Friday, January 15, 2021

सुरेखा भोतमांगे

 दलित उत्पीड़न की सबसे दर्दनाक दास्तां, अगर आपने मलाला युसुफजई का नाम सुना है लेकिन सुरेखा भोतमांगे का नहीं, तो इसे जरूर पढ़ें...

अरुंधति रॉय अपनी किताब एक था डॉक्टर एक था संत में लिखती हैं, डॉ. आंबेडकर को पढ़ने से मुझे अहसास हुआ कि हमारे शैक्षणिक संसार में कितनी चौड़ी खाई है. उनको पढ़ने से यह भी साफ हो गया कि यह खाई क्यों है, और हमेशा क्यों रहेगी जब तक कि भारतीय समाज में कोई बुनियादी इंकलाबी बदलाव नहीं आ जाता.
इंकलाब भी आते हैं, और अक्सर इंक्लाबों का आगाज़ पढ़ने से होता है. यदि आपने मलाला युसुफजई का नाम सुना है लेकिन सुरेखा भोतमांगे का नहीं, तो आप आंबेडकर को अवश्य पढ़ें. सुरेखा भोतमांगे चालीस वर्ष की थीं और उन्होंने भी बहुत से 'अपराध' किए थे- वे एक महिला थीं- एक अछूत, दलित महिला और इसके बावजूद वे फटेहाल दरिद्र भी नहीं थीं.
वे अपने पति से अधिक शिक्षित थीं, और इसलिए अपने परिवार की मुखिया बन गई थीं. डॉक्टर आंबेडकर उनके हीरो थे. उनकी तरह ही, सुरेखा के परिवार ने भी हिंदू धर्म त्यागकर बौध धर्म अपना लिया था.
सुरेखा के बच्चे शिक्षित थे. उनके दोनों बेटे सुधीर और रोशन कॉलेज गए थे. उनकी बेटी प्रियंका सत्रह वर्ष की थी और स्कूल के अंतिम वर्ष में थी. सुरेखा और उसके पति ने महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव में जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा खरीदा था.
इस भूखंड के चारों ओर के खेत उस जाति के लोगों के थे जो स्वयं को सुरेखा की महार जाति से ऊंचा मानते थे. चूंकि वे दलित थीं, और उन्हें परंपरा के अनुसार एक सम्मानजनक अच्छा जीवन जीने का अधिकार 'नहीं' था इसलिए ग्राम पंचायत ने उन्हें बिजली कनेक्शन लेने की इजाजत नहीं दी. उन्हें अपने झोंपड़े को पक्की ईंट के घर में तब्दिल करने की इजाजत भी नहीं दी गई.
गांव वाले नहर के पानी से उन्हें अपने खेतों को सींचने भी नहीं देते थे, न ही वे सार्वजनिक कुओं से पानी ले सकती थीं. और फिर, एक रोज गांव वालों ने, सुरेखा के खेत के बीच में से एक सार्वजनिक सड़क बनाने की कोशिश की. सुरेखा ने इसका विरोध किया तो गांव वालों ने उनके खेत में अपनी बैलगाड़ियां दौड़ा दीं. सुरेखा की पकी हुई फसल पर गांव वालों ने अपने मवेशी छोड़ दिए.
सुरेखा झुकी नहीं. उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. लेकिन पुलिस ने कोई ध्यान नहीं दिया. कुछ महीने बीत गए, और फिर गांव में तनाव अपने चरम पर पहुंच गया. उन्हें चेतावनी देने के लिए गांव वालों ने उनके एक रिश्तेदार पर हमला करके, उसे अधमरा कर छोड़ा.
सुरेखा ने पुलिस में एक और शिकायत दर्ज कराई. इस बार पुलिस ने कुछ व्यक्तियों की गिरफ्तारियां कीं, लेकिन अभियुक्तों को तत्काल जमानत पर रिहा कर दिया गया. जिस दिन उन अभियुक्तों को जमानत पर रिहा किया गया (29 सितंबर, 2006), उसी शाम 6 बजे, गुस्से में भरे, लगभग 70 मर्द और औरतें, ट्रैक्टरों में बैठकर आए और भोतमांगे के घर को घेर लिया.
सुरेखा का पति भैया लाल, उस समय खेत में काम कर रहा था, उसने जब शोर सुना, तो वह घर की ओर दौड़ा. एक झाड़ी के पीछे छुपकर उसने भीड़ को अपने परिवार पर हमला करते देखा. वह फौरन नजदीक के शहर दुसाला भागकर गया, और वहां एक रिश्तेदार की सहायता से पुलिस को फोन करने में कामयाब रहा (आपको ऐसे संपर्कों की जरूरत होती है कि पुलिस आपका फोन सुन ले). लेकिन पुलिस नहीं आई.
भीड़ ने सुरेखा, प्रियंका और दोनों बेटों को, जिनमें से एक आंशिक रूप से दृष्टिबाधित था, घसीटकर घर से बाहर निकाला. भीड़ ने लड़कों को आदेश दिया कि वे अपनी मां और बहन के साथ बलात्कार करें, जब लड़कों ने यह कुकृत्य करने से साफ मना कर दिया तो उनके जननांगों को क्षत-विक्षत कर दिया गया, और अन्तत: उनकी भी पीट-पीट कर हत्या कर दी गई. चारों शवों को पास की एक नहर में फेंक दिया गया, जहां वे अगले दिन पाए गए.
सबसे पहले प्रेस ने इसे एक 'नैतिक हत्या का मामला' कहा, इशारा किया गया कि गांव वाले नाराज थे क्योंकि सुरेखा के अपने एक रिश्तेदार (जिस व्यक्ति पर पहले हमला किया गया था) से नाजायज संबंध थे. दलित संगठनों के विरोध के बाद न्याय-व्यवस्था को मजबूरन अपराध का संज्ञान लेना पड़ा. नागरिकों को तथ्य-खोज समितियों ने बताया कि सबूतों के साथ कैसे छेड़-छाड़ की गई और उन्हें कैसे तोड़ा-मरोड़ा गया.
जब निचली अदालत ने अंतत: निर्णय सुनाया, मुख्य अपराधियों को सजा-ए-मौत सुनाई गई लेकिन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम लागू नहीं किया गया.
न्यायाधीश महोदय का मानना था कि खैरलांजी की सामूहिक हत्या के पीछे बदले की भावना थी. उन्होंने कहा कि बलात्कार का कोई सबूत नहीं मिला और हत्या के पीछे जातीय कोण भी नहीं था. जब कोई न्यायिक निर्णय, पहले अपराध के कानूनी ढ़ांचे को कमजोर कर और फिर मृत्युदंड दे, तो ऐसा करके वह यह आधार दे देता है कि ऊपर की अदालत उस सजा को कम कर दे, या फिर उसको बिल्कुल ही समाप्त कर दे. भारत में यह कोई असामान्य चलन नहीं है.
किसी भी अदालत द्वारा दी गई मृत्युदंड की सजा, चाहे वह कितने भी जघन्य अपराध के लिए क्यों न हो, न्यायसंगत नहीं ठहराई जा सकती. अदालत यदि यह स्वीकार करती है कि जातीय विद्वेष आज भी भारत में एक भयानक वास्तविकता है, तो यह न्याय का एक संकेत होता. लेकिन जज ने इस पूरे प्रकरण से जाति का कोण ही गायब कर दिया.

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