जहाँ आप पैदा हुए, पले-बढे, उस जन्म स्थान में एक लम्बे अंतराल के बाद एक ऐसा कार्य करने का मौका हो जो लोगों की आस्था से जुड़ा हो, तो इससे अच्छा पवित्र कार्य भला क्या हो सकता है। यह वैसा ही है, जैसे गावं का कर्ज उतारना । आजीविका की वजह 35 वर्ष दूर रहने के बाद गावं में मुझे अवसर मिल रहा था कि मैं अपने समाज के लिए कुछ करूँ।
दलित समाज के नौकरी-पेशा लोगों पर सामाजिक कर्ज होता है, अगर आप इसे समझे और महसूस करे। बाबा साहब ने 'पे बेक टू सोसायटी' की बात कही है। क्या है यह पे बेक टू सोसायटी ? क्या इसमें कर्ज की बात अंतर्भूत नहीं है ? मुझे नहीं मालूम लोग इसे कितना समझते हैं ?
मेरा गावं सालेबर्डी, बालाघाट जिले में रामपायली-बोनकट्टा सड़क मार्ग पर रामपायली से 4 की मी दूर चिखला बांध के आगे है। यह वही चिखला बांध है, जहाँ गावं का प्रायमरी स्कूल पास करने के बाद मिडिल स्कूल की पढाई करने के लिए हम आया करते थे। जैसे ही आप बस से उतरते हैं, सडक के दायी ऒर का रास्ता गावं के अन्दर जाता है। यहाँ टर्निंग पर कोने में एक कुआ है। यह कुआ हमारे घराने के ही एक बड़े बुजुर्ग मारोती उके ने खुदवाया था। कुआ खोदना पुण्य का काम समझा जाता है। मगर, आजकल गाव में पानी की टंकी बन गई है। अब लोगो के घरों में पानी नल से आता है।
सडक के दोनों और चाय-पान की कई दुकानें हैं। आज से 25-30 साल पहले चाय पान की सिर्फ एक दुकान हुआ करती थी। यह दुकान टेलर काकाजी की थी। काकाजी काफी ऊंचा सुनते थे। काकाजी जाति के पंवार थे। गावं के रिश्तों में खून की सरहद नहीं होती।
हमारे गावं में पंवार अधिसंख्यक हैं। पंवारों के बाद गोंड जाति के लोग हैं । इसके बाद महार समाज । तब महार करीब तब 70-75 घर के थे। आज यह संख्या 100 के ऊपर होगी। गावों में मोहल्ले होते हैं। ये मोहल्ले जाति के आधार पर होते हैं; जैसे पंवार मोहल्ला, गोंडी मोहल्ला, महार मोहल्ला आदि आदि । हर गावं में देवी का मन्दिर होता है। मन्दिर एक से अधिक हो सकते हैं। मगर , प्रत्येक गावं में स्कूल हो,यह जरूरी नहीं हैं। इधर, सन 1956 के बाद से गावों में एक नई तब्दीली आई है। बाबा साहब डा आम्बेडकर के बौद्ध धर्मांतरण से अनु जाति खास कर महारों ने इन देवी-देवताओं के मन्दिरों में जाना छोड़ दिया है। उन्होंने अपने अलग पूजा-स्थल विकसित कर लिए हैं।
मेरा गावं भी इससे अछूता नहीं है। मोहल्ले में बस, एक चबूतरा था जिस पर बाबा साहब और भगवान् बुद्ध की दो मूर्तियाँ रखी थी। मूर्तियाँ सीमेंट (आर सी सी) की थी। ये मूर्तियाँ जब स्थापित की गई थी तब, सुन्दर रही होगी। मगर, समय के साथ-साथ अब खराब हो चली थी। एक मूर्ति का हाथ ही टूट गया था। मुझे यह दृश्य कुछ अच्छा नहीं लगता था । मेरा पैतृक मकान इस चबूतरे से जरा ही आगे है। जब भी चबूतरे के सामने से गुजरता , मुझे गहरे तक पीड़ा होती थी।
पिछली बार जब मैं गावं आया तो यह देख कर आश्चर्य चकित रह गया था कि कोने के कुए के पास एक भव्य मन्दिर खड़ा है। काकाजी, जिनका इकलौता पान-ठेला सडक किनारे हुआ करता था, ने बतलाया था कि गावं के ही आदिवासी समाज का लड़का जो मेरी ही तरह कही 'साहब' है, ने इस मन्दिर को बनाने में अहम् भूमिका अदा की है। लडके ने अपने पिताजी के लिए एक बड़ा मकान बना दिया है। मकान बनाते समय उसने कहा था कि वह गावं में शिवजी का मन्दिर बनाना चाहता है, अगर गावं वाले इसके लिए आगे आए।
मुझे यह वाकया प्रेरणास्पद लगा। मैं जहाँ सर्विस करता था, वहां पर मैंने जन-सहयोग से कई सामाजिक और रचनात्मक कार्य किये। कार्यों में मेरी संलिप्तता देख कर कुछ लोग पूछते थे कि आप यह क्यों कर रहे हैं ? क्या आप रिटायर्मेंट के बाद यहीं रहने वाले हैं ? मुझे इस तरह के प्रश्न बड़े अजीब से लगते। कुछ हमदर्दी दिखाते हुए सलाह देते कि एक सरकारी आफिसर को लोकली इन्वाल्व नहीं होना चाहिए। खैर, मेरे मन में टीस बनी रही कि गावं के लिए कुछ करना है।
यह जन 14 का महिना था। मैसूर के रजवाड़े और बंगलौर की चमक निहारते हुए हम लोग गावं लौट रहे थे। सरकारी सेवा से रिटायर होने को 4 साल आ रहे थे। रिटायर होने के बाद किसी शहर में मकान बना कर घर-परिवार में गूँथ जाना शायद, मेरी फितरत में नहीं था। मैंने राहुल संकृत्यायन को पढ़ा था। राहुल सांस्कृत्यायन के यायावरी के परिणामों को मैं जानता था.
लम्बे समय के बाद आप गावं जाते हैं तो गावं और मोहल्ले के लोग आपसे रूबरू होना चाहते हैं। वे अपनी बात बताना चाहते हैं और आपसे कुछ सुनना चाहते हैं। एक दिन मौका पाकर मैंने अपनी बात रखी। मैंने कहा, अगर आप लोग साथ दे तो उस चबूतरे पर भव्य बुद्धविहार बनाया जा सकता है। इसके लिए मैं हर मदद करने तैयार हूँ ।
मेरी बात पर कुछ खास प्रतिक्रिया नहीं हुई। कुछ ने कहा कि अब गावं में काम-धंधा बचा ही नहीं है। पैसा कौन देगा ? बड़ी मुश्किल से तो पेट भरता है। किसी ने कहा कि गावं में अब आदमी तो कोई बचा ही नहीं है। जो है सब शहर कमाने जाते हैं। ये काम कौन करेगा ? एक ने कहा कि अगर हमारे में दम होता तो बुद्ध विहार कब का बना लेते ? मैं भारी मन से वहां से चला आया। सोचा , अगर करना है तो रास्ता भी निकालना होगा।
तीसरे-चौथे दिन मौका देख कर फिर मैंने फिर अपनी बात रखी। इस बार मैंने कहा कि 'बुद्ध विहार निर्माण समिति' का गठन करना है। इसके लिए 8-10 नाम चाहिए। कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं। मैंने सलाह दी कि पहल महिलाओं से किया जाए। इस पर एक महिला ने तड से कहा कि उसका नाम लिखा जाए। मैंने झट से
उसका नाम लिख लिया। फिर तो महिलाओं के कई नाम आने लगे। इसी बीच किसी पुरुष की आवाज आई, ' ये कोई चूल्हा-चौकी का काम नहीं है। जरा सोच-समझ के बोलो।' इस पर एक दूसरी महिला ने कहा कि मर्द तो यहाँ कोई रहते ही नहीं, सब शहर कमाने गए हैं। तब क्या करे ? अगर भाऊ खुद हो कर आगे आ रहे हैं तो क्या हमें उनकी मदद नहीं लेनी चाहिए ? मैं हतप्रभ रह गया। मैं सोचने लगा कि आदमी, महिलाओं को कितना संकुचित दृष्टी से देखता है !
तय हुआ कि अब महिलाओं की ही समिति यह काम करे। समिति का नाम ' संघमित्रा महिला बौद्ध समिति ' रखा गया। अब गावं की महिलाऐं कमर कस कर आगे आने लगी। महिलाऐं जहाँ कहीं इकट्ठी होती, चर्चा होने लगती कि अब तो उन्हें बुद्ध विहार निर्माण करके ही दिखाना है।
इधर, गावं के दीगर समाज में भी हलचल शुरू हो गई । लोग टकटकी लगा कर देख रहे थे कि यह क्या हो रहा है ? आजकल, गावों में काफी कुछ बदला है। कई तरह की शासन की योजनाओं के चलते लोगों में चेतना का संचार हुआ है। राशन और मनरेगा के कारण काम करने/ कराने के तरीके बदले हैं । खैर, लोग चाहे जिस जाति के हो, महिला समिति के सदस्यों के जोश की हौसला आफजाई करने लगे कि वे उनके साथ है। इसी बीच खबर आयी कि क्षेत्रीय विधायक अपनी विधायक निधि से महिला समिति को मदद देने तैयार है।
अब क्या था ? महिलाओं की टोलियाँ बनी। अलग-अलग ग्रुप बने। महिलाओं के दल चन्दा एकत्र करने के लिए गावं और शहर दूर-दूर जाने लगे। वारासिवनी, बालाघाट, कटंगी के धम्म प्रिय लोगों से बुद्ध विहार बनाने के लिए चन्दा एकत्र किया जाने लगा। शहर के लोग अभिभूत कि 25-30 की मी दूर से गावं की महिलाऐं बुद्ध विहार निर्माण करने के लिए शहर में चन्दा मांगने आई हैं। दूसरी तरफ, एक गजब की शक्ति गावं की इन महिलाओं के अन्दर जोश भर रही थी कि हम किसी से कम नहीं है... कि हमें बुद्ध विहार बनाकर दिखाना है।
दलित समाज के नौकरी-पेशा लोगों पर सामाजिक कर्ज होता है, अगर आप इसे समझे और महसूस करे। बाबा साहब ने 'पे बेक टू सोसायटी' की बात कही है। क्या है यह पे बेक टू सोसायटी ? क्या इसमें कर्ज की बात अंतर्भूत नहीं है ? मुझे नहीं मालूम लोग इसे कितना समझते हैं ?
मेरा गावं सालेबर्डी, बालाघाट जिले में रामपायली-बोनकट्टा सड़क मार्ग पर रामपायली से 4 की मी दूर चिखला बांध के आगे है। यह वही चिखला बांध है, जहाँ गावं का प्रायमरी स्कूल पास करने के बाद मिडिल स्कूल की पढाई करने के लिए हम आया करते थे। जैसे ही आप बस से उतरते हैं, सडक के दायी ऒर का रास्ता गावं के अन्दर जाता है। यहाँ टर्निंग पर कोने में एक कुआ है। यह कुआ हमारे घराने के ही एक बड़े बुजुर्ग मारोती उके ने खुदवाया था। कुआ खोदना पुण्य का काम समझा जाता है। मगर, आजकल गाव में पानी की टंकी बन गई है। अब लोगो के घरों में पानी नल से आता है।
सडक के दोनों और चाय-पान की कई दुकानें हैं। आज से 25-30 साल पहले चाय पान की सिर्फ एक दुकान हुआ करती थी। यह दुकान टेलर काकाजी की थी। काकाजी काफी ऊंचा सुनते थे। काकाजी जाति के पंवार थे। गावं के रिश्तों में खून की सरहद नहीं होती।
हमारे गावं में पंवार अधिसंख्यक हैं। पंवारों के बाद गोंड जाति के लोग हैं । इसके बाद महार समाज । तब महार करीब तब 70-75 घर के थे। आज यह संख्या 100 के ऊपर होगी। गावों में मोहल्ले होते हैं। ये मोहल्ले जाति के आधार पर होते हैं; जैसे पंवार मोहल्ला, गोंडी मोहल्ला, महार मोहल्ला आदि आदि । हर गावं में देवी का मन्दिर होता है। मन्दिर एक से अधिक हो सकते हैं। मगर , प्रत्येक गावं में स्कूल हो,यह जरूरी नहीं हैं। इधर, सन 1956 के बाद से गावों में एक नई तब्दीली आई है। बाबा साहब डा आम्बेडकर के बौद्ध धर्मांतरण से अनु जाति खास कर महारों ने इन देवी-देवताओं के मन्दिरों में जाना छोड़ दिया है। उन्होंने अपने अलग पूजा-स्थल विकसित कर लिए हैं।
मेरा गावं भी इससे अछूता नहीं है। मोहल्ले में बस, एक चबूतरा था जिस पर बाबा साहब और भगवान् बुद्ध की दो मूर्तियाँ रखी थी। मूर्तियाँ सीमेंट (आर सी सी) की थी। ये मूर्तियाँ जब स्थापित की गई थी तब, सुन्दर रही होगी। मगर, समय के साथ-साथ अब खराब हो चली थी। एक मूर्ति का हाथ ही टूट गया था। मुझे यह दृश्य कुछ अच्छा नहीं लगता था । मेरा पैतृक मकान इस चबूतरे से जरा ही आगे है। जब भी चबूतरे के सामने से गुजरता , मुझे गहरे तक पीड़ा होती थी।
पिछली बार जब मैं गावं आया तो यह देख कर आश्चर्य चकित रह गया था कि कोने के कुए के पास एक भव्य मन्दिर खड़ा है। काकाजी, जिनका इकलौता पान-ठेला सडक किनारे हुआ करता था, ने बतलाया था कि गावं के ही आदिवासी समाज का लड़का जो मेरी ही तरह कही 'साहब' है, ने इस मन्दिर को बनाने में अहम् भूमिका अदा की है। लडके ने अपने पिताजी के लिए एक बड़ा मकान बना दिया है। मकान बनाते समय उसने कहा था कि वह गावं में शिवजी का मन्दिर बनाना चाहता है, अगर गावं वाले इसके लिए आगे आए।
मुझे यह वाकया प्रेरणास्पद लगा। मैं जहाँ सर्विस करता था, वहां पर मैंने जन-सहयोग से कई सामाजिक और रचनात्मक कार्य किये। कार्यों में मेरी संलिप्तता देख कर कुछ लोग पूछते थे कि आप यह क्यों कर रहे हैं ? क्या आप रिटायर्मेंट के बाद यहीं रहने वाले हैं ? मुझे इस तरह के प्रश्न बड़े अजीब से लगते। कुछ हमदर्दी दिखाते हुए सलाह देते कि एक सरकारी आफिसर को लोकली इन्वाल्व नहीं होना चाहिए। खैर, मेरे मन में टीस बनी रही कि गावं के लिए कुछ करना है।
यह जन 14 का महिना था। मैसूर के रजवाड़े और बंगलौर की चमक निहारते हुए हम लोग गावं लौट रहे थे। सरकारी सेवा से रिटायर होने को 4 साल आ रहे थे। रिटायर होने के बाद किसी शहर में मकान बना कर घर-परिवार में गूँथ जाना शायद, मेरी फितरत में नहीं था। मैंने राहुल संकृत्यायन को पढ़ा था। राहुल सांस्कृत्यायन के यायावरी के परिणामों को मैं जानता था.
लम्बे समय के बाद आप गावं जाते हैं तो गावं और मोहल्ले के लोग आपसे रूबरू होना चाहते हैं। वे अपनी बात बताना चाहते हैं और आपसे कुछ सुनना चाहते हैं। एक दिन मौका पाकर मैंने अपनी बात रखी। मैंने कहा, अगर आप लोग साथ दे तो उस चबूतरे पर भव्य बुद्धविहार बनाया जा सकता है। इसके लिए मैं हर मदद करने तैयार हूँ ।
तीसरे-चौथे दिन मौका देख कर फिर मैंने फिर अपनी बात रखी। इस बार मैंने कहा कि 'बुद्ध विहार निर्माण समिति' का गठन करना है। इसके लिए 8-10 नाम चाहिए। कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं। मैंने सलाह दी कि पहल महिलाओं से किया जाए। इस पर एक महिला ने तड से कहा कि उसका नाम लिखा जाए। मैंने झट से
उसका नाम लिख लिया। फिर तो महिलाओं के कई नाम आने लगे। इसी बीच किसी पुरुष की आवाज आई, ' ये कोई चूल्हा-चौकी का काम नहीं है। जरा सोच-समझ के बोलो।' इस पर एक दूसरी महिला ने कहा कि मर्द तो यहाँ कोई रहते ही नहीं, सब शहर कमाने गए हैं। तब क्या करे ? अगर भाऊ खुद हो कर आगे आ रहे हैं तो क्या हमें उनकी मदद नहीं लेनी चाहिए ? मैं हतप्रभ रह गया। मैं सोचने लगा कि आदमी, महिलाओं को कितना संकुचित दृष्टी से देखता है !
तय हुआ कि अब महिलाओं की ही समिति यह काम करे। समिति का नाम ' संघमित्रा महिला बौद्ध समिति ' रखा गया। अब गावं की महिलाऐं कमर कस कर आगे आने लगी। महिलाऐं जहाँ कहीं इकट्ठी होती, चर्चा होने लगती कि अब तो उन्हें बुद्ध विहार निर्माण करके ही दिखाना है।
इधर, गावं के दीगर समाज में भी हलचल शुरू हो गई । लोग टकटकी लगा कर देख रहे थे कि यह क्या हो रहा है ? आजकल, गावों में काफी कुछ बदला है। कई तरह की शासन की योजनाओं के चलते लोगों में चेतना का संचार हुआ है। राशन और मनरेगा के कारण काम करने/ कराने के तरीके बदले हैं । खैर, लोग चाहे जिस जाति के हो, महिला समिति के सदस्यों के जोश की हौसला आफजाई करने लगे कि वे उनके साथ है। इसी बीच खबर आयी कि क्षेत्रीय विधायक अपनी विधायक निधि से महिला समिति को मदद देने तैयार है।
अब क्या था ? महिलाओं की टोलियाँ बनी। अलग-अलग ग्रुप बने। महिलाओं के दल चन्दा एकत्र करने के लिए गावं और शहर दूर-दूर जाने लगे। वारासिवनी, बालाघाट, कटंगी के धम्म प्रिय लोगों से बुद्ध विहार बनाने के लिए चन्दा एकत्र किया जाने लगा। शहर के लोग अभिभूत कि 25-30 की मी दूर से गावं की महिलाऐं बुद्ध विहार निर्माण करने के लिए शहर में चन्दा मांगने आई हैं। दूसरी तरफ, एक गजब की शक्ति गावं की इन महिलाओं के अन्दर जोश भर रही थी कि हम किसी से कम नहीं है... कि हमें बुद्ध विहार बनाकर दिखाना है।