होती है. पीड़ा तो पीड़ा है. कांच चुभने की पीड़ा, राह चलते पथिक के पावं, नुकीले कांच पर पड़ते ही महसूस की जा सकती है और खुद का पावं पड़ते ही. बावजूद, स्व-अनुभूत पीड़ा अलग है और पर-अनुभूति जन्य पीड़ा अलग.
बेशक, आर्टिकल 15 जैसी फिल्मों से दलितों की पीड़ा का कुछ एहसास तो हो सकता है, ख़ास कर उनको जो अंधे नहीं है ?

Monday, July 8, 2019

ति-पिटक

ईसा की पहली सदी तक बुद्ध उपदेश मौखिक ही रहे। किन्तु बाद में इनके संग्रह की आवश्यकता हुई और इस प्रकार ति-पिटक की रचना हुई। बुद्ध-वचनों के संग्रह के लिए बुद्ध के महा-परिनिर्वाण से लेकर वर्तमान युग तक संगीतियों का आयोजन होता रहा है, जिसमें पहली संगीति तो बुद्ध महा-परिनिर्वाण के तीन मास पश्चात ही हुई थी। चतुर्थ संगीति के समय सिंहलद्वीप के शासक वट्टगामणि(ई. पू. 29-17) के शासन में तिपिटक और इस पर लिखी अट्ठकथाओं को पहली बार लिपिबद्ध किया गया(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 1-2ः राहुल सांकृत्यायन)।
परिवर्ती काल में बौद्ध-धर्म तथा दर्शन के संबंध में मतभेद होने लगा था।  प्रारम्भ में थेरवाद(स्थिरवाद) और महासांघिक दो निकाय थे, किन्तु बाद में कई निकाय हो गए। अशोक के समय(ई. पू. 247-232) इसके 18 निकाय हो चुके थे(वही, पृ. 3)।
सुत्तपिटक में दीघ, मज्झिम, संयुत्त तथा अंगुत्तर ये चारों निकाय और पांचवें खुद्दक निकाय के खुद्दक पाठ, धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक और सुत्तनिपात अधिक प्रमाणिक है। सुत्त पिटक में आयी वे सभी गाथाएं जिन्हें बुद्ध के मुख से निकला ‘उदान’ नहीं कहा गया है, पीछे की प्रक्षिप्त ज्ञात होती है। इनके अतिरिक्त भगवान बुद्ध उनके शिष्यों की दिव्य शक्तियां और स्वर्ग, नरक, देव तथा असुर की अतिशयोक्तिपूर्ण कथाओं को भी प्रक्षिप्त ही माना जा सकता है(वही, पृ. 12)।

ति-पिटक अर्थात सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभि-धम्म पिटक।
सुत्त-पिटक में 5 निकाय आते हैं-  1. दीघ-निकाय  2. मज्झिम-निकाय 3. संयुत्त-निकाय 4. अंगुत्तर-निकाय 5. खुद्दक-निकाय।

दीघनिकाय-  इस में तीन भाग (वग्ग) हैं. यथा- 1. सीलक्खन्धवग्ग 2. महावग्ग 3. पथिकवग्ग। इन तीन भागों में ब्रह्मजालसुत्त, सामञ्ञफल सुत्त, अम्बट्ठसुत्त, पोट्ठपाद सुत्त, महापदान सुत्त, महापरिनिब्बान सुत्त, लक्खनसुत्त, सिंगालोवाद सुत्त आदि 34 सुत्तों का संग्रह हैं। इसके कई सुत्त जैसे ‘आटानाटियसुत्त’ जिसमें भूतप्रेत संबंधी बाते हैं, राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, काफी बाद के हैं(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 7 )।

2. मज्झिम-निकाय- इसके भी तीन भाग (पण्णासक); मूल-पण्णासक, मज्झिम-पण्णासक और उपरि-पण्णासक हैं। प्रथम दो पण्णासकों में 50-50 और अन्तिम में 52, इस प्रकार अलगद्दूपमसुत्त, अरियपरियेसनसुत्त, रट्ठपालसुत्त, अंगुलिमालसुत्त, अस्सलायनसुत्त, सुभसुत्त आदि कुल 152 सुत्त हैं। इसका घोटमुखसुत्त स्पष्ट रूप से बुद्ध महापरिनिर्वाण के बाद का है(वही, पृ. 12)।
 
3. संयुत्त-निकाय- यह ग्रंथ 5 भागों (सगाथवग्ग, निदानवग्ग, खन्धवग्ग, सळायतनवग्ग, महावग्ग) तथा 56 संयुत्तों में विभक्त है। सगाथवग्ग में गाथाएं हैं। निदानवग्ग में प्रतीत्यसमुत्पादवाद के नाम से संसार-चक्र की व्याख्या की गई है। खन्धकवग्ग में पंच-स्कन्ध का विवेचन है। सळायतनवग्ग में पंच-स्कन्धवाद तथा सळायतनवाद प्रतिपादित है। महावग्ग में बौद्ध-धर्म, दर्शन और साधना के महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर व्याख्यान है(वही, पृ. 98)।

4. अंगुत्तर-निकाय- इसमें संख्या क्रम में 11 निपात हैं जो 160 वग्ग(वर्गों) में विभक्त हैं। कालामसुत्त, मल्लिकासुत्त, सीहनादसुत्त आदि इसके प्रसिद्ध सुत्त हैं। इसका 11 वां निपात, डॉ गोविन्दचन्द्र पांडेय के अनुसार,  स्पष्ट रूप से अप्रमाणिक है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ 232)।

5. खुद्दक-निकाय:  इसके 15 ग्रंथ हैं। 1. खुद्दक-पाठ:  यह छोटा-सा ग्रंथ है, जिसमें ति-सरण, दस शिक्षा-पद, मंगलसुत्त, रतनसुत्त आदि पाठ हैं। 2. धम्मपद- 423 गाथाओं के इस लघु-ग्रंथ में बुद्ध के उपदेशों का सार है, जो यमकवग्ग, चितवग्ग, लोकवग्ग आदि 26 वग्गों में संगृहित है। 3. उदान- आठ वग्गों में विभाजित 80 सुत्तों का लघुग्रंथ है। 4. इतिवुत्तक- इस लघु-ग्रंथ में 112 सुत्त, 4 निपात में संगृहित हैं जिसके प्रत्येक सुत्त में ‘इतिवुत्तं भगवता’(ऐसा भगवान ने कहा) पद बार-बार आता है। 5. सुत्तनिपात: यह प्राचीन ग्रंथ पांच वग्ग; उरगवग्ग, चूलवग्ग, महावग्ग, अट्ठकवग्ग और पारायणवग्ग में विभक्त है जिसमें मेत्तसुत्त, पराभवसुत्त, रतनसुत्त, मंगलसुत्त, धम्मिकसुत्त, सल्लसुत्त, सारिपुत्त आदि अनेक सुत्तों का संग्रह हैं। 6. विमानवत्थु- इसके ‘इत्थिविमान’ और ‘पुरिसविमान’ दो भाग हैं। इसमें देवताओं के विमान(चलते प्रासादों) के वैभव का वर्णन है। यह बुद्ध-भाषित प्रतित नहीं होता। 7. पेतवत्थु- नरक के दुक्खों का वर्णन करते, इस लघु-ग्रंथ के 4 वग्गों में 51 वत्थु(कथा) हैं। यह स्पष्ट ही परवर्ती ग्रंथ है। 8. थेरगाथा- इस प्राचीन काव्य-संग्रह में महाकच्चायन, कालुदायी आदि 1279 थेरों की गाथाएं हैं। 9. थेरीगाथा- इस प्राचीन काव्य-संग्रह में पुण्णा, अम्बपालि आदि 522 थेरियों की गाथाएं संग्रहित हैं। 10. जातक कथा- इसमें बुद्धकाल के प्रचलित 547 लोक-कथाओं का संग्रह है। भारतीय कथा-साहित्य का यह सबसे प्राचीन संग्रह है। 11. निद्देस- ‘चूलनिद्देस’ और ‘महानिद्देस’ दो भागों में यह सुत्तनिपात की टीका हैं। महानिद्देस से बुद्धकालिन बहुत-से देशों तथा बंदरगाहों का भोगोलिक वर्णन प्राप्त होता है। 12. पटिसम्मिदामग्ग- इसमें अर्हत के प्रतिसंविद(आध्यात्मिक और साक्षात्कारात्मक ज्ञान) की व्याख्या है। यह ‘अभिधम्म’ की शैली में 10 परिच्छेदों में हैं। 13. अपदान- अपदान(अवदान) चरित को कहते हैं। इसके दो भाग; थेरापदान और थेरीपदान में पद्यमय गाथाओं का संग्रह है। 14. बुद्धवंस- यह पद्यात्मक ग्रंथ 28 परिच्छेदों का है और जिनमें 24 बुद्धों का वर्णन है। बौद्ध-परम्परा इसे बुद्ध-वचन नहीं मानती। 15. चरियापिटक- यह भी बुद्धवंस की शैली का है।(पालि साहित्य का इतिहासः पृ. 120-147)।

विनय-पिटक-
इसमें भिक्खु-भिक्खुणियों के आचार नियम है। इसके 5 भाग; पाराजिक, पाचित्तिय, महावग्ग, चुल्लवग्ग और परिवार हैं। पाराजिक और पाचित्तिय जिसे ‘विभंग’ कहा गया है, में भिक्खुओं तथा भिक्खुणियों से संबंधित नियम हैं। महावग्ग और चुलवग्ग को संयुक्त रूप से ‘खन्धक’ कहा जाता है। परिवार, सिंहल में रचा गया यह 21 परिच्छेदों का ग्रंथ बहुत बाद का है(वही, पृ. 164)।

अभिधम्मपिटक-
इसके मूल को पहले ‘मातिका’ कहा जाता था। यह दार्शनिक ग्रंथ अतिविशाल है। मातिकाओं को छोड़कर सारा अभिधम्म-पिटक पीछे का है। इसका एक ग्रंथ ‘कथावत्थु’ तो तृतीय संगीति के प्रधान मोग्गल्लिपुत्त तिस्स ने स्थविरवादी-विरोधी निकायों के खण्डन के लिए लिखा था।
अभिधम्मपिटक 7 भागों में हैं- 1. धम्म-संगणि- इसको अभिधम्म का मूल माना जा सकता है। इसमें नाम(मन) और रूप-जगत की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। 2. विभंग- इसमें रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान स्कन्धों की व्याख्या दी गई है। 3. धातु-कथा- इस ग्रंथ में स्कन्ध, आयतन और धातु का संबंध धर्मों के साथ किस प्रकार से हैं, इसे व्याख्यायित किया गया हैं। 4. पुग्गल-पञ्ञति- पुग्गल(पुद्गल) की पञ्ञति(प्रज्ञप्ति) करना इस ग्रंथ का विषय है। इसमें व्यक्तियों का नाना प्रकार से विवेचन है। 5. कथा-वत्थू- इसके 23 अध्यायों में 18 निकायों के सिद्धांतों को प्रश्न और उसका समाधान के रूप में स्थविरवादी सिद्धांत की स्थापना की गई है। 6. यमक- इस ग्रंथ में प्रश्नों को यम यमक(जोड़े) के रूप में रख कर विषय को प्रस्तुत किया गया है। 7. पट्ठान- यह आकार में बहुत बड़ा अत्यन्त दुरूह शैली का ग्रंथ हैं। इसके 4 भाग हैं। इस ग्रंथ में धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का विधानात्मक और निषेघात्क अध्ययन प्रस्तुत किया गया है(वही, पृ. 167-179)।

अट्ठकथा-
तिपिटक पर जो समय-समय पर टीका लिखी गई, उसे अट्ठकथा कहते हैं। अट्ठ अर्थात् अर्थ। ये अट्ठकथाएं कई देशों में कई लिपियों में प्राप्त हैं। सिंहल की प्राचीन अट्ठकथाओं में ‘महा-अट्ठकथा’(सुत्त-पिटक), ‘कुरुन्दी’(विनय-पिटक), ‘महा-पच्चरि’(अभिधम्मपिटक) का नाम आता है। इसके अलावा अन्धक-अट्ठकथा, संखेप-अट्ठकथा का भी उल्लेख है।
महावंस के अनुसार, महेन्द्र सिंहल में पालि-तिपिटक के साथ अट्ठकथाएं भी लाए थे। अकेले बुद्धघोस(50 ईस्वी) ने इन अट्ठकथाओं पर जो अट्ठकथाएं लिखी, वे दृष्टव्य हैं-  सुत्त-पिटक अट्ठकथाएं :- सुमंगल-विलासिनी(दीघनिकाय), पपञ्च-सूदनी(मज्झिमनिकाय), मनोरथ-पूरणी(अङगुत्तर निकाय), सारत्थ-पकासिनी(संयुत्त निकाय)। खुद्दक-निकाय की अट्ठकथाएं- परमत्थजोतिका(1. खुद्दक-पाठ 2. सुत्तनिपात 3. जातक)। धम्मपदअट्ठकथा। विनय-पिटक अट्ठकथाएं- समन्तपासादिका, कङखा वितरणी(पातिमोक्ख), अट्ठसालिनी(धम्मसङगणी), सम्मोह विनोदिनी(विभङग), धातुकथाप्पकरण-अट्ठकथा, पुग्गल-पञ्ञतिप्पकरण-अट्ठकथा, कत्थावत्थुप्पकरण-अट्ठकथा, यमकप्पकरण-अट्ठकथा, पट्ठानप्पकरण-अट्ठकथा। अभिधम्म-पिटक की अट्ठकथाएं- 1. अत्थसालिनी(धम्म-सङगणि) 2. सम्मोहविनोदिनी(विभङग) 3. परमत्थदीपनी/पञ्चप्पकरण अट्ठकथा(धातु-कथा, पुग्गल-पञ्ञति, कथा-वत्थु, यमक, पट्ठान)। संदर्भ- बुध्दघोस की रचनाएंः भूमिकाः विशुद्धिमग्ग भाग- 1।

अन्य प्रसिध्द बौद्ध ग्रंथ- विसुद्धिमग्ग(बुद्धघोस), मिलिन्द-पण्ह, दीपवंस और महावंस(दोनों सिंहलद्वीप के प्रसिद्ध ग्रंथ), महावत्थु, ललितविस्तर, बुद्धचरित(अश्वघोस) आदि।
मिलिन्द-पण्ह में यवन राजा मिनान्डर और भिक्खु नागसेन(ई. पू. 150) के मध्य सम्पन्न संलाप संगृहित है। थेरवाद की सिंहली परंपरा इसे अनु-पिटक और म्यांमार तथा थाई परम्परा ति-पिटक मानती है। मिलिन्द-प×ह के 6 परिच्छेदों में पहले तीन ही प्राचीन लगते हैं(दर्शन-दिग्गदर्शन, पृ. 550)।
विसुद्धिमग्ग- यह तीन भागों और तेईस परिच्छेदों में विभक्त है। ग्रंथ का प्रधान विषय योग है। पहला भाग शील-निर्देश है, जिसमें शील और धुतांगों का वर्णन है। दूसरे भाग में समाधि-निर्देश है, जिसमें छह अनुस्मृति, समाधि आदि 11 परिच्छेद हैं। तीसरा भाग प्रज्ञा-निर्देश है, जिसमें स्कन्ध, आयतन-धातु, इंन्द्रिय-सत्य, पटिच्च समुप्पाद आदि 10 परिच्छेदों का समावेश है। 
महावत्थु- इसे महासांघिकों का विनय-पिटक कहा जाता है। इसके 3 भाग है। पहले में दीपंकर आदि नाना अतीत बुद्धों के समय में बोधिसत्व की चर्या का वर्णन है, दूसरे में  तुषित-लोक में बोधिसत्व के जन्म-ग्रहण से प्रारम्भ कर सम्बोधि-लाभ तक का विवरण है। तीसरे भाग में ‘महावग्ग’ के सदृश्य संघ के प्रारम्भिक उदय का वर्णन है(वही, पृ. 326)।
ललितविस्तर- बुद्ध-जीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्रा(प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्षुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है।बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र प्रवर्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(वही,  पृ. 327)।
प्रसिद्ध महायानी सूत्रा- प्रज्ञापारमिता, सद्धम्म-पुण्डरिक, सुखावतीव्यूह, मध्यमक-कारिका(नागार्जुन- 175 ई.), लंकावतारसूत्र, महायान-सूत्रालंकार(असंग- 375 ई.), योगाचारभूमिशास्त्र, विज्ञप्तिमात्रातासिद्धि(वसुबन्धु- 375 ई.), न्यायप्रवेश(दिग्नाग- 425 ई.), प्रमाणवार्तिक(धर्मकीर्ति- 600 ई.), बोधिचर्यावतार(शांन्तिदेव- 690-740 ई.), तत्वसंग्रह(शान्तरक्षित- 750 ई.), रत्नकूट, दिव्यादान, मंजुश्री-मूलकल्प(तांत्रिक-ग्रंथ) आदि। इन सूत्रों में एक ओर शून्यता के प्रतिपादन के द्वारा विशुद्ध निर्विकल्प ज्ञान का उपदेश किया गया है; दूसरी ओर, बुद्ध की महिमा और करुणा के प्रतिपादन के द्वारा भक्ति उपदिष्ट है(वही, पृ. 339)। महायानी सूत्रों का रचनाकाल ई.पू. प्रथम सदी से चौथी सदी तक मानना चाहिए(वही,  पृ. 328-333)।
कंजूर-तंजूर- यह तिब्बति ति-पिटक का नाम है। कंजूर में 1108 और तंजूर में 3458 ग्रंथ संग्रहित हैं(वही, पृ. 332)।
प्रज्ञापारमिता- इसमें शून्यता का अनेकधा प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापामितासूत्रों के अनेक छोटे-बड़े संस्करण प्राप्त होते हैं। यथा दशसाहस्त्रिाका, अष्टसाहस्त्रिाका, प×चविंशतिसाहस्त्रिाका,  शतसाहस्त्रिाका, पंचशतिका, सप्तशतिका, अष्टशतिका, वज्रच्छेदिका, अल्पाक्षरा आदि हैं(वही, 334)।
अवतंसकसूत्रा- इस नाम से चीनी ति-पिटक और कंजूर में विपुलाकार सूत्रा उपलब्ध होते हैं। चीनी ति-पिटक में अवतंसकसूत्र तीन शाखाओं में मिलता है जो कि क्रमशः 80, 60 और 40 जिल्दों में हैं(वही, पृ. 336)।
रत्नकूट- चीनी और तिब्बति ति-पिटकों में ‘रत्नकूट’ नाम से 49 सूत्रों का संग्रह उपलब्ध है। असंग(350 ई.) और शांतिदेव(690-740 ई.) के द्वारा रत्नकूट के उध्दरण प्राप्त होते हैं। बुद्धोन के अनुसार रत्नकूट के मूलतः 100,000 अध्याय थे जिनमें से केवल 49 शेष हैं(वही, पृ. 337)।
सुखावतीव्यूह- इस नाम से संस्कृत में 2 ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। दोनों में अमिताभ बुद्ध का गुणगान है। ये सूत्रा जापान के ‘जोड़ो’ अथवा चीनी ‘चि’ एवं ‘शिन’ सम्प्रदाय के प्रधान ग्रंथ हैं (वही, पृ. 337)।
कारण्डव्यूह- इस ग्रंथ में ‘अवलोकितेश्वर’ की महिमा का विस्तार है। यहां एक प्रकार का ईश्वरवाद वर्णित है क्योंकि उसमें ‘आदिबुद्ध’ को ही ध्यान के द्वारा जगत-स्त्राष्टा कहा गया है। ‘आदिबुद्ध’ से ही अवलोकितेश्वर का आविर्भाव हुआ तथा अवलोकितेश्वर की देह से ‘देवताओं’ का। अवलोकितेश्वर पंचाक्षरी विद्या ‘ओम मणि पर्िंे हूँ ’ को धारण करते हैं।
लंकावतारसूत्र- यह योगाचार का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। सब कुछ प्रतिभासात्माक अथवा विकल्पात्मक भ्रान्तिमात्रा है, केवल निराभास एवं निर्विकल्प चित्त ही सत्य है- ग्रंथ का यह प्रतिपाद्य विषय दूसरे से सातवें परिवर्त(अध्याय) तक वर्णित है(वही, पृ. 339)।
सद्धम्मपुण्डरिक- इस ग्रंथ में निदान, उपाय कौशल्य, ओपम्य, अधिमुक्ति, औषधि; आदि कुल सत्ताईस परिवर्त हैं। मैत्राी, प्रज्ञा पारमिता ग्रंथ का प्रमुख विषय है। इसके रचयिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसी मान्यता है कि ईसा की पहली सदी में इस महायानी ग्रंथ की रचना की गई। भारत के बाहर नेपाल, तिब्बत, चीन जापान, मंगोलिया,भूटान, तायवान आदि देशों में यह एक पवित्रा ग्रंथ है। बीसवीं सदी में जापान के निचिरेन बौद्ध सम्प्रदाय के प्रसिध्द्ध आचार्य फ्युजी गुरुजी- जिन्होंने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की भयानकता के दृष्टिगत कई देशों में बुध्द का शांति संदेश देते हुए विश्व-शांति स्तूपों का निर्माण किया; के प्रेणास्रोत सद्धम्मपुण्डरिक सूत्रा रहे हैंै(प्रस्तावनाः सद्धम्मपुण्डरिकसूत्राः प्रो. डॉ. विमलकीर्ति)।


पालि साहित्य और भाषा-
थेरवादी साहित्य पालि में निबद्ध है और इसका यह विशेष महत्व है कि किसी भी अन्य बौद्ध सम्प्रदाय का साहित्य इतने प्राचीन और सर्वांग-सम्पूर्ण रूप से मूल भारतीय भाषा में उपलब्ध नहीं है। यह निर्विवाद है कि अन्य सम्प्रदायों के प्राचीन साहित्य के चीनी अथवा तिब्बति अनुवादों के मूल का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ. 227)।


Saturday, July 6, 2019

निर्वाण

निर्वाण
बुद्ध के निर्वाण के स्वरूप के मूल में तीन बातें हैं। इन में से एक तो यह है कि किसी ‘आत्मा’ का सुख नहीं, बल्कि प्राणी का सुख है। 
दूसरी बात यह है कि संसार में रहते समय प्राणी का सुख। ‘आत्मा’ की ‘मुक्ति’ और मरणान्तर ‘आत्मा की मुक्ति’ बुद्ध के विचारों से सर्वथा विरुद्ध है। 
तीसरा विचार जो बुद्ध के निर्वाण के स्वरूप का मूलाधार है, वह है- राग-द्वेषाग्नि को शांत करना। 
निर्वाण इसी जीवन में प्राप्य है। 
निर्वाण का मतलब है, अपनी प्रवृतियों पर इतना काबू रखना कि आदमी धर्म के मार्ग पर चल सके।
इस राग और द्वेषाग्नि से मुक्ति पाने का साधन मध्यम मार्ग है, जो निर्वाण की ओर ले जाता है।
यह मध्यम मार्ग है- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प आदि अष्टागिक मार्ग।
बुद्ध 'आत्मा' को सर्वथा नकारते हैं।
वे पुनर्जन्म संबंधी परम्परागत धारणा को नकारते हैं।
वे उस ‘कर्म’ को भी नकारते हैं जिससे पुनर्जन्म होता है।
बुद्ध के कर्म के सिद्धान्त का संबंध मात्र कर्म से था और वह भी वर्तमान जन्म के ‘कर्म’ से(बी आर अम्बेडकर: बुद्धा एंड हिज धम्मा)।
बुद्ध देशित कर्म के इस सैद्धांतिकी की चर्चा करते हुए बाबासाहब अम्बेडकर ति-पिटक के अंतर्गत 'मज्झिम निकाय' (यथा 'चुळदुक्खखंध सुत्त',  'देवदह सुत्त' आदि ) के कथानकों को उद्धरित करते हैं.

Friday, July 5, 2019

जिम्मेदारी से भागना

जिम्मेदारी से भागना
हम बुद्धविहार में पालि पढ़ाते हैं. बुद्ध विहार में अकसर, हम जैसे उम्र-दराज धम्म-बन्धु आते हैं. वे शंका करते हैं कि उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें पालि पढ़ने के लिए कहा जाना क्या उचित है ? 
मैं उन्हें राहुल सांकृत्यायन का उदाहरण देता हूँ. सनद रहे, राहुल सांकृत्यायन ने उम्र के इसी पड़ाव पर पालि पढ़ा. और, पालि ही क्यों, उन्होंने इसी पड़ाव पर दर्जनों भाषाएं सीखी और 'महापंडित' कहलाए. दरअसल, सीखने की कोई उम्र नहीं होती. जो ऐसा सोचते हैं, वे अपनी जिम्मेदारी से भागते हैं.

Thursday, July 4, 2019

आखिर, बुद्ध ही क्यों ?

आखिर, बुद्ध ही क्यों ?
भारत का इतिहास, दरअसल बौद्ध और वैदिक(ब्राह्मण) संस्कृति के संघर्ष का इतिहास है. अगर यकीन न हो तो किसी टीले नुमा खँडहर को खोद कर देखिए. अंग-भंग की गई बुद्ध की मूर्ति नजर आएगी.
बाबासाहब अम्बेडकर इसी को ध्यान में रख कर बुद्ध की शरण गए. उनके पास ऊँच-नीच पर आधारित जाति-पांति और वर्ण-व्यवस्था को जवाब देने कई आप्शन थे. किन्तु उन्होंने बुद्ध को चुना. बुद्ध अर्थात समता. बौद्ध धर्म हमें अपने गौरवमय अतीत से जोड़ता है.
इसके अलावा, बौद्ध धर्म हमें दूसरे बुद्धिस्ट राष्ट्रों से आवश्यक सम्बल प्रदान करता है. यह अहसास दिलाता है कि हम विश्व में अकेले नहीं है. और सबसे बड़ी बात, यह पञ्चशील अर्थात जीवन के उच्च मापदंडों पर चलने प्रेरित करता है. यह बुद्धि की स्वतंत्रता का जयघोष करता है.

अर्टिकिल 15 : संजीव चन्दन

अर्टिकिल 15 : सदाशयी गांधीवाद , सांगठनिक दलित प्रतिरोध का नकार और जाति-उत्पीड़न का कल्पनारहित व्यवसायिक दोहन
अर्टिकिल 15 बदनीयत से बनी या लिखी फ़िल्म न भी हो तो भी एक आउटसाइडर की ऐसी सदिच्छा से बनी फ़िल्म है जिसे न अपने टारगेट समाज की समझ है और न उसके पास वह कल्पनाशीलता है, जिससे पीड़ा और संघर्ष की वास्तविकता की कल्पना भी कर सके। यह विशुद्ध व्यवसायिक दोहन के लिए बनी फिल्म है-जिसने हाल में घटी बलात्कार और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का कोलाज एक स्थान विशेष में बनाकर चमत्कार पैदा करने की कोशिश की है। आइये फ़िल्म के जरिये इसे समझते हैं।
इसके पहले लेकिन एक सवाल कि व्यवसायिक दोहन के लिए बनी यह फ़िल्म किस ऑडिएंस को अर्टिकिल 15 यानी समानता का सिद्धांत पढ़ाना चाहता है? यदि वह ऑडिएंस ब्राह्मणवादी शोषक के सोशल लोकेशन से आने वाले दर्शकों को संबोधित है तो उसके लिए यह कथानक नहीं है, उसका कथानक कुछ अलग होना चाहिए , जैसे यू आर अनंतमूर्ति के संस्कार जैसा या फिर उनकी ही कहानी पर बनी फिल्म 'दीक्षा' के कथानक जैसा। इसका टारगेट ऑडिएंस है दलित मध्यवर्ग जो पैसे खर्च कर सकता है और जिसे इस फ़िल्म का परिवेश अपना अतीत लगता हो या वर्तमान जिससे खुद को वह रिलेट कर रहा है। यदि ब्राह्मणवादी सोशल लोकेशन का ऑडिएंस टारगेट है तो यह फ़िल्म यूथ फ़ॉर इक्वलिटी और गांधीवाद की मिक्स राजनीतिक चेतना के साथ उन्हें अर्टिकिल 15 का ज्ञान दे रहा है, जो इस आर्टिकल के उपबंध 1 और दो को ही प्रोपगेट कर रही है उपबन्ध 3 और 4 जैसे युगांतकारी असर वाले उपबन्ध को नहीं-न तो उसके उद्देश्य को और न 70 सालों में पड़े उसके क्रमिक प्रभाव को। बल्कि इन दो उपबन्धों को नकारने का एक सचेत प्रयास दिखता है इसमें। फ़िल्म में लगा पोस्टर जो ब्राह्मण नायक के प्रयास से लगता है, वह भी अर्टिकिल 15 के उपबन्ध 1 और 2 को ही प्रसारित करता है, यानी एजंडा खुल्लमखुल्ला है, छिपा नहीं है।
धारा 15 कहती है:
15[1] राज्य अपने नागरिकों के मध्य मूलवंश, धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर किसी प्रकार का विभेद नहीं करेगा
15[2] नागरिकों को सार्वजनिक स्थानों तक पहुँचने का अधिकार होगा और उसके उपयोग में [ भोजनालय, सिनेमा, कुँए, मन्दिर आदि] उन्हें मूलवंश, जाति, धर्म, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर नहीं रोका जायेगा.जहाँ पहला अनुच्छेद केवल राज्य के लिए लागू था यह सामान्य नागरिकों के लिए भी लागू होता है, यह अनुच्छेद छुआछूत के विरूद्ध प्रभावी उपाय है
15[3] इस अनुच्छेद में विधमान कोई उपबंध राज्य को स्त्रियों – बच्चों हेतु विशेष उपाय करने से नहीं रोक सकता है,
15[4] प्रथम संशोधन से प्रभावी है – अनु 15 में विधमान कोई उपबन्ध राज्य को सामाजिक –शैक्षणिक दृष्टि से पिछडे वर्गों हेतु विशेष उपाय करने से नहीं रोकेगा
फिल्म का दृश्य संकेत
फ़िल्म में दलित-उत्पीड़न और बलात्कार की हालिया घटनाओं- निर्भया दिल्ली, दो दलित लड़कियां बदायूं, आसिफा, जम्मू और जीप से बंधे दलित लड़के ऊना एवं उत्तरप्रदेश के एनकाउंटर का एक कोलाज बनाया गया है और संघर्ष करता एक दलित युवा-समूह है, जो सहारनपुर में भीम आर्मी की प्रतिकृति है। इन दृश्यों को रचने में कल्पनाशीलता बस इतनी है कि सबको एक ही जगह पर घटित दिखा दिया गया है और इनमें जो संगठित दलित प्रतिरोध हुए थे उन्हें किसी गुरिल्ला कार्रवाई में बदल दिया गया है। इन कार्रवाइयों को गुरिल्ला कार्रवाई में बदलना भी फ़िल्म के एजेंडे को पुष्ट करता है।
इसके विपरीत फ़िल्म का ब्राह्मण नायक लॉ अबाइडिंग सिटीजन ही नहीं लॉ इंफोरसिंग एजेंसी का स्थानीय मुखिया भी है जिसकी आस्था संविधान में है। जाति के सवाल पर लगभग दूसरे या तीसरे शॉट में ही वह अपने कार्यालय में लगे बाबा साहेब और गांधी की तस्वीरों में से एक तस्वीर को गौर से, प्यार और आदर से देखता है ।वह तस्वीर है गांधी की। यानी संविधान के अर्टिकिल 15 के लेखक डा अम्बेडकर के प्रति नायक की कोई आस्था नहीं है, वह गांधी के प्रति आस्थावान है। फ़िल्म का विस्तार भी इसी दिशा में होता है ऑर्गेनिक नेतृत्व और प्रतिरोध की बेईमानियां, विचलन या फिर अपरिपक्वता को ब्राह्मण नायक के धैर्य, सूझबूझ, समता के प्रति आस्था, ईमानदारी और परिपक्वता के बरक्स दिखाया जाता है।
परास्त, हताश दलित संघर्ष और समाज:
अर्टिकिल 15 के उपबंध 4 ने और बहुत हद तक 3 ने पिछले 70 सालों में दलित मध्यवर्ग का विस्तार किया है। शासन-प्रशासन, शिक्षा और न्याय व्यवस्था एवं राजनीति में भी उनकी भागीदारी बढ़त के क्रम में आज की हकीकत है- दैन्य घटा है, चेतना बढ़ी है। इसीलिए संघर्ष भी तीव्र और असरकारी है। हाल की किसी भी घटना में संघर्ष किसी ब्राह्मण नायक ने खड़े नहीं किये हैं। वहां अम्बेडकरवादी चेतना प्रभावी है न कि गांधीवादी।
इसके विपरीत फ़िल्म में दलितों के दैन्य को ही ज्यादा उभारा गया है। हर सम्भव कोशिश की गयी है कि ब्राह्मणवाद की मूल आलोचना की जगह दलितों के भीतर की जाति-संरचना के अंतर्विरोध को उजागर किया जाये। दलित राजनीति को भटका हुआ और स्वार्थी दिखाया गया है। महंथ के साथ दलित नेता का गठबंधन बसपा की राजनीति की आलोचना है। भीमआर्मी के चन्द्रशेखर को भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की खिचड़ी बनाया गया है जिसकी पराजय उसके अति उत्साह में ही निहित है। काश! फ़िल्म की टीम ने चन्द्रशेखर और भीम आर्मी की सहारनपुर में असर को ही देख लिया होता तो दिखता कि कैसे संघर्ष और चेतना की आभा दलितों को वहां मांज रही है और ब्राह्मणवादियों में बेचैनी पैदा कर रही है।
दलित राजनीति, चेतना और संघर्ष के इस ऑरगैनिक उत्साह को धूलधूसरित कर ब्राह्मण नायक और उसकी प्रेमिका को एक ऐसे वास्कोडिगामा की तरह पेश किया गया है जैसे उसने पहली बार अर्टिकिल 15 की महान खोज की हो-इन दोनो ही युगल जोड़ियों की जाति सवर्ण है। ब्राह्मण नायक महान समताप्रिय है लेकिन गटर की सफाई के लिए वह एससी को ढूंढने में पूरा महकमा लगा देता है और तो और थाने के पास सफाई के लिए नाराज दलितों के नेता से जाकर टैक्टिकल सन्धि भी करता है।
इस पूरी फिल्म में शातिर ब्राह्मणवादी चेतना काम कर रही है जो अपनी व्यवसायिकता के लिए उदार भी हो जाती है। बुद्धिजीवी दर्शकों का एक समूह तो उसके साथ ही है जो बेगूसराय से लेकर अर्टिकिल 15 तक में अपने नायक का चीअर लीडर है। उसे अपने नायक की तलाश है जो बात तो इक्वलिटी की करे लेकिन ऐश्वर्य ब्राह्मणों का , सवर्णों का स्थापित करे-यूथ फ़ॉर इक्वलिटी का बौद्धिक चारण समूह, जो पोलीटिकल करेक्ट होने को भी साधता रहता है।
ऐसी फिल्में बननी चाहिए लेकिन समता के लिफाफे में विपरीत मजमून के साथ इनका स्वागत क्यों हो भला!

Monday, July 1, 2019

सूर्योदय होगा

छटेगी
कभी तो कालिमा 
और होगा सूर्योदय
कब तक ढके रहोगे,
रोशनी को ?
मत भूलों,
जब तक ढके रहोगे,
जलेंगे तुम्हारे ही हाथ
दबी ऊष्मा से ?

आरक्षण जाति पर आधारित नही : Dr. Hemant Tirpude

*आरक्षण "जाति" पर आधारित नही है - भाग 1*
1) अगर आरक्षण "जाति" के आधार पर होता तो आदिवासी / Tribals / Scheduled Tribes यह कभी भी आरक्षण के दायरे मे नही आते, उन्हे आरक्षण नही दिया जाता क्योंकि आदिवासियों की सभ्यता मे जातियां नही है। There is no concept of Caste in Tribal societies.
2) आदिवासी सभ्यता मे वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था नही है, छूआछूत भी नही है। आदिवासियों मे जातियां 'नही' होने की वजह से उन्हें "जाति" का प्रमाणपत्र (Caste Certificate) 'नही' दिया जाता, उन्हें "जनजाती" का प्रमाणपत्र (Tribe Certificate) दिया जाता है। जबकि "जाति" का प्रमाणपत्र (Caste Certificate) केवल SC और OBC वर्ग को दिया जाता है।
3) जाति और जनजाति, Caste और Tribe मे जमीन आसमान का अंतर है, और यह अंतर गुणात्मक है । दोनो बिलकुल ही भिन्न भिन्न बातें है ।
जातियो का हर समूह सामाजिक दर्जे के लिहाज से एक दूसरे के उपर या नीचे (superior या inferior ) है, मतलब हर जाति समूह का सामाजिक दर्जा "असमान" है - The social status of every caste group is UN-EQUAL.
4) लेकिन आदिवासियों मे कोई भी जनजाति अपने आप को किसी दूसरी जनजाति से उपर (superior) या नीचे ( inferior) नही समझती है। मतलब हर जनजाति समूह का सामाजिक दर्जा "समान" है. The social status of every tribal group is EQUAL.
चमार, भूमिहार, कुर्मी / कुनबी, इत्यादि यह "जातियों" के समूह है, जिनमे क्रमिक असमान सामाजिक दर्जा दिखाई देता है, और इनका आपस मे सामाजिक व्यवहार, सम्मान, द्वेष यह एक दूसरे के सामाजिक दर्जे को देखकर होता है।
5) दूसरी तरफ गोंड, भील,महरा, कोरकू वगैरह यह "जन-जातियों" के समूह है, इसमे कोई समूह अपने आप को दूसरे समूह से सामाजिक तौर पर ऊंचा या नीचा नही समझता । इनके आपस के सामाजिक व्यवहार में श्रेष्ठता / कनिष्ठता का भाव नही दिखाई देता ।
6) पूरे देश मे 1108 असपृश जातियां (SC) है और 5000 से ज्यादा पिछडी (OBC) जातियां है याने कुल 6108 जातियां है । यह Main land society है जो छ हजार से ज्यादा जातियों का समूह है। इसी तरह पूरे देश मे 744 से ज्यादा जन-जातियां (Tribes/Tribal groups) है जो की Forest land society है ।
"जातियों " पर आधारित समाज रचना Veritcal है लेकिन "आदीवासियों" की समाज रचना Horizontal है.
7) आदिवासियों मे Castes/जातियां नही होने के बावजूद भी उन्हें आरक्षण का लाभ दिया जाता है, इससे यह सिद्ध होता है की आरक्षण "जाति" पर आधारित नही है। अगर ऐसा होता तो आदिवासी समूह आरक्षण के लिए पात्र नहीं होते।
अगर आरक्षण "जाति" के आधार पर नही दिया जाता तो उसका क्या आधार है ? Please read part 2.
*आरक्षण "जाति" पर आधारित नही है - भाग 2*
1) संविधान का Article 15(4) और 15(5) यह सामाजिक और शैक्षिक तौर पर पिछडे वर्गों के लिए "शिक्षा" मे विशेष प्रावधान करने का अधिकार राज्य को देता है । यहाँ सामाजिक पिछड़ापन और शैक्षिक पिछड़ापन इन बातों पर जोर दिया गया है ।
Article 16(4) यह राज्य को "किसी" भी पिछड़े वर्ग के लिए अपनी सेवाओं मे नियुक्तियों (appointments) और पदों (posts) के लिए आरक्षण का प्रावधान करने के अधिकार देता है । यहाँ पिछड़ापन यह किसी भी तरह का हो सकता है ।
2) यहाँ दोनों जगह पर संविधान समाज के कुछ वर्ग के पिछड़े होने की बात को मान्य करता है और इसका संज्ञान लेते हुए "सामाजिक न्याय" को प्रस्थापित करने के लिए उन्हें विशेष सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करता है । OBC, SC, ST, NT, DNT यह वो अलग अलग तबके है जिनके पिछडे होने की पहचान हो चुकी है, यह गौर करने वाली बात है की यह सारे समूह भी अलग अलग विशेषता रखते है ।
3) OBC वर्ग को "शूद्र" घोषित किया गया था जो श्रमप्रधान, मेहनत मजदूरी करने वाला वर्ग था, SC वर्ग को "अस्पृश्य" "अछूत" (untouchable) घोषित किया गया था । ST, NT, DNT वर्ग को उनकी अपनी अलग सभ्यता, अलग बोली, अलग रूढ़ी पहचान, अलग रहन सहन इत्यादि कारणों से स्वीकार नही किया गया । इन सभी पिछड़े वर्गों की लोकसंख्या देश के आबादी की 75% से 85% है । प्रश्न यह है की भारत के समाज का इतना बड़ा यह वर्ग पिछड़ा क्यों रहा ?
4) क्या यह वर्ग आदिकाल से ही या इतिहास के शुरुवात से ही पिछड़ा रहा है ? क्या यह वर्ग नैसर्गिक तौर से ही पिछड़ा रहा है ? नही, इस वर्ग का पिछड़ापन यह किसी अनैसर्गिक व असामाजिक व्यवहार का सामूहिक परिणाम (collective result है।
5) वह कौनसा अनैसर्गिक व असामाजिक व्यवहार था जिसकी वजह से 75% से 85% समाज का वर्ग बाकी वर्ग से पीछे रहा ? What was this un-natural and anti-social behaviour because of which this 75% to 85% class remained backward ?
6) यह था असमानता का व्यवहार (Inequality), यह था भेदभाव का व्यवहार (Discrimination), यह था नैसर्गिक और मानवाधिकारों से वंचित रखने का व्यवहार (Deprivation of natural & human rights), यह था प्रगति के अवसरों को नकारने का व्यवहार (Denial of opportunities to progress).
इन चारों अनैसर्गिक असामाजिक व्यवहारों को चर्चा के लिए संक्षिप्त में हम ID3 कहेंगे, I से Inequality, D से Discrimination, D से Deprivation, D से Denial. एक बार I और तीन बार D, इस तरह से ID3.
7) OBC वर्ग के साथ, SC वर्ग के साथ, ST, NT, DNT वर्ग के साथ भी ID3 का व्यवहार हुआ । इस ID3 के व्यवहार का सामूहिक और ऐतिहासिक परिणाम है इन वर्गों का सामाजिक पिछड़ापन, शैक्षिक पिछड़ापन और आर्थिक पिछड़ापन ।
इसी पिछड़ेपन का नतीजा है इन वर्गों का देश के शासन प्रशासन (Governance & Administration) में प्रतिनिधत्व का अभाव, कानून बनाने (Law making) तथा कानून का अमल करने (Law implementation) की प्रक्रिया में प्रतिनिधत्व का अभाव।
8) पूरी दुनिया के विविध देशों में किसी न किसी समूह / समुदाय के साथ ID3 - Inequality, Discrimination, Deprivation, Denial के स्वरूप में अनैसर्गिक असामाजिक व्यवहार होता रहा है । इस ID3 का स्त्रोत/कारण अलग अलग देशों में अलग अलग है जैसे - जाती, वंश, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, क्षेत्र (Caste, Race, Colour, Gender, Language, Religion, Region)
इसका परिणाम दुनिया के विविध देशों में विभिन्न समूहों के प्रताड़न/शोषण में हुआ जिसकी वजह से वह भी "पिछड़े" रह गए ।
9) इसलिए आरक्षण जैसी सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था केवल भारत मे ही नही बल्कि दुनिया के अन्य विकसित देशों में भी कानूनी तौर पर लागू की गई है - USA, Canada, Brazil, UK, Germany, Finland, France, Norway, Romania, South Africa, China, Japan, Taiwan, S Korea, Malaysia, Phillipines इत्यादी ।
इन देशों में वहाँ की स्थानिक परिस्थितियों के अनुरूप ऐसी व्यवस्था को अलग स्वरूपों में तथा अलग अलग नामों से बनाया गया है - Affirmative action, Reasonable accommodation, Positive action, Positive discrimination, Preferential Treatment, Policy of Equalisation, Proportional representation, Equal opportunities.
10) उदाहरण के तौर पर अमेरिका में निग्रोज, वंशिक अल्पसंख्यक लोगो को सुरक्षा प्रदान करने के लिए Civil Rights Act और Equal Employment Opportunity Act बनाया गया है । लेकिन इसका यह मतलब नही है की वह लोग काले वर्ण के होने की वजह से उन्हें इस तरह की कानूनन सुरक्षा दी गयी है,
उन लोगो के साथ भी असमानता का व्यवहार (Inequality) हुआ था , उन लोगो के साथ भी भेदभाव का व्यवहार हुआ था (Discrimination), उन लोगो को भी उनके नैसर्गिक और मानवाधिकारों से वंचित रखा गया था (Deprivation of natural & human rights), उन लोगो के भी प्रगती के अवसरों को नकारा गया था (Denial of opportunities to progress).
11) जिस तरह से भारत मे OBC, SC, ST, NT, DNT समूहों के साथ ID3 (Inequality, Discrimination, Deprivation, Denial) का अनैसर्गिक असामाजिक व्यवहार हुआ था
वही ID3 का व्यवहार America में निग्रोज, वांशिक अल्पसंख्यक समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार Canada में Metis, Inuit समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार Brazil में Pardo समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार Britain में महिलाओं तथा धार्मिक / वांशिक अल्पसंख्यक समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार France के ग्रामीण भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार Norway में महिलाओं के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार Phillipines में मूलनिवासी समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार Romania में Roma समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार China में Hui, Miao इत्यादी वांशिक अल्पसंख्यक समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार Japan में Burakumin समूहों के साथ हुआ था ।
वही ID3 का व्यवहार South Africa में मूलनिवासी African लोगो के साथ हुआ था ।
12) भ,ारत सहित इन सभी देशों में जिन समूह/समुदाय में जो शोषण, प्रताड़न और पिछड़ापन पाया जाता है उसका सीधा और मुख्य कारण इनके साथ किया गया ID3 का व्यवहार है, और ईससे सुरक्षा प्रदान करने के लिए जिस तरह से इन सभी देशों ने कानूनी व्यवस्था की है उसी तरह से भारत मे संवैधानिक आरक्षण की व्यवस्था की है ।
इस तरह भारत मे आरक्षण का मूल आधार "जाति" ना होकर OBC, SC, ST, NT, DNT समूहों के साथ किया गया ID3 (Inequality, Discrimination, Deprivation, Denial) का अनैसर्गिक असामाजिक व्यवहार है । अगर आरक्षण "जाति" के आधार पर होता तो ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य इन वर्णो में जो जाति समूह है उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलता लेकिन इनके साथ किसी भी तरह का ID3 का व्यवहार नही हुआ जिसकी वजह से इनमे कोई पिछड़ापन नही दिखाई देता है ।
*आरक्षण जाति पर आधारित नही है - Part 3*
अगर आरक्षण जाति पर आधारित नही है तो जाति / जनजाति प्रमाण पत्र (Caste / Tribe certificate) की जरूरत क्यों होती है ?
भाग 1 और 2 में भारत की संवैधानिक आरक्षण प्रणाली किस तरह 'जाति' पर आधारित नही है बल्कि उसका आधार ID3 है यह बात संवैधानिक प्रावधानों, समाजशास्त्रीय तथ्यों और अन्य देशों के उदाहरणों से हमने देखी है। लेकिन एक सवाल जो इस संदर्भ में सामने आना चाहिए था वो पूछा नही गया । वह सवाल यह है कि अगर आरक्षण जाति पर आधारित नही है तो जाति/जनजाति प्रमाण पत्र (Caste / Tribe certificate) की जरूरत क्यों होती है ?
अगर हम राशन की दुकान में कम कीमतों (subsidized rates) पर अनाज खरीदना चाहे तो वह दुकानदार हमे BPL का राशनकार्ड मांगेगा । यह राशनकार्ड वह जरिया है जिससे केवल जो लाभार्थी है, पात्र व्यक्ति है उसकी पहचान हो सके और उसी को ही इसका लाभ मिल सके, कोई अन्य व्यक्ति जिसे जरूरत नही है वह इसका लाभ न ले सके । उसी तरह जाति/जनजाति प्रमाणपत्र (Caste / Tribe certificate) यह केवल Identification के लिए है, पात्र समूह और व्यक्ति की पहचान करने के लिए है । यह प्रक्रिया दो स्तरों पर होती है :-
पहली संवैधानिक प्रक्रिया - इसमे उन 'समूहों' की पहचान की जाती है जिनके साथ ID3 का व्यवहार होने की वजह से उनमे सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक पिछड़ापन दिखाई देता है ।
Article 340 - OBC समूहों की पहचान करने के लिए है, Article 341 - SC समूहों की पहचान करने के लिए है और Article 342 - ST समूहों की पहचान करने के लिए है । इन तीन समूहों की तीन अलग अलग सूची (Lists) बनाई जाती है ।
दूसरी प्रशासकीय प्रक्रिया - इसमे जिन 'समूहों' की संवैधानिक रूप से पहले पहचान हो गयी है उन समूहों के 'व्यक्तियों' की पहचान की जाती है और केवल इन्ही व्यक्तियों को जाति/जनजाति प्रमाणपत्र (Caste / Tribe certificate) जारी किए जाते है ।
सवर्णो - ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य में भी अलग अलग जाति समूह होते है लेकिन उन्हें इस तरह के जाती प्रमाणपत्र (Caste certificate) नही दिए जाते क्योंकि उनके साथ किसी भी तरह का ID3 का व्यवहार न होने की वजह से उनमे कोई पिछड़ापन नही पाया जाता ।
जाति/जनजाति प्रमाणपत्र (Caste / Tribe certificate) यह केवल Identification के लिए है, ताकि केवल पात्र समूह और व्यक्ति को ही आरक्षण का संरक्षण प्राप्त हो सके ।
*आरक्षण जाति पर आधारित नही है - Part 4*
1) भाग 1 और भाग 2 में हमने जाना की भारत की संवैधानिक आरक्षण प्रणाली किस तरह 'जाति' पर आधारित ना होकर ID3 - Inequality, Discrimination, Deprivation, Denial पर आधारीत है और इस बात की पुष्टि संवैधानिक प्रावधानों, प्रशासकीय प्रक्रिया, समाजशास्त्रीय तथ्यों और अन्य देशों के उदाहरणों द्वारा भी हो गयी ।
फिर भी आरक्षण को 'जातिगत' 'Caste based' बोला जाता है, लोगो के मन मस्तिष्क में यह डाला गया है की आरक्षण जाति पर आधारित है और पूरे देश मे इस तरह का माहौल तैयार किया गया है । सारे newspapers, news channels केवल आरक्षण यह शब्द प्रयोग नही करते, वह जातिगत आरक्षण, Caste based reservation ऐसा शब्द प्रयोग करते है ।
2) इस विषय पर चर्चा करने के लिए जिन लोगो को बुलाया जाता है वो यह मानकर चर्चा शुरू करते है कि आरक्षण जाति पर आधारित है। दुर्भाग्य की बात यह है की जो आरक्षण के पक्ष में बात करने वाले लोग है उन्होंने ऐसा बोलने वालों को कभी रोका नही, क्योंकि इतने सालों से वो भी यही बात सुनते आए है, इसलिए उन्होंने भी यह स्वीकार कर लिया है । आरक्षण को 'जाति' आधारित बताकर, 'जाति' के साथ जोड़कर आरक्षण विरोधी, संविधान विरोधी लोग क्या हासिल करना चाहते है ?
3) आरक्षण को 'जाति' के साथ जोड़कर वह यह प्रचार कर रहे है।कॉलेज के Students, युवा, दोस्त एक दूसरे को जाती से जानने लगते है और इससे समाज मे जातीयता, जातीवाद (Casteism) फैल रहा है । वो यह Reverse argument देना चाहते है कि अगर समाज से जातीयता, जातीवाद मिटाना चाहते हो तो पहले आपको जाति आधारित आरक्षण खत्म करना होगा ।
4) यह Reverse argument इसलिए है क्योंकि ब्राम्हणवादी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था द्वारा किए गए ID3 के व्यवहार की वजह से आरक्षण जैसी सुरक्षा प्रणाली निर्माण करने की जरूरत पड़ी। अगर हमे आरक्षण समाप्त करना है तो पहले ब्राम्हणवादी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था द्वारा किए गए ID3 के व्यवहार को नष्ट करना पड़ेगा। लेकिन ऐसा करने की बात कोई भी आरक्षण विरोधी करते नही दिखाई देता ।
5) ब्राम्हणवादी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था द्वारा किया गया ID3 का व्यवहार यह सामाजिक मानसिक बीमारी है, Socio-psychological illness है जिससे सवर्ण वर्ग ग्रसित है। लेकिन उनकी बीमारी का असर, दुष्परिणाम पिछड़े वर्गों पर हो रहा था, जिसकी वजह से इनमे पिछड़ापन आ गया । इस बीमारी से बचाव करने के लिए आरक्षण रूपी दवाई / इलाज / treatment को ईजाद करना पड़ा । जिस दिन बीमारी खतम हो जाएगी उस दिन से दवाई लेने की जरूरत नही पड़ेगी, लेकिन क्या आरक्षण विरोधी इस बीमारी को खत्म करने की बात कर रहे है ? नही, वह केवल दवाई को खत्म करने की बात कर रहे है ।
6) इस आरक्षण रूपी दवाई को संविधान ने 1950 में निर्माण किया। इसके पहले देश मे आरक्षण की व्यवस्था नही थी तो क्या लोग एक दूसरे को जाति से नही जानते थे ? जाति के आधार पर व्यवहार नही करते थे ? अपनी जाति को श्रेष्ठ मानकर गर्व नही करते थे ? शुद्र यानी OBC पिछड़े जाति के लोगो को पढ़ने का अधिकार, व्यवसाय का अधिकार, धन संपत्ति अर्जित करने का अधिकार प्रदान करते थे ? अछुतो और आदिवासियों को मानवाधिकार प्रदान करते थे ?
अगर इन सभी बातों का उत्तर नहीं है, तो इसका मतलब है कि जब आरक्षण नही था, तब भी ब्राम्हणवादी वर्ण व्यवस्था और जाती व्यवस्था पूरे जोर से ID3 का व्यवहार कर रही थी, तो आरक्षण समाप्त करने से जातीवाद, जातीव्यवस्था खत्म हो जाएगी यह कहना केवल अतार्किक ही नही बल्कि हास्यास्पद भी है । इसलिए इसको हम Reverse argument कहते है ।
7) आरक्षण को 'जातिगत' 'Caste based' बताकर वह OBC SC ST बच्चों, नौजवानो, छात्र छात्राओं के मन मे न्यूनभाव (inferiority), अपराधभाव (guilt) पिरो रहे है, उनका मनोबल गिरा रहे है (demoralise) ताकि उन्हें शर्म आए ( embarass) यह बताते हुए की वह आरक्षण के माध्यम से चुने गए है ।
आरक्षण को 'जातिगत' 'Caste based' बताकर वह इस बात को छुपाना चाहते है की सवर्णो (ब्राम्हण, क्षत्रीय, वैश्य) ने OBC SC ST के साथ ID3 - Inequality, Discrimination, Deprivation, Denial का व्यवहार किया था ।
8) जैसे ही हम आरक्षण को ID3 आधारित बताते है वैसे ही यह व्यवहार जिन्होंने किया वो सवर्ण वर्ग (ब्राम्हण, क्षत्रीय, वैश्य) Focus में आ जाता है । ऐसा न हो इसलिए आरक्षण को जाति आधारित बताया जाता है ताकि OBC SC ST वर्ग Focus मे आता रहे ।
जैसे ही हम आरक्षण को ID3 आधारित बताते है तो
OBC SC ST वर्गों को उनके सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक पिछड़ेपन का कारण पता चल जाता है ।
OBC SC ST वर्गों को यह भी समझ मे आने लगता है की उन्हें शुद्र और अछूत क्यों घोषित किया गया, किसने किया ।
OBC SC ST वर्गों को यह समझ मे आने लगता है की ब्राम्हणवादी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था क्या है, इससे कौन लाभान्वित हुए और कौन प्रताड़ित हुए ।
OBC SC ST वर्ग यह सोचने लगता है की इस ID3 के व्यवहार के विरोध मे किन लोगों ने संघर्ष किया और उन्हें मानवाधिकार किसने बहाल किये ।
OBC SC ST वर्ग को उनके संवैधानिक सुरक्षा एवं अधिकारों का एहसास होने लगता है ओर वह उनके प्रति जागरूक बनने लगते है ।
9) यह सारी बातें ब्राम्हणवादी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के विरोध में जाती है। लोगों का दृष्टिकोण ब्राम्हणवादी वर्ण व्यवस्था और जाती व्यवस्था के विरोध में जाता है और संविधान के समर्थन में हो जाता है, इसलिए आरक्षण को ID3 आधारित ना बताकर जाति आधारित बोला जाता है । यह बात केवल आरक्षण के विरोध तक सीमित नही रहती बल्कि इससे और गंभीर होकर संविधान के विरोध तक आकर रुकती है और इसीलिए दिल्ली के जंतर मंतर पर आरक्षण विरोधी लोगो ने संविधान को जलाया है ।
10) आरक्षण के सन्दर्भ मे इस सबसे बडी चालाकी, सबसे बडी बदमाशी, सबसे बडे झूठ, सबसे बडा फरेब को अगर हम उजागर कर पाए तो लोगो का दृृृष्टिकोण आरक्षण समाप्त करने की बजाए ब्राम्हणवादी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था को नष्ट करने की तरफ हो जाएगा। OBC SC ST वर्ग के लोगो को आरक्षण को लेकर अपमानित या embarass नही होना पड़ेगा और focus मे ID3 का व्यवहार करने वाले लोग आ जाएंगे ।