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यह एक संयोग ही था कि हम लोग, एक विवाह में शामिल होने के निमित्त 3 जन. 2018 को पुणे में थे। एअर पोर्ट में पता चला कि पुणे बंद है। मालुम हुआ कि 1 जन. 2018 को भीमा-कोरेगांव में दलितों पर जो गोलिकांड हुआ, उसके विरोध में सन्नाटा पसरा है।
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मुझे लगा कि भीमा-कोरेगांव जाकर जरूर अपने उन साथियों का हौसला बढ़ाना चाहिए जो पिछली 1 जन. को वहां इकट्ठे हुए थे। 4 जन. का विवाह कार्यक्रम अटेण्ड करने के बाद 5 जन. को हम लोग भीमा कोरेगांव के लिए टेक्सी से निकले। पुणे से भीमा कोरेगांव करीब 35 की. मी. की दूरी पर है। करीब 11.00 बजे दिन को हम भीमा कोरेगांव पहुंचे।
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पुलिस की टुकड़िया भीमा कोरेगांव के साथ-साथ विजय-स्तम्भ चौक के एरिया में तैनात थी। गांव में प्रवेश करते ही दहशत का नजारा पसरा हुआ था। पुलिस के शब्दों में ‘स्थिति नियंत्रण में’ थी। काश कि ऐसी ही पुलिस फोर्स घटना के दिन तैनात होती! किन्तु तब, भय और डर का माहौल कैसे बनता?
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आज, जो दंगे-फसाद आए दिनों हो रहे हैं, सरकार दलित जातियों सहित अल्पसंख्यकों को एक खास संदेश देना चाहती है और वह है- आतंक और भय का। सरकार चाहती है कि ये लोग ज्वलंत मुद्दों पर सरकार के विरुद्ध लामबंद न हो।
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