विपस्सना; मानसिक रोगियों के उपचार केंद्र
अभी पिछले दिनों अशोक बुद्ध विहार में साप्ताहिक कार्यक्रम के दौरान एक महिला साधिका आई । उन्होंने छूटते ही जानना चाहा कि वहां कितने विपस्सी बैठे हैं ? आठ-दस लोगों ने हाथ उठाया। वह आश्वस्त हो स्टीरियो टाइप शुरू जो गई । उन्होंने आँख बंद करने को कहा। मैं उन्हें देखता रहा। उन्होंने भी मुझे देखा, पर कहा कुछ नहीं। इस दौरान वह अपना मोबाइल खोल कर अपडेट्स देखने लगी । उनकी स्टीरियो टाइप आवाज जैसे किसी गहरे कुऍ के से आ रही थी । कुछ देर बाद मुझे वक्त जाया करने जैसे लगा । मैं उठ कर बाहर आ गया।
पालि प्रशिक्षण शिविर, मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ये विपस्सना सेंटरों में ही क्यों आयोजित किए जाते हैं ? अभी तक जितने भी ऐसे शिविर हुए हैं, सब के सब वहीँ हुए हैं ! एक बात तो तय है कि इसे जुड़े लोग बड़े उदार और कर्मशील होते हैं। वे सेवा-भावना के तहत काम करते हैं। एकाध स्थान पर मैं लूज टेम्पर भी हुआ किसी बात पर किन्तु सम्बंधित 'सेवादार मेडम' ने बड़ी ही सहनशीलता का परिचय दिया। फिर, मैंने भी पालि प्रशिक्षण शिविर के नियंता डॉ प्रफुल्ल गढ़पाल सर को अपनी ओर आता देख खुद को संयत किया। दरअसल, ये विपस्सना सेंटर आवश्यक सुख-सुविधाओं से संपन्न होते हैं। पर इतना पैसा कहाँ से आता है, यह देखने की बात है ? कुछ लोग कहते हैं कि यहाँ धन-संपन्न लोग आते हैं। सीधी-सी बात है फिर, धन की कमी क्यों होने लगी ? और फिर, टेंशन से रिलीफ और मानसिक शांति भी तो उन्हें ही चाहिए ?
'आँख बंद कर देखना' विपस्सना का हिस्सा है। आप बिना आँख बंद किए विपस्सना में बैठ ही नहीं सकते। आँख बंद करने में कई फायदे हैं। आप वही देखते हैं, जो चाहते हैं। आँख खुली रखने में नुकसान है। चाही, अनचाही चीजें आमने आ जाती हैं। हमारे आस-पास ऐसे कई चीजें हैं, जिन्हे हम देखना पसंद नहीं करते। आँख बंद करने में अनचाही चीजें देखने की बाध्यता ख़त्म हो जाती है। इसलिए गुरु गोयंकाजी, अपने स्टीरियो टाइप टेप में शुरू में ही कह देते हैं कि साधक, आँख बंद कर बैठें। आँख बंद करना ध्यान साधना का प्रथम सोपान है।
हमारे घर के सामने एक परिवार है। वे गावं के हैं। गावं के तो हम भी हैं किन्तु हमने गावं को वही छोड़ दिया है । कुछ लोग गावं को सिर पर रख कर चलते हैं। खैर, उनके यहाँ जो भी पुरुष गावं से आता है, महिलाएं हाथ भर घुंघट निकाल लेती हैं। अगर वे दो-चार दिन रहते हैं तो भी उनका घुंघट छोटा-बड़ा नहीं होता । मुझे बड़ी कोफ़्त होती है, महिलाओं को घुंघट में देख कर। सोचता हूँ, अगर मुझे घुंघट में रहना पड़े तो ? इससे तो वे महिलाएं अच्छी है जो बुर्के अथवा स्कार्फ में भी आँखें खुली रखती हैं।
तब, मैंने अपने गुरु बालकदास साहेब को कहा था कि वे मुझे ध्यान-साधना सीखाए । किन्तु गुरूजी ने बिलकुल ध्यान नहीं दिया । जब भी मैंने आग्रह किया, उन्होंने मुस्करा दिया। मेरे वरिष्ठ गुरु भाई खिनारम बोरकर बतालाते थे कि किसी ज़माने में गुरूजी, धूनी रामाया करते थे। उनके आस-पास संतों का जमावड़ा हुआ करता था । संतों का समागम तो मैंने भी देखा। बैनगंगा संगम पर उनकी सत्संग तब, महाराष्ट्र और म. प्र. में चर्चा का सबब हुआ करती थी । एक दिन गुरूजी ने कहा- बेटा, समाधि मुक्ति का मार्ग नहीं है। अगर तू कुछ बनना चाहता है तो बाबासाहब डॉ अम्बेडकर बन ! मैं भरभरा कर गिर पड़ा।
हजारी प्रसाद द्विवेदी अगर न होते, तो कबीर को कोई नहीं जानता। हमारे यहाँ जानने-जनाने का ठेका ब्राह्मण को जो है। वे जिसे चाहते हैं, जनवा देते हैं। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि इस ब्राह्मण लेखक को क्या आन पड़ी कि कबीर पर किताब लिख मारे ? कबीर, जो ब्राह्मण की चोटी पकड़ उसे दचके पर दचके देता है, ब्राह्मण को कैसे भा गया, यह राज है। खैर, इस पर फिर कभी चर्चा होगी, फिलहाल, इसे यही छोड़ते हैं ।
बात कबीर की हो रही थी। कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने 'रहस्यवाद का कवि ' कहा है। जबकि हर कदम पर, चाहे वह वेद-पुराणों का रहस्य हो या ब्रह्म-आत्मा का या फिर, पंडा-ताबीजों का; कबीर ने हर 'रहस्य को उलटे पैर पकड़ कर खूब धोया है । आलोच्य विषय 'विपस्सना' पर कबीर, जिसे बाबासाहब अम्बेडकर, बुद्ध के बाद अपना दूसरा गुरु मानते हैं; देखे क्या कहते हैं- संतो, सहज समाधि भलि है। आँख न मुंदु कान न रुन्धु, काया कष्ट न धारूं। खुले नयन साहिब देखूं, हंसी-हंसी बदन निहारूं। संतो, सहज.... । -अ ला ऊके मो. 96 30 826 117