Monday, August 31, 2020

महीसा(भैस)

 महीसा

(भैस)

चरन्त महिसानं
(चरते हुए भैसों को)
ते आदेसितं-
(उन्होंने कहा)-
तुय्हं विच्छिन्दितं
(तुम्हारे छिने गए)
सब्बा अधिकारा।
(सभी अधिकार)
अतो,
(अब से)
त्वं न चरं सक्कोति,
(तुम न चर सकते हो)
यं इच्छितं।
(इच्छानुसार)
न खाद सक्कोति,
(न खा सकते हो)
उदरं पूरितं।
(पेट भर)

यं आदेसितं
(जो कहा जाय)
तं करणीयं।
(उसे करना है)
यावता देतं
(जितना दिया जाए)
तावता खादनीयं।
(उतना खाना है)

महीसा-
(भैंसों ने)
तुण्डं उट्ठहित्वा खणं
(क्षण भर थुथनी उठा कर )
चरं गच्छिता पुनं।
(फिर चरने लगी)

Friday, August 28, 2020

स्त्री और व्याकरण

वधु-

बन्धा ऊ वधो च - 'बन्ध' धातु से परे 'ऊ ' प्रत्यय होता है: और 'बन्ध' का 'वध' आदेश हो जाता है. जैसे- 

पञ्चहि कामगुणेहि अत्तनिसत्ते 'बन्धतीति'- वधु- बहु. 



Tuesday, August 25, 2020

धम्म प्रचार-प्रसार में पालि की महत्ता

 1. 

अहं अमतो।

अमतलाल उके मम सम्पूण्णं नाम।

अहं भोपाल नगरे निवसामि।

भोपाल नगरस्स होसंगाबाद राज-मग्गे मम आवासो।


अहं अट्ठ अधिकं सट्ठि वस्सीयो अम्हि।

अहं निवुत्तमान सासकीय सेवको।

मज्झपदेस विज्झुत मंडल मम सासकीय सण्ठानो।

अहं द्वे सहस्सं दस तमे वस्से सेवा निुवुत्तो।

सेवा निव्वुत्तं तदन्तरं अहं भोपाल नगरे निवसामि।


बालाघाट तालुकायं मम सालेबर्डी गामो।

सालेबर्डी मम जात ठानं।

सतं एकूनवीसति द्वे अधिकं पन्नास तमे वस्से दिस. 5  मम जात दिवसो।


2.

मम भरिया नाम रत्नमानिका।

ता बहु विदुसा अपि च सुन्दरा।

ता गहणी।


मम एका पुत्ती च द्वे पुत्तो।

पुत्ती प्रेरणा उके ताकसांडे

मुम्बई नगरे निवसति।

सा अभियान्तिका।

मम जामाता  बिपिन ताकसांडे

अपि अभियान्तिको।


राहुलो मम जेट्ठ पुत्तो।

सो निदरलेंड देसस्स एम्सरडम नगरे, 

करियं करोति अपि च निवसति।

मम कनिटठ पुत्तो एस्वरय आनन्द सागरो।

सो मम सन्तिके निवसति।

सो अपि अभियान्तिको।

तस्स भरिया, मम दुहिता अपि अभियान्तिका।

ता विदुसा च करियं कुसला।


3.

सासकीय सेवा निवुत्तं हुत्वा अहं पालि भासा सिखिं।


पालि भगवा वाणी।

पालि भगवा वाचा।

पालि बुद्धवचना।


पालि अम्हाकं संखार भासा।


अम्हे सब्बे पालि भासा जानाति।

मयं सब्बे पालि भासा थोकं-थोकं जानाति।

बुद्ध वन्दना, धम्म वन्दना, संघ वन्दना

पालि भासायं करोन्ति।

परित्तं पाठ अपि च पालि भासायं होति।

अम्हाकं सब्बे संखारा पालि भासायं होन्ति।


मयं पालि भासा जानाम।

अम्हाकं बालका च बालिकायो अपि च 

पालि भासा जानन्ति।

4. 

ते थोकं-थोकं पालि भासा वदन्ति।

घरे वा बुद्धविहारे,

पालि भासायं संगायन्ति।

सामुहिक वन्दना पालि भासायं होति।

भवं सब्बे पालि भासा जानन्ति।

पालि अम्हाकं भासा।

पालि अम्हाकं संखार भासा।


पालि बहु सरला सुबोधा भासा।

पालि बहु मधुरा भासा।

पालि गाम-देहातस्स भासा। 

अम्हे सब्बे गामीण-जना,

पालि भासा जानन्ति।


पालि भासनीयं।

पालि सम्भासनं करणीयं।


5. 

इध भोपाल नगरे, 

नाना बुद्धविहारे गन्त्वा

पालि भासा पाठेतुं 

अहं वायामं करोमि।

विहारं-विहारं गन्त्वा

पालि भासाय महत्ता कथेमि।


जना पुच्छन्ति-

पालि भासा किं आवस्सका?

पालि भासा कथं आवस्सका?

किं हेतु

किं कारणा 

पालि सिक्खणं आवस्सकं ?


आंग्लं भासा आवस्सकं दिस्सति।

पन,  पालि किं आवस्सकं ?

अस्सा किं उपयोगा ?

किं अत्थं?

किं तत्थ रोजगार अवसरा सन्ति ?


6.

पालि अम्हाकं भासा।

''मयं सब्बे बुद्ध सावका।''

बाबा साहब आम्बेडकरो,

अम्हाकं मुत्तिदाता, चक्खुदाता;

- अयं कथेति।


पालि अम्हाकं भासा।


बुद्धकाले

अयं लोकभासा आसि।

जन-भासा आसि।

जना पालियं सम्भासनं करोन्ति।

ते पालियं भासन्ति, आचरेन्ति।


तदन्तरे,

असोक-काले

पालि, अयं सम्पूण्णं जम्बुदीपस्स

रट्ठ-भासा आसि।


7. 

सीलालेखे, थम्बलेखे वा गुहालेखे

असोको पालियं 

‘धम्म-परियाय’ लिखापेति।

अयं धम्मलिपि।

पन भासा, पालि अत्थि।

पालियं सो आदेसति।

पालियं सो अभिनन्दति।

पालियं सो ति-पिटक सुत्ता लिखापेति।


सम्पूण्णं ति-पिटक गंथा

पालियं सन्ति।

परित्तं गाथायो

पालियं सन्ति।

बुद्धवचना 

पालियं सन्ति।

पालि अम्हाकं भासा।

पाण-पियं अम्हाकं भासा।

पालि बहु मधुरा भासा।


8.

पालि आनिसंस

'पालि महत्ता'

अथ, अहं 'पालि आनिसंस' कथेमि।

अब हम 'पालि महत्ता कहते हैं.

भवं अपि मया सद्धिं 

संगायनं करि सक्कोन्ति-

आप भी हमारे साथ दुहरा सकते हैं।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि मम, पिय भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि किय सरला भासा!


पालि भासा, पालि भासा।

पालि बुद्ध-वचनस्स भासा।।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि ति-पिटकस्स, भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

पाणसमा मम, पिय भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

बुद्ध-काले, लोक-भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

असोक-काले, रट्ठ-भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि बहु, पुरातन भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि अतीव, सरला भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

सम्भासनं, करणीयं भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

थोकं-थोकं, वदनीयं भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि बहु रमणीया भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि मम संखारानं  भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि मम हदयस्स भासा।


पालि भासा, पालि भासा।

पालि किय, मधुरा भासा!

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इति 'पालि आनिसंस' निट्ठितं

Saturday, August 22, 2020

फिर एक मनुष्य के लिए, करने को क्या रह जाता है ?

 फिर एक मनुष्य के लिए, करने को क्या रह जाता है ?

‘‘भिक्खुओं! जिन श्रमण ब्राह्मणों का मत है कि कोई आदमी सुख, दुक्ख या असुख-अदुक्ख अनुभव करता है, पूर्व-कर्मों के फलस्वरूप अनुभव करता है। तब मैं उनसे कहता हूँ- तो आयुष्मानों! तुम्हारे मत के अनुसार पूर्व-जन्म के कर्म के फलस्वरूप आदमी प्राणी-हिंसा करने वाले होते हैं! पूर्व-जन्म के कर्म के फलस्वरूप आदमी झूठ बोलने वाले होते हैं? पूर्व-जन्म के कर्म के फलस्वरूप आदमी क्रोधी, लोभी, चुगलीखोर, व्यर्थ-बकवासी होते हैं? तो भिक्खुओं! इस प्रकार वे जो पूर्व-जन्म को ही सारभूत कारण मानने वाले हैं, उनके मन में न तो इच्छा ही जगती है, न ही वे प्रयत्न ही करते हैं और न ही इस काम को करने की या उस काम को न करने की आवश्यकता ही समझते हैं। 

तब क्रियावादिता या अक्रियावादिता की वास्तव में आवश्यकता ही नहीं दिखाई देती। तो फिर आपको ‘समण’ कैसे कहा जा सकता है? भिक्खुओं! इस प्रकार का मत, इस प्रकार की दृष्टि रखने वाले समण-ब्राह्मणों पर यह मेरा प्रथम उचित तर्कसंगत दोषारोपण है’’(तित्थायतनादिसुत्तंः महावग्ग:तिक निपातः अंगुत्तर निकाय)।

Friday, August 21, 2020

सील

 सील

सील(शील) का अर्थ है, सदाचार। सील का अर्थ है, उच्च नैतिक आचरण। एक उपासक अथवा सामणेर के लिए सील सामान्यतः ‘निदेशक-तत्व’ होते हैं जबकि भिक्खु अथवा भिक्खुनी के लिए वे ‘नियम’ होते हैं। वह उन्हें तोड़ नहीं सकता अन्यथा संबंधित अपराध के दंड का भागी होता है।

एक व्यक्ति सील पर प्रतिष्ठित हो, एक अच्छा व्यक्ति बन सकता है। सील,  जीवन जीने का मापदण्ड हैं। सवाल है, जीवन जीने का मापदण्ड क्यों होना चाहिए? इसलिए कि व्यक्ति जान सकें कि कितने मापदण्डों पर वह खरा है। और यही वह सोपान है, जहां धम्म की आवश्यकता होती है। अगर धम्म न हो तो एक गृहस्थ को अथवा भिक्खु को कैसे पता चले कि समाज/संघ में रहने के लिए उसे कैसे रहना चाहिए? किन मापदण्डों का पालन करना है?

सील मापदण्ड है, सामाजिक अथवा संघ के प्रत्येक सदस्य की सहभागिता का। अगर आप अकेले किसी निर्जन स्थान में रहते हैं, तो इस तरह के किसी मापदण्ड की आवश्यकता नहीं। 

बौद्ध समाज में अलग-अलग वर्ग के लिए अलग-अलग मापदण्ड है- 1. गृहस्थों के लिए- पंचसील। खास अवसरों यथा अष्टमी, पूर्णिमा पर अष्टसील। सामणेरों के लिए दस सील और भिक्खु तथा भिक्खुणियों के लिए क्रमसः 227/322 सील बतलाएं गए हैं। भिक्खु और भिक्खुणियों के सीलों को विनय में ‘पातिमोक्ख’ कहते हैं।

जीवहिंसा से विरत रहना, वेरमणी सील है। किन्तु यह मात्रा निषेधात्मक नहीं है। इसका विधिपक्ष भी है। प्राणी- मात्र के प्रति करुणा इसका विधायक पक्ष है। थेरवादी परम्परा में इसके निषेध पर, विरति पर अधिक जोर है। वहीं, महायान परम्परा में इसके विधायक पक्ष पर, करुणा पर जोर है।

‘पूर्व-जन्म के कर्म’ और डाॅ. अम्बेडकर

 ‘पूर्व-जन्म के कर्म’ और डाॅ. अम्बेडकर

6.‘‘भन्ते नागसेन, को पटिसन्दहति?’’ राजा आह।

‘‘भन्ते नागसेन, कौन पुनर्मिलन करता है?’’

‘‘नामरूपं महाराज, पटिसन्दहति।’’ थेरो आह।

‘‘महाराज! नाम और रूप पुनर्मिलन करता है।’’

‘‘किं इमं येव नामरूपं पटिसन्दहति?’’

‘‘क्या यही नाम और रूप पुनर्मिलन करता है?’’


‘‘न खो महाराज, इमं येव नामरूपं न पटिसन्दहति।’’

‘‘ नहीं महाराज, यही नाम और रूप पुनर्मिलन नहीं करता।’’ 


‘‘इमिना पन, महाराज, नामरूपेन कम्मं करोति सोभनं वा पापकं वा, तेन कम्मेन अ××ा नामरूपं पटिसन्दहति।’’

‘‘ किन्तु महाराज, इस नाम और रूप से कर्म करता है; पुण्य या पाप,  उस कर्म से दूसरा नाम और रूप पुनर्मिलन करता है।’’


‘‘यदि भन्ते, न इमं येव नामरूपं पटिसन्दहति, ननु सो मुत्तो भविस्सति पापकेहि कम्मेहि।’’

‘‘यदि भन्ते! यही नाम और रूप पुनर्मिलन नहीं करता, तो निश्चय ही वह पाप-कर्मोंसे मुक्त होगा ?’’

‘‘यदि न पटिसन्दहेय्य, मुत्तो भवेय्य पापकेहि कम्मेही। यस्मा च खो महाराज, पटिसन्दहति, तस्मा न मुत्तो पापकेहि कम्मेहि।’’

‘‘यदि पुनर्मिलन न हो, तो मुक्त हो पाप कर्मों से। जब तक पुनर्मिलन होता है, तब तक पाप-कर्मों से मुक्ति नहीं।’’


मिलिन्द-पन्ह के उक्त ‘कर्म’ के ब्राह्मणी-सिद्धांत को बाबासाहेब डाॅ. भीमराॅव आम्बेडकर ने अपने कालजयी ग्रंथ ‘बुद्धा एॅण्ड धम्मा’ में यह कहते हुए नकार दिया है कि ‘‘बुद्ध के कर्म का सिद्धांत का संबंध मात्रा ‘कर्म’ से था और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से।’’(देखें- दूसरा भागः चतुर्थ काण्ड, कर्मः 2/3, पृ. 269)


Wednesday, August 19, 2020

असहमति और सुप्रीम कोर्ट

 असहमति की आवाज को देश विरोधी, लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों पर चोट करना है,

 तो फिर सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी करार देना क्या संवैधानिक मूल्यों पर चोट करना नहीं है? सुप्रीम कोर्ट ने जिस प्रशांत भूषण का कद छोटा करने की कोशिश की उसमें क्या वह स्वयं का कद छोटा नहीं कर है? कहीं आर एस एस संघ के इशारे पर मनुवादी सरकार विरोधियों को जेल भेजने की साजिश तो नहीं की जा रही है? विजय बौद्ध संपादक दि बुद्धिस्ट टाइम्स भोपाल मध्य प्रदेश फोन नंबर 9424756130

 सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा था, कि आज देश में  असहमति को देशद्रोही समझा जा रहा है, असहमति की आवाज को देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों पर चोट करना है,यदि कोई व्यक्ति अलग-अलग राय रखते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है, कि वे राष्ट्र द्रोही है, या राष्ट्र के प्रति सम्मान का भाव नहीं रखते, सरकार और देश दोनों अलग-अलग है,सरकार हमेशा सही नहीं होती और जो उनका विरोध करते हैं, उन पर देशद्रोह होने का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता। लोकतंत्र में हर नागरिक को अपनी जिम्मेदारी निभानी होती है, जब भी विचारों का संघर्ष होगा तो असंतोष उभेरेगा। सवाल उठाना लोकतंत्र में अंतर्निहित है, यह विचार सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के लोकतंत्र असंतोष विषय पर आयोजित व्याख्यान में कहा था। फिर प्रशांत भूषण ने दो ट्वीट ही कर मात्र अपनी असहमति ही तो व्यक्त की थी, उस ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट को उनके खिलाफ मुकदमा चलाकर उन्हें दोषी करार कैसे दे दिया गया? प्रशांत भूषण ने न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुद्दे को ही तो उठाया था? एक मामला पिछले महीने प्रशांत भूषण द्वारा किए गए ट्वीट पर की गई टिप्पणियों का है, और दूसरा मामला 11 वर्ष पूर्व का है, जो उन्होंने कहा था कि 16 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट है। इस पूरे मामले में स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने कहा है, कि जिस कोर्ट के पास  इलेक्ट्रोल बॉन्ड व नागरिकता कानून जैसे राष्ट्रीय महत्व के मुकदमे के लिए समय नहीं है, उस सुप्रीम कोर्ट के पास दो ट्वीट पर मुकदमा चलाने के लिए कैसे समय मिल गया? 32 जजों वाले सुप्रीम कोर्ट में इन दोनों मामले को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की बेच के सामने ही क्यों सौंपा गया? क्योंकि प्रशांत भूषण ने न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा पर न्यायाधीश की मर्यादा का सवाल उठाते हुए कहा था,कि बिरला सहारा केस में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जो प्रमुख आरोपियों में से एक थे, उनके विरुद्ध चल रहे केस को खारिज कर दिया और शिवराज सिंह चौहान को अपने पारिवारिक शादी में आमंत्रित किया था,ज्ञातव्य हो कि न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री से उनके गहरे संबंध थे, उसके बाद से ही कई बार न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने खुली अदालत में प्रशांत भूषण पर टिप्पणी कर उन पर अवमानना का केस चलाने की धमकी दे चुके थे, उसी जज के सामने प्रशांत भूषण का केस क्यों लगाया गया? रही बात पुराने जजों के भ्रष्टाचार के बारे में तो प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर 11 जज का नाम लेकर उनके भ्रष्टाचार के दस्तावेज सबूत सहित पेश किए थे, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों की जांच और उन पर खुली चर्चा के लिए तैयार नहीं हुई, उनका आरोप है,कि ओहदे का फायदा उठाकर व्यक्तिगत खून्स निकाल रहे हैं, और आलोचक का मुंह और बाकी सब की आंख बंद करने पर तुले हुए हैं, ठीक इसी तरह से मद्रास हाई कोर्ट के ईमानदार दलित सिटिंग जज जस्टिस सीएस कर्नन ने भी जजों के भ्रष्टाचार के खिलाफ कई आरोप लगाकर उनकी जांच कार्यवाही के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था, सरकार, संसद ने कोई जांच कार्यवाही न करते हुए शिकायत को सीधे सुप्रीम कोर्ट भेज दिया था, और फिर क्या हुआ, एक न्यायालयीन जंग छिड़ गई, और आखिर सुप्रीम कोर्ट ने एक बेगुनाह इमानदार दलित हाई कोर्ट के जज जस्टिस करनन पर भी अवमानना का मुकदमा चलाया और उनके सेवानिवृत्त होते ही उन्हें जेल भेजा गया, छह माह की सजा सुना दी गई थी। आखिर कोई जिम्मेदार व्यक्ति यदि सच्चाई को सामने लाना चाहता है, तो उसे क्यों दफन कर दिया जाता है? यदि जस्टिस करनन ने जजों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की शिकायत प्रधानमंत्री को की थी तो उसकी जांच करना चाहिए था, यदि जांच में निर्दोष पाए जाते तो जस्टिस करनन के खिलाफ कार्रवाई करना था, परंतु ऐसा न कर उस भ्रष्टाचार पर मुहर लगाने का कृत्य किया गया। अब सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों की पत्रकार वार्ता और उन्होंने क्या कहा था, यह भी सामने लाना और देश को याद दिलाना बहुत जरूरी समझता हूं,  यही सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था कि लोकतंत्र खतरे में है, हम नहीं चाहते कि 20 वर्ष बाद कोई बुद्धिजीवी कहे कि जजों ने अपनी आत्मा बेच दी है, इसलिए हमने मीडिया से बात करने का फैसला किया, भारत समेत किसी भी देश में लोकतंत्र बरकरार रखने के लिए यह जरूरी है,कि सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था सही ढंग से काम करें। हमने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा से बात की है, परंतु उन्होंने हमारी बात नहीं सुनी,उच्चतम न्यायालय के प्रशासन में सब कुछ ठीक नहीं होता बहुत सी चीजें हुई जो नहीं होना चाहिए, यदि सुप्रीम कोर्ट  इस संस्था को नहीं बचाया गया तो इस देश का लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है। जो आज खतरे में है, सुप्रीम कोर्ट स्वयं कहता है, कि हम दबाव में है, यहां सब कुछ ठीक नहीं है, यदि हम आवाज नहीं उठाएंगे तो लोकतंत्र खतरे में आ जाएगा। तो प्रशांत भूषण को सरकार के दबाव में या व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता के कारण कहीं सजा तो नहीं दी जा रही है? और क्या ऐसा करके कहीं और असहमति की आवाज को दबाया तो नहीं जा रहा है? क्या न्यायपालिका सरकार की हथियार के रूप में काम तो कर रही है? यह कई सवाल देश के सामने खड़े होते हैं, और लाजमी भी है, जिन 4 जजों के प्रेस कॉन्फ्रेंस में जस्टिस रंजन गोगोई थे, उन्होंने भी अयोध्या विवादित ढांचे के मामले में आस्था के आधार पर एक पक्षीय असंवैधानिक फैसला दिया है , वह भी सरकार के दबाव एवं प्रलोभन में दिया गया फैसला है, और इसके ईमान स्वरूप सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद ही सरकार ने उन्हें राज्यसभा सांसद मनोनीत कर दिया,इसी तरह मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को पदोन्नति में आरक्षण समाप्त किए जाने के आदेश पारित किए जाने पर सुप्रीम कोर्ट का जस्टिस बना दिया गया था, वही कुछ जजों को रिटायरमेंट के बाद सरकार ने राज्यपाल बना दिया था, जस्टिस रंजन गोगोई द्वारा अयोध्या विवादित ढांचे में दिए गए एक पक्षीय फैसले एवं उनके सेवानिवृत्ति के बाद सरकार द्वारा राज्यसभा में मनोनयन पर देश एवं दुनिया के कानूनविदो रिटायर्ड जजों बुद्धिजीवियों ने कड़े शब्दों में निंदा की थी, ठीक उसी तरह प्रशांत भूषण को अवमानना मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए जाने पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा ने कहा देश विकराल महामारी के बीच एक आभासी अदालत के माध्यम से प्रशांत भूषण के खिलाफ मामले की सुनवाई के लिए आखिर सुप्रीम कोर्ट ने इतनी जल्दी क्यों की? वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेडगे ने कहा कि अदालत द्वारा अवमानना की शक्ति के इस्तेमाल में यह भी जाचा जाना चाहिए कि इस मामले के जरिए कैसे उसके अधिकार को कम कर दिया गया है, यह निर्णय अदालत के खुद के लिए न्योयचित नहीं है,क्योंकि इसमें अदालत का अधिकार महज 2 ट्वीट के जरिए आता गया है, जनता का भरोसा और अदालत का अधिकार उससे अधिक मजबूत नींव पर टिका है,विपक्षी दलों ने सवाल उठाया की सुप्रीम कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द करने कश्मीर में राजनीतिक नेताओं के लिए दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका 1 साल से अधिक लंबित है, उन पर सुनवाई नहीं कर, प्रशांत भूषण के मात्र ट्वीट पर अवमानना की कार्यवाही कर उन्हें दोषी करार देना न्यायचित नहीं है, सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने ट्यूट्स की एक श्रृंखला में कहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला खतरनाक है,संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निभाई गई भूमिका की समकालीनता द्वंदात्मक आलोचना के बारे में लाता है, डी राजा ने उक्त फैसले पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने जब प्रेस कॉन्फ्रेंस में उच्चतम न्यायालय के कामकाज पर सवाल उठाया था, तो क्या वह अवमानना नहीं थी? जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन जन आंदोलन हो रहे थे,तब आरक्षण कानूनों को कमजोर किया जा रहा था, वरिष्ठ वकील मजीद ने ट्वीट किया कि न्यायालय और न्यायाधीशों को घोटाले से बचाने के लिए 1971 के अधिनियम की अवमानना है, सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च है,क्योंकि यह सर्वोच्च और अंतिम अदालत है,इसलिए नहीं कि यह अचूक है, या गलत नहीं है,वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर टिप्पणी कर कहा है,कि प्रशांत भूषण पर अवमानना का जो आदेश आया है, उस पर अगर हम कुछ कह सकते हैं,तो यह एक महान संस्थान खुद को नीचा दिखा रही है, वरिष्ठ पत्रकार ए एन राम ने कहा है, कि हमारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के लिए यह काला दिन है, जो हमारे लोकतांत्रिक संविधान और आजादी के संघर्ष की देन है, योगेंद्र यादव ने फिर लिखा है, प्रशांत भूषण सुनो,,,,,, सत्य सूली पर चढ़ेगा, यह सुकरात काल है, जिनके न्याय के लिए लड़ रहे हो ना, वह विकास के लिए खामोश रहेंगे,। मुर्दा समाज बोलता नहीं है। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने प्रशांत भूषण मामले में कहा है, कि सुप्रीम कोर्ट ने इससे खुद का कद नीचे किया है,इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने खुद को और लोकतंत्र को नीचा दिखाया है, यह भारतीय लोकतंत्र के लिए काला दिन है, जाने-माने इतिहासकार इरफान हबीब ने तो यहां तक कह दिया कि प्रशांत भूषण को दोषी ठहराए जाने की तुलना ब्रिटिश हुकूमत से कर डाली, उन्होंने लिखा कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्रता दिवस की शाम को प्रशांत भूषण को दोषी करार दिया है, ब्रिटिश काल में भी किसी विरोध या आलोचना करने वाले वकीलों, कवियों, लेखकों,और बुद्धिजीवियों को इस तरह सजा नहीं दी गई, वरिष्ठ पत्रकार जे पी सिहं की बाल से कुछ अंश लिए गए हैं, देशभक्त एवं संविधानविद बुद्धिजीवियों का यहां तक कहना है कि सुप्रीम कोर्ट न्याय स्थापित करने के लिए बनाया गया था,लेकिन सुप्रीम कोर्ट 2014 से आर एस एस संघ के आंगन में नाच रहा है, सुप्रीम कोर्ट न्याय एवं लोकतंत्र के रक्षक की जगह सत्ता के उपकरण के रूप में काम कर रहा है,आरक्षण विरोधी फैसले दे रहा है, वही स्वर्णो को आर्थिक आधार पर आरक्षण देकर संविधान विरोधी कृत्य कर रहा है, ओबीसी के आरक्षण (मंडल आयोग) को 2 वर्षों से जानबूझकर सुनवाई नहीं कर पा रहा है, बिना किसी सबूत के आर एस एस संघ के सरकार के दबाव में राम जन्मभूमि राम मंदिर बनाने का हिंदुओं के आस्था के आधार पर उनके पक्ष में  असंवैधानिक फैसला दे दिया गया, यह देश की सबसे बड़ी और लोकतांत्रिक संस्था है, जिसमें बिना किसी चुनाव या परीक्षा के जज नियुक्त होते हैं,और ज्यादातर एक परिवार या विशेष जाति के ब्राह्मण ही नियुक्त होते हैं, यह मुट्ठी भर उच्च जाति मर्दों की  कुलीन तंत्रीय मनुवादी ब्राह्मणवादी संस्था है, जो अब खुलकर संघ के इशारे पर और असंवैधानिक फैसले देकर असहमति की आवाजों को कुचलने का घृणित कृत्य  कर रही है, प्रशांत भूषण को भी दोषी ठहराना उनकी सरकार विरोधी नीतियों के खिलाफ उठी आवाज को कुचलने का एक सुनियोजित षड्यंत्र है, सर्वोच्च न्यायालय कई फैसले मनुवादी व्यवस्था सरकार के दबाव एवं प्रलोभन में देता है, सुप्रीम कोर्ट के 2 जजों की बेंच ने मार्च 2018 को आदेश जारी कर एससी एसटी एक्ट एट्रोसिटी एक्ट के प्रावधानों को ही निष्प्रभावी कर दिया था, इसके एवज में उपहार बतौर एक जज को सरकार ने सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद ही पर्यावरण मंडल का अध्यक्ष बना दिया था, फिर इस निर्णय के खिलाफ सड़कों से लेकर संसद तक जन आंदोलन हुआ जिसके तहत सरकार एवं सुप्रीम कोर्ट को अपने पूर्व फैसले को पलटने मजबूर होना पड़ा, इस निष्प्रभावी किए गए प्रावधानों को जैसे के तैसे रखा गया, और सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया कि देश में इस वर्ग के साथ आज भी भेदभाव हो रहा है समानता और अधिकारों के लिए उनका संघर्ष खत्म नहीं हुआ है, वह छुआछूत दुर्व्यवहार और सामाजिक बहिष्कार अभी भी झेल रहे हैं, यह मानकर नहीं चल सकते की पूरी बिरादरी ही कानून का गलत इस्तेमाल करेगी। सब को झूठा और बदमाश समझना मानवीय गरिमा के खिलाफ होगा,एससी एसटी एक्ट के तहत गिरफ्तारी और जांच से जुड़ी गाइडलाइंस तय करने वाला फैसला सुप्रीम कोर्ट का गलत था, यह काम कोर्ट का नहीं विधायिका का है, संविधान के तहत ऐसे निर्देश स्वीकार नहीं है, किसी कानून के गलत इस्तेमाल की संभावना पर प्रावधान हल्के निष्प्रभावी नहीं किए जा सकते, यदि इस परिवर्तित कानून के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक जन आंदोलन नहीं होता तो न सरकार इस कानून के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाती ना सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले को बदलता,भूषण को अवमानना का दोषी करार देने वाले जस्टिस अरुण मिश्रा ने ही, कंपनियों और दूरसंचार विभाग को 1.6 40 लाख करोड़ रुपए चुकाने के फैसले पर अमल नहीं होने पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, मैं बहुत हैरान और परेशान हूं कि कोर्ट के आदेश के बावजूद एक भी पैसा नहीं दिया गया, इस देश में क्या हो रहा है, एक अफसर ने कोर्ट का आदेश रोकने का दुस्साहस कैसे किया? क्या कोर्ट के आदेश की कोई कीमत नहीं है? क्या देश में कोई कानून नहीं है? मुझे इस देश में काम नहीं करना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट को बंद कर देते हैं, देश छोड़ना ही बेहतर होगा, दौलत के दम पर वह कुछ भी कर सकते हैं, कोर्ट का आदेश भी रोक सकते हैं, मेरा मानना है कि जस्टिस अरुण मिश्रा ने उक्त अवमानना केस मैं इतने हैरान और परेशान होने के बाद भी इस देश में काम करना बंद नहीं किया, सुप्रीम कोर्ट बंद नहीं किया, देश नहीं छोड़ा परंतु उस अफसर एवं सरकार को दोषी करार देकर जेल भेजना जरूरी नहीं समझा,परंतु दो ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध विद्वान एवं इमानदार वकील प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी करार दे दिया ,और उसे सजा देना चाहते हैं, जेल भेजना चाहते हैं, इस पूरे मामले में अधिवक्ता एवं उच्च शोधार्थी डॉक्टर आर एल कांनडे ने प्रशांत भूषण मामले में कहा है, कि प्रशांत भूषण को अवमानना में सजा दोषी ठहराने के पूर्व पूरे प्रकरण को बार काउंसिल भेजना चाहिए था, बार काउंसिल यदि उन्हें दोषी मानता तो उनकी सदस्यता खत्म कर देता, और यह मामला संसद में भेजा जाना चाहिए था, यदि संसद उन्हें दोषी करार देता तभी उन्हें दोषी करार दिया जा सकता था, प्रशांत भूषण देश के सर्वोच्च न्यायालय अंतिम कोर्ट के वकील है, जहां अपील नहीं की जा सकती यदि यह मामला लोअर कोर्ट का होता तो अपील की जा सकती थी, ऐसी स्थिति में उन्हें अवमानना का दोषी करार देना उचित नहीं है, वकील स्वतंत्र होते हैं, और उन्हें अभिव्यक्ति का अधिकार है, सुप्रीम कोर्ट के जज कोई भगवान नहीं है, वह नौकरशाह है, सेवा के बदले सरकार से वेतन लेते हैं, और वे सरकार के दबाव में लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी  नहीं छिन सकते, प्रशांत भूषण एक प्रतिष्ठित एवं इमानदार सुप्रसिद्ध वकील है, उन्हें इस तरह असंवैधानिक तरह से द्वेष पूर्ण भावना से एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दोषी करार देना लोकतंत्र एवं संविधान की हत्या करना है, उच्च स शोधार्थी होने के नाते  माननीय सुप्रीम कोर्ट से अपील करता हूं, कि वे प्रशांत भूषण जैसे सच्चे देशभक्त लोकतंत्र के रक्षक के खिलाफ दिए गए निर्णय को तत्काल वापस ले अन्यथा इस फैसले के खिलाफ भी देश के तमाम वकील सड़कों पर उतरेंगे इससे न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचेगी और न्यायालय से लोगों का विश्वास खत्म हो जाएगा,

यदि प्रजातंत्र के सजग प्रहरी वकीलों के खिलाफ दुर्भावना वश सरकार के दबाव प्रलोभन में निर्णय लिए गए तो जब इतिहास लिखा जाएगा, तो इन जजों के खिलाफ काले अक्षरों में नाम लिखा जाएगा जस्टिस रंजन गोगोई को देश एवं आने वाली पीढ़ी अभी कभी माफ नहीं करेगी।।।।

Sunday, August 16, 2020

अरिय सच्च: Dr Rajendra Prasad Singh

 अर             = चक्र की तीली।

अरि            = चक्र।

अरिय          = चक्र से संबंधित।

अरिय धम्म   = चक्र से संबंधित धर्म।

अरिय मग्ग   = चक्र से संबंधित मार्ग।

अरिय सच्च  = चक्र से संबंधित सत्य।

धम्म चक्क पवत्तन का चक्क ( चक्र ) इसी अरिय मग्ग और अरिय सच्च से जुड़ा है।

इतिहासकार और भाषावैज्ञानिकों ने अरिय मग्ग और अरिय सच्च का जो भाष्य आर्य मार्ग और आर्य सत्य के रूप में किया है, वह गलत है। पालि में आर्य के लिए अलग शब्द है, वह है -अय्य। आर्य को पालि में " अय्य " कहा जाता है, "अरिय" नहीं।

अरिय और अय्य दोनों अलग- अलग रूट के शब्द हैं जिसका घालमेल हो गया है।

Dr Rajendra Prasad Singh

सीसबाधा।

सीसबाधा

आनन्दो- मित्तंं ! कुसलो अत्थि ?
मित्र! कुशल  है?
राहुलो- न, मम मत्थके पीडा अत्थि।
नहीं, मेरे मस्तक में दर्द है।

आनन्दो- ओसधि सिकरोतु वा?
औसधि लिया क्या?
राहुलो- आम, ओसधि सेवनेन लाभो अत्थि।
हाॅं, ओसधि लेने से लाभ है।

मत्थके पीडाय अञ्ञं नाम सीसबाधा।
मस्तक की पीड़ा का अन्य नाम सिरदर्द है। 
सीसबाधा नाना पकारा होन्ति।
सिरदर्द कई प्रकार के होते हैं। 
सीसबाधाय जना  'हेडेक' नामेन अपि जानाति।
सिरदर्द को लीग 'हेडेक' के नाम से भी जानते हैं। 
मोदी जनानं 'हेडेक' अत्थि। 
मोदी लोगों के लिए 'हेडेक' है।   

आनन्दो- इमस्स ओसधस्स नामं किं?
इस ओसधि का क्या नाम है?
राहुलो- इमस्स ओसधि नामं 'मत्थके अद्दकं लेपनं'।
यह औसधि का नाम 'मस्तक पर अद्रक का लेप'  है।

आनन्दो- अयं  ओसधि खादनीयं वा लेपनीयं?
यह औसधि खाने के लिए है अथवा लेप करने ? 
राहुलो- मित्तं ! अयं ओसधि लेपनीयं। 
मित्र! यह ओसधि लेप करने के लिए है।
आनन्दो- अयं ओसधि सीकरेन लाभो भविस्सति ?
यह ओषधि लेने से लाभ होगा ?
राहुलो- आमं, अयं ओसधि सीकरेन लाभो भविस्सति।
हाॅं, यह औसधि लेने से लाभ होगा।

आनन्दो- घरस्स ओसधेहि आरोग्य-लाभ होति।
घरेलू औसधि से आरोग्य-लाभ होता है।
राहुलो- अज्ज, अहं ओसधं सिकरोतुं ओसधसालं गमिस्सामि।
आज, मैं औषधि लेने के लिए औषधालय जाऊंगा।

आनन्दो- सासपस्स तेलं आरोग्य-वड्ढकं होति?
सरसो तेल मालिस से आरोग्य-वृद्धि होती है?
राहुलो- आम, सासपस्स तेलं आरोग्यं वड्ढति।
हाॅं, सरसो-तेल मालिस से आरोग्य-वृद्धि होती है।

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पुच्छा-विस्सजना-
1.  आरोग्य विसये सल्लापे को-को अस्थि ? 
2. अयं सल्लापो  कस्मिं विसये अस्थि ?
3. कस्स मत्थके पीड़ा अत्थि ?
4. मत्थके पीड़ा हरितुं राहुलो किं करोति ?
5.  अयं ओसधि खादनीय वा लेपनीयं ?
6. अद्दकंस्स अञ्ञं उपयोगा किं किं अत्थि ?
7.  अञ्ञं काचि द्वे घरसस्स ओसधि नाम वदतु ?
8. ओसधं सिकरोतुं ओसधसालं किमत्थं गच्छति ?
9. सासपस्स तेलं कस्स उपयोगं अत्थि ?
10. सासपस्स तेलं अञ्ञं उपयोगा लिखितु  ?
11. सब्बदा आरोग्य अत्थं किं करणीयं ?


समय-समय पर इस तरह के पाठ दिए जाने का उद्देश्य अपनी 'पंडिताई' बताना नहीं, वरन लोगों में पालि के प्रति उत्सुकता बढ़ाना है. जो अल्प-सल्प आता है, उसे इसके चाहने वालों तक पहुँचाना है. पालि विद्वत-जन क्षमा करें.

ति-पिटक ग्रन्थ और उनकी आलोचना

ति-पिटक ग्रन्थ और उनकी आलोचना-

इधर, जब से हमने ति-पिटक ग्रंथों को पढ़ना शुरू किया है, निरंतर मन इन ग्रंथों में भरे ब्राह्मणवाद से तिक्त और व्यथित हो उठता है। इनमें नीच-उंच की बदबू आती है। मन वितृष्णा से भर उठता है। बाबासाहब अम्बेडकर की वह सलाह बेअर्थ लगती है जिसमें वे ति-पिटक ग्रंथों को पढ़ने की सलाह देते हैं। 

तब, प्रश्न है, क्या हमें अपनी मुक्तिदाता की सलाह दरकिनार कर देनी चाहिए? हो सकता है, उनकी सलाह दूरगामी हो, जैसे कि अकसर युग प्रवर्तक विचारकों की होती है। 

हमने ति-पिटक ग्रंथों को पढ़ना जारी रखा और साथ ही संकल्प लिया कि मूल बुद्धवचनों को प्रकाशित किया जाए साथ ही उन विसंगतियों को भी जो बुद्ध-वचनों से असंगति पैदा करते हैं. दरअसल, असंगत प्रसंग इतने हैं कि मूल बुद्ध वचन अप्रासंगिक हो उठते हैं.

मैंने अपना क्षेत्र आलोचना चुना। वैसे भी आलोचना में हम सिद्धहस्त रहे हैं। हो सकता है, कई लोगों को मेरी आलोचनाए अरुचिकर लगती हो। वे मुझ पर आरोप लगा सकते हैं कि मेरे लेख-प्रलेखों से समाज में धर्म-ग्रंथों के प्रति अनादर की भावना व्यक्त होती है। 

तत्सम्बंध में मुझे यह कहना है कि आलोचना हर स्थिति में स्वास्थ्यकारी होती है। इससे गलतियों पर ध्यान जाता है, अपने अन्दर झांकने का साहस बढ़ता है। बशर्त आप ढीढ न हो, जड़ न हो, परिवर्तन के विरोधी न हो।

दरअसल, मैं घृणा करता हूँ, बौद्ध-ग्रंथों में घुसे ब्राह्मणवाद से जिसने बुद्ध के धर्म को निगल लिया था, उसके अपनी जन्म-भूमि से उसे नष्ट कर दिया था। बेशक, मैं अपनी इस घृणा को उचित मानता हूँ, आवश्यक मनाता हूँ।  मेरे इस घृणा की जड़ में वे सब आते हैं जो  इसका प्रचार करते हैं, हमारे अन्दर धर्म और जाति के नाम पर द्वेष पैदा करते हैं। 

मैं अपने मुक्तिदाता की उस बात का कायल हूँ जिसमें वे कहते हैं कि "व्यक्ति का प्रेम और घृणा प्रबल नहीं है तो वह आशा नहीं कर सकता कि वह अपने युग पर कोई प्रभाव छोड़ सकेगा और ऐसी सहायता प्रदान कर सकेगा जो महान सिद्धांतों तथा संघर्ष की अपेक्षी ध्येयों के लिए उचित हो। मैं अन्याय अत्याचार, आडम्बर तथा अनर्थ से घृणा करता हूँ और मेरी घृणा उन सब लोगों के प्रति है, जो इन्हें करते हैं। वे इनके दोषी हैं। मैं अपने आलोचकों को यह बतलाना चाहता हूँ की मैं अपने घृणा-भावों को वास्तविक बल व शक्ति मानता हूँ।  वह केवल उस प्रेम की अभिव्यक्ति है, जो मैं इन ध्येयों व उद्देश्यों के लिए प्रकट करता हूँ, जिनके प्रति मेरा विश्वास है. उसके लिए मुझे किसी प्रकार की शर्म नहीं होती"(बाबासाहब डॉ अम्बेडकर: रानाडे, गाँधी और जिन्ना )।  

Friday, August 14, 2020

स्वतन्ततं दिवसो

भारत मम देसो
सब्बे च भारतीया मम बान्धवा
अत्थि मे देस विसये पेम 
मम देसस्स या समद्धिता
विविधाय च मंडिता 
परम्परा तस्साहं मानी। 

एतं दायज्जं उपसम्पादेतुं
अहं दल्ह परक्कमो भाविस्सामि

मात-पितूनं आचरिय- पाचरियानं 
वुड्ढानं च अहं सक्करिस्सामि 

कन्नौज महाराजा जयचन्द्र: जमनादास अहिरवार

 जब देश ,संगठन और समाज में कोई गद्दारी करता है तो उसे सवर्ण हो या बहुजन बेधड़क जयचन्द कह देते हैं। लेकिन जयचंद्र को सवर्णो ने गद्दार क्यों कहा इसका इतिहास सवर्णों को ज्ञात है बहुजनों को नहीं। बहुजन तो सवर्णों की नकल करते हैं। 12वी शताब्दी में दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान नामक एक राजपूत राजा था। उसी समय कन्नौज में जयचंद्र नामक बौद्ध राजा का शासन था। वह बौद्ध धर्म के समानता वादी नियमों का पालन करता था। एक बार महोबा के राजा परिमाल देव ने अपने साले महिपाल ( माहिल ) की चुगली के कारण बौद्ध सेनानायक आल्हा ऊदल को महोबा से बाहर चले जाने का आदेश दिया। भरी बरसात में चवरवीर आल्हा ऊदल और उनके परिवार को कन्नौज के राजा जयचंद्र ने शरण दिया। उनको सम्मान सहित अपना सेनापति बनाया। यह बात राजपूत राजाओं और ब्राह्मणवादियों को बहुत बुरी लगी। पृथ्वीराज चौहान का ब्राह्मण सरदार चामुंडराय बौद्ध धर्म से घृणा करता था। उसी समय पृथ्वीराज चौहान ने चामुंडराय के साथ एक बड़ी सेना लेकर दिल्ली के ही अशोक स्तम्भ को नष्ट करने का कार्य शुरू किया। यह अशोक स्तम्भ विशाल और मजबूत दीवारों के बीच था। यह बात जयचन्द को मालूम हुई तो उसने आल्हा ऊदल और अपने भतीजे लाखन सिंह को अशोक स्तम्भ की रक्षा करने के लिए भेजा। भयानक युद्ध हुआ। इसमें आल्हा का पूरा खानदान मारा गया। पृथ्वीराज चौहान के भी बहुत से बहादुर सरदार मारे गए। ऊदल जब पृथ्वीराज चौहान को धरती में पटककर उसकी गर्दन काटने वाला था तब चामुंडराय ने पीछे से आकर ऊदल की हत्या कर दिया। यह देखकर आल्हा ने चामुंडराय को मौत के घाट उतार दिया। पृथ्वीराज चौहान को पकड़कर उसकी आँखें निकाल लिया।उसी समय आल्हा ऊदल के गुरु अमरनाथ के गुरु गोरखनाथ ने आल्हा के हाथों पृथ्वीराज चौहान को मरने से बचा लिया। फिर गोरखनाथ आल्हा को युद्ध क्षेत्र से बाहर ले गए।आल्हा ने अपने खानदान की मृत्यु होने पर दुखी होकर सन्यास ले लिया। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान का दामाद ब्रह्मा जीत भी मारा गया।जो आल्हा ऊदल की तरफ से लड़ रहा।उसकी मौत पर उसकी पत्नी याने पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला ने अपने पति की चिता में जलकर अपने प्राण त्याग दिया। दिल्ली में आज भी उसकी याद में बेला सती रोड स्थित है। जिस अशोक स्तम्भ को पृथ्वीराज चौहान ने नष्ट किया था उसकेअवशेष काफी समय तक कुतुबमीनार के परिसर में रखे हुए थे। पृथ्वीराज चौहान की जान बच गई। उसने फिर से राजपूतों की सेना तैयार किया। और कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी संयोगिता का हरण कर लिया । इस तरह पृथ्वीराज चौहान ने पहले अशोक स्तम्भ को नष्ट किया। आल्हा ऊदल के खानदान को नष्ट किया। बाद में जयचंद्र की बेटी संयोगिता का हरण करके जयचंद को अपमानित किया। इसी कारण जब 1192 में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच तराइन का दूसरा युद्ध हुआ तो जयचंद ने पृथ्वीराज चौहान का साथ नहीं दिया। और पृथ्वीराज चौहान की हार हुई। वह मारा गया। इसी कारण जयचंद्र को ब्राह्मणवादियों ने गद्दार कहा। इसके विपरीत मुगल बादशाह बाबर को भारत में आक्रमण करने का निमंत्रण देने वाले राणा सांगा( संग्रामसिंह) को गद्दार नहीं कहा गया। इसी प्रकार अकबर को अपनी बहिन जोधाबाई देने वाले राजा मानसिंह को गद्दार नहीं कहा गया। मानसिंह ने अकबर की आज्ञा पर राणा प्रताप को हराया था। इसी अकबर के दरबार में तानसेन नामक ब्राह्मण गायक था। जो अकबर का मनोरंजन करता था।इसे गद्दार नहीं कहा गया। इसी तानसेन के नाम पर आज भी सरकार द्वारा ग्वालियर में भव्य संगीत समारोह होता है।अकबर के दरबार में बीरबल नामक सवर्ण चाटूकार भी था।जिसे सवर्णों ने बहुत बुद्धिमान कहा है। जबकि इसको गद्दार कहा जाना था। साथियों इतिहास को बहुत तोड़मरोड़ कर लिखा गया है। हमारे बहुजन समाज के विद्वानों को जयचन्द को गद्दार नहीं कहना चाहिए। क्योंकि वह बौद्ध धर्म का रक्षक राजा था

Tuesday, August 11, 2020

Daughter will have a share after Hindu Succession (Amendment) Act, 2005

 In a significant judgment, the Supreme Court has held that, a daughter will have a share after Hindu Succession (Amendment) Act, 2005, irrespective of whether her father was alive or not at the time of the amendment.

The three judge bench held that rights under the amendment are applicable to living daughters of living coparceners as on 9-9-2005, irrespective of when such daughters are born.

Justice Arun Mishra today pronounced the judgment in a batch of appeals that raised an important legal issue whether the Hindu Succession (Amendment) Act, 2005, which gave equal right to daughters in ancestral property, has a retrospective effect.

"Daughters must be given equal rights as sons, Daughter remains a loving daughter throughout life. The daughter shall remain a coparcener throughout life, irrespective of whether her father is alive or not", Justice Mishra said while pronouncing the judgment today.

These cases were heard by a three judge bench as one of them arose out of a judgment delivered by Delhi High Court which had also granted certificate to appeal. The High Court has noticed that there is a conflict of opinion between Prakash vs. Phulavati, (2016) 2 SCC 36 and Danamma @ Suman Surpur vs. Amar, (2018) 3 SCC 343 with regard to interpretation of Section 6 of the Hindu Succession Act, 1956 as amended by Hindu Succession (Amendment) Act of 2005. However, the High Court followed the judgment in Prakash V. Phulavati and held, in facts of this case, that, the amendments of 2005 do not benefit the plaintiff as her father passed away on 11th December 1999.

Section 6 provides that, on and from the commencement of the Hindu Succession (Amendment) Act, 2005 (39 of 2005), in a Joint Hindu family governed by the Mitakshara law, the daughter of a coparcener shall, (a) by birth become a coparcener in her own right the same manner as the son (b) have the same rights in the coparcenery property as she would have had if she had been a son; (c) be subject to the same liabilities in respect of the said coparcenery property as that of a son, and any reference to a Hindu Mitakshara coparcener shall be deemed to include a reference to a daughter of a coparcener. The proviso to Section 6 clarifies that it shall not affect or invalidate any disposition or alienation including any partition or testamentary disposition of property which had taken place before the 20th day of December, 2004.

In Prakash V. Phulavati (2015), the Supreme Court bench comprising Justices Anil R. Dave and A.K. Goel had held that the rights under the amendment are applicable to living daughters of living coparceners as on 9-9-2005, irrespective of when such daughters are born. It was held that, there is neither any express provision for giving retrospective effect to the amended provision nor necessary intendment to that effect. This position was reiterated by the bench of Justices R.K. Agrawal and A.M. Sapre in Mangammal vs. T.B. Raju (2018).

In the case of Danamma @ Suman Surpur vs. Amar (2018), the bench comprising Justices A.K. Sikri and Ashok Bhushan had held that the share of the father who died in 2001 would also devolve upon his two daughters who would be entitled to share in the property. "Section 6, as amended, stipulates that on and from the commencement of the amended Act, 2005, the daughter of a coparcener shall by birth become a coparcener in her own right in the same manner as the son. It is apparent that the status conferred upon sons under the old section and the old Hindu Law was to treat them as coparceners since birth. The amended provision now statutorily recognizes the rights of coparceners of daughters as well since birth. The section uses the words in the same manner as the son. It should therefore be apparent that both the sons and the daughters of a coparcener have been conferred the right of becoming coparceners by birth. It is the very factum of birth in a coparcenary that creates the coparcenary, therefore the sons and daughters of a coparcener become coparceners by virtue of birth. Devolution of coparcenary property is the later stage of and a consequence of death of a coparcener. The first stage of a coparcenary is obviously its creation as explained above, and as is well recognized.", it was observed in the said judgment.

 (Report will be updated on receipt of Judgment copy)

Indra, Deva, Sura-Asura in Sutta Nipat

Indra, Deva, Sura-Asura in Sutta Nipat 

3-11 Nālaka sutta

682. Ānandajāte tidasagae patite/panite
Sakkacca inda sucivasane ca deve,

Dussa gahetvā atiriva thomayante

Asito isi addasa divāvihāre.

Asita the seer, in his mid-day meditation,

saw the devas of the Group of Thirty exultant, ecstatic 

dressed in pure white, honoring Indra,

holding up banners, cheering wildly,


 
683. Disvāna deve pamuditamane udagge
Cittiṃ/vittim karitvā idamavocāpi tattha,

Ki devasagho atiriva kalyarūpo

Dussa gahetvā ramayatha ki paicca.

And on seeing the devas so joyful and happy,

having paid his respects, he said:

"Why is the deva communit so wildly elated?

Why are they holding up banners and waving them around?


684. Yadāpi āsi asurehi sagamo
Jayo surāna asurā parājitā,

Tadāpi netādiso lomahasano

Ki abbhuta aṭṭhu marū pamoditā.


Even after the war with the Asuras

when victory was the devas'. 

the Asuras defeated,

even then there was no excitement like this.

Seeing what marvel  are the devas so joyful?


685. Selenti gāyanti ca vādayanti ca
Bhujāni pohenti ca naccayanti ca,

Pucchāmi voha merumuddhavāsine

Dhunātha me sasaya khippamārisā.


They shout,
 they sing, play music,

clap their hands,  dance.

So I ask you, who live on Mount Meru's summit.

Please dispel my doubt quickly, dear sirs."


686. So bodhisatto ratanavaro atulyo
Manusseloke hitasukhatāya1- jāto,
Sakyāna game janapade lumbineyye
Tenambha tuṭṭhā atiriva kalyarūpā.

"The Bodhisatta, the foremost jewel, unequaled,

has been born for welfare and ease in the human world,

in a town in the Sakyan countryside,  Lumbini.

That's why we're all so wildly elated.

 
687. So sabbasattuttamo aggapuggalo
Narāsabho sabbapajānamuttamo,
Vattessati
cakka isivahaye vane
Nada va siho balavā migābhibhū.

He, the highest of all beings, the ultimate person,

a bull among men, foremost of all people,

will set turning the Wheel (of Dhamma)

in the grove named after the seers,

like a strong, roaring lion,  the conqueror of beasts."

 
688. Ta sadda sutvā turitamavasari so
Suddhodanassa tadā bhavana upāgami,

Nisajja tatthu idamavocāsi sakye
Kuhi kumāro ahamapi daṭṭhukāmo.


Hearing these words, 
Asita quickly descended

and went to Suddhodana's dwelling.

There, taking a seat, he said to the Sakyans:  "Where is the prince?  

 I, too, want to see him."


689. Tato kumāra jalitamiva suvaṇṇa
Ukkāmukhe'va sukusalasampahaṭṭha,

Daddallamāna siriyā anomavaṇṇa

Dassisu putta asitavahayassa sakyā.

The Sakyans then showed

to the seer named Asita  their son, 

the prince  like gold aglow,

burnished by a most skillful smith in the mouth of the furnace,

blazing with glory, flawless in color.

 
690. Disvā kumāra sikhimiva pajjalatta
Tārāsabha va nabhasigama visuddha,

Suriya tapanta saradarivabbhamutta

Ānandajato vipulamalattha piti.

On seeing the prince blazing like flame,

pure like the bull of the stars  going across the sky

the burning sun,  released from the clouds of autumn —

he was exultant, filled with abundant rapture.

 
691. Anekapākhañca sahassamaṇḍala
Chatta marū dhārayumantalikkhe,

Suvaṇṇadaṇḍā vitipatanti cāmarā

Na dissare cāmarachatatagāhakā.

The devas held in the sky many-spoked sunshade

of a thousand circles. 

Gold-handled whisks waved up and down,

but those holding the whisks and

the sunshade  couldn't be seen.



692. Disvā kahasirivahayo isi
Suvaṇṇanekkha viya paṇḍukambale,

Setañca chatta dhariyantamuddhani

Udaggacitto sumano paiggahe.

The matted-haired seer named Dark Splendor,

seeing the boy, like an ornament of gold

on the red woolen blanket,

a white sunshade held over his head,

received him, happy and pleased.

-Sutta Nipat  Verse 682 to 692

The sutta Nipat is said to be authentic compare to other Books in Ti-Pitaka. While writing 'Buddha and His dhamma' Babasahab Ambedkar taken the required material for Buddha-charita, indeed was a challenging/difficult task !