नामदेव ढसाल (1949 - )
ऐसी शख्सियत जिसका बचपन बेहद गरीबी में बीता हो, जो मुम्बई के रेड लाइट एरिया में पला-बढ़ा हो, आप उससे क्या उम्मीद कर सकते हैं ?
जी नहीं , आप गलत सोच रहे हैं। ऐसे बच्चे ने अपने कृतित्व का झंडा गाड़ा है और ऐसी हस्ती बन कर उभरा है कि लोग चाह कर भी उसे नकार नहीं पाएंगे। आइये हम उन्हें नमन करे और उनके कृतित्व को याद करे।
नामदेव ढसाळ। पूरा नाम नामदेव लक्ष्मण ढसाळ। बचपन का इतिहास नहीं पता। अगर पता होता तो आप क्या कर लेते ? हिन्दू उंच-नीच की जाति-व्यवस्था में ऐसे कितने नामदेव ढसालों के बचपन दफन हैं। खैर , छोड़िए।
नामदेव ढसाल की माता का नाम साडूबाई और पिताजी का नाम लक्षमण रॉव ढसाल था। पिताजी लक्षमण रॉव काफी समय से पैतृक गावं
पुरकानेरसर छोड़ कर काम की तलाश में मुम्बई आ गए थे। वे मुम्बई के रेड लाइट एरिया कमाठीपूरा में किसी कसाई के पास काम करते थे। मुम्बई का यह एरिया क्यों बदनाम है, यहाँ कौन रहते हैं, बतलाने की आवश्यकता नहीं है। बहरहाल, बालक नामदेव का बचपन यहीं बीता था। कैसे बीता था , आप चाहे तो इस पर शोध का सकते हैं ?
कमाठीपुरा, मतलब वेश्याओं का बाजार। वेश्याओं का बाजार मतलब हिजड़े , हिजड़ों के साथ पुलिस, पुलिस के साथ ड्रग-ऐडिक्ट/ क्रिमिनल/ सेक्सली ट्रांसमिटेड डिसिज्ड/ गेंगस्टर/ सुपारी किलर और सिंगर/ मुजरा डांसर/ तमाशा आर्टिस्ट तथा फ़ूड वेंडर/ इमिग्रेंट लेबर, पान दुकान वाले आदि आदि। शायद , ऐसा ही कुछ काम्बीनेशन का नाम 'रेड लाइट एरिया' है।
इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आज, नामदेव ढसाल कहाँ रहते हैं। बेशक, पश्चिम मुम्बई के अँधेरी में उनका आलिशान बँगला है। मगर , यह तो होना ही था। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर, वह नाली के बजबजाते कीड़े की तरह उसी रेड लाइट एरिया में रहता ? तो दोस्तों , कमाठिपूरा अर्थात उस रेड लाइट एरिया से मुम्बई अँधेरी की लम्बी दास्तान है। इस लम्बी दास्ताँ में पीड़ा है, अत्याचार है। विद्रोह है। और विद्रोह के साथ सर्वाइव ऑफ़ द फिटेस्ट के कई चक्कर और ट्विस्ट हैं।
नामदेव ढसाल का जन्म महार परिवार में 15 फर 1949 को पुणे (महाराष्ट्र) के पास एक गावं में हुआ था। नामदेव ढसाल को उनकी माँ ने बड़ी गरीबी में पाला था।
महार समाज में पैदा होने से जो विद्रोह की आग एक दलित में होती है, नामदेव ढसाल के सीने में वह धूं -धूं कर जल रही थी। अफ्रो-अमेरिकन क्रान्तिकारी संगठन
ब्लैक पेंथर की तर्ज पर नामदेव ढसाल सन 1972 में '
भारतीय दलित पेंथर ' की स्थापना करते है।
दलित पेंथर जैसे क्रन्तिकारी संगठन को खड़ा करने वाले नामदेव ढसाल अपने जीवन -संगिनी के रूप में एक मुस्लिम युवती (महाराष्ट्र लोक-कला की जानी -मानी हस्ती अमरशेख की पुत्री) मल्लिका को चुनते हैं। कामरेड अमरशेख सोच और विचार में कम्युनिस्ट थे। तब , मल्लिका महाराष्ट्र में एक खूबसूरत गीतकार/ गायिका के रूप में बड़ा नाम हासिल कर चुकी थी। मगर, हालात देखिए कि शादी के समय नामदेव ढसाल अंदर-ग्राउंड रहते हैं। दलित पेंथर एक्टिविस्ट के रूप में उन पर जो दर्जनों मामले कायम थे ?
नामदेव ढसाल की शिक्षा हाई स्कूल से अधिक नहीं हैं। मगर, शब्द और भाषा का जो अधिकार उनके पास है , सचमुच बेमिशाल है । सन 1960 दशक का टेक्सी ड्राइवर आज, मराठी का सर्वश्रेष्ठ कवि और रचनाकार है।
नामदेव ढसाल, जिसकी प्रारंभिक शिक्षा भी ढंग से नहीं होती है, एक प्रख्यात कलमकार कैसे बनता है ? ये ठीक है कि कमाठीपूरा का नंगा सच उसे दलित पेंथर खड़ा करने को उकसाता है। मगर , कलमकारी ? नामदेव ढसाल ने शब्दों को जिन अर्थों में प्रयुक्त किया है , वह कोई भुक्त-भोगी, व्यवस्था का मारा बंदा ही कर सकता है। नामदेव ढसाल की लेखनी में व्यवस्था का जो नंगा सच है , वह उंच जाति और सफेद-झक कपड़ों वालों को नाक में रुमाल रखने को बाध्य करता है।
नामदेव ढसाल की भाषा हिंदी-उर्दू मिश्रित ठेठ मुम्बइया स्टाईल मराठी है। उनके लेखन में वही भाषा है, जो मुम्बई के रेड लाइट एरिया में बोली जाती है।
सन 1968-69 के समय नामदेव ढसाल जब 'दलित पेंथर' को आकर दे रहे थे, समझ गए थे कि कांग्रेस हो या लेफ्ट, किसी की कोई प्राथमिकता जाति-वाद और छुआ-छूत मिटाने की नहीं है और इसलिए उन पर हो रहे अत्याचारों से बचाने कोई आने वाला नहीं है। जो भी करना है , उन्हें खुद करना होगा।
नामदेव ढसाल ने सन 1972 में भारतीय दलित पेंथर की स्थापना की थी। दलित पेंथर एक स्वेच्छिक संगठन है जिसका जन्म मुम्बई में हुआ था। नामदेव ढसाल , राजा ढाले , अरुण कामले इसके संस्थापक सदस्यों में हैं।
भारतीय दलित पेंथर अफ्रो-अमेरिकन क्रान्तिकारी संगठन
ब्लैक पेंथर से अनुप्रेरित बतलाया जाता है, जो 1966 -82 के दौर में संयुक्त राज्य अमेरिका में सक्रिय रहा। दलित पेंथर में 18 से 30 उम्र वाले दलित नव-युवकों का संगठन है, जो समाज में बदलाव चाहते हैं। फिर, इसके लिए उन्हें हिंसा का सहारा भी क्यों न लेना पड़े।
दलित पेंथर की गतिविधियां 1970 -80 के दशक में अच्छी चली। मगर, बाद के दिनों में यह संगठन कमजोर पड़ गया। नामदेव ढसाल चाहते थे कि इसका क्षेत्र विस्तृत कर दलित-इतर जातियों को भी इसमें शामिल
किया जाए। मगर , ऐसा न हो सका।
नामदेव ढसाल के अनुसार , साहित्य और राजनीति का बड़ा नजदीकी संबंध है। नामदेव ढसाल का पहला काव्य-संग्रह 'गोलपीठा' मुम्बई रेड लाइट एरिया कामतीपुरा के बारे में है। 'गोलपीठा' वास्तव में मुम्बई के रेड लाइट एरिया का नाम है। यह वही लोकेशन है जिस पर मीरा नायर ने अपनी फ़िल्म 'सलाम बाम्बे ' बनाई। 'गोलपीठा' उन कविताओं का संग्रह हैं, जो दलितों की कठोर जिंदगी को उस भाषा में बयां करती है जिसमे वे जीते हैं , मरते हैं।
नामदेव ढसाल की कविताओं में दुःख, विषाद , गरीबी , भूख, अकेलापन , गन्दी गलियों में बीतता आदमी और औरत का नारकीय जीवन , बिलबिलाते कुपोषित बच्चों का असहाय पन, दलित स्त्री का सन्त्रास आदि सिद्दत से देखे जा सकते हैं।
नामदेव ढसाल ने कविताएं एक खास उद्देश्य से लिखी है। उनका उद्देश्य है , बदलाव। व्यवस्था का बदलाव। समाज में बदलाव। लोगों की सोच में बदलाव। मनुष्य को जानवर समझने का बदलाव। अपने सह-धर्मी को नीच और गैर-बराबर समझने का बदलाव।
सन 1973 में आपका पहला काव्य-संग्रह 'गोलपिठा ' प्रकाशित हुआ। दूसरे काव्य-संग्रह ' मूर्ख म्हाताऱ्याने डोंगर हलविला(1975 ), तुझी इयत्ता कंची (Tuhi Lyatta Kanchi)? , खेल (1983 ) और 'प्रिय-दर्शिनी: आमच्या इतिहासातील एक अपरिहार्य पात्र' , आंबेडकर प्रबोधनी (1981) प्रकाशित हुए। नामदेव ढसाल के अन्य काव्य-ग्रन्थ 'मी मारले सूर्या च्या रथाचे सात घोडे(2005 )', तुझे बोट धरुनि चाललो आहो मी(2006 ) , या सत्तेत जिव रमत नाही(1995 ) , गांडू बागीचा(1986 )आदि हैं ।
नामदेव ढसाल के दो उपन्यास प्रकाशित हुए। आपके द्वारा सम्पादित साप्ताहिक/मासिक पत्रिकाओं के सम्पादकीय लेख का संग्रह 'अम्बेडकरी चरवळ' (1981) और 'आंधळे शतक '(1997) काफी चर्चित रहे। उजेळ चि काळी दुनिया, सर्व काही समस्थि साथी, बुद्ध धर्म : काही शेष प्रश्न आदि हैं।
नामदेव ढसाल एक क्रन्तिकारी तो थे , साथ ही वे एक ऊँच दर्जे के साहित्यिक भी थे। मगर, जो तरजीह देने की वह क़ाबलियत रखते थे, वह उन्हें मिली नहीं। क्योंकि, भारतीय मीडिया सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त है। खैर , सवर्ण मीडिया न सही, नामदेव ढसाल की कई पुस्तकें विदेशी भाषाओँ में अनुवादित हुई ।
सन 1984 में मल्लिका की आत्मकथा 'मला उधवस्थ होयची (I want to destroy my self)' प्रकाशित हुई जिसमे आपने अपने जीवन-संघर्ष का लेखा-जोखा किया है।
सद्य , नामदेव ढसाल की सन 1972 से 2006 के अवधि की कविताओं का संग्रह प्रसिद्द आलोचक दिलीप चित्रे ने 'नामदेव ढसाल : पोयट ऑफ़ थे अण्डर वर्ल्ड ' ( Namdeo Dhasal : Poet of the underworld) शीर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद किया है। आपकी कुछ कविताओं का बंगला में भी अनुवाद हुआ है।
यह वाकया आपातकाल के दौर का है। नामदेव ढसाल और उनके दलित पेंथर पर सैकड़ों मामले कायम थे। नामदेव ढसाल ने दिल्ली जा कर तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात की। आपने उनको बतलाया कि हिन्दू किस तरह दलितों पर अत्याचार करते हैं , उनकी माँ-बहनों से बलात्कार करते हैं और अगर वे प्रतिकार में खड़े होते हैं तब, उनके विरुद्ध सैकड़ों मामले दर्ज करा देते हैं। कहा जाता है कि इस सम्बन्ध में रिपोर्ट बुला कर इंदिरा गांधी ने आरोपित सारे मामले वापिस ले लिए थे।
'इन्डियन रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया' को नामदेव ढसाल ने सन 1990 में ज्वाइन किया था।
सन 1997 की अवधि में कहा जाता है, नामदेव ढसाल शिव सेना के साथ थे। कुछ का कहना है कि वे सन 2006 में आर एस एस के मंचों पर भी नज़र आए थे । शिवसेना के मुख-पत्र 'सामना ' के लिए नामदेव ढसाल लिखते रहे थे।
नामदेव ढसाल मराठी साप्ताहिकी 'सत्यता ' के सम्पादक रहे थे। 'विद्रोह' नामक मराठी मासिक पत्रिका का आपने सम्पादन किया था।
नामदेव ढसाल को उनके कृतित्व के लिए महाराष्ट्र शासन की ओर से क्रमशः सन 1973, 1974, 1982, 1983 में साहित्य का पुरस्कार दिया गया था। सन 1974 में उनके पहले काव्य-संग्रह 'गोलपीठा' पर उन्हें सोवियत लेंड नेहरू अवार्ड मिला। भारत सरकार ने सन 1999 में आपको पद्मश्री सम्मान से नवाजा। सन 2001 में बर्लिन में सम्पन्न इंटरनेशनल लिटरेरी फेस्टिवल में आपने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। इस मौके पर आपने जो अपनी कविता पढ़ी थी, उसने विश्व के अलग-अलग देशों से आए प्रतिनिधियों में एक सनसनी पैदा कर दी थी। सन 2004 में साहित्य अकादमी ने आपको 'गोल्ड़न लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड' से नवाजा था ।
खबर है , कुछ समय( सित 2013 )से नामदेव ढसाल बीमार चल रहे हैं। उन्हें डाक्टरों ने कोलोन(पेट की आंत ) केंसर बतलाया है। वे मुम्बई के एक अस्पताल में भर्ती हैं। हम उम्मीद करते हैं कि वे जिंदगी के संघर्ष में विजयी हो कर बाहर आएँगे
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