वाकया 8 मई 1933 का है-
एक अछूत का बच्चा देर सायं 6 बजे गांधीजी से मिलने आया। बच्चे ने गाँधी जी को प्रणाम कर बड़ी विन्रमता से कहा कि घंटों धक्का-मुक्की के बाद वह बड़ी मुश्किल से यहाँ पहुंचा है और एक छात्रवृति के सन्दर्भ उनकी मदद चाहता है ।
"ठीक है। मैं अपने किसी सहयोगी को कहता हूँ ।" - गांधीजी ने बच्चे की ओर देख कर कहा।
"मुझे आपके सहयोगियों में विश्वास नहीं है।" - बच्चे ने अपने साथ लाए कुछ फूल गांधीजी के चरणों पर रखते हुए कहा।
"लेकिन यदि मेरे सहयोगी अविश्वनीय हैं तो फिर, मैं भी उन में से एक हूँ। बेहतर होगा तुम मुझ में भी विश्वास न करो।"- गांधीजी ने प्रश्न सूचक दृष्टी से बच्चे की ओर देखा।
"नहीं-नहीं, ऐसा मत कहिए ? आप खुद कहते हैं कि आपके चारों ओर रहने वाले लोग ठीक नहीं हैं और आपको उपवास करके मर जाना चाहिए।" - बच्चे के आंसू फूट पड़े।
"अरे नहीं भई, सभी ऐसे नहीं होते हैं....अच्छा आओ, हम लोग एक अनुबंध करते हैं। 29 मई की सुबह सोमवार के दिन दोपहर तुम एक संतरा ले कर आना। उसके रस से मैं अपना उपवास तोडूंगा। फिर हम लोग तुम्हारी छात्रवृति के सिलसिले में बात करेंगे। क्या तुम अब संतुष्ट हो ?" -गांधीजी ने मुस्करा कर कहा।
"हाँ।" - बच्चा ख़ुशी से खिल उठा।
"तो तुम अनुबंध पर कायम रहोगे ?" - गांधीजी ने पूछा । इस पर वहाँ बैठे गांधीजी समेत सारे लोग हंस पड़े।
आखिरकार वह दिन भी आया जिसके लिए सैकड़ों और हजारों लोगों ने दुआएं मांगी थी। मगर, क्या आप सोचते है, वह अछूत बच्चे के हाथों संतरे का जूस पीकर गांधीजी ने उपवास तोडा था ? जी नहीं। ऐसा कुछ नहीं हुआ।
दरअसल, उस बच्चे का एड्रेस गांधीजी के सहयोगियों को भी पता नहीं था। वह बच्चा नहीं आया और एक महिला ठाकरसे के हाथों पिलाये संतरे के जूस से गांधीजी ने अपना उपवास तोडा था।
बाद में 1 जून को बैरंग ख़त मिला। ख़त में उस बच्चे ने लिखा था - " बापू , मैं इस नतीजे पर पहुंचा है कि आप में और आपके सहयोगियों में कोई अंतर नहीं है !"
एक अछूत का बच्चा देर सायं 6 बजे गांधीजी से मिलने आया। बच्चे ने गाँधी जी को प्रणाम कर बड़ी विन्रमता से कहा कि घंटों धक्का-मुक्की के बाद वह बड़ी मुश्किल से यहाँ पहुंचा है और एक छात्रवृति के सन्दर्भ उनकी मदद चाहता है ।
"ठीक है। मैं अपने किसी सहयोगी को कहता हूँ ।" - गांधीजी ने बच्चे की ओर देख कर कहा।
"मुझे आपके सहयोगियों में विश्वास नहीं है।" - बच्चे ने अपने साथ लाए कुछ फूल गांधीजी के चरणों पर रखते हुए कहा।
"लेकिन यदि मेरे सहयोगी अविश्वनीय हैं तो फिर, मैं भी उन में से एक हूँ। बेहतर होगा तुम मुझ में भी विश्वास न करो।"- गांधीजी ने प्रश्न सूचक दृष्टी से बच्चे की ओर देखा।
"नहीं-नहीं, ऐसा मत कहिए ? आप खुद कहते हैं कि आपके चारों ओर रहने वाले लोग ठीक नहीं हैं और आपको उपवास करके मर जाना चाहिए।" - बच्चे के आंसू फूट पड़े।
"अरे नहीं भई, सभी ऐसे नहीं होते हैं....अच्छा आओ, हम लोग एक अनुबंध करते हैं। 29 मई की सुबह सोमवार के दिन दोपहर तुम एक संतरा ले कर आना। उसके रस से मैं अपना उपवास तोडूंगा। फिर हम लोग तुम्हारी छात्रवृति के सिलसिले में बात करेंगे। क्या तुम अब संतुष्ट हो ?" -गांधीजी ने मुस्करा कर कहा।
"हाँ।" - बच्चा ख़ुशी से खिल उठा।
"तो तुम अनुबंध पर कायम रहोगे ?" - गांधीजी ने पूछा । इस पर वहाँ बैठे गांधीजी समेत सारे लोग हंस पड़े।
आखिरकार वह दिन भी आया जिसके लिए सैकड़ों और हजारों लोगों ने दुआएं मांगी थी। मगर, क्या आप सोचते है, वह अछूत बच्चे के हाथों संतरे का जूस पीकर गांधीजी ने उपवास तोडा था ? जी नहीं। ऐसा कुछ नहीं हुआ।
दरअसल, उस बच्चे का एड्रेस गांधीजी के सहयोगियों को भी पता नहीं था। वह बच्चा नहीं आया और एक महिला ठाकरसे के हाथों पिलाये संतरे के जूस से गांधीजी ने अपना उपवास तोडा था।
बाद में 1 जून को बैरंग ख़त मिला। ख़त में उस बच्चे ने लिखा था - " बापू , मैं इस नतीजे पर पहुंचा है कि आप में और आपके सहयोगियों में कोई अंतर नहीं है !"
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