अत्त दीपो भव
उक्त बुद्धवचन का प्रयोग हम बहुधा करते हैं। किन्तु क्या कभी हमने सोचा है कि इसका अर्थ क्या है ? किस सन्दर्भ में कहा गया है ? और सबसे बड़ी बात, जो हम लिख रहे हैं, वह कितना सही है ? कुछ लोग इसे 'अत्त दीप भव:' लिखते हैं, कुछ 'अप्प दीपो भवथ' तो कुछ अत् दीप भव:' आदि। आईए, इस पर कुछ चिंतन करें। दरअसल, यह बुद्धवचन महापरिनिब्बाण सुत्त से लिया गया है जो बुद्ध के अंतिम वचन के रूप में ति-पिटक में दर्ज है।
सख्त बीमारी के बाद जब तथागत उठे तो उनके उपस्थापक आनंद कहते हैं- "भंते! भगवान को आराम करते देखा। भंते! भगवान को कुशल देखा। भंते! मेरा शरीर शून्य हो गया था। मुझे दिशाएँ नहीं सूझ रही थी। भगवान की बीमारी से मुझे धर्म भी भान नहीं हो रहे थे। भंते! कुछ आश्वासन मात्र रह गया था कि भगवान तब तक परिनिब्बान प्राप्त नहीं करेंगे जब तक भिक्खु-संघ को कुछ कह-सुन न लेंगे."
"आनंद! भिक्खु-संघ मुझसे क्या चाहता है ? आनंद! मैंने न-अन्दर, न-बाहर करके धम्म-उपदेश कर दिया है । आनंद! इसमें तथागत ने कोई आचार्य-मुष्टि(गोपनीय) नहीं रखा है। आनंद! जिसको ऐसा हो कि भिक्खु-संघ मेरे अधीन है अथवा भिक्खु-संघ मेरे उद्देश्य से है, वह जरुर आनंद! भिक्खु-संघ के लिए कुछ कहें। आनंद! तथागत को ऐसा नहीं है.
आनंद! तथागत भिक्खु-संघ के लिए क्या कहेंगे ? आनंद, मैं जीर्ण, वृद्ध वय प्राप्त हूँ। अस्सी वर्ष की मेरी उम्र है। आनंद! जैसे पुरानी गाड़ी बांध-बुंध कर चलती है, ऐसे ही आनंद! मानो तथागत का शरीर बांध-बुंध कर चल रहा है. इसलिए आनंद! अत्त-दीप, अत्त-सरण, अन-अन्य सरण होकर विहरो; धम्म-दीप, धम्म-सरण, अन-अन्य सरण होकर विहरो ।"
हम पालि शब्दों का प्रयोग करते हैं। किन्तु क्या हम पालि समझना चाहते हैं ? दूसरे शब्दों में, क्या हम पालि सीखना चाहते हैं ? यह सर्व विदित है कि 'बुद्ध-वंदना' के समय हम ढेरों गलतियाँ करते हैं- उच्चारण में और पाठ में भी। बुद्ध-वंदना की जो पुस्तकें हैं, उनमें कई गलतियाँ मिल जाएगी। यहाँ हम प्रूफ रीडिंग की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि उन त्रुटियों की बात कर रहे हैं जो परम्परा से ढोयी जा रही है। दरअसल, हम ने पालि पढ़ने का ही प्रयास नहीं किया। पालि पढ़ते, तो उसकी व्याकरण समझ आती। व्याकरण समझ आती तो तत्संबंधित गलतियाँ समझ आती ? बुद्ध-वंदना की पुस्तकें प्रकाशित करते समय हमारा ध्यान इस बात पर होता है कि जिस पुस्तक को हम रिफरेंस मान रहे हैं, उससे नक़ल करने में कोई चूक न रह जाए। यहाँ हम किसी रिफरेन्स की पुस्तक अथवा उसके लेखक पर उंगली नहीं उठा रहे हैं। चूक और गलतियाँ किसी से भी हो सकती है, जाने और अनजाने।
स्पष्ट है कि हम बुद्धवचन को उद्धृत तो करना चाहते हैं किन्तु उन्हें समझना नहीं चाहते ! महापुरुष के द्वारा कही गई उक्ति अथवा कथन एक वृहत सन्देश होता है। आपने गौर किया होगा कि ग्रंथों पर टीका लिखी जाती है। क्या है यह टीका ? दरअसल, टीका उस ग्रन्थ की व्याख्या होती है, ग्रन्थ के अन्दर आए महापुरुष के वचनों की व्याख्या होती है, विश्लेषण होता है. एक-एक वाक्य/उक्ति के लिए टीकाकार कई-कई उदाहरण दे कर व्याख्या करता है। बौद्ध-ग्रंथों में 'अट्ठ-कथाएँ' इसी का नाम है।
बुद्ध ने भिक्खुओं को कहा- "तस्मातिहानन्द, अत्तदीपा विहरथ, अत्तसरणा, अनञ्ञसरणा; धम्म-दीपा विहरथ धम्म-सरणा, अनञ्ञसरणा ।" इसलिए आनंद, तुम लोग अपने द्वीप में आप विहार करो अर्थात अपने पर आप निर्भर होओ, स्वयं की शरण हों/अपनी शरण आप बनों, न अन्य की शरण/किसी दूसरे के भरोसे मत रहो; धम्म-द्वीप में विहार करो/ धम्म पर ही निर्भर होओ, धम्म की शरण हों/अपनी शरण धम्म को बनाओ, न अन्य की शरण हों/ किसी दूसरे के भरोसे मत रहो।
महापरिनिब्बान सुत्त में आए भगवान बुद्ध के इस अंतिम सन्देश- ‘अत्तदीपा विहरथ अत्त सरणा’ का अर्थ पालि प्रोफ़ेसर संघसेन सिंह के अनुसार, कुछ विद्वान ‘अपना दीपक आप बनो’ करते हैं जबकि पूरे ति-पिटक में ‘दीप’ शब्द द्वीप के अर्थ में प्रयुक्त है और ‘पदीप’ शब्द दीपक या चिराग के अर्थ में। धम्मपद में ‘पदीप’(गाथा संख्या 146) और ‘दीप’(गाथा संख्या 25); दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। ‘अत्तदीपो विहरथ अत्त सरणा’ का यहां अर्थ है- अपना द्वीप आप स्वयं बन कर विहार करें। ‘अपना प्रकाश आप’ की अवधारणा पूरे ति-पिटक में कहीं नहीं है (‘प्राक्कथन’ धम्मपदः गाथा और कथा, पृ. 16 )।
पालि में न तो हलंत होता है और न विसर्ग. अगर हमें पालि का प्रारंभिक भी ज्ञान होता तब ऐसी गलतियाँ हम से नहीं होती। हम में से कुछ प्रायमरी अथवा मीडिल स्कूल में संस्कृत पढ़े होंगे। और इसलिए हलंत और विसर्ग का प्रयोग हम सचेतन करते हैं। किन्तु पालि ? जबकि पालि हमारी भाषा है। हमारे संस्कारों की भाषा है। बुद्ध वचन पालि में हैं। बुद्ध-वंदना जिसे हम प्रतिदिन पाठ करते हैं, पालि में हैं। सारा ति-पिटक पालि में हैं। आखिर हम पालि के प्रति उदासीन क्यों हैं ? क्यों हम उस तरफ पीठ किए हुए हैं ? बच्चों को आजकल माँ-बाप कई भाषाएँ पढ़ने प्रोत्साहित करते हैं। उसमे पालि का समावेश क्यों नहीं ? अगर पालि हम पढेंगे, और स्कूल-कालेजों में पढायी जाएगी तो रोजगार के अवसर भी खुलेंगे। -अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com
उक्त बुद्धवचन का प्रयोग हम बहुधा करते हैं। किन्तु क्या कभी हमने सोचा है कि इसका अर्थ क्या है ? किस सन्दर्भ में कहा गया है ? और सबसे बड़ी बात, जो हम लिख रहे हैं, वह कितना सही है ? कुछ लोग इसे 'अत्त दीप भव:' लिखते हैं, कुछ 'अप्प दीपो भवथ' तो कुछ अत् दीप भव:' आदि। आईए, इस पर कुछ चिंतन करें। दरअसल, यह बुद्धवचन महापरिनिब्बाण सुत्त से लिया गया है जो बुद्ध के अंतिम वचन के रूप में ति-पिटक में दर्ज है।
सख्त बीमारी के बाद जब तथागत उठे तो उनके उपस्थापक आनंद कहते हैं- "भंते! भगवान को आराम करते देखा। भंते! भगवान को कुशल देखा। भंते! मेरा शरीर शून्य हो गया था। मुझे दिशाएँ नहीं सूझ रही थी। भगवान की बीमारी से मुझे धर्म भी भान नहीं हो रहे थे। भंते! कुछ आश्वासन मात्र रह गया था कि भगवान तब तक परिनिब्बान प्राप्त नहीं करेंगे जब तक भिक्खु-संघ को कुछ कह-सुन न लेंगे."
"आनंद! भिक्खु-संघ मुझसे क्या चाहता है ? आनंद! मैंने न-अन्दर, न-बाहर करके धम्म-उपदेश कर दिया है । आनंद! इसमें तथागत ने कोई आचार्य-मुष्टि(गोपनीय) नहीं रखा है। आनंद! जिसको ऐसा हो कि भिक्खु-संघ मेरे अधीन है अथवा भिक्खु-संघ मेरे उद्देश्य से है, वह जरुर आनंद! भिक्खु-संघ के लिए कुछ कहें। आनंद! तथागत को ऐसा नहीं है.
आनंद! तथागत भिक्खु-संघ के लिए क्या कहेंगे ? आनंद, मैं जीर्ण, वृद्ध वय प्राप्त हूँ। अस्सी वर्ष की मेरी उम्र है। आनंद! जैसे पुरानी गाड़ी बांध-बुंध कर चलती है, ऐसे ही आनंद! मानो तथागत का शरीर बांध-बुंध कर चल रहा है. इसलिए आनंद! अत्त-दीप, अत्त-सरण, अन-अन्य सरण होकर विहरो; धम्म-दीप, धम्म-सरण, अन-अन्य सरण होकर विहरो ।"
हम पालि शब्दों का प्रयोग करते हैं। किन्तु क्या हम पालि समझना चाहते हैं ? दूसरे शब्दों में, क्या हम पालि सीखना चाहते हैं ? यह सर्व विदित है कि 'बुद्ध-वंदना' के समय हम ढेरों गलतियाँ करते हैं- उच्चारण में और पाठ में भी। बुद्ध-वंदना की जो पुस्तकें हैं, उनमें कई गलतियाँ मिल जाएगी। यहाँ हम प्रूफ रीडिंग की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि उन त्रुटियों की बात कर रहे हैं जो परम्परा से ढोयी जा रही है। दरअसल, हम ने पालि पढ़ने का ही प्रयास नहीं किया। पालि पढ़ते, तो उसकी व्याकरण समझ आती। व्याकरण समझ आती तो तत्संबंधित गलतियाँ समझ आती ? बुद्ध-वंदना की पुस्तकें प्रकाशित करते समय हमारा ध्यान इस बात पर होता है कि जिस पुस्तक को हम रिफरेंस मान रहे हैं, उससे नक़ल करने में कोई चूक न रह जाए। यहाँ हम किसी रिफरेन्स की पुस्तक अथवा उसके लेखक पर उंगली नहीं उठा रहे हैं। चूक और गलतियाँ किसी से भी हो सकती है, जाने और अनजाने।
स्पष्ट है कि हम बुद्धवचन को उद्धृत तो करना चाहते हैं किन्तु उन्हें समझना नहीं चाहते ! महापुरुष के द्वारा कही गई उक्ति अथवा कथन एक वृहत सन्देश होता है। आपने गौर किया होगा कि ग्रंथों पर टीका लिखी जाती है। क्या है यह टीका ? दरअसल, टीका उस ग्रन्थ की व्याख्या होती है, ग्रन्थ के अन्दर आए महापुरुष के वचनों की व्याख्या होती है, विश्लेषण होता है. एक-एक वाक्य/उक्ति के लिए टीकाकार कई-कई उदाहरण दे कर व्याख्या करता है। बौद्ध-ग्रंथों में 'अट्ठ-कथाएँ' इसी का नाम है।
बुद्ध ने भिक्खुओं को कहा- "तस्मातिहानन्द, अत्तदीपा विहरथ, अत्तसरणा, अनञ्ञसरणा; धम्म-दीपा विहरथ धम्म-सरणा, अनञ्ञसरणा ।" इसलिए आनंद, तुम लोग अपने द्वीप में आप विहार करो अर्थात अपने पर आप निर्भर होओ, स्वयं की शरण हों/अपनी शरण आप बनों, न अन्य की शरण/किसी दूसरे के भरोसे मत रहो; धम्म-द्वीप में विहार करो/ धम्म पर ही निर्भर होओ, धम्म की शरण हों/अपनी शरण धम्म को बनाओ, न अन्य की शरण हों/ किसी दूसरे के भरोसे मत रहो।
महापरिनिब्बान सुत्त में आए भगवान बुद्ध के इस अंतिम सन्देश- ‘अत्तदीपा विहरथ अत्त सरणा’ का अर्थ पालि प्रोफ़ेसर संघसेन सिंह के अनुसार, कुछ विद्वान ‘अपना दीपक आप बनो’ करते हैं जबकि पूरे ति-पिटक में ‘दीप’ शब्द द्वीप के अर्थ में प्रयुक्त है और ‘पदीप’ शब्द दीपक या चिराग के अर्थ में। धम्मपद में ‘पदीप’(गाथा संख्या 146) और ‘दीप’(गाथा संख्या 25); दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। ‘अत्तदीपो विहरथ अत्त सरणा’ का यहां अर्थ है- अपना द्वीप आप स्वयं बन कर विहार करें। ‘अपना प्रकाश आप’ की अवधारणा पूरे ति-पिटक में कहीं नहीं है (‘प्राक्कथन’ धम्मपदः गाथा और कथा, पृ. 16 )।
पालि में न तो हलंत होता है और न विसर्ग. अगर हमें पालि का प्रारंभिक भी ज्ञान होता तब ऐसी गलतियाँ हम से नहीं होती। हम में से कुछ प्रायमरी अथवा मीडिल स्कूल में संस्कृत पढ़े होंगे। और इसलिए हलंत और विसर्ग का प्रयोग हम सचेतन करते हैं। किन्तु पालि ? जबकि पालि हमारी भाषा है। हमारे संस्कारों की भाषा है। बुद्ध वचन पालि में हैं। बुद्ध-वंदना जिसे हम प्रतिदिन पाठ करते हैं, पालि में हैं। सारा ति-पिटक पालि में हैं। आखिर हम पालि के प्रति उदासीन क्यों हैं ? क्यों हम उस तरफ पीठ किए हुए हैं ? बच्चों को आजकल माँ-बाप कई भाषाएँ पढ़ने प्रोत्साहित करते हैं। उसमे पालि का समावेश क्यों नहीं ? अगर पालि हम पढेंगे, और स्कूल-कालेजों में पढायी जाएगी तो रोजगार के अवसर भी खुलेंगे। -अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com
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