Thursday, March 3, 2011

धार्मिक ग्रंथों के विवादास्पद प्रसंगों में फेर-बदल अपरिहार्य


             एक दिन मित्र का संदेश आया कि उनके यहाँ 'मानस' का पाठ है और  मैं उस में सादर आमंत्रित हूँ.यूँ मुझे तरह के कार्यक्रम बिलकुल नहीं भाते .पता नहीं क्यों आनंद नहीं आता.
            यह बात नहीं की धार्मिक पुस्तकें मुझे कतई पसंद नहीं है. ये पुस्तकें मैं पढता हूँ मगर, वैसे नहीं पढता जैसे अन्य पढ़ते हैं.लोगों के घरों में मानस का पाठ मैंने देखा है. स्त्री-पुरुष बाल-बच्चे सब मिल कर बड़े भक्ति-भाव से पढ़ते हैं.मुझे नहीं मालूम कि वे समझते भी हैं या नहीं.अच्छे-अच्छों को मैंने मानस पाठ करते देखा है,बुजुर्ग से लेकर पढ़े-लिखे नव-जवान लोगों तक
                   बहरहाल,मुझे न्योता मिला.मित्र जानता था मेरी फितरत को. तब भी उसने न्योता दिया.मैंने भी जाने की ठानी.देखा, मित्र के यहाँ आठ-दस साथी मानस-पाठ कर रहे हैं. मैं जाकर बैठ गया.दरी बिछी थी.तबले पर संगत दी जा रही थी. तीन साथियों के सामने मानस खुली हुई थी.अगरबत्ती जल रही थी.कुछ महिलाएं खुले बाल रखे थी.वे नत-मस्तक हो मानस-गायन का रस्वादन कर रही थी.कुछ साथी ताड़-मंजीरा से सुर मिला रहे थे.मित्र ने हाथ जोड़ स्वागत करते हुए बैठने का इशारा किया था.मैं मुस्कुरा कर एक तरफ बैठ गया.मित्र ने हाथ पकड कर बीच में बैठाया और मानस की एक प्रति मुझे पकड़ा दी.मैं अन्दर-अन्दर न नुकर करता हुआ ले लिया. मुझे गायन में सह-भागी होना था.मैं शुरू हो गया.जिस सुर में गायन हो रहा था उस में मुझे अपना सुर मिलाना था.
                       संयोग से मानस गायन समाप्ति के दौर था.मैंने जैसे-तैसे साथ दिया.पाठ समाप्त हुआ.प्रसाद वितरित की गई.मित्र मेरा हाल-चाल पूछने लगे.मैंने कहा,चौपाई-दोहे के साथ-साथ हिंदी अनुवाद भी पढ़ते जाते तो बेहतर होता .मित्र ने समझाया कि चौपाई-दोहे इतने सरल भाषा में है कि उनका अनुवाद पढने की आवश्यकता नहीं रह जाती.मैंने कहा, काश ! ऐसा होता.मित्र मुझे निहारने लगा.वह कोशिश करने लगा की मैं क्या कहना चाहता हूँ. 
           यूँ यह बात नहीं कि लोग हिंदी अनुवाद नहीं जानते. जानते हैं. मगर, सोचते नहीं की क्या पढ़ रहे है.जो कुछ पढ़ रहे है, उसका मतलब क्या है ?उसका क्या उपदेश है ? मानस में ऐसे बहुतेरे प्रसंग है जो नारी और दलित-पिछड़ी जातियों का घोर अपमान करते हैं.वहीँ, मुर्ख और पाखंडी ब्राह्मणों को भी पूजनीय करार देते हैं.
           यहाँ मैं सिर्फ मानस की ही बात नहीं कर रहा हूँ .अन्य धर्मों के पुस्तकें भी अछूती नहीं हैं.बौद्ध,जैन सिख धर्मों की पुस्तकों में कई ऐसे प्रसंग है जिन्हें पुनरलेखन की जरुरत है.आखिर धार्मिक पुस्तकों के विवादास्पद प्रसंग क्यों दुरुस्त नहीं किये जाने चाहिए ? धार्मिक पुस्तकों के अंदर फेर-बदल तो हुआ है. ऐसे ढेरों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं जिन में फेर-बदल हुआ है.वाल्मीकि रामायण ईसा पूर्व लिखी गई. किन्तु बाद के 17  वी सदी में लिखी गई रामचरित मानस में तुलसीदासजी ने वाल्मीकि रामायण के कई प्रसंग या तो छोड़ दिए या उन में बदलाव किया हैं. Buddha and His Dhamma  जो बुद्धिज्म पर प्रमाणिक ग्रन्थ है,में डा आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म के कई प्रसंगों को या तो छोड़ दिया है या बदलाव किया है.         
          बेशक, धार्मिक पुस्तकें पढ़ी जानी चाहिए.क्योंकि संस्कृति और नैतिकता का पाठ यही ग्रन्थ पढ़ाते हैं.धार्मिक ग्रन्थ हमारी आस्था के विषय हैं.मगर, बदलते परिवेश में अप्रासंगिक हो चुके प्रसंगों में परिवर्तन अपरिहार्य है. अन्यथा वे मजाक का सबब  बनते हैं.
            धार्मिक-ग्रंथों के ऐसे प्रसंगों पर जो अब अप्रासंगिक हो चुके हैं, बड़े-बड़े समाज-सुधारकों द्वारा छींटा-कशी की जाती रही हैं, मगर, किसी भी धर्म के बौद्धिक वर्ग ने अब तक पहल नहीं की है.तर्क और बुद्धि पर आस्था की  जीत होती रही है. आस्था ठीक कही जा सकती है, जब तक की वह तर्क और बुद्धि की कसौटी पर खरी हो.मगर तर्क और बुद्धि से परे आस्था को किस तरह जायज ठहराया जा सकता है ?
         आये दिनों संत-महात्माओं के बड़े-बड़े दरबार लगते हैं. इन में बड़ी मात्रा में महिलाएं शामिल होती है. सती प्रसग में जब 'नारी सुभाऊ'  पर महात्माजी प्रवचन करते है तो  नारी सहज जड़ जन्य  चौपाई को ऐ महिलाएं भी उसी रौ में दोहराती है.महात्माजी और सामने बैठा पुरुष समाज तो ठीक है किन्तु नारी समाज के लिए यह प्रसंग कौन-सा आदर्श और नैतिकता  प्रस्तुत करते हैं, बहस का विषय है.
             आचरण और विचारों से मैं बुद्धिस्ट हूँ.स्नान करने के बाद अगरबत्ती मैं भी लगता हूँ. अपने पूजा-स्थल में मैंने अपने सास-ससुर और माँ-बाप के फोटो रखे हैं. मैं नित्य उन्हें स्मरण कर नमन करता हूँ.मैंने ऐसे किसी देवी-देवता के फोटो नहीं रखे हैं,जिन्हें प्रत्यक्ष नहीं जानता.मैं भगवान् बुद्ध और डा बाबा साहेब आम्बेडकर की पूजा करता हूँ मगर, वैसी नहीं जैसे बजरंग बलि या माँ काली को पूजा जाता है.भगवान् बुद्ध को पुष्प अर्पित कर मैं इस बात को दोहराता हूँ कि जिस तरह डा आम्बेडकर ने आपकी देशना को समाज के कल्याण के लिए सीढ़ी बनाया, मैं भी उस पथ पर चलने का यत्न करूँगा.
         धार्मिक-ग्रंथों के असंगत प्रसंगों से समाज में बड़े दुष्परिणाम हो रहे हैं. हमारी महिलाएं लाख पढ़ी-लिखी हो, उनके विरुद्ध पुरुष वर्ग इन प्रसंगों का अपने सोहलियत के हिसाब से उपयोग करने से नहीं हीचकिचाता.आज, उच्च शिक्षा के कारण कुछ महिलाएं कार्पोरेट जगत में आने लगी हैं मगर,उनके सामाजिक शोषण में कहीं फर्क नहीं आया है. निश्चित रूप से उनके सामाजिक शोषण के पीछे हमारी दूषित नैतिकता जिम्मेदार है. और दूषित नैतिकता के जिम्मेदार हैं ,हमारे धर्म-ग्रन्थ. पण्डे-पुजारी लगातार अंध-विश्वास फैला  रहे हैं. टी वी और अन्य प्रचार माध्यम इसे लगातार बढ़ावा दे रहें हैं. 
               ये ठीक है की शिक्षा से आँखे खुलती हैं मगर,स्कूल और कालेजों में भी तो यही पढाया जाता है. सांस्कृतिक विरासत के नाम पर हम यही तो पढ़ाते हैं.देश का संविधान शिक्षा में वैज्ञानिक सोच के निर्माण किये जाने की बात करता है. मगर क्या ऐसा हो रहा है ? यथा-स्थितिवादी ताकतें निहित स्वार्थ-वश इन अतार्किक और अप्रासंगिक प्रसंगों को हटाने/बदलाव करने में हठ-धर्मिता दिखाती है. और अफ़सोस तो यह भी है कि शिक्षा के नीति-निर्धारकों की कुर्सी पर ये ही लोग बैठे हैं.                       

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