Friday, February 8, 2019

शेर और बकरी

शेर और बकरी की सोच एक नही है, ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मण और एक दलित की सोच एक नहीं है. सवाल है, सोच अलग-अलग क्यों है ? सोच बनती है, रहन-सहन से, दैनिक आवश्यकता से. यद्यपि दैनिक आवश्यकता दोनों की भूख है किन्तु भोजन भिन्न-भिन्न है. और यही से सोच में फर्क है. सवाल है, क्या बकरी को जीने का हक़ है ? ब्राह्मण-दलित या इसे विस्तार से देखें तो सवर्ण- दलित की थ्योरी इसी सोच को आगे बढ़ाती है. ब्राहण, शेर की तरह परजीवी है . अगर वह बकरी को न मारे तो खाए क्या ? यह भी हकीकत है कि सवर्ण-अवर्ण दोनों को एक ही परिवेश में रहना है, ठीक वैसे ही जैसे शेर और बकरी को एक ही जंगल में. मगर, यहाँ एक बड़ा फर्क है और वह यह कि सवर्ण- अवर्ण जानवर नहीं है, जैसे शेर और बकरी. जानवर और मनुष्य में बड़ा भेद है और यह भेद प्रकृति-प्रदत्त है. मनुष्य में बुद्धि है और उसके पास मन भी है . बुद्धि जहाँ चीजों को तौलती है वहीँ मन चिन्तन करता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित. और यहीं कारण है कि आरंभिक काल से देखा जाए तो उसके रहन-सहन और खान-पान में काफी बदलाव आया है. उसने जहाँ प्रकृति को अपने अनुकूल किया है वही आवश्यकता पड़ने पर उस खुद को प्रकृति के अनुकूल ढाला भी है। जानवर और मनुष्य में यह बड़ा भेद है। ब्राह्मण जानवर नहीं है. उसने भी अपने रहन-सहन और खान-पान में काफी बदलाव किया है, ठीक वैसे ही जैसे दलित समाज ने। सीधी सी बात है, ब्राह्मण की सोच में भी बदलाव होना चाहिए ?

Thursday, February 7, 2019

न्यायालयों में गीता पर हाथ रख कर शपथ दिलाना कहाँ तक उचित है ?

न्यायालयों में गीता पर हाथ रख कर शपथ दिलाना कहाँ तक उचित है ? 
गीता, हिन्दुओं का पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है। वे इसे अपने पूजा घर में रखते हैं। पुरुष और महिलाएं इसका पाठ करते हैं। हिन्दुओं में ब्राह्मण और क्षत्रियों की बात तो समझ में आती है। क्योंकि इस ग्रन्थ में चातुर्वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत उनको प्राप्त विशेषाधिकारों पर किसी तरह का घात नहीं किया गया है। वैश्यों के अधिकार भी काफी हद तक सुरक्षित हैं। किन्तु शूद्र इस व्यवस्था में कैसे खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं ? और सबसे अधिक हमारी माँ, बहनें चाहे, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र ही समाज की क्यों न हो, वे क्यों कर गीता की पूजा करती है, समझ के परे हैं ? पढ़ी-लिखी महिलाएं किस तरह इन नीचे लिखी पंक्तियों को उचित और न्यायसंगत ठहराती है, कुतूहल का विषय है ?

चातुर्वर्णयं  मया सृष्टं गुणकर्मविभागाश:
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।4.13
ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र; इन चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है।  इस प्रकार उस सृष्टि-रचानादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये'पि स्यु: पाप योनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्ते'पि यान्ति परांं गतिम्।। 9.32
हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र और पाप योनी- चंडालादि जो कोई भी हो, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।

और सबसे अधिक आश्चर्य का विषय हमारे न्यायालयों में इस पर हाथ रख कर शपथ दिलाने का है ! जो धार्मिक ग्रन्थ इस तरह की ऊंच-नीच और विभाजनकारी नीति का पाठ पढ़ाता हो, वह आज भी किस तरह उचित और न्यायसंगत हो सकता है ? 

13 पॉइंट रोस्टर

क्रांति कुमार की पोस्ट-
सल्टन धोबी यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर का कपड़ा धोते हैं इस्त्री करते हैं ! इनका सपना है, इनका पीएचडी पास बेटा यूनिवर्सिटी का प्रॉफेसर बनकर कभी वाईस चांसलर बने और बेटे का कपडा कोई ब्राह्मण धोए ?
लेकिन अब सल्टन धोबी का बेटा कभी वाईस चांसलर क्या यूनिवर्सिटी में प्रॉफेसर भी बन नही पायेगा ?
कारण 13 पॉइंट रोस्टर लागू कर सुप्रीम कोर्ट के दो ब्राह्मण जजों ने यूनिवर्सिटी से आरक्षण एक तरह से समाप्त कर दिया ! 13 पॉइंट रोस्टर में ओबीसी 4 क्रम पर हैं, एससी 7 क्रम पर और एसटी 14 क्रम पर है, एसटी को एक तरह से आरक्षण से पूरी तरह बाहर निकाल दिया गया !
4 या 6 पदों की वैकेंसी में 1 ओबीसी पद होगा और 0 एससी ! 7 पदों की वैकेंसी में 1 एससी पद होगा ! लेकिन 3 वैकेंसी निकली तो 0 ओबीसी और 0 एससी !
जानबुझकर अब युनिवेर्सिटी में डिपार्टमेंट यूनिट के हिसाब से 4 से कम वैकेंसी निकाली जाएगी !
सल्टन धोबी और उसके पूर्वज 2,000 वर्षों से ब्राह्मणों का मैला कपड़ा धो रहे हैं, आगे भी यही चलता रहे इसी लिए यूनिवर्सिटी में 13 पॉइंट रोस्टर लागू किया गया !
मैं कल मेरे प्रिय करैक्टर सल्टन धोबी का हाल चाल लेने गया था, पता चला सल्टन धोबी अकेले हैं बाकी उनका पूरा परिवार कुंभ मेले में नहाने गया है !
मैंने कहा सल्टन जी, बेटे जब कुंभ मेले से लौटे तो उसे अब कपड़े धोना और कपडे प्रेस करना सिखाएं !

बाबासाहब अम्बेडकर का एक मार्मिक पत्र रमाई को

लंदन
30 दिसंबर 1930
प्रिय रामू!
तू कैसी है? यशवंत कैसा है? क्या मुझे याद करता है? उसका बहुत ध्यान रख रमा! हमारे चार बच्चे हमें छोड़ गए। अब यशवंत ही तेरे मातृत्व का आधार है। उसका ध्यान हमें रखना ही होगा। पढ़ाना होगा। विकसित करना होगा। खूब बड़ा करना होगा। उसे निमोनिया की बीमारी है।
मेरे सामने बहुत बड़े उलझे गणित हैं। सामाजिक पहेलियॉं हैं। मनुष्य की धार्मिक ग़ुलामी का, आर्थिक और सामाजिक असमानता के कारणों की परख करना है। गोलमेज़ परिषद की अपनी भूमिका पर मैं विचार करता हूँ और मेरी ऑंखों के सामने देश के सारे पीड़ितों का संसार बना रहता है। दुखों के पहाड़ के नीचे इन लोगों को हज़ारों वर्षों से गाड़ा गया है। उनको उस पहाड़ के नीचे से निकालने के मार्ग की तलाश कर रहा हूँ। ऐसे समय में मुझे मेरे लक्ष्य से विचलित करनेवाला कुछ भी होता है तो मेरा मन सुलग जाता है। ऐसी ही सुलगन से भरकर मैंने यशवंत को निर्दयतापूर्वक मारा था।
उसे मारो मत! मासूम है वह! उसे क्या समझता है? व्याकुल होकर तूने ऐसा कहा था। और यशवंत को गोद में भर लिया था। पर रमा मैं निर्दयी नहीं हूँ। मैं क्रांति से बाँधा गया हूँ। आग से लड़ रहा हूँ। अग्नि से लड़ते-लड़ते मैं खुद अग्नि बन गया हूँ। इसी अग्नि की चिंगारियॉं मुझे पता ही नहीं चलता कि कब तुझे और हमारे यशवंत को झुलसाने लगती हैं. रमा! मेरी शुष्कता को ध्यान में रख। यही तेरी चिंता का एकमात्र कारण है।
तू ग़रीब की संतान है। तूने मायके में भी दुख झेला। ग़रीबी से लिथड़ी रही। वहॉं भी तू भर पेट खाना न खा सकी। वहॉं भी तू काम करती रही और मेरे संसार में भी तुझे काम में ही लगना पड़ा, झिजना पड़ा। तू त्यागी है, स्वाभिमानी है। सूबेदार की बहु जैसे ही रही। किसी की भी दया पर जीना तुझे रुचा ही नहीं। रुचता ही नहीं। देना तू अपने मायके से सीखकर आई। लेना तूने सीखा ही नहीं। इसलिए रमा तेरे स्वाभिमान पर मुझे गर्व होता है।
पोयबाबाड़ी के घर में मैं एक बार उदास होकर बैठा हुआ था। घर की समस्या से मैं बदहवास हो गया था। उस वक़्त तूने मुझे धैर्य प्रदान किया। बोली,
‘मैं हूँ न संभालने के लिए। घर की परेशानियों को दूर करूँगी।
घर के दुखों को आपकी राह में अवरोध बनने नहीं दूँगी।
मैं ग़रीब की बेटी हूँ। परेशानियों के साथ जीने आदत है।
आप चिंता न करें, मन को कमजोर न करें।
संसार का काँटों भरा मुकुट जान में जान रहने तक उतारकर नहीं रखना चाहिए।
रामू! कभी-कभी लगता है कि यदि तू मेरे जीवन में नहीं आती तो क्या होता। संसार केवल सुखों के लिए है -ऐसा माननेवाली स्त्री यदि मुझे मिली होती तो वह कब का मुझे छोड़कर जा चुकी होती। मुंबई जैसी जगह में रहकर आधा पेट रहकर उपले बेचने जाना या फिर गोबर बीनकर उपले थापना भला किसे पसंद आता? वकील की पत्नी कपड़े सिलती रही। अपने फटे हुए संसार को थिगड़े लगाना भला किसे पसंद है? पर तूने ये सारी परेशानियॉं उठाई, पति के संसार को पूरे सामर्थ्य के साथ आगे बढ़ाया।
मेरे पति को अच्छे वेतन की नौकरी मिली, अब हमारे सारे दर्द दूर होंगे, इस ख़ुशी में ही मैंने तुझे”ये दो लकड़ियों की पेटी, इतना ही अनाज, इतना ही तेल-नमक और आटा और इन सबके बाद हम सबकी देखभाल करते हुए गुज़ारा करना है-ऐसा बोला था। तूने ज़रा भी ना नुकूर किए सारा कुछ संभाला। रामू! मेरी उपस्थिति में और मेरे पीछे जो तूने किया वह कोई और कर सके, ऐसा सामर्थ्य किसी में नहीं है।
रामू! तेरे जैसी जीवन संगिनी मुझे मिली इसलिए मुझे शक्ति मिलती रही। मेरे सपनों को पंख मिले। मेरी उड़ान निर्भय हुई। मन दृढ़ हुआ। मन बहुत दिनों से भर भर रहा था।
ऐसा कई बार लगा कि तेरे साथ आमने सामने बात करना चाहिए। पर दौड़-भाग, लिखना-पढ़ना, आना-जाना, भेंट-मुलाक़ात में से समय निकाल ही नहीं पाया। मन की बातें मन में ही छुपाकर रखना पड़ा। मन भर-भर आया पर तेरे सामने कुछ कह नहीं सका।
आज शांतिपूर्ण समय मिला और सारे विचार एकमेक हो रहे हैं। मन बेचैन हुआ। इसलिए बुझे हुए मन को मना रहा हूँ। मेरे मन के सारे परिसर में तू ही समाई हुई है। तेरे कष्ट याद आ रहे हैं। तेरी बातें याद आ रही हैं। तेरी बेचैनी याद आ रही है। तेरी सारी घुटन याद आई और जैसे मेरी सांसें ख़त्म होने लगीं, इसलिए क़लम हाथ में लेकर मन को मना रहा हूँ।
रामू! सच्ची कहता हूँ तू मेरी चिंता करना छोड़ दे। तेरे त्याग और तेरी झेली हुई तकलीफ़ों का बल मेरा संबल है। भारत का ही नहीं परंतु इस गोलमेज़ परिषद के कारण सारे विश्व के शोषितों की शक्ति मुझे बल प्रदान कर रही है। तू अब अपनी चिंता कर।
तू बहुत घुटन में रही है रामू! मुझ पर तेरे कभी न मिटनेवाले उपकार हैं। तू झिजती रही, तू कमजोर होती रही, तू गलती रही, जलती रही, तड़पती रही और मुझे खड़ा किया। तू बीमारी से तंग आ चुकी है। स्वयं के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना चाहिए इसकी तूने चिंता ही नहीं की। तुझे अब अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना ही होगा। यशवंत को मॉं की और मुझे तेरे साथ की ज़रूरत है। और क्या बताऊँ?
मेरी चिंता मत कर, यह मैंने कितनी बार कहा तुझसे पर तू सुनती ही नहीं। मैं परिषद के समाप्त होते ही आऊँगा।
सब मंगल हो।
तुम्हारा
भीमराव
अनुवाद : प्रो हेमलता महिश्वर

Wednesday, February 6, 2019

एच एल कोसारे

एच एल कोसारे का पूरा नाम हिरामन लहानु कोसारे है। इनका जन्म 7 फर. 1917 को हुआ था। बालक हिरामन ने वर्ष 1940 में नागपुर विद्यापीठ से बी. ए. उत्तीर्ण किया था

हिरामन कोसारेजी ने 1940-42 तक बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर के स्वतन्त्र मजदूर पक्ष नागपुर शहर शाखा के बतौर अध्यक्ष कार्य किया था । 1942 में नागपुर में संपन्न अखिल भारतीय दलित वर्ग परिषद के स्वागत समिति के सचिव थे। सनद रहे,  इसी परिषद में डॉ अम्बेडकर के नेतृत्व में अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की गई थी। हिरामन बाद में इसी शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन, मध्य प्रान्त वर्हाड़ प्रान्त शाखा के सचिव हुए थे । उसी प्रकार अ. भा. शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के कार्यकारी समिति के सदस्य भी बने थे।

हिरामन कोसारे स्व. म. पक्ष के सी. पी. व बरार टेस्टाईल वर्कर्स यूनियन नागपुर के संयुक्त सचिव के रूप में उन्होंने कार्य किया। 1950-52 के मध्य नागपुर म्युनिसिपल कमेटी के सदस्य रहे । 1956 के मध्य नागपुर में संपन्न बौद्ध परिषद के स्वागत उपाध्यक्ष रहे। इसी बौद्ध परिषद में डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म स्वीकारा और असंख्य लोगों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। 1957-66 भारतीय बौद्ध महासभा नागपुर के महासचिव बने ।  1957-64 नागपुर प्रदेश समता सैनिक दल के अध्यक्ष हुए थे ।

हिरामन कोसारेजी डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर स्मारक समिति  नागपुर कार्यकारी कमेटी के सदस्य चुने गए । 1957-64 के  मध्य इन्होने समता साप्ताहिक' का संपादन भी किया । 1964 मध्य रिपब्लिकन पक्ष के बतौर उम्मीदवार चंद्रपुर जिले में आरमोरी सामान्य मतदार संघ से महाराष्ट्र विधान सभा का चुनाव लढा। 1967-70 तक रिपब्लिकन पक्ष नागपुर के अध्यक्ष और उसी अवधि में प्रांतीय रिपब्लिकन पक्ष के उपाध्यक्ष, तदन्तर 1970 से कांग्रेस में (सन्दर्भ- लेखक के सम्बन्ध में: विदर्भातील दलित चळवळी चा इतिहास) ।         

सिंहलद्वीप

सिंहलद्वीप-
सिंहल-द्वीप ही रावण की लंका है, ऐसा प्रचारित किया जाता है। किन्तु सिंहल-द्वीप की परम्परा में न रावण का उल्लेख है, न राम का। हां, यहां परम्परा से यह विश्वास जरूर है कि बुध्द ने तीन बार यहां आकर लोगों को दर्शन दिया था।

परम्परा के अनुसार, लाट (गुजरात) देश के राजा सिंह्बाहु  के विद्रोही पुत्र राजकुमार विजय सिंह (ई. पू. 483) ने सिंहलद्वीप की स्थापना एक उपनिवेश के रूप में की थी। विजयसिंह अपने साथियों के साथ भरुकच्छ, सोपारा बंदरगाह होते हुए ताम्रपर्णी बंदरगाह (वर्तमान जाफना द्वीप) पहुंचे थे।  ऐसा माना जाता है कि सिंह्बाहु या सिंह नाम की प्रधानता के कारण इनका नाम 'सिंहलद्वीप' प्रसिद्द हुआ। जिस समय भारत में चक्रवर्ती सम्राट अशोक राज्य करते थे, उसी समय सिंहल में राजा विजय का वंश सिंहासनारूढ़ था।

सिंहलद्वीप की पहचान थेरवादी बौध्द धर्मीय देश के रूप में है। सनद रहे, अशोक और सिंहल के शासक तिष्य के बीच मैत्री संबंध थे। इस मैत्री-संबंध का ही तकाजा था कि वहां के शासक तिष्य ने अपने नाम के साथ 'देवानांपिय'  उपनाम लगाया था। पुरातात्विक खोजों और चीनी यात्रियों के वर्णनों में भी ये दोनों राजा समकालीन माने जाते हैं। 

देवानापिय-तिष्य का शासनकाल(ई. पू. 247-207) सिरिलंका के इतिहास में विशेष महत्व रखता है। यह वही समय था जब सिंहल जाति ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। इसी शासनकाल में अशोक पुत्र महामहिन्द एक बड़े प्रतिनिधि मंडल के साथ धर्म प्रचारार्थ सिंहल द्वीप पधारे थे। उस प्रतिनिधि मंडल में भिक्खु  इट्ठिय, उत्तिय, सम्बल, भद्दसाल शामिल थे (दीघनिकायः पाद टिप्पणी-2 पृ. 36 )। राजा देवानापिय-तिष्य के साथ वहां की  जनता ने इस नए धर्म को ग्रहण किया था। कृतज्ञ राजा ने अपने पिता के द्वारा निर्मित महामेघवन उद्यान भिक्षु-संघ को समर्पित किया । स्थविर महिन्द ने द्वीप के अधिवासी युवकों को प्रव्रजित किया।

अन्तःपुर और देश की अन्य स्त्रियां भी बौध्द धर्म में प्रव्रजित होने को उत्सुक थी। अतः भिखुणी संघमित्रा को जम्बूद्वीप(भारत) से निमंत्रित किया गया। सिंहली लोग उत्तरी भारत को इसी नाम से पुकारते थे। संघमित्रा अपने साथ बुध्दगया के बोधिवृक्ष की एक शाखा लेकर आयी थी। वह शाखा महामेघवन में रोपी गई जो आज भी महाबोधिवृक्ष के नाम से अनुराधापुर में प्रतिष्ठित है। यह वृक्ष अति प्राचीन वृक्षों में आज बौध्द जगत के साथ विश्व की धरोहर है।

राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार, ‘लंका’ नाम बहुत पीछे सिंहल में रामायण की परम्परा के प्रचार-प्रसार में  चिपकाया गया। आजकल यद्यपि निवासियों और भाषा का नाम सिंहल है, किन्तु देश का नाम सिंहल की अपेक्षा लंका या सिरिलंका अधिक प्रसिध्द है। अशोक के शिलालेख में यह द्वीप ताम्रपर्णी द्वीप के नाम से उल्लिखित है(राहुल सांस्कृत्यायनः बौध्द संस्कृतिः लंका में बौध्द धर्म)।
 
सिरिलंका के इतिहास में राजा तिस्स के बाद काकवर्णतिस्स के बड़ा पुत्र दुट्ठगामणी(101-77 ई. पू ) ऐसा शासक था जिसके राज्य में सिंहल जाति और बौध्द धर्म ने गर्व से सिर उठाया। उसने विहार और चैत्यों का निर्माण कराया। उसने लोहमहाप्रसाद का निर्माण कर संघ को दान दिया था। यह 1600 शिलास्तम्भों पर खड़ा 9 मंजिला प्रसाद था जिसके दीवारों पर रत्नों के कमल और स्वर्ण तलाओं के बीच जातक कथाएं चित्रित थी। इसमें 900 कमरे थे। उसने रुवणवैलि सैय(चैत्य) का निर्माण कराया था जिसमें बुध्द-धातु स्थापित की गई थी। महावंश के अनुसार, दुट्ठग्रामणी राजा 99 वर्ष तक जीवित रहा और उसने इतने ही विहार बनवाए।

राजा दुट्ठगामणी के बाद कनिष्ठ भ्राता सद्धातिस्स के चौथे पुत्र राजा वट्टगामणी अभय  (ई. पू. 29-17) के शासन काल में विनय, सूत्र, अभिधर्म और उनकी अट्ठकथाओं का परायण कर सिंहल भाषा में लेखबध्द किया गया था। चतुर्थ शताब्दी में आचार्य बुध्दघोष ने सिरिलंका जाकर वहां ति- पिटक की अट्ठकथाओं का पालि में अनुवाद किया। आज का पालि ति-पिटक और उनकी सारी अट्ठकथाएं सुरक्षित रखने का गौरव सिरिलंका को ही है।

ईसा की तीसरी शताब्दी में बुध्द का एक दांत भारत से लाकर सिरिलंका स्थित क्याडी विहार में सुरक्षित रखा गया है (भगवान बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन, पृ. 388ः धर्मकीर्तिजी )।

चुलवग्ग के अनुसार पराक्रमबाहु का शासनकाल (1153-1186) सिंहल इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। सम्राट ने पोलन्नरुव को सिंहल द्वीप की राजधानी बनाया था। इस काल में पाली साहित्य की खासी अभिवृध्दि हुई और कई टीकाएं लिखी गई। अट्ठकथाएं बन चुकी थी, उन पर टीकाएं लिखने का कार्य सारिपुत्त ने किया।

पराक्रमबाहु की दो रानियां थी, भद्दवती और रूपवती। पोलन्नरुव के भद्दवती चैत्य और रूपवती चैत्य से दोनों की उदारता और धार्मिकता ज्ञापित होती है(एशिया के महान बौध्द सम्राटः डॉ. भिक्षु सांवगी मेधंकर)।

सोलहवीं शताब्दी में पोर्तुगीज, डच और अंग्रेज सत्ता पर काबिज हुए। बौध्द स्थविर मिगेत्तुवते गुणानंद ने क्रिश्चियन विद्वानों को धम्म-चर्चा में परास्त किया। यह ऐतिहासिक धम्म-चर्चा(शास्त्रार्थ) कोलम्बो से 16 मील दूर स्थित ‘पानादुरे’ स्थान पर हुई थी। इस धम्म-चर्चा से इंग्लेंड स्थित थियोसाफिकल सोसायटी के अध्यक्ष कर्नल आल्कॉट बौध्द धर्म की ओर आकर्षित हुए। कर्नल आल्कॉट ने ईस्वी 1880 में श्रीलंका जाकर खुले आम बौध्द धर्म स्वीकारा (बौध्द संस्कृति, पृ. 81, राहुल सांस्कृत्यायन )।

उन्नीसवीं शताब्दी में अनागरिक धम्मपालजी का उदय हुआ। उन्होंने न केवल सिलोन में बल्कि भारत में भी बौध्द धम्म में नए प्राण फूंके ।

अहं बोधि रूपं

जीवित परियन्तं
अहं बोधि रूपं, अहं बोधि रूपं ।।

केसेतो, मज्ज परियन्तं
अहं बोधि रूपं, अहं बोधि रूपं ।।

मत्थकतो, पाद परियन्तं
अहं बोधि रूपं, अहं बोधि रूपं ।।

अज्जतो, सुवे परियन्तं
अहं बोधि रूपं, अहं बोधि रूपं ।।

पुब्बण्हतो,  सायण्हं परियन्तं
अहं बोधि रूपं, अहं बोधि रूपं ।।

चेततो, फग्गुनो परियन्तं
अहं बोधि रूपं, अहं बोधि रूपं ।।

इहतो पेच्च परियन्तं
अहं बोधि रूपं, अहं बोधि रूपं ।।

अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com

लेखन की बंदिशें और परफार्मेंस:संजीव चन्दन

 लेखन की बंदिशें और परफार्मेंस:
हम साहित्यिक समारोहों में शामिल होते हैं लेकिन अभिव्यक्ति पर लगी बंदिशों को भूल जाते हैं और दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्यारी ताकतों की शिनाख्त नहीं करते । यह याद नहीं दिलाते कि कौन हैं वे लोग जो पेरूमल मुरुगन के उपन्यास के विरुद्ध कस्बे में हिंसा करवाते हैं और प्रतिबंध लगवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं, महाश्वेता देवी के नाटक का मंचन नहीं होने देते, आनंद पटवर्धन की फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने देते, कांचा इल्लैया की अभिव्यक्ति पर पहरेदारी करते हैं और 92 वर्षीय लेखिका नयनतारा सहगल से निमंत्रण वापसी का दबाव बनाते हैं तो हम अपनी कविता, कहानी और उपन्यास आदि को सिर्फ एक परफॉर्मेंस समझते हैं।

हमें मंच पर खड़े होते हुए उन लोगों को याद करना चाहिए जो महज लिखने पढ़ने के कारण अर्बन नक्सल करार देकर जेल की सलाखों के पीछे हैं या आनंद तेलतुंबदे की तरह जिन पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। हमें उन चेहरों को भी याद रखना चाहिए जो अवार्ड वापसी की मुहिम के दौरान भगवा तख्ती लिए हुए अवार्ड वापसी में शामिल लेखकों को देशद्रोही कह रहे थे ।

इतिहास इस कारण भी हमें याद रखेगा या भुला देगा कि इस निर्णायक समय में हम सत्ता की दुरभिसंधि के इच्छुक सहभागी हैं या कि प्रतिपक्ष की आवाज़। काश ,हम डोमाजी उस्ताद के जुलूस में शामिल होने से खुद को बचा सकें। प्रेमचंद ने यूं ही नहीं कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है उसकी पिछलग्गू नहीं(संजीव चन्दन की पोस्ट )

दलित महत्तं

दलित महत्तं
दलित जना, यं जीवन्ति पेतानं
ते भवन्तानं, मम सादरेन-नमन ।
दलित जना, यं महिसा'व जीवनं
ते भवन्तानं, मम सादरेन नमन ।
दलित जना, यं गद्रभे'व जीवन्ति
ते भवन्तानं, मम सादरेन नमन ।
दलित जना, यं वराह'व जीवनं
ते भवन्तानं, मम सादरेन नमन ।

महिसाय जीवनं, बहु सोभनं ?
दण्डेन पहरति उट्ठति मुखं।
वराहो'पि बहु सोभनं जीवनं ?
चरति यत्थ-तत्थ नेति थूथं।
इतोपि सोभति गद्रभो जीवनं ?
सामि भार वाहेति पीठे पीठं।
जय जय जय ते दलितानं !
गरु करोति पसुनो जीवनं । 

स्त्री शूद्र गीता

गीता

कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन 
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते संगो'स्त्वकर्मणि।।2.47
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है , उसके फलों में कभी नहीं।  इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आशक्ति न हो।

 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत 
अभ्युथानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् 
परित्राणाय साधूना विनाशाय दुष्कृताम् 
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। 4.8
हे भारत! जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रगट होता हूँ। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए , पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए मैं युग-युग में प्रगट हुआ करता हूँ। 



चातुर्वर्णयं  मया सृष्टं गुणकर्मविभागाश:
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।4.13
ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र; इन चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है।  इस प्रकार उस सृष्टि-रचानादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।


मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये'पि स्यु: पाप योनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्ते'पि यान्ति परांं गतिम्।। 9.32
हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र और पाप योनी- चंडालादि जो कोई भी हो, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। 

Tuesday, February 5, 2019

करपात्रीजी और बाबासाहेब अम्बेडकर

प्रसंग हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में हिन्दुओं के धर्मगुरु करपात्रीजी महाराज का देश के प्रथम कानून मंत्री बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर से मुलाकात करने का है। तब, बाबासाहब अम्बेडकर देश के कानून मंत्री थे। वे दलितों के बेताज बादशाह तो थे ही, हिन्दुओं के भी बेताज बादशाह रहे ।

हिन्दू, तब कई प्रकार की धार्मिक कुरीतियों, अंधविश्वासों और कुप्रथाओं से घिरे थे जो सदियों से उनमें व्याप्त रही। बाबासाहब अम्बेडकर तब  न सिर्फ दलितों के सामाजिक सुधारों के लिए कटिबद्ध थे वरन वे इसके सामानांतर हिन्दुओं में व्याप्त इन कुप्रथाओं से भी निजात पाने को जूझ रहे थे। उनकी सोच थी कि चूँकि हिन्दू देश के बहुसंख्यक हैं, उनके आचारों-विचारों से देश की सोच बनती है। दूसरे, उनके आचार-विचार देश के भिन्न सांस्कृतिक विरासत सिक्ख, जैन, बुद्धिस्ट, मुस्लिम, ईसाई आदि को भी प्रभावित करते हैं। और इसलिए, वे अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ दलित-सुधारों के साथ-साथ हिन्दुओं के धार्मिक सुधारों के लिए प्रयासरत  थे।   

बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर जब 'हिन्दू कोड बिल' तैयार करने में दत्तचित थे तब बनारस के हिन्दुओं के सबसे बड़े धर्मगुरु करपात्री महाराज ने बाबा साहेब को बहस करने की चुनौती दे डाली। उन्होंने कहा डॉ अम्बेडकर एक अछूत है वे कितना जानते हैं हमारे धर्म के बारे मे, हमारे ग्रन्थ और शास्त्रों के बारे में ? क्या उन्हें कहाँ संस्कृत और संस्कृति का ज्ञान है? यदि उन्होंने हमारी संस्कृति से खिलवाड़ किया तो उन्हें इसके परिणाम भुगतने होंगे। करपात्री महाराज ने डॉ अम्बेडकर को इस पर बहस करने हेतु पत्र लिखा और निमंत्रण भी भेज दिया।
बाबासाहेब बहुत शांत और शालीन स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने आदर सहित करपात्री महाराज को पत्र लिखकर उनका निमंत्रण स्वीकार किया और कहा कि हिंदी, इंग्लिश, संस्कृत, मराठी या अन्य किसी भी भाषा में वे उनसे शास्त्रार्थ करने को तैयार हैं। यदि उनके मन में कोई प्रश्न है तो वे अपने समयानुसार आकर अपनी जिज्ञासा पूरी कर सकते हैं।
यह पढ़ते ही करपात्री महाराज आग बबूला हो गए। उन्होंने वापस बाबासाहब को पत्र लिखा कि डॉ अम्बेडकर शायद, भूल रहे हैं कि एक साधू, सन्यासी को वे अपने स्थान पर बुला रहे हैं। उन्हें यहां आकर बात करनी चाहिए न कि एक साधू उनके पास जा कर बात करें ?
"मैं साधू, सन्तों का सम्मान करता हूँ। उनके तप और त्याग का आदर करता हूँ लेकिन फिलहाल जिनसे मैं पत्राचार कर रहा हूँ वे साधु कहाँ  हैं? वे तो राजनेता हो गए हैं वरना इस बिल से किसी साधू को क्या लेना देना हो सकता है? एक ऐसा बिल जिसमें महिलाओं को भी सम्पत्ति रखने का अधिकार मिलने की बात है, उन्हें तलाक और विधवा विवाह का अधिकार देने की बात की है।  इसमें मुझे तो कोई बुराई नजर नही आती इसलिए मेरी नजर में आप राजनीति कर रहे हैं और राजनीतिक लिहाज से आप शायद भूल रहे हैं कि मैं वर्तमान समय मे भारत का कानून मंत्री हूँ और एक मंत्री के रूप में मैं ऐसी किसी जगह नही जा सकता हूँ जहां जनता का हित न हो या लोकतंत्र का अपमान हो।''- डॉ अम्बेडकर ने करपात्रीजी महाराज को जवाब दिया। 
यह पढ़कर करपात्री महाराज अचंभित रह गए। कुछ समय बाद उन्होंने बाबासाहब को पुनः एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने मिलने की बात कही थी। यद्यपि वे मिलने कभी नही आए ।