बौध्द धर्म के आधारभूत सिध्दांत (Basic concepts of Buddhism)-
1. अनित्यता
2. अनात्मवाद
3. निर्वाण
4. दु:ख
1. अनित्यता -
अनित्यता का मतलब है, अस्थायी. प्राणी का जिन-जिन सामग्रियों से निर्माण होता है, वे सब परिवर्तन शील है. सभी चीजे सतत प्रवाहशील हैं. जितने ही जीवित पदार्थ हैं, वे अस्थायी हैं, परिवर्तन शील हैं. परिवर्तन के अतिरिक्त जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है. सभी वर्तमान वस्तुएं क्षण-भंगुर हैं. भले ही सजीव पदार्थ हो या निर्जीव. अस्थिरता उनका प्रधान लक्षण है.शक्ति तक में बढ़ने-घटने की प्रवृति है. केवल शुन्यता को अपरिवर्तन शील कहा जा सकता है. सापेक्ष दृष्टी से एक वस्तु दूसरी की अपेक्षा कुछ अधिक स्थायित्व लिए हो सकती है. किन्तु, कोई भी वस्तु निरपेक्ष भव से स्थायी नहीं है.
2 . अनात्मवाद -
यह अनित्यता का ही सिद्धांत है जो किसी स्थिर/अपरिवर्तनशील 'आत्मा ' के अस्तित्व को नकारता है। चूँकि , प्रकृति परिवर्तनशील है। अत: शरीर में किसी स्थिर या अपरिवर्तनशील 'आत्मा ' का होना अपने आप में शुन्य हो जाता है।
3 . निर्वाण -
नि: ( अभाव) + वात (वायु ) = निर्वाण
भगवन बुध्द ने जिस अर्थ में निर्वाण शब्द का प्रयोग किया है, वह है दीपक की लौ बुझ जाना. निर्वाण का अर्थ है, राग, द्वेष और मोह का शमन। 'बोधि की प्राप्ति ' निर्वाण का ही पर्याय है।
4 . दुःख -
इदं थी पन भिक्खवे, दुक्खं अरिय सच्चम।
जातिपि दुक्खा जरापि दुक्खा , व्याधिपि दुक्खा मरणं पि दुक्खं -धम्मपद : महावग्ग 1-6-19)
(अर्थात भिक्खुओ, दुःख आर्य-सत्य है। जन्म भी दुःख है। जरा भी दुःख है। व्याधि भी दुःख है। मरण भी दुःख है)।
जीवन में दुःख है। दुःख इसलिए है ; क्योंकि, जगत में जो कुछ है , सब अनित्य है , परिवर्तनशील है। सभी तरह की वस्तुएं और संबंध अस्थायी हैं , परिवर्तनशील हैं। क्षण-क्षण में परिवर्तित होता प्रकृति का यह अस्थिर और अस्थायी रूप मनुष्य अपनी खुली आँखों से देखता है। बावजूद , इसके वह उन्हीं के पीछे अँधा हो कर दौड़ता है। क्षण-क्षण में परिवर्तित होती वस्तुएं और अस्थिर/ अस्थायी संबंधों के प्रति मनुष्य की यह अंधी आशक्ति ही उसके दुःख का कारण है।
मार्क्स के द्वंदवाद की थ्योरी के अनुसार , जीवन का दूसरा नाम संघर्ष है। बिलकुल दुरुस्त है , दुःख न होता तो जीवन संघर्षमय न होता ? बौद्ध चिंतन की दृष्टि से, जीवन न तो गुलाब की पंखुड़ी के समान सुन्दर है और न मैले चिथड़े के समान अरुचिकर। दूसरे शब्दों में, बौद्ध धर्म इस बात को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करता है कि यदि हम जीवन के मायने केवल उसके इन्द्रिय-जनित सुख के स्वार्थमय उपयोग करने के लिए लगाते हैं तो यह जीवन इस योग्य ही नहीं कि उसे जिया जाए। सच तो यह है कि बौद्ध धर्म विद्यमान दुःख को दूर करने की ही चिंता नहीं करता बल्कि , ऐसी परिस्थिति भी उत्पन्न करता है कि कोई दुःख उत्पन्न ही न हो।
एक बुद्धिस्ट ऐसे कर्म करता है जिसके करने से दुःख का नाश हो। वह सुख की चिंता नहीं करता जो उसके कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न हो सकता है। परन्तु , इसका मतलब यह भी नहीं कि वह सुख को मूलत: अस्वीकार करता है। भगवान बुद्ध ने अहंकार जनित दुःख के बारे में कहा है। स्वार्थोत्पन्न चिंता के बारे में कहा है। तथागत ने कहीं भी समस्त जीवन की गर्हा नहीं की है।
कुछ लोग कहते हैं कि बौद्ध धर्म निराशावादी है। उनका आरोप है कि जीवन के प्रति जो शापनहार का दृष्टिकोण है , बौद्ध धर्म उसका समर्थन करता है। जीवन में दुःख है, यह सच है , भगवान बुद्ध ने स्वीकार किया है। मगर , क्या बौद्ध धर्म निराशावादी है ? अगर बौद्ध धर्म निराशावादी होता और जीवन में आशा की कोई किरण नहीं होती तो भगवान बुद्ध सभी वासनाओं के परित्याग की बात नहीं करते ? समस्त बौद्ध ग्रंथों में जीवन में ऊंचे, श्रेष्ठ आदर्श स्थापित करने की बात कही गई है। क्यों ? इसलिए कि जीवन को सुखमय बनाने की आशा है।
चार आर्य सत्य -
1 . जीवन में दुःख है।*
2 . दुःख का कारण (तृष्णा) है।
3 . दुःख दूर किया जा सकता है।
4 . और वह उपाय अर्थात तृष्णा का निरोध (आर्य-अष्टांगिक मार्ग का पालन) है।
..........................
* इसका यह कतई मतलब नहीं कि जीवन में दुःख ही दुःख है। क्योंकि , ऐसा कहने से जीवन में जो आनंद है , उस पर प्रश्न -चिन्ह लग जाएगा। बुद्ध का मात्र यह कहना कि जीवन में सुख के साथ-साथ दुःख भी है।
(i) दुःख दो प्रकार के हैं -
(a) सांदृष्टिक (सांदिट्ठिक) दुःख - जो दुःख तृष्णा का हेतु है, जैसे लोभ, द्वेष , मोहादि।
(b) सम्परायिक दुःख - जो दुःख जन्म का हेतु है, जैसे मृत्यु , बुढ़ापा ।
*(ii) भगवान बुद्ध ने जिस दुःख को दूर करने की बात की है , वह 'सांदिट्ठिक दुःख' है।
2 . दुःख का कारण (तृष्णा) है।
3 . दुःख दूर किया जा सकता है।
4 . और वह उपाय अर्थात तृष्णा का निरोध (आर्य-अष्टांगिक मार्ग का पालन) है।
..........................
* इसका यह कतई मतलब नहीं कि जीवन में दुःख ही दुःख है। क्योंकि , ऐसा कहने से जीवन में जो आनंद है , उस पर प्रश्न -चिन्ह लग जाएगा। बुद्ध का मात्र यह कहना कि जीवन में सुख के साथ-साथ दुःख भी है।
(i) दुःख दो प्रकार के हैं -
(a) सांदृष्टिक (सांदिट्ठिक) दुःख - जो दुःख तृष्णा का हेतु है, जैसे लोभ, द्वेष , मोहादि।
(b) सम्परायिक दुःख - जो दुःख जन्म का हेतु है, जैसे मृत्यु , बुढ़ापा ।
*(ii) भगवान बुद्ध ने जिस दुःख को दूर करने की बात की है , वह 'सांदिट्ठिक दुःख' है।
आर्य अष्टांगिक मार्ग -
1.Samm Diti सम्यक दृष्टी (Understanding/Views)
2. Samm Sankappo सम्यक संकल्प (Aims/Resolve)
3. Samm Vacca सम्यक वाचा (Speech)
4. Samm Kammanto सम्यक कर्मान्त (Action/Perseverance)
5. Samm Ajiva सम्यक आजीविका (Livelihood/Means of Livelihood)
6.Samm Vayamo सम्यक व्यायाम (Effort/Endevour)
7.Samm Satti सम्यक स्मृति (Mindfulness/Thought)
8.Samm Samadhi सम्यक समाधि (Concentration/contemplation)प्रज्ञा समूह -
7 . सम्यक दृष्टि (Right-View)- सम्यक दृष्टिकोण (चार आर्य सत्यों* को समझना और अपनाना)।
8 . सम्यक संकल्प (Right-Thought)- सम्यक विचार (मैत्री , मुदिता और उपेक्षा की भावना का विकास करना)।
शील समूह-
1 . सम्यक वाचा (Right-Speech)- सम्यक वाणी (झूठ, चुगली, निंदा और कटु/निरर्थक बातों से दूर रहना)।
2 . सम्यक कर्मांत(Right-Action) - सम्यक कर्म (प्राणी-हिंसा, चोरी , कामाचार से विरत रहना)।
3 . सम्यक आजीविका(Right Livlihood) - अनैतिक और असंवैधानिक काम-धंधों से बचना।
समाधि समूह-
4 . सम्यक व्यायाम(Right-Effort)- कुशल विचारों को विकसित करना कि अकुशल विचार मन में उठे ही नहीं अर्थात मानसिक संयम।
5 . सम्यक स्मृति(Right Mindfulness)-शरीर और चित के प्रति सचेत रहना
6 . सम्यक समाधि(Right-Contemplation) - चित की एकाग्रता के लिए अभ्यास करना
महायान -
1 . भक्ति पर जोर
2 . बुध्द एक कारुणिक उपास्य देवता के रूप में मान्य
3. बुध्द को देवता का स्थान दिया गया तथा उनकी मूर्ति बना कर पूजा आरम्भ की गयी.
4 . बुध्द को ईश्वर समझा गया.
5 अवतार को स्थान दिया गया. बुध्द को भी अवतार मान लिया गया.
हीनयान -
1. अपने दीपक आप बनो. अपनी शरण आप जाओ
2. बुध्द केवल मार्ग दाता है, मोक्ष दाता नहीं.
3. अपने निर्वाण का प्रयत्न स्वयं ही करना होगा.
4. बुध्द शास्ता है.तथागत - जाति,जरा,व्याधि तथा मृत्यु की मर्यादा को जो लाँघ गया, उसे ही तथागत कहते हैं.
अर्हत - जो अपने आस्रवों का क्षय कर चुके हैं. जो अपने जीवन का उद्देश्य पूरा कर चुके हैं. जो सुकृत्य हैं. जो अपने सर का भार उतार चुके हैं. जो मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं. जिन्होंने भव-बंधनों का मूलोच्छेद कर दिया हैं और जो 'प्रज्ञा-विमुक्त' ( released by the perfect insight) हैं.
बौद्ध धर्म और अन्य धर्मों में अंतर -
अन्य धर्मों की शिक्षा है कि आदमी स्वभावत: बुरा है. किन्तु, बौद्ध धर्म में इससे उल्ट है. बोधिचर्यावतार की यह देशना है की 'अथ दोषा: अयं आगन्तुका: सत्य प्रकृति पेषला:' अर्थात दोष बाह्य आगन्तुक है और प्राणी प्रकृति से निर्मल है.
पञ्च स्कंध -
1. वेदना (Sensation/Springing from contact of six senses with the world)
2. संज्ञा (Perception)
3. संस्कार (State of mind)
4. विज्ञानं (Consciousness)
5. रूप
प्रतीत्य समुद्पाद -
नागार्जुन ने अपने ग्रन्थ 'विग्रह व्यावर्तिका में कांट के वस्तुसार के उलट वस्तु-शुन्यता ( वस्तुओं के भीतर कोई स्थिर तत्व नहीं है, वह विछिन्न प्रवाह मात्र है ) सिध्द किया है. शुन्यता से नागार्जुन का अर्थ है, प्रतीत्य समुद्पाद. विश्व और उसकी सारी जड़-चेतन वस्तुएं किसी भी स्थिर अचल तत्व ( आत्मा द्रव्य आदि ) से बिलकुल शून्य है. अर्थात विश्व घटनाएं हैं वस्तु समूह नहीं.
नागार्जुन प्रतीत्य समुद्पाद के दो अर्थ लेते हैं 1 . प्रत्यय से उत्पत्ति. सभी वस्तुएं प्रतीत्य-समुत्पन्न हैं, का अर्थ है सभी वस्तुएं अपनी उत्पत्ति में ( अपनी सत्ता को पाने के लिए ) दूसरे प्रत्यय( हेतु या कारण ) पर आश्रित है.
2 . प्रतीत्य समुद्पाद का दूसरा अर्थ है, क्षणिकता. अर्थात सभी वस्तुएं क्षण भर के बाद नष्ट हो जाती है और उनके बाद दूसरी नई वस्तु या घटना क्षण भर के लिए आती है अर्थात उत्पत्ति विछिन्न प्रवाह-सी है. पराश्रित उत्पाद के अर्थ को लेकर नागार्जुन साबित करना चाहते थे कि जिसकी उत्पत्ति, स्थिति या विनाश है, उसकी परमार्थ-सत्ता कभी नहीं मानी जा सकती.
जब एक बीज एक पौधा बन जाता है, तो उस बीज में जो कुछ होता है और जो पौधे की शक्ल में परिवर्तित हो जाता है, कारण कहलाता है और मिटटी, पानी, प्रकाश, हवा, आकाश आदि कारण-सामग्री जिससे वह पौधा अस्तित्व में आता है, वह उसका हेतु कहलाता है.
इसी प्रकार चेतनता, विज्ञानं-बीज, व्यक्ति का विकास नाम-रूप के अस्तित्व में आने का कारण है और माता-पिता का सामीप्य, माँ का गर्भ, माता-पिता से प्राप्त सम्भावनाएं, शारीरिक हलचल और हालत वह हेतु है, जो किसी खास व्यक्तित्व को अस्तित्व में लाती हैं.
अपने से कोई परिवर्तन नहीं होता. हर परिवर्तन, किसी दूसरे परिवर्तन के कारण से सम्बन्धित रहता है और एक तीसरे परिवर्तन से कार्य के रूप में. संसार में प्राय: सभी परिवर्तन परस्पर एक दूसरे पर आश्रित है. यही प्रतीत्य समुत्पाद है. इस प्रतीत्य समुत्पाद की सभी चीजें प्रतीत्य समुत्पन्न है (पृ. 190 ).
2 . बौद्ध निर्वाण के प्राय: 225 वर्षों बाद ( ईसा पूर्व 260 वर्ष ) सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया.
बौद्ध धर्म के भारत से लोप होने के कारण-
डा. आंबेडकर -
1 . स्वयं सम्राट अशोक की सहनशीलता जो जरुरत से ज्यादा थी. इस सहनशीलता ने बौद्ध धर्म के कट्टर विरोधियों को अपनी शक्ति बढ़ाने का पूरा मौका दिया.
2 . ब्राह्मणवाद की बुध्द्धर्म के साथ ईर्ष्या और उग्र शत्रुता.
3 . मौर्य साम्राज्य का ब्राह्मण साम्राज्य में परिवर्तन होना. अन्तिम मौर्य सम्राट महाराज वृहद्थ का उसके ब्राह्मण सेनापति शुंग-वंशी पुष्यमित्र द्वारा वध कर स्वयं सिहासन पर बैठना .
4 . मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध मठों मन्दिरों और बौद्ध विहारों का विध्वंश.
5 . बौध्द श्रमणों एवं भिक्षुओं में प्रचार प्रवृति का समाप्त होना.
राहुल सांस्कृत्यायन -
1 . भारत में बौद्ध धर्म का लोप 13 -14 वी शताब्दी में हुआ.2 . बौद्ध निर्वाण के प्राय: 225 वर्षों बाद ( ईसा पूर्व 260 वर्ष ) सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया.
3 . ईसा की प्रथम शताब्दी में सूत्र-विनय और अभि-धम्म तीनों पिटक जो कंठस्थ किये जाते थे, लेखनी बध्द किये गए.
4. ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में मौर्यों के सेनापति पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट को मार कर शुंग-वंश का राज्य स्थापित किया. इसी दौरान महाभारत एवं मनुस्मृति की रचना हुई.
5. ईसा की प्रथम शताब्दी में नागार्जुन हुए.
6. सम्राट कनिष्क के समय ईसा की पहली शताब्दी में महायान का प्रचार हुआ. आम जनता में महायान ढोंगी धर्म बन गया था.
7. आठवी से ग्यारवी शताब्दी तक बौद्ध धर्म वस्तुत : वज्रयान या भैरवी चक्र का धर्म था.
8. मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद बिन बख्तियार ने बौद्ध मठों, विहारों का विध्वंश किया. इस विध्वंश से अपार ग्रन्थ राशी भस्म-सात हुई, कला कौशल के उत्कृष्ट नमूने नष्ट हुए. यद्यपि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिन्दू मन्दिरों को भी तहस-नहस किया किन्तु राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण हिन्दू मन्दिरों का पुन:निर्माण हो गया जबकि लोगों का सहयोग न मिलने से बौध्द मठों और विहारों का पुन:निर्माण न हो सका.
9. कुछ लोग शंकर पर धार्मिक असहिष्णुता का आरोप लगते हैं और कहते हैं की शंकर ने बौध्दों को शास्त्रार्थ से ही परस्त नहीं किया बल्कि उसकी आज्ञा से राजा सुधन्वा आदि ने हजारों बोध्दों को समुद्र में डुबोकर और तलवार के घाट उतार कर उनका संहार किया. मगर, कई कारणों से ये बातें सही नहीं मालूम पड़ती.
आचार्य चतुरसेन -
1 . बौध्द धर्म का लोप नहीं हुआ बल्कि, इसका रूप बदल गया. वास्तव में गुप्त-वंश के राजाओं के राज्य-काल में बौध्द धर्म और हिन्दू धर्म बहुत कुछ मिल गया.
2 . सातवे शताब्दी में मुसलमानी आक्रमण ने भी भौध्द धर्म को नष्ट-भृष्ट कर दिया.
3 .शुरू में बौध्द धर्म के सारे उपदेश सर्व साधारण की भाषा में थे किन्तु महायान सम्प्रदाय ने संस्कृत भाषा को अपनी मुख्य भाषा बनाया और इसी संस्कृत भाषा ने बौध्द धर्म का सर्व नाश किया.
4 . वर्तमान पौराणिक धर्म ही बौध्द धर्म का बिगड़ा हुआ स्वरूप है, जिसे वैष्णव धर्म कहते है.
सोहनलाल शास्त्री -
1 . ब्राह्मणवाद की बुध्द धर्म के साथ ईर्ष्या और उग्र-शत्रुता
2 .बुध्द धर्म की शाखा महायान.
3 . बौध्द श्रमणों और भिक्षुओं में प्रचार प्रवृति समाप्त हो जाना.
4 . मुस्लमान आततायियों १२ वी शताब्दी में द्वारा बौध्द मठों, विहारों और बौध्द भिक्षुओं का संहार.
बौध्द दार्शनिक स्कूल -
1 . वैभाषिक
2 . योगाचार/विज्ञानवाद : असंग और वसुबन्धु ( 350 ई. पूर्व ) गंधार (पेशावर) के पठान भाई
3 .माध्यमिक : नागार्जुन ( ) शून्यवाद
4 . सर्वास्तिवाद : अश्वघोष ( ) बुध्द चरित , सारिपुत्त प्रकरण, सौंदरानन्द आदिकाव्य नाटक
5 . सौत्रान्तिक
The Gospel of Buddhism
Buddha recognized the fact that the world is full of misery and unhappiness. Asking what could be the causes of this misery Buddha found that there could be only two-
1. A part of this misery and unhappiness of the man is the result of his own misconduct. To remove this cause of misery he preached the practice of Panch Sila.
2. A part of this misery and unhappiness in the world was according to Buddha, the result of man's inequality towards man. For the removal of man's in equality the Buddha prescribed the Noble Eight-fold Path
Real and unreal-
According to Buddhist philosophy, things which are capable of objective action is real and which is not capable of objective action is unreal. For example, sweet and bread are real because they are capable of nourishment or satisfying our hunger which is the objective action. Whereas, as per old theory, thing which is not capable of objective action is real since it is immutable, eternal, unchangeable and perfect.
According to Nagarjuna, reality is relative and not absolute. Everything is real within certain limit. Beyond those limit,it is unreal. Is the objective world real ?
Yes, it is real as far as worldly knowledge goes. But from the view of the transcendental truth, it is unreal.
i. World as a conglomeration not of things but of events i.e. world as made up of events.
ii. Buddhist concept of Dependent origination replaced the old theory of cause of effect.
iii. Theory of collectivity of causes- No effect has only one cause, but several causes together gives birth of one effect ( object). Secondly, cause is entirely different from effect i. e. the emergence of effect is a qualitative change which can not take place unless all the causes are pooled in the required measure quality.
Rahul Sankrityayan
In spite of some rationalism in their philosophy; their belief in rebirth, yogic mysticism and some other views are the same as in other religion.
In fact, Buddha is neither materialistic nor idealistic. He is a dynamic realist and a practical revolutionary. His aim is to remove suffering.
Mulk Raj Anand-
As per Hindu philosophy, all living beings die, only to be reborn in the form of other beings superior or inferior according to previous lives. The Buddha accepted this concept, but the difference between his view and that of the Brahmins lies in the emphasis on the moral natural of his approach to deeds rather than the psychological or theological interpretation given by Brahmins.
Ten Paarmitas (State of perfection)
1. Sila (Fearing of doing wrong)
2. Dana (Without expecting return)
3. Uppekha (Detachment)
4. Nekkhana (Renunciation of worldly pleasure)
5. Virya (Right endeavor)
6. Khanti (Forbearance i.e. not to meet hatred by hatred)
7. Succa (Truth)
8. Adhithana (determination to reach the goal)
9. Karuna (Love to human being)
10. Maitri ( Fellow feeling to all living beings)
विपस्सना -
अपने आप को साधने का यह एक तरीका। ध्यान शिविरों में सामूहिक रूप से आठ शीलों का पालन अधिक समय तक करते हैं। इससे स्वैच्छिक सदा जीवन व्यतीत करने का मौका मिलता है, जो हमें मानसिक और शारीरिक संयम प्रदान करता है ताकि हम आर्य-अष्टांगिक मार्ग पर भली प्रकार चल सके।
दस बेड़ियां (10 Fetters) -
1 . सत्कायदिट्ठिका - उच्छेदवाद या शाश्वतवाद ; इन दो अतियों में विश्वास। उच्छेदवादी दृष्टि मृत्यु के साथ सब कुछ नष्ट हो जाने में विश्वास करती है। जबकि शाश्वतवादी दृष्टि मृत्यु के अनन्तर एक शाश्वत आत्मा की विद्यमानता में विश्वास करती है।
2 . विचिकिच्चा - अर्थात शंका-कुशंका। बुद्ध की शिक्षाओं के प्रति विशेषत: उनके द्वारा उपदेशित कर्म, कर्म-फल और पुनर्भव में अविश्वास।
3 . शीलव्रतपरामर्श- शील , पूजा , वंदना इत्यादि बाह्य-धर्मांगों को ही सम्पूर्ण धम्म समझना। साथ ही यह विश्वास की कर्म-कांड और अनुष्ठान से व्यक्ति पवित्र होता है।
4 . कामराग - इन्द्रिय-सुखों के प्रति आशक्ति
5 . व्यापाद -क्रोध और द्वेष-भावना
6 . रुपराग - रूप-जगत में रहने की लालसा।
7 . अरुपराग - सूक्ष्म-जगत में रहने की लालसा।
8 . मान- दर्प, घमंड, अहंकार और दम्भ
9 . औधत्य - दृढ़ संकल्प का अभाव
10 . अविद्या -अज्ञानता और मोह
उत्तम मंगल -
1 . मूर्खों की संगत से बचना - ऐसे लोगों की संगत से बचना जो इस पहलू पर विशेष ध्यान नहीं देते कि उनके कृत्य-कर्मों का फल (परिणाम) क्या होगा।
2 . पंडितों (बुद्धिमानों) की संगत करना- पंडित वे हैं जो विषय में पारंगत है तथा जो इस बात का विशेष ख्याल रखते हैं कि उनके कारण किसी को असुविधा न हो। वे हमेशा दूसरों को कुशल कर्मों के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
3 . आदरणीयों का आदर करना - माता-पिता, बड़े और गुरुजनों को उचित सम्मान देकर हमेशा उनका आदर करना चाहिए। इनसे निरंतर हमें मार्ग-दर्शन मिलता है।
4 . उचित स्थान में रहना - उचित स्थान का आशय भौतिक और आध्यात्मिक दोनों है। भौतिक रूप से उचित स्थान का अर्थ है , जहाँ जान-माल यथासंभव सुरक्षित हो। आध्यात्मिक का आशय जहाँ धम्म की शिक्षाएं निरंतर मिलती रहने की संभावना हो।
5 . कुशल कर्मों का संचय - पूर्व में किए गए कुशल कर्म हमेशा सहायक के तौर पर आपके साथ खड़े होते हैं। अत: इनके संचयन का निरंतर प्रयास हो।
6 . सन्मार्ग पर चलना - कुछ लोगों को पता ही नहीं होता की कुमार्ग क्या है ? अत: आवश्यकता है, कुमार्ग को चिन्हित करना। कुमार्ग है, अन्धविश्वास , अनैतिकता और अज्ञानता का रास्ता। जबकि सद्मार्ग है , प्रज्ञा, शील और करुणा का रास्ता।
7 . सुशिक्षित होना - सुशिक्षा का आशय एकेडेमिक और नैतिक शिक्षा दोनों से है। एकेडेमिक शिक्षा से जहाँ अच्छा जीवन जीने की कला हासिल होती है वही , नैतिक शिक्षा से पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों का बोध होता है।
8 . कार्य में निपुण होना - उचित आजीविका के लिए आवश्यक है कि किसी कार्य-विशेष में दक्षता हासिल हो। कार्य-विशेष दक्षता जहाँ आपको पहचान दिलाती है, वही ,सम्मानजनक जीविकोपार्जन का जरिया बनती है।
9 . विनयशील होना - पांच शीलों का अनुशरण। जीवन में इस तरह की आचार संहिता जाने-अनजाने कई मुसीबत और कठिनाईयों से बचाती है।
10 . मधुर वाणी का अभ्यास - वाणी आदान-प्रदान करने का साधन है। इसलिए यह जीतनी नम्र और मधुर हो, उतना अच्छा है।
11 .माता-पिता की सेवा करना - माँ-बाप का हमेशा कृतज्ञ होना चाहिए।
12 . जीवन साथी और बच्चों का साथ होना - जीवन साथी के साथ सहयोग करते हुए उसके प्रति वफादार रहना। साथ ही बच्चों का ठीक ढंग से लालन-पालन करते हुए उन्हें अच्छी शिक्षा देना।
13 . सगे-संबंधी और मित्रों का साथ होना - आवश्यकता की परिस्थिति में सगे-संबंधी और मित्रों की सहायता करना। इससे आपके आस-पास मैत्री और सद्भावना का वातावरण निर्माण होता है जो आपकी उन्नति को सुदृढ़ करता है।
थेरवाद- यह परम्परा भगवान बुद्ध के समय चल रही धार्मिक मान्यताओं के निकट है। इसमें अनुशाशन, शील और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है।
महायान - यह परम्परा भगवान बुद्ध के बाद ईसा पूर्व 200 से ईस्वी 100 के मध्य विकसित हुई। इस परम्परा ने भारत सहित अन्य कुछ एशियाई देशों की परम्पराओं को भी आत्मसात किया है। इसमें भगवान बुद्ध की करुणा और श्रद्धा पर अधिक बल दिया गया है।
वज्रयान और तिब्बती परम्परा - इसका उदय 700 ईस्वी के लगभग हुआ जब कुछ बौद्ध भिक्षु पडोसी देश तिब्बत जा कर भारत लौट कर आए।इसमें तंत्र साधना पर अधिक बल दिया गया।
पुनर्भव - चूँकि सब कुछ परिवर्तनशील है। इसलिए बुद्धिज़्म किसी अमर , शाश्वत आत्मा के अस्तित्व को नकारता है जो इस जीवन से आगामी जीवन तक गतिमान हो। बुद्धिस्ट मान्यता के अनुसार , मन अथवा चेतना है जो एक जीवन से आगामी जीवन तक गतिशील रहती है।
जैसे, 70 वर्ष का एक व्यक्ति उससे न तो समान है और न ही भिन्न जब उसकी उम्र 20 वर्ष थी । जिस तरह एक दीपक को दूसरे दीपक से जलाया जाता है तो पहले दीपक की लौ दूसरे दीपक की लौ से न तो समान है और न ही भिन्न। यद्यपि पहले दीपक के लौ की उत्पत्ति दूसरे दीपक की लौ से हुई है।
आगामी जन्मों में चेतना के साथ संचित कर्म भी गमन करते हैं।
कर्म का सिद्धांत - बुद्धिस्ट मान्यता के अनुसार , मनुष्य के कर्म उसका साथ कभी नहीं छोड़ते। वे छाया की तरह उसका पीछा करते हैं। जैसा बोओगे , वैसा काटोगे।