Saturday, August 18, 2018

परित्राण-पाठ

हमारे यहाँ धार्मिक पर्व पर परित्राण-पाठ करने की परम्परा है। चाहे अवसर ख़ुशी का हो या ग़म का, भंतेजी द्वारा परित्राण-पाठ कराया जाता है। यह आवश्यक नहीं कि परित्राण-पाठ भंतेजी द्वारा ही हो, कोई भी धम्माचार्य या पारंगत उपासक/उपासिका कर सकती है। यह सोहलियत अथवा छूट दो कारणों से होती है। प्रथम तो भंतेजी की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो पाती।  कारण, समाज में उतने भिक्खु ही नहीं हैं। और दूसरे, कुछ को लोगों को भिक्खु के प्रति दुराग्रह हैं। उनका आरोप हैं की भंतेजी को जो दान दिया जाता है, वे उसे किसी धम्म-कार्य में लगाने की बजाए घर ले जाते हैं।

यह एक अलग विषय है कि धम्म दीक्षा लेने को 50 वर्ष से अधिक हो चुके, किन्तु अभी तक हम पर्याप्त भिक्खु पैदा नहीं कर सकें। जबकि, हमारी जनसँख्या में भारी इजाफा हुआ है। सीधी-सी बात है, भिक्खुओं के प्रति हमारी सोच ठीक नहीं है।

खैर, हम चर्चा परित्राण-पाठ की कर रहे थे। परित्राण के दिन पारिवारिक सम्बन्धियों और इष्ट-मित्रों को आमंत्रित किया जाता है। निस्संदेह, लोग आते भी हैं। मेरे एक मित्र हैं। एक दिन उन्होंने परित्राण-पाठ की सार्थकता पर टिपण्णी कर दी। मेरे एक दूसरे मित्र भड़क उठे। उनका कहना था कि परित्राण-पाठ हमारे समाज की परम्परा है। मुझे बीच-बचाव का रास्ता अपनाना पड़ा।

यह ठीक है कि परित्राण-पाठ से कुछ हो या न हो, इस बहाने सगे -सम्बन्धी और समाज के साथ मिल-बैठने का एक वातावरण बनता है। सामान्यतया, दिन भर से थक हार कर लोग टीवी पर रिलेक्स होते हैं। अगर आपके यहाँ कोई कार्य-क्रम है और आप लोगों को आमंत्रित करते हैं तो कई बहाने मिल जाते हैं, इष्ट-मित्रों को आपसे क्षमा मांगने। किन्तु अगर आपने खबर पहुंचाई है कि आपके यहाँ परित्राण-पाठ है तो फिर आप निश्चिन्त हो सकते है, उनकी उपस्थिति के लिए। कम-से-कम महिलाऐं तो आएगी ही। यह ठीक वैसा ही है जैसे पड़ोस में  सत्यनारायण की कथा हो रही हो ! 

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