Thursday, October 28, 2010

ममता तपोभूमि -एक खोज परक रिपोर्ट

तपस्वनी के आसन की ओर जाने का रास्ता 
          ममता तपोभूमि
विगत  दिनों अपने गृह जिला बालाघाट (म.प्र ) जाने के दौरान मुझे एक ऐसे स्थान पर जाने का अवसर मिला जिसके बारे में मैंने  पिछले कई वर्षों से काफ़ी-कुछ सुन रखा था.
           ममता ! 'ममता' नाम है उस लड़की का जिसके बारे में तरह-तरह की खबरें मैं पिछले 18-19  वर्षों से सुन रहा था. यह कि वह रात के घोर अँधेरे में लगभग 12  बजे के आस-पास घर से गायब हो गयी थी. यह की उस का नाम 'ममता' है. यह की उसके पिता का नाम पूनाराम मेश्राम है . यह कि यह घटना ग्राम नांदी-मोन्ह्गांव (कटंगी के पास )की है. यह कि यह एक गरीब परिवार की घटना है.
        यह की लड़की ममता एकाएक घर छोड़ कर चली गयी थी. अब, लोग परेशान. परिवार और सगे-सम्बन्धी परेशान. 12 वी कक्षा में पढने वाली लड़की भला रात के अँधेरे में कैसे जा सकती है ?  क्या वह अकेले ही गायब हुई या उसके साथ कोई और था ?  वह क्यों गायब हुई ? आखिर, उसके माँ-बाप क्या कर रहे थे ? क्या वह नार्मल थी या किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त थी ? ...ऐसे सैकड़ों और हजारों प्रश्न थे जिनका उत्तर घर-परिवार और गाँव  के लोग खोज रहे थे.
          जो लोग देख आये थे, उनके द्वारा मालूम हुआ कि  यह लड़की ममता एकाएक घर छोड़ कर निर्जन जंगल में जाकर पहाड़ की गुफा में बैठ गयी थी जो उसके निवास स्थान से करीब 11-12  की. मी. की दूरी पर स्थित है. यह की लड़की बकायदा होशों-हवाश में है. यह की उसे कोई बीमारी नहीं है और की उसका स्वास्थ्य ठीक-ठाक है.
पहाड़ और चट्टानें
    जैसे की उसके माँ-बाप, नाते-रिश्तेदार उससे पूछ आये थे, देख आये थे, के अनुसार  उसे रात में स्वप्न आया था. स्वप्न में कोई साधू धवल वस्त्रों में दिखा.साधू ने उससे पूछा कि वह क्या चाहती है ? जवाब में उसने  कहा कि वह 12 वी क्लास पढ़ी है और गरीबी के कारण आगे पढ़ नहीं पायेगी, ऐसी स्थिति में उसे भक्ति चाहिए. तब साधू आशीर्वाद देकर अंतर्धान हो गया और  फिर, उसने अपने आप को जंगल में पीपल के पेड़ के नीचे पाया. उसे होश नहीं है कि वह वहां कैसे आयी. बस, जब उसे होश आया तो उसने अपने आप को इस निर्जन जंगल में पहाड़ की गुफा में खड़े पाया. उसे समझ नहीं आ रहा था की वह क्या करे ? एक दिन बीत गया, दो दिन बीत गए, तीन दिन ..चार दिन..सातवे दिन उसे एक औरत नज़र आई जो शायद, बगल के गाँव से जलाऊँ लकड़ियाँ इकठ्ठा करने आई थी. उसने उसे आवाज दी. उसने कहा कि वह 7  दिनों  से भूखी-प्यासी है. तब उस औरत ने उसे अपने पास का पानी पिलाया. उसे लगा की वह ठीक-ठाक है. तब वह उस पहाड़ की गुफा में बैठ ध्यानस्त हो गयी. उसे लगा की गुफा ठीक है.निर्जन वन उसके अनुकूल है. जंगल के जानवर, पशु-पक्षी के बीच वह निश्चिन्त है. बाद में गाँव के लोग आना शुरू हुए.
        10-12 साल पहिले जब मैं अपने गृह नगर गया था, तो पता चला था कि वहां पर काफ़ी लोग झुण्ड के झुण्ड जाते हैं  और अपने-अपने हिसाब से इस घटना को देखते हैं. कोई पूजा-अर्चना करता है तो कोई आशीर्वाद मांगता है. कई एक ऐसे भी थे  जो उसे पागल बतला रहे थे.हमारे गुरु बालकदास साहेबजी ने मुझे बतलाया था की उनका वहां प्रवचन हो चुका है और कि वह जगह काफी अच्छी है,शांत है... तपोभूमि है. उनका प्रवचन जो 'ममता, तू न गयी मेरे मनते...' भजन पर था, उस तपस्वी लड़की ने बड़े ध्यान से सुना था. यह कि वह कम बोलती है,इंटरेक्ट कम करती है.
           इस बार जब बालाघाट गया तो जिज्ञासा थी ही. मैंने वहां जाने के लिए हर संभव कोशिश करने की ठान ली. सौभाग्यवश मुझे साथ भी अच्छा मिला. 24 अक्टू 10 को हमने अपने गृह ग्राम सालेबर्डी जो रामपायली-गर्राचौकी-बोनकट्टा रोड पर रामपायली से 8-9 की. मी. की दूरी पर है, से वहां के लिए प्रस्थान किया. दिन के बारह-एक बजे का समय होगा.हम 9-10 लोग बड़ी-सी फोर-व्हीलर गाड़ी में थे. गर्राचौकी के 3 की. मी. पहिले ही हथोंड़ा गाँव के लिए डायवर्शन है. साथ में जानकार लोग हमने रख लिया था जो वहां दो-तीन दफा हो आये थे. ग्राम हथोडा से 3 की. मी. कपूरबिहरी नामक गाँव निकलते ही जंगल शुरू होता है.कपूरबिहरी के लोगों ने बतलाया कि रास्ता दुर्गम है और कि आगे, नाले में पानी है. अक्टू माह बरसात ख़त्म होने का समय होता है.नतीजन, हमें गाड़ी लौटानी पड़ी.
           आगे पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि बोनकट्टा के पास हरदोली नामक गाँव से वहां पर जाया जा सकता है.बोनकट्टा, मोहनदास-हरगोविन्ददास बीडी स्टॉक के लिए फेमस है. हम पूछते-पूछते हरदोली पार कर जंगल में घुसे. लोगों के आने-जाने से जो रास्ते जंगल में बनते हैं, बरसात में वे अपनी पहचान खो देते हैं. हालाकि बरसात ख़त्म हो चुकी थी, मगर वे रास्ते, अभी इससे उबर नहीं पाए थे.जंगल में हमें कई स्थानों पर अपनी गाड़ी  रोकनी और मोड़नी पड़ी. रास्ते के अभाव में आगे बढ़ना खतरनाक हो सकता है, का परामर्श साथ गाड़ी में बैठने वाले दे रहे थे. मगर, मेरा मानना था कि अवसर बार-बार नहीं आते. मौके का फायदा जरूर उठाया जाना चाहिए.
          अब पीपल का पेड़ जो काफ़ी ऊँचा है, दिखने लगा था.मगर आगे बढना अब एक  नाले के कारण मुश्किल था. हमने गाड़ी वहीँ पार्क की और जैसे कि गाँव के लोग जो दूर जंगल- खेतों  में काम करने जाते हैं,  बीच-बीच में हम उनसे पूछ रहे थे, के अनुसार हम वह नाला पार कर एक पहाड़ पर पहुंचे.
पहाड़, खासा ऊँचा नहीं है. पहाड़ के तीन ओर खेत हैं जिनमें खड़े धान की फसल लहरा रही थी. पहाड़ के एक ओर झील है, जिसमें काफ़ी पानी भरा था. जल्दी ही हमें एक साफ कराया गया रास्ता नजर आया. जैसे ही रास्ते को फालो-अप करते हुए ऊपर  चढ़े, एक लडके ने हमें अभिवादन किया और अपने साथ आने का इशारा किया. हम ऊपर बढ़े.एक नियत स्थान पर उसने हमें जूते-चप्पल उतार कर रखने का अनुरोध किया. फिर आगे बढ़ने पर एक जगह उसने हम लोगों को हाथ-पैर धोकर फ्रेस होने को कहा. हम 9-10 लोग थे. मैं साथ ही साथ इधर-उधर का मुआयना  भी कर रहा था. मैंने देखा की हाथ-पैर धोने के लिए बकायदा हैण्ड -पम्प और लम्बा-चौड़ा बाथ-रूम था.
दर्शनार्थियों के ठहरने हेतु आवास
एक ओर दर्शनार्थियों के ठहरने हेतु आवास थे, जैसे की उस लडके ने बताया. मोटे तौर पर वे सारी सुविधाएँ नजर आ रही थी जो एक   विकसित आश्रम में होनी चाहिए और जहाँ पर लोग आते-जाते रहते हैं. मेरी बायीं ओर ऊपर एक आश्रम, जो एकदम शांत नजर आ रहा था, ..वह तपस्वनी का निवास है, लडके ने जिज्ञासा शांत किया. जैसे कि पहले बतलाया जा चुका है, सामने पानी की झील जो काफ़ी लम्बी-चौड़ी है,बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रही थी.जल्दी ही उस लडके ने हमें अपने पीछे आने का इशारा किया. हम साथ हो लिए. ऊपर घूम कर चढ़ते हुए हम एक विशाल चट्टान जो सीधी न होकर हलकी-सी छुकी हुई है, के सामने पहुंचे.
    मैंने देखा उस चट्टान से लग कर एक आसन लगा है और उस पर वह तपस्वनी भगवान बुध्द की लेती हुई मुद्रा में विराजमान है. उस लडके ने तब उस तपस्वनी को माथा टेक कर प्रणाम किया.शायद, वह हम लोगों को फालो-अप करने के लिए था. हमारे साथ के सभी लोगों ने वैसा ही किया. वह तपस्वनी उसी मुद्रा में लेटी रही.चेहरे के हाव-भाव में अपेक्षित चेंज, मैंने नोट नहीं किया था. उम्र 34-35 के करीब लग रही थी.कलर साफ और बाल खुले हुए ही थे. चेहरा ओज-पूर्ण और संसारिक विकारों से दूर लगा.साथ में एक और तपस्वी कुर्सी में विराजमान थे.मैंने उन्हीं से मुखातिब होना ठीक समझा. मैंने तपस्वनी की ओर इशारा कर पूछा कि क्या वे बात नहीं करती ?
"करती है." -बावजूद, तपस्वनी के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया मैंने नोट नहीं की.
"नहीं."
"शायद, टी वी/चैनल में कोई न्यूज नहीं चाहते होंगे ?"
"टी वी चैनल में आ कर क्या होगा ?" -तपस्वनी मेरी जिज्ञासा को सुन रही थी मगर, इस सब के लिए ही शायद वह  तपस्वी था. तपस्वनी के लिए ये बातें बेमतलब थी.
"प्रचार से क्या होता है ?  अगर प्रचार हेतु  रहता तो इस वीरान जंगल के क्या मायने हैं ?" -तपस्वी तौल-तौल कर बोलते हुए जैसे मुझे निरुत्तर कर रहा था.
"यहाँ, आने के लिए रास्ता अभी खुल नहीं पाया है. हमें काफ़ी दूर अपनी गाड़ी रखनी पड़ी. हम लोग इस तरफ से आये हैं " -मैंने विषय से हटना चाहा.
"नहीं, उस तरफ से गाड़ियाँ तो आती हैं.-तपस्वी ने समाधान किया.
       दरअसल, वहां का नैशार्गिक शांत और गंभीर माहौल जिसे तपस्वनी का कम बात करना और गहराई प्रदान कर रहा था, मैं भरसक प्रयास कर रहा था कि वह बना रहे. घना जंगल, जंगल में पहाड़, पहाड़ में ऊँचे-ऊँचे पेड़, बड़ी-बड़ी काले पत्थरों की चट्टानें, नीचे पानी की झील वास्तव में तपस्वनी के मन-मुद्रा के साथ एक खास वैचारिक सामंजस्य जोड़ रहे थे.मैं सोच रहा था कि न मालूम कितनी परतें हैं मनुष्य की और, जानने, समझने के लिए. क्या ये कोई 'सर्च' है जैसे की सिद्धार्थ गौतम निकले थे घर-परिवार छोड़ कर तलाश में अपनी..जग की ? या वर्ध्दमान महावीर  निकले थे खोजने खुद को..दुनिया को ?  मुझे लगा, दूर खड़े धान से भरे लम्बे-लम्बे खेत यहाँ ऊग रही इस वैचारिक उर्वरता के साक्षी बन रहे हैं.
"तपोभूमि जैसा लगता है, यहाँ."  -मैंने वैचारिक तन्द्रा भंग की.
"अच्छा !" तपस्वी ने आश्चर्य व्यक्त किया. इसी बीच हमारे साथ के एक सज्जन ने माथा टेक अभिवादन किया-  "माताजी, मैं बहुत परेशानी में हूँ ."
लेखक
       हम सब लोग एकाएक साँस रोक कर उस तपस्वनी की ओर देखने लगे."कैसे. क्या परेशानी ?"  -तपस्वनी  ने जिज्ञासा से पूछा. मैंने नोट किया तपस्वनी ने हलकी-सी भाव-भंगिमा बदली थी. "मेरे लड़के के गले से आवाज बहुत कम निकलती है. काफ़ी इलाज करता हूँ  मगर, फायदा हो ही नहीं रहा है ?"
"..................... ."
       मैं तपस्वनी के चेहरे पर नजरे गड़ाएं था. उनके चेहरे पर कुछ भाव तो पैदा हुए मगर, वे शायद शब्दों में ढल न  सके. कुछ ही पलों में चेहरा एक तपस्वनी के चहरे की तरह सपाट था. जैसे ये बीमारी और इस तरह के दुःख-दर्द उसके लिए नए नहीं थे.
"गले और सिर में मिटटी का लेप करें...."  कुर्सी पर बैठे तपस्वी ने सलाह दी.
"...लम्बे समय तक करने से आराम होगा." -तपस्वी ने आगे कहा. मुझे लगा, तपस्वी की सलाह में लाग-लम्पट नहीं था,जैसे अक्सर 'बाबाओं' में होता है.

मेरे ख्याल से करीब आधा घंटा हो गया होगा. कुछ तो तपस्वी से जानने और उससे अधिक तपस्वनी को जानने की उत्कंठा में, उनसे न पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में. ऐसा होता है कि आप के पास ठेर सारे प्रश्न होते हैं,आप को परेशान करते हैं मगर, जब मौका आता है 'अथारिटी' से पूछने का तो सारे प्रश्न 'फ्रीज' हो जाते हैं,या तो उनके उत्तर अपने-आप मिलने लगते हैं ! हो सकता है यह उस अथारिटी  के 'ओरे' का कमाल हो या आपके अपने उस समय के 'ओरे' का जो एक खास परिस्थिति और मन स्थिति में खुद-ब-खुद 'अथारिटी' हो जाता है.आखिर, मनुष्य ही तो हैं जो बुद्ध या महावीर बन जाता हैं !
    बहरहाल, मुझे लगा कि अब और अधिक बैठना उचित नहीं होगा, मैंने खड़े हो कर हाथ जोड़ विदा ली और कहा-"जी हम अब चलते हैं,क्योंकि शाम के करीब 5 बज रहे हैं और जाने में रात हो सकती है ." तपस्वनी एकाएक उठ कर बैठ गयी और बकायदा विदा करने की मुद्रा में उन्होंने सिर हिलाया.
      हम लोग उस दिन आ तो गए थे मगर, जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी.मुझे लग रहा था अभी और खोज करने की जरुरत है.इसी बीच मार्च 11 में फिर उस क्षेत्र में जाना हुआ. इस बार मैंने ममता के बारे में और जानकारी जुटाने की सोची.हम सीधे उनके पेत्रक गावं नवेगावं पहुंचे.वहां ममता के काका रामचंद्र मेश्राम से मुलाकात हुई.वे हमारे रिश्तेदार निकले. रामचंद्र जी से जो जानकारी मिली, वह इस प्रकार है-
ममता के गावं जा कर जानकारी लेते लेखक
        ममता अपने माँ-बाप की पांचवी संतान है.उसके दो भाई हाऊसिदास और ज्ञानदास है. हाऊसिदास की अभी हाल ही असामयिक मौत हुई थी.ज्ञानदास वर्तमान में बालाघाट में रहता है.दोनों भाई  10 वी तक पढ़े हैं.ममता की दो और बहने हैं. ममता पढने-लिखने के साथ साथ घर के काम-धंधे में बड़ी होशियार थी.वह प्रतिदिन 2000  बीडी बड़े आराम से बनाती थी.वह कुछ साधू प्रवृति की जरुर थी.14-15 वर्ष की उम्र से ही वह कहने लगी थी की वह यहाँ नहीं रहेगी.पूछने पर कहती थी कि या तो वह नौकरी करगी या विक्तु बाबा जैसे किसी निर्जन स्थान में विरक्त-सी रहेगी.
ममता के काका रामचन्द्र मेश्राम
    रामचंद्र जी ने आगे बतलाया, जब पता चला कि वह जंगल में है तो वे भी उससे मिलने गए थे. यह पूछने पर कि वह अँधेरी, निर्जन रात में  कैसे अकेली चली गई ? ममता ने बताया था कि उसे नहीं मालूम, वह कैसे घर से निकली. हाँ, इतना ध्यान है कि रास्ते में रोड पर बस की हेड-लाईट देख कर वह एक पेड़ की ओट में हो गई थी.रामचंद्र के यह पूछने पर कि वह इसी स्थान में क्यों आई ? ममता ने कहा था कि जिस जगह बाबा ने बताया, वह जाकर बैठ गई. यह पूछने पर कि ममता ने गृह-त्याग कब किया था ? रामचंद्र ने सन 1991 की पांड-पूर्णिमा बताया था.

No comments:

Post a Comment