दिल्ली शहर के लोगों को जब कभी मस्ती करनी होती है तो वे शहर से गावं की ओर दौड़ लगाते हैं। यूँ दिल्ली में गुरगाँव भी है। मगर, गुरगाँव को गाँव मत समझिए। आप गच्चा खा जाएँगे। गुरगाँव , दिल्ली में आई टी का हब है।
बात 30 दिस 12 की है। बेटी और दामाद गुरगाँव आए थे। शादी के बाद यह ताई का पहला बर्थ-डे था। मेरा बड़ा बेटा राहुल, बहू सोनू नातिन जोई साथ थी।उधर, जनकपूरी से भांजी डा हेमलता महिस्वर भी साथ थी। मेरा दूसरा भांजा विकास बागडे, जिसकी ज्वाब माइक्रो-साफ्ट में होने से जो पिछले कई वर्षों से दिल्ली में ही रहता है, भी साथ थे।
ताई के बर्थ-डे में इतने सारे मेहमानों को एक साथ देख कर राहुल के मन में आया कि क्यों न कहीं पिकनिक पर जाया जाए। राहुल ने अपने मन की बात राजा को बताई। अंतत: पिकनिक स्पॉट दमदमा लेक फ़ाईन लाइज किया गया।
मैं, भांजी हेमलता के क्वार्टर जनकपूरी में था। 30 जन के सुबह बहू सोनू ने मुझे इस की सूचना दी। भांजी हेमलता ने फटाफट तैयारी शरू कर दी। करीब 12.00 तक सभी लोग रेडी हो गए।
दो गाड़ियाँ पहले से ही थी। पिकनिक में जाने वालों की संख्या को देखते हुए एक और टेक्सी की गई ताकि पिकनिक के मजे में कोई किरकिरी न हो।
जनकपूरी से पहले हम लोग गुरगाँव के रीजेंसी पार्क 2 पहुंचे। फिर यहाँ से तीन गाड़ियों का काफला दमदमा लेक की ओर रवाना हुआ। करीब पैतालीस मिनिट के सफ़र के बाद हम लोग दमदमा लेक पहुंचे।
दमदमा लेक गुरगावं के आउट स्कर्ट में सोहना रोड पर है। सोहना रोड पर आगे बढ़ते हुए दमदमा लेक के लिए आपको बाएँ मुड़ना पड़ता है। यह लेक अरावली की छोटी-छोटी पहाड़ियों की गोद में है। लेक करीब 10-12 वर्ग की मी के दायरे में फैली होनी चाहिए। यह गुरगाँव से 20-22 की मी दूरी पर है। दिल्ली से आप जयपुर हाई वे पकड़ कर गुरगाँव आ सकते हैं। गुरगाँव से दमदमा लेक जाने पर रास्ते में भोंडसी गाँव आता है।
रोड दमदमा लेक तक ठीक है। बल्कि, लेक के पास कुछ कुछ उबड-खाबड़ होने लगता है। लेक परिसर में प्रवेश करने के बाद दृश्य एकाएक बदलने लगता है।
लेक के पास काटेज-नुमा एक काफी अच्छा रेस्तरां है। यहाँ आप रिफ्रेश हो सकते हैं। यहां पर रिफ्रेशमेंट के सारे संसाधन मौजूद हैं। आप चाहे तो रूम बुक करा सकते हैं।
रेस्तरां के सामने ही बड़ा-सा पिकनिक स्पॉट है। पिकनिक स्पॉट के रूप में इस स्थान को बड़े तरीके से उन्नत किया गया है और इसका परिणाम भी सामने दिख रहा था। भांजी हेमलता महिस्वर ने बैठने की जगह तलाशने में काफी मेहनत की थी। करीब तीन-चार एकड़ का पिकनिक स्पॉट पूरी तरह पेक था। हो सकता है, इसका कारण संडे रहा हो। वास्तव में आज संडे ही था और ऊपर से साल का अंतिम दिन। क्रिसमस की छुट्टियाँ वैसे भी पिकनिक पर जाने के लिए ही होती है। लोग इंजॉय करना चाहते हैं। बेशक, ये इंजॉय करने के दिन होते हैं।
बैठने की जगह निश्चित करने के बाद चटाईयां बिछाई गई। फिर भांजी हेमलता महिस्वर ने अपना बैग खोला। इस बैग से कोयले से खाना बनाने की सिगड़ी निकाली गई।
दमदमा लेक आते-आते सडक किनारे अपने मकान के सामने एक
दादाजी घर में जलाने के लिए कुल्हाड़ी से लकड़ी फाड़ रहे थे। भांजी हेमलता के दिमाग में कुछ हुआ। उन्होंने दामाद संजय महिस्वर को गाड़ी रोकने का इशारा किया। भांजी ने दादाजी को कुछ सुखी लकड़ी देने का अनुरोध किया। दादाजी ने अपना काम बीच में रोक कर कुछ सुखी लकड़ी हमारे हवाले कर दी। लकड़ी के एवज में रूपये देने पर दादाजी ने लेने से इनकार कर दिया। जैसे ही हम शहर से गावं की ओर जाते हैं, लोग आपके करीब होने लगते हैं। दादा, बाबा और काका न जाने कितने रिश्तें अपने-आप बन जाते हैं। मगर, जैसे-जैसे आप शहर की ओर बढ़ते हैं, ये रिश्ते बिखरने लगते हैं।
लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े और कंडों से सिगड़ी सुलगाई गई। सिगड़ी सुलगते से ही सभी की नज़रें खाने पर केन्द्रित हो गई। बाजरे का तैयार आटा भांजी हेमलता ले आई थी। हथेली पर रोटी बनाये जाने लगी। रोटी बनते ही तवे पर रोटी सेंकना शुरू हो गया। भांजी हेमलता ने बैग से सरसों का साग निकाला। सरसों का साग उन्होंने घर से ही तैयार कर लाया था। मिसेज ने भी घर से आलू-मटर की सब्जी लायी थी। सभी लोग चटाई पर बैठ गए। सरसों का साग और आलू-मटर की सब्जी के साथ गरम-गरम बाजरे की रोटियां चटकारे ले कर खाए जाने लगी।
आप जब कभी बनी-बनायीं रूटीन से हट कर घर से बाहर पिकनिक पर होते हैं तब, घर के तमाम किचन-संसाधनों की हेल्प लिए बिना रुखा-सुखा जो कुछ बनाते हैं, वह बड़ा लज़ीज़ और मजेदार होता है। बेशक, हम सभी उसे अनुभव कर रहे थे। भांजी हेमलता ने बाजरे का आटा और सरसों की साग इतनी लायी थी की सभी लोग तृप्त हो गए थे।
अब पेट भरने के बाद सैर-सपाटे की बारी थी। पिकनिक स्पॉट छोड़ कर लेक की तरफ सब ने रुख किया। सामने झुला नज़र आया। मंडई और मेलों में लगने वाले लकड़ी के झूलों पर झूलने का अपना मज़ा है। इन झूलों में आप अपने पेयर के साथ बैठ सकते हैं। अपने कई मेहमानों के साथ एक ही समय इन झूलते झूलों में बैठ कर कुछ अलग ही प्रकार का आनंद आता है। लडकियाँ इसकी खास दीवानी होती है।
लकड़ी के झूले में झूलने के बाद अब बारी ऊंट की सवारी की थी। दमदमा लेक में करीब चार-पांच ऊंट वाले नज़र आए। ऊंट की सवारी आप दम-दमा लेक के किनारे-किनारे कर सकते हैं।
ऊंट काफी ऊँचा होता है। ऊंट पर तभी सवार हुआ जा सकता है जब वह बैठा होता है। ऊंट वाले सवारी को चढाने के लिए ऊंट को पहले बैठालते है ताकि चढ़ने में आसानी हो। मगर, ऊंट जब खड़ा होता है और सवारी जो हिचकोले लेती है, उस थ्रिलिंग का एहसास ऊंट के पीठ पर बैठा सवार ही ले सकता है। यही हाल उसके बैठने के क्षणों का होता है।
ऊंट की सवारी के बाद अब बारी वाटर बोट की थी। लेक में करीब 10-12 छोटी-मोटी वाटर बोट होगी। इसमें मोटर बोट भी शामिल है। तरह-तरह की वाटर बोट हैं। आप मन चाही बोट पर बैठ सकते हैं। हम ने एक बड़ी-सी बोट किराये पर ली। सभी बोट में बैठ गए। करीब 100-125 मी का चक्कर लगाते हुए बोट वाले ने हम लोगों को दमदमा लेक की सैर कराई। मगर, राहुल का मन अभी और बोटिंग करने का था। अब की बार उन्होंने दो छोटी-छोटी वाटर-बोट किराये पर ली जिन्हें चप्पुओं की जगह पैडल मार कर चलाया जाता है। एक वाटर-बोट में राहुल की टोली बैठ गई और दूसरे में राजा की टोली। अब रेस शुरू हुई। जैसे कि होता है, इस बार भी राहुल
की बोट पहले किनारे पर पहुंची।
अब शाम का करीब 6.30 बज रहा था। ठंड भी काफी बढ़ चली थी। हम सब ने अपनी-अपनी गाड़ी का रुख किया। दूर ढलता सूरज वाकई खूबसूरत लग रहा था।