Thursday, March 10, 2011

Dr.Anand:Life & Mission

           महाराष्ट्र के  एक महान संत कहते हैं- 'जगाच्या कल्याणा संता च्या विभूति. देह कष्ट वर्ति परोपकारी'.  
कुछ हस्तियाँ पैदा ही होती है, किसी खास उद्देश्य के लिए. किसी परिवर्तन के निमित्त.वे पैदा तो हैं, सामान्य आम आदमी की तरह. किन्तु,वे आम आदमी की तरह व्यवहार नहीं करते.कुछ हट कर कार्य करते हैं. लोग तरह-तरह की बातें करते हैं,कमेंट्स करते हैं. मगर, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. मानों, वे सोच के पैदा होते हैं कि उन्हें उस तरह के कमेंट्स मिलेंगे. वे तैयार रहते हैं,उन स्थितियों का सामना करने के लिए.यह बात नहीं कि लोग नोटिस नहीं लेते उन्हें. लेते हैं,उनका अनुकरण भी करते हैं. मगर, यह सारा कार्य बड़ा चुप-चाप और नेसर्गिक होता है. मानों कुछ हो ही नहीं रहा हो.
 मगर, कई-कई सालों बाद एकाएक लोग उस हस्ती को पूजने लगते हैं.उसकी मूर्ति चौराहों पर लगाने लगते हैं.उन्हें तब अहसास होता है कि उस हस्ती ने अपने ज़माने में क्या किया था, क्यों किया था और किसके लिया किया था? मगर,अफ़सोस, तब वह हस्ती नहीं रहती, उस धुप-अगरबत्ती की खुशबू लेने के लिए जो चौराहे पर उसकी मूर्ति के नीचे आने वाली पीढियां लगाती हैं. यही दस्तूर है, ज़माने का. यह बिलकुल नया नहीं है, इतिहास गवाह है.
 डा. आनंद, निश्चित रूप में इसी तरह की हस्ती है. यह मैं नहीं, डा. साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व (Life & Missiion ) बोलता है.
 जन्म-       डा.आनंद  के बचपन का नाम धारुसिंह था. आपका जन्म 1 नव. 1965 को म.प्र के दतिया जिले के एरई ग्राम में हुआ था. आपकी माता का नाम हरबो बाई और पिता का नाम जागनसिंह अहिरवार था. 
माता-पिता का व्यवसाय -   डा. आनंद के  पिताजी राज मिस्त्री हैं.वे मकान आदि बनाने में राज-मिस्त्री का कार्य कर रोजी-रोटी कमाते हैं. यह पूछने पर कि उनके माता-पिता क्या करते हैं,डा. साहब ने एक स्थान में बतलाया है कि 'वे मजदूरी करते हैं(शंका का समाधान':बी ए  एम् एस प्रका.- जुला. 2005).
 मेहनत-कश माता-पिता की संतान डा. आनंद -डा. साहब ने जब से होश संभाला है, अपने माता-पिता को कड़ी मेहनत करते देखा है. डा. साहब कहते हैं,उन्होंने हमेशा मुझे बड़ा आदमी बनाने का सोचा.वे हमेशा यही कहा करते थे कि तुम्हे तो सिर्फ पढाई करना है,बाकि घर की देख-भाल करना तथा तुम्हारी पढाई का खर्च उठाना हमारा काम है.मुझे अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले, इसके लिए जो भी संभव था, उन्होंने किया.  
प्रारम्भिक शिक्षा-  आपकी प्रारम्भिक शिक्षा पैतृक गाँव एरई में हुई थी.एरई गाँव जिला दतिया (म.प्र ) में है बालक धारूसिंह ने सन 1978 में जब मिडिल स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तो हाई स्कूल की पढाई के लिए उसे अपने गाँव से 8-9 कि. मी.दूरी पर स्थित छोटी बडोनी नामक कस्बे  के हायर सेकेंडरी स्कूल में एडमिशन लेना था,एरई  गाँव और उसके आस-पास के क्षेत्र के बच्चे वहीँ जाते थे क्योंकि, इससे नजदीक और कोई दूसरा स्कूल नहीं है.परन्तु, बालक धारू के पिता इसके लिए सहमत नहीं थे. वे अपने होनहार बेटे को नजदीक के स्कूल में भेजना नहीं चाहते थे.
           उन का तर्क था;क्योंकि, जितने ही लडके अपने गाँव से छोटी बडोनी पढ़ने गए, उन में से एक-दो को छोड़ कर सभी वापिस आ गए.इस लिए मैं चाहता हूँ कि तुम दतिया जा कर पढो. वहां एडमिशन लो और छात्रावास में प्रवेश ले कर वहीँ रहो. उनका कहना था कि दूर रहने से बार-बार घर नहीं आ पाओगे और पढाई ठीक रहेगी.बालक धारूसिंह ने वही किया जो उसके पिता ने कही थी.
उच्च शिक्षा- बी एस सी (प्रथम वर्ष) के बाद डा. साहब लिखते हैं कि उनका चयन पी.एम् टी  में हो गया.वे हायर सेकेंडरी के बाद ग्रेजुएशन शासकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय दतिया से कर रहे थे.सन 1990 में आपने ऍम बी बी एस की डिग्री श्याम शाह मेडिकल कालेज रीवा से प्राप्त की थी तथा वर्ष 1994 में एम् एस (नेत्र चिकित्सा विज्ञानं )भी आपने वहीँ से किया.
घर-परिवार-    घर-परिवार की चर्चा करते हुए डा साहब कहते हैं, उन्हें ब्राह्मण विरोधी माहौल पिता से मिला था. क्योंकि,गाँवों में उनकी जाति को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है.बाद में डा साहब बौद्ध बन गए लिहाजा परिवार के लोगों ने बाबा साहब को साक्षी मान कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. अब उनके परिवार और समाज में सभी संस्कार बौद्ध रीति से होते हैं.
            दाम्पत्य-जीवन के बंधन में न पड़ने के संकल्प पर डा. आनंद कहते हैं,यदि वे शादी कर लेते  तो मिशन के लिए समय कम दे पाते.क्योंकि, तब समय का विभाजन उनके और परिवार-जनों के बीच हो जाता.अत: उन्होंने दिन के 24 घंटे मिशन में लगाना तय किया. वे मिशन का कार्य ज्यादा से ज्यादा कर अपना दायरा बढ़ाना चाहते थे.डा. साहब कहते हैं कि शादी के बाद वे परिवार को समय नहीं दे पाते जो उनके साथ अन्याय होता तथा उनकी वजह से परिवार-जनों को कष्ट पहुँचता.
महान उद्देश्य के लिए बड़े फैसले लेने होते हैं - इस सवाल पर कि 'आपने अपने माता-पिता को बिलकुल ही छोड़ दिया, डा. आनंद कहते हैं-  'कभी तो छोड़ना ही था.बाद में छोड़ता तो पहले हो छोड़ दिया.
        'आप को ऐसा नहीं लगता कि आपने गलती की ? माता-पिता की सेवा करना भी तो एक सामाजिक उत्तरदायित्व है ? इस पर डा. साहब कहते हैं कि 'सब लोग ऐसे ही प्रश्न खड़े करते हैं. क्योंकि, वे स्वयं फसे हुए हैं. वे सोचते हैं कि माता-पिता की सेवा कर वे सुखी हो जायेंगे ! जबकि सच्चाई इससे अलग है. किसी भी माता-पिता से पूछा जाए कि क्या वे अपने बच्चों से सुखी है ? या कि क्या वे अपने आप से सुखी हैं ? निश्चित रूप से अगर कोई झूठ का सहारा नहीं ले रहा है, तो उत्तर होगा कि वे भारी दुखी है.और फिर,किसी महान उद्देश्य के लिए बड़े फैसले लेने होते हैं. बहुत कुछ त्याग करना पड़ता है. वैसे भी मेरा सोचने का ढंग अलग है.परिवार, समाज और खुद अपने जीवन के प्रति मेरा नजरिया अलग है.
 कोई त्यागी पुरुष ही समाज में परिवर्तन ला सकता है.-  'एक सफल चिकित्सक बनाने में आपके माता-पिता ने कठिन परिश्रम किया. परन्तु,  पढ़-लिख कर आपने उनका साथ छोड़ दिया.आपके माता-पिता इस बारे में क्या सोचते होंगे? पर डा. साहब कहते हैं-  'ठीक ही सोचते होंगे'.
        इसी तरह के एक और क्रिटिसिज्म पर- कि जो माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, वह समाज की सेवा क्या कर सकता है, पर डा. साहब कहते हैं कि माता-पिता का मोह,पति-पत्नी का मोह, औलाद का मोह और धन-दौलत का मोह आदमी के बढ़ते कदमों को रोकता है.पत्नी का मोह आपके घर छोड़ने में आड़े आता है. परन्तु , दूसरी तरफ त्यागी पुरुषों के भी उदहारण है.बाबा साहेब आंबेडकर, महामना ज्योतिबा फुले, उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले और इनसे भी बढ़ कर त्याग का उदहारण है- तथागत बुद्ध. मैं इस बात को बड़े फक्र के साथ कह सकता हूँ कि जो लोग त्यागी हुए हैं, उन्होंने समाज में परिवर्तन लाया है. उन्होंने समाज का सच्चा कार्य किया है.     
जीवन की प्रमुख घटनाएँ -         अपने बचपन की एक घटना का स्मरण करते हुए डा आनंद कहते हैं की वे शुरु से ही पढने में तेज थे. वे कक्षा 4 से प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए थे.जब वे कक्षा 5  में गए तो उनके साथ पढने वाला एक लड़का वीरेंद्र कुमार तिवारी था, जो जाति का ब्राह्मण था. वह पढने में कमजोर था.वीरेंद्र के पिताजी भी इसी स्कूल में पढ़ाते थे.वे पता नहीं क्यों मुझसे अप्रसन्न रहते थे.एक दिन वीरेंद्र ने मेरी जाति को लेकर छीटा-कसी की- "आजकल चमरा बहुत पढने लग गए हैं !" वीरेंद्र की बात मुझे बहुत बुरी लगी.मैंने भी उससे कह कह दिया-"आजकल बम्हना  पढाई में बहुत पीछे रहने लगे हैं!" यह बात वीरेंद्र ने अपने शिक्षक पिता से कह दी. अगले दिन ब्राह्मण शिक्षक के पास मेरी पेशी हुई. शिक्षक पिता ने मेरी दसों उँगलियों को टेबिल पर रखवा कर छड़ी से खूब पिटाई की.मैं बहुत रोया. मेरी उंगलियाँ फुल गई थी.मैं अगले  10-15 दिनों तक स्कूल नहीं जा सका था. यह घटना सन 1975  की है.
           डा. आनंद  कहते हैं कि विद्यार्थी जीवन में उन्हें 'बाबा साहब का जीवन संघर्ष' नामक पुस्तक पढने मिली थी.इस पुस्तक ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था. इसी पुस्तक से उन्हें अपने साथ हो रहे अपमान का बदला लेने की प्रवृति को बल मिला.
              रीवा मेडिकल कालेज में पढाई के दौरान घटी एक घटना का जिक्र करते डा आनंद कहते हैं कि वे आम्बेडकर जयंती  पर मान्य कांशी रामजी से मिलने दिल्ली गए थे. उनके साथ छ मेडिकल कालेज के 70 छात्र थे.सब के सब बिना टिकिट यात्रा कर रहे थे. बांदा स्टेशन पर टी टी ने पकड़ कर गिरफ्तार कर लिया. हम सब 7 दिनों तक जेल में रहे.बाद में 600-600 रुपये का जुरमाना देकर जेल से छूटे.जेल में गुजरे 7 दिनों का स्मरण करते हुए डा साहब कहते हैं कि 'परिवर्तन मिशन स्कूल' की बात यहीं पर उनके दिमाग में आयी थी. 
           एम् एस करने के बाद डा आनंद पी एच डी करने डा बाबा साहेब आम्बेडकर विज्ञानं संस्थान मऊ गए थे.वहां पर आपने सर्वोदय क्लिनिक खोला था.इसी दौरान मऊ में आर एस एस वालों ने बाबा साहेब की प्रतीमा को वेद-मन्त्रों के साथ दूध से धो कर पूजा-पाठ की थी. यह घटना दिनांक 16.12.1995 की है.डा साहब कहते हैं की आर एस एस की उक्त बेहूदी हरकत से उन्हें बड़ी पीड़ा हुई थी.
     'शंका का समाधान' नामक पुस्तिका में डा साहब एक घटना का जिक्र करते है-  8 दिस 1996 को मैंने जब मऊ छोड़ा तो मेरे पास मात्र 2000/- रु. थे. मुझे इसी पूंजी के साथ मिशन का कार्य शुरू करना था. मैंने पन्ना जिले (म.प्र.) का चुनाव किया. वहां मेरे कुछ पूर्व परिचित साथी थे. अपने साथियों की मदद से वहा मेरे कार्यक्रम 12 दिस 96 से 2 जन 1997 तक चले. तब कोई प्रिंटेड लिटरेचर नहीं था. सारा काम मैं हाथ से लिख कर करता था. 1- 2 जन. को मेरा दो-दिवसीय 'बहुजन शिक्षा प्रशिक्षण शिविर' रखा गया था. इस केडर केम्प में 150-200 की संख्या में लोग उपस्थित थे.इस दिन-रात चलने वाले केडर केम्प से शायद प्रभावित हो कर एक सज्जन मेरे कार्यालय में दूसरे दिन आये थे.उस समय कार्यालय हेतु  वहां मैंने एक कमरा किराये का ले रखा था.बातचीत के दौरान उस सज्जन ने कहा कि आपकी बातें बहुत अच्छी है.इन्हें लोगों के बीच पहुंचना चाहिए.आप ऐसा करिए कि मैं रु 25,000/- देता हूँ . आप अपने  हस्तलिखित पन्नों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराइये.     
बी. ए. एम्. एस. संस्था की स्थापना -      बी. ए. एम्. एस. (BAMS) की स्थापना डा.आम्बेडकर जयंती 14 अप्रेल  1995 के दिन की गई थी,यद्यपि पंजीयन 24 जुलाई 1996 को कराया गया था. यह एक सामाजिक संस्था है.इसका पूरा नाम "दी आल इंडिया बाबा साहेब आम्बेडकर मिशनरी सोसायटी नयी दिल्ली" (The all India baba saheb Ambedkar missionary society new Delhi) है. संस्था का रजिस्ट्रेशन (Registation No.29855/96) सन 1996 में किया गया. यह संस्था  N.G.O  के रूप में रजिस्टर्ड है.संस्था का केंद्रीय कार्यालय  F-985  मंगोलपूरी दिल्ली 110083  है.यह संस्था भारतीय मूल निवासियों (एस.सी./एस.टी./ओ.बी.सी.एवं धार्मिक अल्पसंख्यक) के लिए कार्यरत है.
  बी. ए. एम्. एस : एक मिशन-            बी.ए.एम्.एस, डा. आनंद के अनुसार एक मिशन है, न की कोई फ्रंट.फ्रंट बनते रहते हैं किन्तु, मिशन बड़ी मुश्किलों के बाद तैयार होता है.फ्रंट किसी दूरगामी विचार धारा या सिद्धांतों पर आधारित नहीं होते जबकि मिशन एक निश्चित सैद्धांतिक विचार-धारा पर आधारित होता है.बी ए.एम्.एस इसी तरह एक विशेष विचारधारा (आइडियोलाजी) को आधार बना कर तैयार किया गया है जिसके द्वारा बुद्ध,कबीर,गुरु रविदास,ज्योतिबा फुले.छत्रपति शाहू महाराज,पेरियार रामास्वामी नायकर,गुरु गाडगे बाबा एवं बाबा साहेब आंबेडकर की विचार-धारा से ओत-प्रोत समाज तैयार करने का लक्ष्य है.हमारा विश्वास है कि इस तरह से संस्कारिक समाज में सामाजिक परिवर्तन चिर-स्थायी होगा.अपने इस लक्ष्य को पूरा करने हम ने पूरे भारत में मिशनरी विद्यालय खोलने प्रारंभ किया है.
बी. ए. एम्. एस : एक गैर राजनीतिक संस्था -     social revolution is the mother of political revolution.  बाबा साहेब आंबेडकर के इस कोटेशन को उदृत करते हुए डा. आनंद कहते हैं कि सामाजिक क्रांति से ही राजनैतिक क्रांति का उदय होता है. बी ए एम् एस का कार्य सामाजिक क्रांति लाना है और इसका रास्ता शिक्षा है. सामाजिक आन्दोलन के बाद जो भी राजनीती होगी वह सफल राजनैतिक क्रांति होगी.हमारी लड़ाई सिर्फ राजनैतिक परिवर्तन  की नहीं है बल्कि सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई है.डा.आनंद कहते हैं, उन्हें यकीं  नहीं है कि कोई राजनैतिक दल बिना सामाजिक क्रांति के आंबेडकरवादी विचार-धारा को कामयाब कर पायेगा.
           डा.आनंद कहते हैं, उनका कार्य गैर-राजनितिक है.वे राजनीती से हट कर कार्य करते हैं.उनके मिशन का टार्गेट दलित-शोषित समाज की अशिक्षा है. वे कहते हैं, दलित-शोषित समाज जब शिक्षित हो जायेगा तभी बुद्ध,धम्म और संघ क्रांति का बिगुल बजेगा.बी ए एम् एस का मिशन दलित-शोषितों की शिक्षा के द्वारा सोशल  रिवाल्यूशन (social Revolution ) लाना है.
बी. ए. एम्. एस. की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति-   डा. आनंद के अनुसार, बी ए एम् एस संस्था की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति, महात्मा ज्योतिराव फुले के शिक्षा-आन्दोलन से अभि-प्रेरित है.यह शैक्षणिक आन्दोलन ज्योतिबा फुले ने सन  1873 में 'सत्य-शोधक समाज' के माध्यम से प्रारम्भ किया था. ततपश्चात डा. बाबा साहेब आंबेडकर ने सन  1945 में 'पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी' के माध्यम से इसे आगे बढाया किन्तु यह किन्ही कारणों-वश सम्पूर्ण भारत में नहीं फ़ैल सका.उन्हीं कारणों को ध्यान में रखते हुए हम ने बुद्ध और डा. बाबा साहब  आंबेडकर की विचार-धारा को आधार बना कर यह कार्य शुरू किया. निश्चित ही यह कारवां जो फुले और बाबा साहेब की विचारों से अभि-प्रेरित है,जल्दी ही आगे बढ़ता नजर आएगा.
गाँव-गाँव में परिवर्तन स्कूल - डा आनंद निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं.वे बतलाते हैं कि गावों में केडर केम्प लगा कर लोगों की मानसिकता तैयार की जाती है. ततपश्चात,उन्हें अपना स्कूल खोलने की लिए कुछ धन राशी जमा करने को कहा जाता है. और जब जन-सहयोग और आवश्यक धन-राशि इकट्ठी हो जाती है तब, गाँव में स्कूल खोलने की प्रक्रिया शुरू की जाती है. स्कूल गाँव के ही नव-युवक चलाते हैं.  
मिशन को आगे बढ़ाने धन आड़े नहीं -   डा. आनंद के अनुसार, उन्हें अपने मिशन के लिए पैसा कहीं आड़े नहीं आता. और फिर, मिशन, धन से नहीं बल्कि, विचार-धारा से चलता है.डा. साहब कहते हैं कि जिन्हें उनकी विचार-धारा अच्छी लगती है, वे उन्हें सहयोग देते हैं.उन्हें तो चिंता मात्र इस बात की होती है कि जो बीज वे बो रहे हैं,वह सड़ने न पाए. 
परिवर्तन स्कूलों की बढ़ती संख्या - डा. आनंद, परिवर्तन मिशन स्कूलों की संख्या के बनिस्पत उनकी गुणवता पर ज्यादा ध्यान देने की बात करते हैं.वे देश के प्रत्येक जिले में परिवर्तन मिशन स्कूल खोलने की बात करते हैं. वे बतलाते हैं की वर्तमान में म, प्र.,छतीसगढ़ उ.प्र,बिहार आदि प्रदेशों में परिवर्तन मिशन स्कूल संचालित हो रहे हैं और धीरे-धीरे अन्य प्रदेशों में भी खोले जा रहे हैं.
परिवर्तन स्कूलों की शिक्षा-संस्कृति-         परिवर्तन मिशन स्कूलों में बच्चों की शिक्षा बुद्धिस्ट-आम्बेद्करी पद्यति से संचालित होती है. स्कूल लगते ही राष्ट्र गीत के साथ बुद्ध-वदना और भीम-वंदना की जाती है.बच्चों को भगवान् बुद्ध की धम्म देशना की बाते बताई जाती है तथा डा बाबा साहेब आम्बेडकर जीवन आधारित प्रेरणास्पद प्रसंग बताये जाते हैं.
              प्रत्येक कक्षा के लिए सिलेबस है. ए.सी.- 1/ए.सी.- 2 से कक्षाए प्रारंभ होती है. शासन द्वारा जो पाठ्य-पुस्तकें स्वीकृत होती है,इन स्कूलों में भी पढाई जाती है.इसके आलावा, बच्चों में प्रारम्भ से ही बुद्धिस्ट-अम्बेडकरी संस्कार पैदा करने के लिए बी ए एम् एस संस्था द्वारा तैयार पाठ्य-पुस्तकें नैतिक शिक्षा के तौर प्रत्येक कक्षा में पढाई जाती हैं.
परिवर्तन स्कूल का कन्सेप्ट माडल-     डा साहब के परिवर्तन मिशन स्कूलों का कन्सेप्ट माडल नालंदा विश्व-विद्यालय है. यह विश्व प्रसिध्द विश्व-विद्यालय बौद्धों की धरोहर है.ईसा-पूर्व 150  में इस विश्व-विद्यालय में दुनिया के तमाम विद्यार्थी आ कर विद्या-अद्ययन करते थे. इसी विश्व-विद्यालय में हवेंस्वांग और फाह्यान जैसे चीनी बौद्ध भिक्षुओं ने भारत आ कर बौद्ध-धम्म का गहन अद्ययन किया था. इसी विश्व-विद्यालय के कारण हमारा देश, दुनिया में 'विश्वगुरु' के रूप में प्रतिष्ठित था. 
            डा. आनंद, नालंदा बौद्ध विश्व-विद्यालय की उच्च शिक्षा और गंभीर दार्शनिक मूल्यों से बेहद अनु-प्रेणित है.आप इसी तरह की शिक्षा भारत में देना चाहते हैं.आप गाँव-गाँव में इसी तरह की शिक्षा के हजारों-हजारों स्कूल खोलना चाहते हैं.आपकी सोच है की ऐसे हजारों-हजारों स्कूल खोल कर ही विश्व प्रसिध्द नालंदा विश्व-विद्यालय स्थापित किया जा सकता है.और इसके लिया डा साहब जी-जान से प्रयासरत है. अपनी कल्पना को साकार करने के लिए डा आनंद ने तीन प्रतिज्ञा ली  है- वे आजीवन अविवाहित रहेंगे ताकि उनके संकल्प को पूरा करने कोई पारिवारिक बाधा न हो.दूसरे, वे M.B.B.S. और  M.S. (नेत्र रोग विशेषज्ञ.)  होने  के बावजूद कोई सरकारी सेवा नहीं करेंगे और तीसरे,जब तक उन्हें अपने मिशन में सफलता प्राप्त नहीं होती है, वे अपने घर-परिवार नहीं जायेंगे.
आम्बेद्कराईट आन्दोलनों की दशा और दिशा:            डा. आनंद कहते हैं, कुछ लोग बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों में आस्था रखते हैं मगर, उन्हें डा. आंबेडकर का रास्ता नहीं मालूम नहीं है और यही कारण है कि वे रास्ता मनुवादियों का चलते हैं.ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है. दूसरे, ऐसे हैं जिन्हें आम्बेडकर के बारे में कुछ नहीं मालूम हैं. इन्हें 'नान-अम्बेद्कराइज्ड'  कहते है. तीसरे प्रकार के वे लोग हैं जिन्हें डा. आंबेडकर का रास्ता तो मालूम हैं किन्तु चल नहीं पाते. इनको 'मजबूर अम्बेद्कराइज्ड' कहते हैं. इनकी संख्या थोड़ी ज्यादा है.और चौथे प्रकार के वे लोग हैं जिन्हें बाबा साहब का रास्ता मालूम हैं तथा वे उस रस्ते पर चलने की कोशिश भी करते हैं.इन्हें  'रिअल अम्बेद्कराइज्ड' कहते हैं मगर, इनकी संख्या कम हैं.हमारा प्रयास हैं कि ऊपर की तीनों केटेगरी के लोगों को फुले-आम्बेकारी शिक्षा-मिशन से जोड़ कर 'रिअल अम्बेद्कराइज्ड'  के केटेगरी में लाये.
समस्या की जड़ गरीबी नहीं, मानसिक गुलामी-  डा आनंद कहते हैं कि उनके समाज के समस्या की जड़ गरीबी नहीं है,जैसे की प्रचार किया जाता है; वरन मानसिक गुलामी है.अशिक्षा और सदियों से थोपी गई जाति-गत हीनता ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा है.अशिक्षा ने उसे पंडा-पुजारियों से जकड दिया है.अंध-विश्वासों के वे जैसे गुलाम बन गए हैं.गरीबी तो इन सब का दुष्परिणाम है. दलित-शोषित समाज के इस मानसिक गुलामी का इलाज एक मात्र शिक्षा है.और इसलिए वे शिक्षा को मिशन के रूप में चला रहे हैं.
परिवर्तन स्कूल, सरस्वती शिशु-मंदिरों की नकल नहीं- डा आनंद कहते हैं कि बी ए एम् एस द्वारा संचालित परिवर्तन मिशन स्कूल,आर एस एस के सरस्वती शिशु-मन्दिर स्कूलों की नकल नहीं है. सरस्वती शिशु मन्दिरों में गैर-बराबरी की शिक्षा दी जाती है जबकि परिवर्तन मिशन स्कूलों में समानता की शिक्षा दी जाती है. मनुवादी वर्ण-व्यवस्था को समूल नष्ट कर समता तथा बंधुत्व आधारित समाज-व्यवस्था का निर्माण बी ए एम् एस का उद्देश्य है.
सरकारी और प्राइवेट स्कूल   - डा. आनंद के अनुसार,सरकारी स्कूलों में जो शिक्षा दी जाती है, वह किसी काम की नहीं है. गरीब से गरीब लोग भी इन स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने में कतराते हैं और यही कारण है की सरकार ने दलिया और खिचड़ी का बंदोबस्त किया है ताकि अधिक से अधिक बच्चें आये.वास्तव में,सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवता पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता. परिणाम स्वरुप इन स्कूलों से निकले बच्चें न तो किसी नौकरी के लायक होते हैं और ना ही कोई उद्योग धंधे खोलने लायक.दूसरी ओर, जितने प्राइवेट स्कूल हैं, व्यवसाय के रूप में संचालित किये जाते हैं.इन में गरीब लोग अपने बच्चें भेज नहीं पाते हैं.
     डा. आनंद के अनुसार, सरकारी हो या प्राइवेट,इन स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा में सामाजिक चेतना का अभाव होता है. एक तरफ, जहाँ इस देश के मूल निवासियों की संस्कृति और इतिहास को न सिर्फ पढ़ाने से परहेज किया जाता है वरन, उनके हीरों ओर नायकों को मजाक के रूप में चित्रित किया जाता है. वहीँ दूसरी तरफ, मूल निवासियों की वर्तमान अवस्था के उत्तरदायी ब्राह्मण समाज-व्यवस्था का गुण-गान किया जाता है.
संस्था का मुख पत्र: सामाजिक परिवर्तक -   बी ए एम् एस संस्था का मुख पत्र 'सामाजिक परिवर्तक' है. यह मासिक पत्रिका  डा. आनंद के सम्पादन में दिल्ली से प्रकाशित होती है.पत्रिका का ई मेल एड्रेस  bams.dranand@gmail.com  है.पत्रिका में संस्था की गतिविधियाँ प्रकाशित होती रहती हैं.
मिशनरी साहित्य/पुस्तकें एवं पम्फलेट  ;  डा आनंद ने कई छोटी-छोटी मिशनरी पुस्तकें लिखी हैं जिनमें शिक्षा-मिशन को बड़ी सहजता और बोध-गम्यता से बताया गया है.
        बच्चे देश का भविष्य हैं. किसी भी समाज का परिवर्तन इन्हीं से शुरू होता है. बुद्ध से लेकर डा आंबेडकर तक के सभी प्रवर्तकों की जीवनी को काव्य के माध्यम से बच्चों ने पढना चाहिए, सोचकर डा साहब ने स्कूली छात्र-छात्राओं के लिए 'आनंद शतक','मिशनरी कुंडलियाँ','डा आंबेडकर काव्य परिचय' और 'मिशनरी गीत' नामक छोटी-छोटी पुस्तकों की रचना की.'आनंद शतक' की एक कविता दृष्टव्य है -
           आओ बच्चों मिल कर गाए,भीम मिशन के गीत सुनाए
            शिक्षा-मिशन  हमें  जो  भाए,  परिवर्तन हम ऐसा लाए 
            देवी,  दुर्गा  दूर   भगाए,  अंध-भक्त  ना   हम    हो  जाए 
            सही   मार्ग को हम  अपनाए,  जैसे   बाबा भीम  बताए 

           डा आनंद हर समय भ्रमण करते रहते हैं.इसके बावजूद वे प्रत्येक स्थान पर नहीं पहुँच सकते.इसी बात को ध्यान में रख कर दो छोटी-छोटी पुस्तकें 'डा आनंद पब्लिक की नजर में' और 'शंका का समाधान' प्रकाशित कराई गई है,जिनमे कार्यकर्ताओं द्वारा डा आनंद से बहुजन शिक्षा से सम्बन्धित की गई बातचीत के अंश हैं.
आँख नहीं, ब्रेन का आपरेशन-  आँखों के विशेषज्ञ होने से हजारों-हजारों लोगों की आँखे ठीक कर वे बहुत बड़ा सामाजिक दायित्व निभा सकते थे,पर डा आनंद कहते हैं- जब मैं प्रोफेशन में था तब मैंने करीब 1000 आँखों के आपरेशन किये.मगर, उन में से एक भी आदमी ने मेरे सामने आकर नहीं कहा कि  डा साहब ! आपने मेरी आँख ठीक कर दी. अब मुझे दिखाई देने लगा है. बल्कि, जैसे ही उस की आँख ठीक हुई,वह मेरे पास आने की बजाय सीधा मंदिर भागा और वहां जा कर बेजान मूर्ति के सामने खड़ा हो कर घंटा बजाने लगा.उसने  हाथ जोड़ कर कहा- हे भगवन ! तेरे कारण मेरी आँख ठीक हो गई. मैंने इस घटना को गंभीरता से लिया. अपने अध्ययन और विश्लेषण में मैंने पाया कि इस व्यक्ति की आँख तो ठीक हो गई है मगर, इसका भेजा (brain ) ठीक नहीं हुआ है.क्योंकि, आदमी का भेजा जैसा होता है, वह वैसा ही कार्य करता है. 
             मैंने भेजे(ब्रेन) का अध्ययन किया. अध्ययन में पाया कि उस के भेजे में ब्राह्मनवादी व्यवस्था भरी है,जो बचपन से ही सामाजिक-संस्कारों के रूप में उसे मिली है.अब जैसे उसे संस्कार मिले थे, वैसा ही उस ने किया. उसे यह बताया ही नहीं जाता कि आँख का आपरेशन डा. ने किया है अत: धन्यवाद उसे डा. का करना चाहिए.इस घटना से मैंने संकल्प लिया कि आइन्दा मैं आँख का आपरेशन नहीं करूंगा. अब मैं दिमाग का आपरेशन करूंगा. और तब से मैंने आँखों के आपरेशन बंद कर दिमाग के आपरेशन करने शुरू किये.
भेजे (ब्रेन) के आपरेशन का  मिशनरी तरीका-  भेजे के आपरेशन का  मिशनरी तरीका बतलाते हुए डा आनंद कहते हैं कि भेजे(ब्रेन) दो तरीके के होते हैं. 1 . बच्चों का भेजा. 2 . बड़ों का भेजा. इन दोनों भेजों में काफी अंतर होता है. बच्चों का भेजा खाली होता है जबकि बड़ों के भेजे में कुछ न कुछ भरा होता है. जब मैंने बड़ों के भेजे को खोल कर देखा तो पाया कि उस में 'गोबर' भरा है.यह देखने पर कि किस का  गोबर भरा है, पता चला 'ब्राह्मणवादी गोबर' है.यह ब्राह्मणवादी गोबर बचपन से भरा जाता है और जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है,गोबर की मात्रा बढ़ती जाती है.इस ब्राह्मणवादी  गोबर ने सारा का सारा खेल बिगाड़ दिया.
          इस गोबर को न तो लोगों ने निकालने की की कोशिश की और न ही यह गोबर निकल पाया. तब, बाबा साहेब आंबेडकर और बुद्ध के मिशन को आगे बढ़ाने वाले आये और उन्होंने इस गोबर के ऊपर सीमेंट की परत लगा दी. अर्थात गोबर तो साफ नहीं किया बल्कि, उसी ब्राह्मणवादी गोबर के ऊपर अम्बेडकरवादी सीमेंट लगा दी. अब आदमी कैसा तैयार हुआ ? अब आदमी ऐसे तैयार हुआ जो ऊपर से तो अम्बेडकरवादी  बना मगर, अन्दर से ब्राह्मणवादी.
              अम्बेडकरी आन्दोलन को चलाने वालों की सबसे बड़ी खामी ये रही कि वे कभी सच्चे अम्बेडकरवादी न हो सके.क्योंकि, अम्बेडकरवादी सीमेंट को जिस पर सैट किया, वह ब्राह्मणवादी गोबर था. इसमें कोई शक नहीं कि ये दोनों एक साथ कभी नहीं चल सकते. और कुछ दूर चल भी जाये तो मंजिल पा नहीं सकते.क्योंकि दोनों विचारधाराएँ एक दूसरे की प्रतिद्वंदी है, ठीक उसी तरह जैसे सीमेंट और गोबर.जैसे कि प्रकृति का नेचर (स्वभाव ) है, कुछ समय बाद अन्दर भरे गोबर ने ऊपर लगे सीमेंट को उखाड़ फेका. और यही वजह है कि न तो कोई पक्का अम्बेडकरवादी बन सका और न ही पक्का ब्राह्मणवादी ही. दूसरे शब्दों में,न तो घोडा बन सका और न ही गधा.वह दोनों का मिला-जुला रूप बन गया अर्थात खच्चर.     
Image may contain: 4 people, people standing            डा. आनंद कहते हैं कि शिक्षा-मिशन के प्रचारार्थ उन्होंने तकरीबन 6,00,000 कि. मी .का सफ़र(यात्रा ) किया और उन्होंने पाया कि इस तरह के अम्बेडकरवादी सीमेंट के ऊपर आप चाहे जितनी मंजिले खड़ी कर ले,अम्बेडकरवाद सफल नहीं हो सकता.क्योंकि, अम्बेडकरवादी सीमेंट के नीचे ब्राह्मणवादी गोबर भरा है. डा. आनंद ने अपने सर्वे में पाया कि 100  परिवारों में 98 परिवार ऐसे हैं,जो खुद को अम्बेडकरवादी कहते हैं किन्तु उनके घरों में दुर्गा, गणपति की पूजा होती है.वे इन देवी-देवताओं के बीच में बाबा साहेब आंबेडकर और भगवान बुद्ध की फोटो भी रखते हैं. अब वे खच्चर नहीं तो क्या है ? - डा. साहब सवाल करते हैं.
           डा आनंद के अनुसार,यह बात नहीं कि ये खच्चर टाईप के लोग उपयोगी नहीं हैं.निश्चित तौर पर उन्हें उपयोगी बनाया जा सकता है. उनके अन्दर का ब्राह्मणवाद निकाला जा सकता है. मगर, इसके लिए उन्हें खुद को तैयार करना होगा.इस बात का एहसास करना होगा कि उन्हें अपने अन्दर का ब्राह्मणवाद निकाल कर फेकना है.मरीज के मानसिक रूप से तैयार होने से सर्जरी आसान होती है.मगर, बड़े भेजे के लोग आसानी से स्वीकार नहीं करते की उन के अन्दर ब्राह्मणवाद भरा है.अब जो स्वीकार ही नहीं करते कि वे बीमार है,उन का भला आपरेशन कैसे किया जा सकता है ? यही कारण है कि बड़ों के दिमाग में परिवर्तन की संभावनाएं कम ही होती है.
      डा आनंद कहते हैं कि परिवर्तन की सारी संभावनाएं सिर्फ बच्चों में होती है.क्योंकि, बच्चों का दिमाग खाली होता है जिस पर हम जो चाहे लिख सकते हैं. जो संस्कार बच्चों को बचपन में मिल जाते हैं, वे न सिर्फ जिंदगी भर बने रहते हैं, वरन आने वाली पीढ़ी के लिए मजबूत आधार का काम करते हैं. अब ये बड़ों को सोचना है कि अगर वे खुद में परिवर्तन नहीं ला सकते तो ये मौका बच्चों को दे ताकि उन में मानवतावादी संस्कार पैदा किये जा सके.
परिवर्तन स्कूलों का देश-व्यापी नेट वर्क-     डा. आनंद कहते हैं कि बच्चों में मानवतावादी संस्कार देने के लिए उनके पास एक कम्प्लीट योजना है. जरुरी है कि बच्चों में शुरू से ही प्रारम्भिक शिक्षा के साथ-साथ मानवतावादी संस्कार मिलने चाहिए. हमारा मानना है कि बच्चों की शिक्षा और संस्कार हेतु हमारी निजी शैक्षणिक संथाएं हो और इसके लिए हम ने 'परिवर्तन मिशन स्कूलों' का एक देश-व्यापी नेट-वर्क स्थापित किया है.हम ने कोर्स निर्धारित किया है तथा एकेडेमिक शिक्षा के साथ-साथ संस्कार देने वाली शिक्षा का इंतजाम किया है.     
राष्ट्रीय शिक्षा नीति बहुजनों के खिलाफ- डा. आनंद कहते हैं कि सरकार जो शिक्षा दे रही है, उससे हम बिलकुल संतुष्ट नहीं है.राष्टीय शिक्षा नीति बहुजन समाज के खिलाफ है. यह बहुजनों के हितों को देखते हुए नहीं बनायीं गई है. बल्कि, इस तरह बनायीं गई है कि बहुजन समाज के लोग शिक्षा प्राप्त कर आगे न बढ़ सके. केंद्र सरकार ने न सिर्फ दोहरी शिक्षा नीति को जन्म दिया बल्कि, ऐसी बहुआयामी शिक्षा नीति तैयार की कि जिसे प्राप्त कर एक वर्ग तो पढ़ लिख कर आगे बढ़ता जाये मगर, दूसरा वर्ग उसे प्राप्त करने से वंचित होता जाये.
 सरकार की दोहरी शिक्षा नीति- सरकार की दोहरी शिक्षा नीति की चर्चा करते हुए डा. साहब कहते हैं की सरकार ने शिक्षा को दो भागों में बांटा-एक तो सरकारी शिक्षा और दूसरी प्राइवेट शिक्षा. आगे चलकर यही शिक्षा नीति बहुआयामी शिक्षा नीति में तब्दील हुई- 
1. सरकारी शिक्षा बनाम प्राइवेट शिक्षा. 
2. ग्रामीण शिक्षा बनाम शहरी शिक्षा.
3. गरीबों की शिक्षा बनाम धनवानों की शिक्षा.
4. अनपढ़ों की शिक्षा बनाम पढ़े-लिखों की शिक्षा. 
           डा. आनंद कहते हैं की शिक्षा से ही समाज का निर्माण होता है. जैसी शिक्षा होती है, समाज का निर्माण भी वैसा ही होता है.सन 1950 में  जब भारत का संविधान लागु हुआ, उस समय एक ही प्रकार की शिक्षा थी और वह सिर्फ शासकीय शिक्षा थी. इसलिए एक ही प्रकार के समाज का निर्माण हो रहा था, कोई ज्यादा झगडे-झंझट नहीं थे.परन्तु आगे चल कर बहु आयामी शिक्षा ने बहुआयामी समाज का निर्माण किया और इस से देश में झगडे पैदा हुए. झगड़ों की जड़ इस देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति है. वही इसके लिए जिम्मेदार है.जो शिक्षा नीति समाज को बांटे,देश में असमानताएं पैदा करे,वह राष्ट्र के हित में कैसे हो सकती है ? वह समाज को जोड़ने का काम कैसे कर सकती है ?
अंग्रेजी का विरोध करने वाले दोगले लोग  -  आपने देखा होगा की कुछ लोग अंग्रेजी का विरोध करते हैं, परन्तु उनके घरों में अंग्रेजी बोली जाती है ! वे अपने घर के कुत्ते तक से बात अंग्रेजी में करते हैं ! उनके बच्चे भारत में नहीं बल्कि, इंग्लैण्ड,अमेरिका,जापान,रूस इत्यादि देशों में पढ़ने जाते हैं ! ऐसे लोगों से मैं पूछना चाहता हूँ कि वे अपने बच्चों को विदेशों में क्यों पढ़ा रहे हैं ? क्या वहां अच्छे किस्म की हिंदी राष्टीय भाषा है ? ऐसे दोगले लोग देश को कहाँ ले जाना चाहते हैं ? देश के मूलनिवासी बहुजन समाज को कहाँ ले जा कर खड़ा करना चाहते हैं ?
मध्याह्न भोजन बहुजन शिक्षा को रोकने का षड्यंत्र-  डा आनंद कहते है की सरकार स्कूलों में मध्यान्ह भोजन देकर बहुजनों की शिक्षा के साथ षड्यंत्र कर रही है. षड्यंत्र का मतलब है, खिलाफ में काम तो किया जाय परन्तु उसका लोगों को अहसास न हो.
        डा. साहब के अनुसार, शिक्षा का यह षड्यंत्र  10 वीं लोकसभा से प्रारंभ हुआ जब केंद्र में पी. व्ही. नरसिंहराव की सरकार थी. इस सरकार ने पहली बार स्कूलों में तीन किलो गेहूं प्रति छात्र प्रति माह देने का प्रस्ताव पास कराया और दलील दी की इससे सरकारी स्कूलों में छात्र-छात्राओं की संख्या में बढ़ोतरी होगी. और हुआ भी यही की छात्र-छात्राओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई. मगर, ये छात्र-छात्राएं कौन थे ? ये थे बहुजन वर्ग के छात्र-छात्राएं. इन्होने तीन किलो गेहूं के लालच में स्कूल में आना तो आरम्भ किया परन्तु स्कूलों में इन के साथ क्या हुआ ? वहां इन्हें शिक्षा नहीं मिली. सरकार ने इन्हें गेहूं तो दिया मगर शिक्षा नहीं दी.
शिक्षा के बदले भिक्षा-   सर्वे बतलाता है की सरकारी स्कूलों में बहुजन समाज के करोड़ों बच्चों को शिक्षा के बदले भिक्षा  देकर अशिक्षित बनाने का कार्य हुआ.स्कूलों में बहुजन समाज के बच्चें इंतजार करते रहते हैं कि कब मध्यान्ह भोजन मिले और छुट्टी हो. इधर, शिक्षक भी पढ़ाना छोड़ भोजन पकाने और वितरित करने में व्यस्त रहते हैं. आप कभी स्कूल जाकर देखिये क्या हाल होता है वहां.प्रत्येक बच्चे के थैले से थाली-कटोरी बाहर निकलती दिखाई देगी. उनके हाथों में भिखारियों की तरह थाली-कटोरी देखने को मिलेगी. प्रत्येक छात्र भिखारी की शक्ल में दिखाई देगा. हमारे पास मध्यान्ह भोजन के कई वीडियो रिकार्ड हैं जिसे देख कर आप भौचक्के रह जायेंगे.
सरकारी सहायता के खिलाफ नहीं-    ऐसा नहीं है कि डा. आनंद, गरीबों के बच्चों को मध्यान्ह भोजन के रूप में सरकार द्वारा दी जा रही सहायता के खिलाफ है. बल्कि, वे उस साजिश के खिलाफ है जिसके तहत सरकार उन्हें अशिक्षित बना रही है. क्योंकि, सरकारी स्कूलों में पढ़ाई न होने से बच्चे आगे बढ़ नहीं पाते और श्रमिक बन कर रह जाते हैं.वास्तव में, सरकार की ये शिक्षा-नीती बहुजन वर्ग को शारीरिक और मानसिक गुलाम बनाती है. और इसी कारण बहुजन वर्ग को सावधान करने के लिए डा.साहब ने नारा दिया है- 'जो शिक्षा सरकारी है, वह बहुजन की वह बीमारी है'. इस तरह डा. साहब बहुजन समाज को तैयार करने में जुटे हुए हैं. वे कहते हैं की जिन्हें उनकी बात समझ आती है , वे इसका विरोध करने के लिए तैयार हो रहे हैं.
       मध्यान्ह भोजन वितरण योजना चलाकर सरकार ने एक ऐसी नींव रखी जिस पर कोई टिकाऊ भवन नहीं बनाया जा सकता.इस से तो लगभग 4 करोड़ बच्चों को प्रतिवर्ष अशिक्षित ही किया जा सकता है ! क्या यह राष्ट्र विरोधी षडयंत्र नहीं है ? यह एक ऐसा विषय है जिस पर हर नागरिक को जिसे देश से लगाव है, सोचना पड़ेगा.
शिक्षा में असमानता ख़त्म हो-   और फिर, मध्यान्ह भोजन का इंतजाम स्कूलों में क्यों होना चाहिए ? जो पैसा सरकार मध्यान्ह भोजन पर स्कूलों में खर्च कर रही है, उस खर्चे को सरकार अभिभावकों को घर पर उपलब्ध कराये.स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता एवं शिक्षकों की नियमितता पर ध्यान होना चाहिए, न की मध्यान्ह भोजन पर.क्योंकि, शिक्षा बढ़ाने का यही तरीका है. सरकारी और प्राइवेट स्कूलों का कोर्स एक होना चाहिए. बल्कि, हम तो यह कहेंगे की  प्राइवेट स्कूलों पर पूरा प्रतिबन्ध होना चाहिए.जब सबको एक जैसी शिक्षा मिलेगी तो समान भागेदारी का मौका सबको मिलेगा.रोजगार के अवसर सबको समान होंगे और देश की शिक्षा में जो असमानता है, वह ख़त्म हो जाएगी.समाज का निर्माण समतामूलक होगा. न कोई छोटा न कोई बड़ा महसूस करेगा.
दोहरी नहीं, एकल शिक्षा नीति की जरुरत है- डा. आनंद कहते हैं की इस देश में दोहरी शिक्षा नीति की नहीं बल्कि,एकल शिक्षा नीति की जरुरत है. एकल शिक्षा नीति ही देश की एकता और अखंडता को अच्छुन्य बनाए रख सकती है.बहुआयामी शिक्षा नीति विध्वंशक शिक्षा नीति है. इससे कई तरह के समाज का निर्माण होगा, जो देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा है. जिन्हें देश से लगाव नहीं है, जो बुनियादी तौर पर भारत में नहीं रहते, वे ही ऐसा विध्वंशक कार्य कर सकते हैं.
राजनीती साधन है, साध्य नहीं-         लोग कहते हैं की राजनीती के बिना कुछ नहीं हो सकता, पर डा. साहब कहते हैं कि राजनीती, मात्र साधन है, साध्य नहीं. दूसरे, राजनीती में स्थायित्व की कमी है. लोकतंत्र में आज, आप कुर्सी पर हो सकते हैं और कल नहीं भी. तीसरे, राजनीती में तोड़-फोड़ है.    
          वास्तव में,समाज के जो भी परिवर्तन हुए हैं, वे समाज-सुधारकों, सूफी-संत/फकीरों की वजह से हुए हैं.इन समाज-सुधारकों ने समाज और देश को दिशा देने का कार्य किया है.वे समाज-परिवर्तन की दिशा में विचारों का एक लम्बा संघर्ष होते हैं. लोग, समाज-सुधारकों की बातों पर गौर करते हैं क्योंकि,वे समसामयिक और तर्क-प्रधान होती है. बुद्ध पैदा हुए और चले गए. मगर, उनके विचार आज भी तरोताजा है.
           समाज- सुधारकों के कारण ही आज, समाज और देश जिन्दा है.डा. साहब कहते हैं, 'मेरा सामाजिक कार्यों और समाज-सुधारमें बड़ा विश्वास है. मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूँ'.
जन-चेतना का कार्य सही दिशा में कम -.   एक प्रश्न के उत्तर में डा. साहब कहते हैं कि हमारे समाज में जन-चेतना तो हुई मगर, सही दिशा में कम हुई. मेरा मानना है कि समाज के लोगों ने हमारे महा-पुरुषों के विचारों को ठीक से नहीं समझा. बाबा साहेब ने एक बार कहा था- 'हम एक दिन में कितना चलते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि, महत्वपूर्ण यह है कि हम एक दिन में कितना सही चलते हैं.' 
          दिक्कत यह है कि लोग जितना समझते हैं, उससे कहीं ज्यादा समझने का भ्रम पाल लेते हैं. जिसके कारण जो भी अच्छा जानने कि सम्भावनाये रहती है, वे समाप्त हो जाती है. अब स्थिति यह है कि सही बात जानने की कोई जरुरत ही नहीं समझता.जिस दिन बाबा साहब के ये अनुयायी समझ जायेंगे कि जो कुछ अब तक जाना है,समझा है; पर्याप्त नहीं है, उन्हें और जानने /समझने की भूख है, उस दिन सही अम्बेडकरवाद आ जायेगा और सब कुछ बदल जायेगा. 
         'सही दिशा में कम' की व्याख्या करते हुए डा. साहब कहते हैं कि लोगों ने 'बुद्धं शरण गच्छामि' रट तो लिया मगर,उस पर अमल नहीं किया. अब, जब पहले ही कदम पर लड़खड़ा गए हैं, तो दूसरे और तीसरे कदम की बात ही अलग है. इसी तरह, शिक्षा के जनक महामना ज्योतिबा फुले ने सन 1848  से 1852 के दौरान  बहुजन समाज के लोगों के लिए 18  विद्यालय स्थापित किये और सलाह दी कि आगे चल कर जो लोग पढ़-लिख कर तैयार होंगे, वे अपनी शिक्षा का इंतजाम खुद करेंगे.मगर, बहुजन समाज के लोगों ने अपनी शिक्षा का मालिक बनने के लिए कोई प्रयास नहीं किया.
शिक्षित बनों नहीं; शिक्षित करो- बाबासाहेब आंबेडकर ने  6  मई  1945 को 'शेदुल्ड कास्ट फेडरेशन' के अधिवेशन में 'सामाजिक गतिरोध और उसके समाधान के उपाय' विषय पर बोलते हुए अपने लोगों को  Educate, Agitate, Oraganise  की देशना की. Educate  जिसे हिंदी में कहेंगे-  ' शिक्षित करो ' अर्थात शिक्षित करने का काम हमे करना है, न की दूसरों पर छोड़ना है. मगर, डा. आनंद कहते हैं कि यहाँ भी दिशा-भ्रम की स्थिति बनी. 
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जाति-विहीन समाज जरुरी-  बाबा साहब आम्बेडकर ने 14  अक्तू. 1956  को नागपुर के विशाल मैदान में बौद्ध धम्म की दीक्षा लेते हुए कहा था कि वे उंच-नीच के जाति आधारित हिन्दू धर्म को त्याग कर समता पर आधारित बुद्ध धम्म की शरण जा रहे हैं. उन्होंने उपस्थित जन-समुदाय से आव्हान  किया कि वे बड़ी मात्र में भगवान् बुद्ध की शरण जा कर जाति-विहीन समाज के स्थापना के लिए कार्य करे. क्योंकि, जाति-विहीन समाज के बिना लोकतन्त्र अधूरा है. मगर, बाबा साहेब के अनुयायी होने का दंभ भरने वाले आज भी उसी जाति को मानते हैं, जिस में उन के बाप-दादा पैदा हुए. 
           वास्तव में, जो जातिवादी है, वे अम्बेडकरवादी हो नहीं सकते. क्योंकि, जाति-पांति की व्यवस्था बाबा साहेब आंबेडकर के मिशन में नहीं है बल्कि, यह व्यवस्था तो ब्राह्मण के दिमाग की उपज है. वर्ण-व्यवस्था की स्थापना ब्राह्मणों ने की और उसके बाद जातियों की उत्पत्ति वर्णों से हुई.इस का मतलब साफ है, जो जातिवादी है;वह ब्राह्मणवादी है. तथा जो ब्राह्मणवादी है, वह आंबेडकर विरोधी है. बाबा साहेब के अनुयायी जब इस बात को समझेंगे, निश्चित रूप से तब वे बुद्धिवादी बनने का प्रयास करेंगे.
आरक्षित-जातियां, जाति-विहीन समाज की स्थापना में बाधक- डा. आनंद कहते हैं कि आरक्षित जातियां जाति-विहीन समाज की स्थापना में बाधक हैं. क्योंकि, आरक्षण का आधार जाति है. बाबा साहेब की सोच थी की कुछ पीढ़ियों के बाद जब आरक्षित जातियां शैक्षणिक और आर्थिक दृष्टी से मजबूत हो जाए, तब आरक्षण को हटा दिया जाना चाहिए.क्योंकि,जब तक आरक्षण रहेगा, जातियों का मिटना ना मुमकिन है.अर्थात, जब तक हमारे लोग आरक्षण लेते रहेंगे, जाति-विहीन समाज की स्थापना असम्भव है. 
            आज, आरक्षित जातियों को इस बात का भय रहता है कि यदि उन्होंने अपने बेटे या बेटी को आरक्षित कोटे से नहीं बैठाया तो उसका चयन ही नहीं हो पायेगा. इस भय के कारण अधिकारी/ कर्मचारी अपने बेटे/बेटियों को आरक्षित कोटे से चयन परीक्षा में बैठाया करते हैं.डा. साहब कहते हैं कि उनके मत से हमारे लोगों को अपने  बच्चो को सामान्य सीट से चयन परीक्षाओं में बैठा कर चयनित होने का मौका देना चाहिए ताकि ग्रामीण अंचल के छात्र-छात्राओं को आगे बढ़ने का मौका मिले और बहुजन समाज की स्थिति में सुधार हो. यही था बाबा साहब का सपना.

 आरक्षण शैक्षणिक-आर्थिक मजबूती तक जरुरी-यद्यपि, जब तक आरक्षण रहेगा, जाति-विहीन समाज की स्थापना असम्भव है तथापि, आरक्षित जातियों का आरक्षण तब तक जरुरी है जब तक ये जातियां शैक्षणिक-आर्थिक दृष्टी से मजबूत न हो जाए. निश्चित रूप में जो सुधार दिख रहा है, वह आरक्षण के बल पर ही दिख रहा है. मगर, हमारे लोगों को मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए कि जब तक वे आरक्षण का लाभ लेते रहेंगे, आंबेडकरवाद का अन्तिम लक्ष्य जाति-विहीन समाज स्थापित नहीं कर पाएंगे.      
जाने, छाने और तब माने-  बुद्ध ने कहा कि किसी बात को इसलिए मत मानों की वह किसी धर्म-ग्रन्थ में लिखी है. किसी बात को इसलिए मत मानों कि वह अनादी काल से चली आ रही है. किसी बात को इसलिए भी मत मानों कि मैंने ऐसी देशना की है. बल्कि, इसलिए मानों कि वह तुम्हारे विवेक की कसौटी पर खरी उतरती है. 
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Saturday, March 5, 2011

Parivartan Mission School:Ambedkarite Education System (part-2)

                        परिवर्तन स्कूलों के संचालक डा. आनंद से मेरा प्रथम  परिचय 
         
               परिवर्तन स्कूलों के संचालक डा. आनंद से मेरा प्रथम  परिचय सन 2001 में हुआ था. उस समय उमरिया जिला  (म.प्र.)के स.गा.ता.वि.केंद्र बिरसिंगपुर में मैं पदस्थ था.वहां तापीय विद्युत् की दो इकाइयाँ (200 x 2 MW ) कार्यशील थी जबकि 500 MW  की एक नवीनतम इकाई अंडर-कंस्ट्रसन में थी. मैं के पावर-हॉउस क्र 1 ( 200 x 2 MW ) में कार्यपालन अभियंता के पद पर पदस्थ था.
           शासकीय सेवा के साथ-साथ कुछ सामाजिक कार्य करते जाना मैं नौकरी का एक हिस्सा मानता हूँ.निश्चित रूप से नौकरी मुझे रिजर्व केटेगरी का होने से मिली.अत: जिस तरह नौकरी कर मैं अपने परिवार का पालन-पोषण करता हूँ ,ठीक इसी तरह उस समाज के प्रति भी मेरा फर्ज बनता है, जिस में मैं पैदा हुआ,पला बढ़ा हूँ. डा.बाबा साहेब आंबेडकर ने अपने समाज के नौकरीपेशा लोगों को जो 'पे बैक टू सोसायटी' का मेसेज दिया,मैं उसका कायल हूँ. निश्चित तौर पर मेरे जैसे लोग, अगर रिजर्व केटेगरी के नहीं होते; नौकरी में नहीं आते. जिस समाज/जाति को आप बिलोंग करते हैं,क्या उसके प्रति आपका फर्ज नहीं है ?अगर माँ-बाप ने पैदा किया,पाला-पोषा है, तो उस समाज का होने के कारण भी तो आपको नौकरी लगी है.जिस तरह आपका परिवार आपकी और देखता है ,समाज भी तो आपको आशा भरी नज़रों से देखता है.और फिर,आप नहीं करेंगे तो कोई दूसरे समाज/जाति का व्यक्ति आपके समाज के लिया कुछ करेगा क्या ? 
             बहरहाल, नौकरी करते-करते कुछ किया जाना है,यह मेरे ध्यान में था.लोग, चाहे जिस बात पर एक मत न हो,धार्मिक मामलों एक हो जाते हैं.इसके दृष्टि-गत मैंने अपने समाज के लोगों के सामने कालोनी में बौद्ध-विहार बनाने का प्रस्ताव रखा.मेरे जेहन में यह बात थी कि अपने समाज के कालोनी में मात्र १०-१५ लोग ही है,तब बौद्ध-विहार बनाने में दिक्कत आ सकती थी.किन्तु, मुझे इस बात का भी भान था की कई जगह दो-तीन लोग ही बस जाते हैं और वहां मंदिर बन जाता है ! खैर,नियत समय पर भंतेजी को बुलाया गया.कालोनी एरिया में जगह की दिक्कत होती है.किन्तु,जगह भी निश्चित हो गई.स्थानीय प्रशासन को लिखा गया की कालोनी में अन्य धर्मों के पूजा-स्थल हैं तो बौद्धों का पूजा-स्थल क्यों नहीं होना चाहिए.स्थानीय प्रशासन ने भी थोडा ना-नुकुर के बाद मस्जिद के बगल में बौद्ध-विहार बनाने की अलिखित हामी भर दी.
       बौद्ध-विहार निर्माणाधीन स्थल को डवलप करने के इरादे से वहां मैंने अशोक के पौधे लगाये.ट्री-गार्ड अरेंज किया बौद्ध-विहार स्थल मेरे क्वार्टर से करीब १०० मीटर की दूरी पर था.मैं रोज सबेरे ५-५ लीटर वाले प्लास्टिक के डिब्बों में क्वार्टर से पानी भर कर ले जाता ओर लगाए गए पौधों को पानी देता. यह मेरा सुबह-शाम का नित्य कर्म था.
        बौद्ध-विहार स्थल के पीछे नाला लिए हुए कुछ उबड-खाबड़ जमीन थी. नाले के किनारे-किनारे उबड-खाबड़ जमीन पर उन मजदूरों के झोपड़-पट्टे थे,जो पावर-हॉउस में मजदूरी करते थे.ये मजदूर आस पास के गाँव-देहातों से काम की तलाश में  आते हैं ओर इस तरह के झोपड़-पट्टे बना कर गुजर-बसर करते हैं.पावर-हॉउस में अनन्य कार्य ठेकेदारों के मार्फ़त कराये जाते हैं.ये मजदूर ठेकेदारों के अंडर में ही काम करते हैं.मजदूर तो ठेकेदारों के अंडर में काम करते हैं किन्तु उनकी औरते ओर बच्चें, कालोनी के क्वार्टरों में झाड़ू-पोछा कर अपने आदमी के दो जून की कमाई में हाथ बटाते हैं.आखिर,ठेकेदार उनको मजदूरी देता कितना है ? जो बच्चें बहुत छोटे हैं वे झोपड़-पट्टों के आस-पास खेलते रहते हैं.बौद्ध-विहार स्थल में लगाये अशोक के पौधों को सुबह-शाम पानी देने के दौरान मेरा सामना इन बच्चों से होता था.मैं उनसे बतियाता, ओर इंटरेक्ट करने की कोशिस करता था. इंटरेक्ट करने के दौरान मालूम हुआ की ये बच्चें स्कूल नहीं जाते हैं,यद्यपि स्कूल जाने की उम्र मैं कईयों की देख रहा था.शाम को इन बच्चों की माताएं जो क्वार्टरों से झाड़ू-पोछा कर लौट रही थी, मैंने जानना चाहा तो बड़ी लाचारी से वे बताने लगी की तब, झाड़ू-पोछा कौन करेगा ? मैं अवाक्-सा उन्हें देखता रह गया. मैं समझ गया की उन में शिक्षा के प्रति सामाजिक-चेतना की कमी है.सरकार ने मुप्त शिक्षा के साथ खिचड़ी-दलिया का  बंदोबस्त तो स्कूलों में कर दिया मगर, उन में शिक्षा के प्रति सामाजिक चेतना नहीं जगा सकी.वर्ना क्या कारण है कि ये बच्चें स्कूल नहीं जा रहे हैं ?
               मैंने इस दिशा में कुछ करनें की ठानी.शाम को मैंने उन बच्चों को आस-पास बैठाल कर कुछ हल्की-फुलकी बातें करना शुरू किया. ऐसा करीब  10-15  दिन तक किया. मुझे लगा की बच्चें घुल-मिल गए हैं. मुझे अंजान नहीं समझ रहे हैं.एक दिन मैंने  40-50  स्लेट-कलम लाया और बच्चों को पकड़ा दिया. मैंने उन से कहा की वे जो चाहे, कलम से स्लेट में बनाये. बच्चों ने आड़ा-टेढ़ा कुछ भी बनाया. मैं काफी देर तक हंसता रहा. मुझे लगा की बात बनेगी. झोपड़-पट्टे के लेबर मेरा ये तमाशा बड़े आश्चर्य से देख रहे थे.उन्हें अजीब-सा लग रहा था कि कालोनी का एक साहब उनके बच्चों को पढ़ाने की कोशिश कर रहा है ! उस झोपड़-पट्टे में एक लेबर अम्बेडकरी-विचारधारा का था.उसका नाम गुलाबसिंह कुशराम था. उसे बड़ा अच्छा लगा. वह मुझ से प्रभावित होने लगा.वह देर तक मेरे साथ बैठता और अम्बेडकरी मिशन की बातें करता. मुझे इससे ज्यादा और क्या चाहिए था ?
                     अगर आपका उद्देश्य पवित्र है ओर साथ में उद्देश्य के प्रति निष्ठा है तो कोई कारण नहीं कि आपको सफलता न मिले.बच्चों को अ आ इ ई और  गिनती पढ़ाना शुरू हो गया.झोपड़- पट्टे के और भी लेबर मेरे कार्य से प्रभावित होने लगे. वे बच्चों को हिदायत देने लगे कि मैं जो पढ़ा रहा हूँ, उसका फायदा उठाए.कम-से कम अक्षर ज्ञान तो हो ही जायेगा. मौसम जब बदलने लगा तो रामस्वरूपसिंह सैयाम नाम के एक लेबर ने अपनी झोपड़ी आफर की बच्चों की क्लास लगाने.रामस्वरुपसिंह सैयामजी कारपेंटर का कार्य  करते थे. कालोनी में छोटे-मोटे कारपेंटरी के कार्य की कमी नहीं होती. यही कारण है की सैयाम की हालत दूसरों की बनिस्पत ठीक थी.
                                  मैंने इसी दौरान झोपड़-पट्टे की जिंदगी को बड़े नजदीक से देखा.इस झोपड़-पट्टे में अधिकांश गोंड, बैगा, रैदास आदि दलित-आदिवासी समाज के लेबर थे जो डिन्डोरी-मंडला क्षेत्र से मजदूरी करने आये थे.
              हमारे यहाँ पावर-हॉउस या इस तरह के प्रोजेक्ट तो लग जाते हैं मगर उन में काम करने के लिए मजदूर इसी तरह गाँव-देहात से आते हैं.पावर-हॉउस में जो स्टाफ  डेपुट किया जाता है, वह लेबर का काम नहीं करता है. स्टाफ, पावर-हॉउस के संचालन-संधारण कार्यों का सुपरविजन करता है.वास्तव में, लेबर का काम तो इन मजदूरों से ठेकेदारों के मार्फत कराया जाता है.मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी में ठेकेदार का हिस्सा होता है.इसी हिस्से से ठेकेदार बिल पास करता है,ठेका पाता है.
                        झोपड़-पट्टे में मजदूर कैसे रहते हैं,उनकी जिंदगी कैसी होती है, इसका नंगा चित्रण फिल्मों ओर कई उपन्यासों में हो चूका है,जिसका हेतु यह लेख नहीं है.
                          खैर, स्कूल चल पड़ा.मगर, इसके साथ ही मेरी परेशानी बढ गई. मुझे आराम बिलकुल ही नहीं मिल पा रहा था.मैंने इसका हल निकाला. गुलाबसिंह कुशराम को बच्चों को सम्भालने के लिए तैयार किया,यद्यपि उस पर मुझे काफी कुछ वर्क करना पड़ा.स्कूल चलता देख बगल के गाँव के आदिवासी समाज की एक समाज सेवी सामने आयी.वह भी बच्चों को सम्भालने लगी. जल्दी ही मैंने रिलाइज किया कि इन गरीबों को मुप्त में एंगेज नहीं किया जा सकता.अत: मैंने उन्हें कुछ पारिश्रमिक देने का बंदोबस्त किया. मेरा यह कार्य कालोनी के आफिसरों की नजरों में आने लगा. वे मुझे निहारते, कुछ ठिठकते ओर चले जाते.धीरे-धीरे मुझे शाबासी मिलने लगी.कुछ मेरे अन्तरंग मित्र फायनेंसियल सपोर्ट की बात करने लगे.
                           अब,बच्चे नियमित आने लगे थे.. कुछ तो आस-पास के गाँव-देहातों से भी आने लगे. बच्चों से फ़ीस नहीं ली जा रही थी.दूसरे, पढ़ाने वाले टीचर उसी झोपड़-पट्टे के थे.बच्चों को टीचर उसी लहजे में समझा रहे थे जिसके की वे अभ्यस्त थे.जल्दी ही मुझे लगा कि स्कूल चल पड़ा है.क्लासेस लगाने के लिए टेम्पररी शेड बनाना होगा. मैंने इस बाबद अपने मित्रों से बात की.जी आई सीट्स की व्यवस्था हो गई.गुलाबसिंह कुशराम को मैंने शेड की आवश्यकता बतलाई . झोपड़-पट्टे के मजदूरों के बीच मीटिंग बुलाई गई.मैंने प्रस्ताव रखा कि जिस तरह वे अपना झोपड़ा बनाते हैं,उसी तरह का शारीरिक सहयोग कर उन्हें स्कूल के लिए एक शेड बनाना है.कुछ ही दिनों में स्कूल का शेड तैयार हो गया.
            इधर, मैं काफी उदिग्न रहने लगा. परेशानी का सबब था, स्कूल के टीचर जो व्यवस्थित नहीं थे. जब तक मैं वहां रहता, व्यवस्था बनी रहती किन्तु जैसे ही मैं वहां से हटता, व्यवस्था गड़बड़ा जाती.मेरी उदिग्नता से पत्नी वाकिफ होने लगी. जल्दी ही उसने इसका हल निकाला.एक दिन जब पावर हॉउस से ड्यूटी कर बौद्ध विहार होते हुए आ रहा था, देखा बौद्ध विहार स्थल पर मेडम बच्चों को पढ़ा रही है ! एक क्लास वन आफिसर की बीबी का मुप्त में झोपड़-पट्टों के बच्चों को पढ़ाना मायने रखता है.मेरी छोटी बिटिया प्रेरणा,जो इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रही थी,जब भी छुट्टी के दिनों में घर आती,कभी अकेले और कभी अपनी मम्मी के साथ बच्चों को पढ़ाने में मदद करती थी.
               स्कूल से सम्बन्धित मेरा चितन जारी था कि इसे किस तरह रेगुलर किया जाये. मेरी सोच थी की इसे किसी सिस्टम से कनेक्ट किया जाये ताकि बेकप के साथ-साथ इसे रिकागनाईजेशन (पहचान ) मिले और अगरचे, मेरा स्थानांतरण हो गया तब भी स्कूल चलता रहे. लिटरेचर खंगालने के दौरान मुझे  'पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी' की याद आयी. मुझे ध्यान था की इसे बाबा साहेब डा. आम्बेडकर ने स्थापित किया था.पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी के तहत महाराष्ट्र में कई स्कूल और कालेज संचालित हैं, यह मेरी जानकारी में था. .मैंने पत्र-व्यवहार किया.पत्रोत्तर में बताया गया कि पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी का कार्य-क्षेत्र सिर्फ महाराष्ट्र है.
                    आर एस एस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मन्दिर स्कूलों के सिस्टम से मैं परिचित था. स्कूलों के इस नेट वर्क को 'विद्या भारती' नामक एक केन्द्रीय संस्था चलाती है.चूँकि, दलित हितों के लिए यह संस्था कार्यरत नहीं है इसलिए मैं इससे जुडाव महसूस नहीं करता. बल्कि, दलित हितों को कुचलने का इन स्कूलों में पाठ पढाया जाता है.तो भी आर एस एस द्वारा संचालित इस नेट वर्क से मैं खासा प्रभावित हूँ कि कैसे वे एक लम्बी प्लानिंग के तहत सुनोयाजित ढंग से हिन्दू-सांस्कृतिक मूल्यों का पाठ बच्चों को शुरू से पढ़ाते हैं.क्रिचियनों का अपना नेट वर्क है. मुस्लिमों में मदरसों का नेट वर्क है. गुरुद्वारों में सिक्ख  अपने स्कूल संचालित करते हैं.तब,दलित और आदिवासी भी तो एक सेपरेट आईडेनटीटी है, पृथक इथनिक ग्रुप है.तब इनके शिक्षा का पृथक नेट वर्क क्यों नहीं है ? मैं सतत इस उधेड़-बुन में रहता. 
                  शासकीय सेवा के दौरान समय निकाल कर मैं उन कार्यक्रमों,अधिवेशनों में में जाने का प्रयास करता जिनका सम्बन्ध दलित-आदिवासियों के उत्थान से रहता. इसी तारतम्य में मुझे दतिया (म.प्र.) जाने का अवसर मिला. वहां पर बुद्धिस्ट सोसायटी आफ इण्डिया के प्रांतीय अध्यक्ष माखनलाल मौर्य ने प्रांतीय कार्य-कारिणी के सदस्यों की मीटिंग काल की थी.मैं बतौर प्रांतीय सदस्य शरीक हुआ था.मीटिंग स्थल के पास ही एक स्कूल था जिस में बच्चें सुबह की प्रेयर कर रहे थे- 
           जय भीम शोषितों के जन नायक,नमन तुम्हारा करते हैं 
         हम  रहे  सदा  अज्ञान  युगों  से, दुःख  की  आहे  भरते  हैं
         तुम जगे जगाया हम सबको, नव ज्योति मिली इस जीवन को 
         हे  युग नायक,  हे जन नायक, ये  जोश  दिया  जर जर तन को  
        उपदेश तुम्ही ने दिया हम को,मानव मानव सब एक किये 
        अज्ञान,  अविद्या,  ढोंग,  रुढ़,  पाखंड,   अँधेरा  दूर  किये .जय भीम शोषितों के जन नायक.....
                संस्कार और विचारों से बुद्धिस्ट-आम्बेद्कराईट होने से मुझे अच्छा लगा. मीटिंग के बाद मैंने दरयाफ्त की. मुझे बताया गया कि यह परिवर्तन मिशन स्कूल है. इन स्कूलों में पढाई का पेटर्न भिन्न है. यहाँ पर ए सी 1 / ए सी 2 में बच्चों को  A for Ambedkar, B for Buddha  पढाया जाता है. मुझे बताया गया कि वहां पर  5th  तक स्कूल है.  मैंने पूछा की क्या और भी इस तरह के स्कूल हैं ? स्कूल के टीचर ने बतलाया की डा. आनंद इस तरह के स्कूल देश भर में संचालित करते हैं.वर्तमान में ये स्कूल, मिडिल और हाई स्कूल स्तर तक संचालित हो रहें हैं.मैंने आवश्यक बातें नोट की. पढाई जाने वाली पाढ्य पुस्तक की एक प्रति मांगने पर बड़े अनुनय-विनय के बाद टीचर ने उपलब्ध कराई. 
             दतिया से लौटते से ही मैंने डा आनंद से पत्र-व्यव्हार किया. मगर डा साहब से मुझे कोई पत्रोत्तर नहीं मिला. मेरे सतत ३-४ पत्रों के बाद अंतत: डा साहब ने मुझे रिप्लाय किया. डा साहब ने लिखा की वे मेरे कार्य के प्रति गम्भीरता को परख रहे थे.विचारों के आदान-प्रदान का  सिलसिला जारी रहा और अंतत: डा साहब ने अपने परिवर्तन मिशन स्कूलों के नेट वर्क से एफ़ीलेशन हेतु आवश्यक औपचारिकताएँ पूर्ण करने के निर्देश दिए.
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Thursday, March 3, 2011

धार्मिक ग्रंथों के विवादास्पद प्रसंगों में फेर-बदल अपरिहार्य


             एक दिन मित्र का संदेश आया कि उनके यहाँ 'मानस' का पाठ है और  मैं उस में सादर आमंत्रित हूँ.यूँ मुझे तरह के कार्यक्रम बिलकुल नहीं भाते .पता नहीं क्यों आनंद नहीं आता.
            यह बात नहीं की धार्मिक पुस्तकें मुझे कतई पसंद नहीं है. ये पुस्तकें मैं पढता हूँ मगर, वैसे नहीं पढता जैसे अन्य पढ़ते हैं.लोगों के घरों में मानस का पाठ मैंने देखा है. स्त्री-पुरुष बाल-बच्चे सब मिल कर बड़े भक्ति-भाव से पढ़ते हैं.मुझे नहीं मालूम कि वे समझते भी हैं या नहीं.अच्छे-अच्छों को मैंने मानस पाठ करते देखा है,बुजुर्ग से लेकर पढ़े-लिखे नव-जवान लोगों तक
                   बहरहाल,मुझे न्योता मिला.मित्र जानता था मेरी फितरत को. तब भी उसने न्योता दिया.मैंने भी जाने की ठानी.देखा, मित्र के यहाँ आठ-दस साथी मानस-पाठ कर रहे हैं. मैं जाकर बैठ गया.दरी बिछी थी.तबले पर संगत दी जा रही थी. तीन साथियों के सामने मानस खुली हुई थी.अगरबत्ती जल रही थी.कुछ महिलाएं खुले बाल रखे थी.वे नत-मस्तक हो मानस-गायन का रस्वादन कर रही थी.कुछ साथी ताड़-मंजीरा से सुर मिला रहे थे.मित्र ने हाथ जोड़ स्वागत करते हुए बैठने का इशारा किया था.मैं मुस्कुरा कर एक तरफ बैठ गया.मित्र ने हाथ पकड कर बीच में बैठाया और मानस की एक प्रति मुझे पकड़ा दी.मैं अन्दर-अन्दर न नुकर करता हुआ ले लिया. मुझे गायन में सह-भागी होना था.मैं शुरू हो गया.जिस सुर में गायन हो रहा था उस में मुझे अपना सुर मिलाना था.
                       संयोग से मानस गायन समाप्ति के दौर था.मैंने जैसे-तैसे साथ दिया.पाठ समाप्त हुआ.प्रसाद वितरित की गई.मित्र मेरा हाल-चाल पूछने लगे.मैंने कहा,चौपाई-दोहे के साथ-साथ हिंदी अनुवाद भी पढ़ते जाते तो बेहतर होता .मित्र ने समझाया कि चौपाई-दोहे इतने सरल भाषा में है कि उनका अनुवाद पढने की आवश्यकता नहीं रह जाती.मैंने कहा, काश ! ऐसा होता.मित्र मुझे निहारने लगा.वह कोशिश करने लगा की मैं क्या कहना चाहता हूँ. 
           यूँ यह बात नहीं कि लोग हिंदी अनुवाद नहीं जानते. जानते हैं. मगर, सोचते नहीं की क्या पढ़ रहे है.जो कुछ पढ़ रहे है, उसका मतलब क्या है ?उसका क्या उपदेश है ? मानस में ऐसे बहुतेरे प्रसंग है जो नारी और दलित-पिछड़ी जातियों का घोर अपमान करते हैं.वहीँ, मुर्ख और पाखंडी ब्राह्मणों को भी पूजनीय करार देते हैं.
           यहाँ मैं सिर्फ मानस की ही बात नहीं कर रहा हूँ .अन्य धर्मों के पुस्तकें भी अछूती नहीं हैं.बौद्ध,जैन सिख धर्मों की पुस्तकों में कई ऐसे प्रसंग है जिन्हें पुनरलेखन की जरुरत है.आखिर धार्मिक पुस्तकों के विवादास्पद प्रसंग क्यों दुरुस्त नहीं किये जाने चाहिए ? धार्मिक पुस्तकों के अंदर फेर-बदल तो हुआ है. ऐसे ढेरों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं जिन में फेर-बदल हुआ है.वाल्मीकि रामायण ईसा पूर्व लिखी गई. किन्तु बाद के 17  वी सदी में लिखी गई रामचरित मानस में तुलसीदासजी ने वाल्मीकि रामायण के कई प्रसंग या तो छोड़ दिए या उन में बदलाव किया हैं. Buddha and His Dhamma  जो बुद्धिज्म पर प्रमाणिक ग्रन्थ है,में डा आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म के कई प्रसंगों को या तो छोड़ दिया है या बदलाव किया है.         
          बेशक, धार्मिक पुस्तकें पढ़ी जानी चाहिए.क्योंकि संस्कृति और नैतिकता का पाठ यही ग्रन्थ पढ़ाते हैं.धार्मिक ग्रन्थ हमारी आस्था के विषय हैं.मगर, बदलते परिवेश में अप्रासंगिक हो चुके प्रसंगों में परिवर्तन अपरिहार्य है. अन्यथा वे मजाक का सबब  बनते हैं.
            धार्मिक-ग्रंथों के ऐसे प्रसंगों पर जो अब अप्रासंगिक हो चुके हैं, बड़े-बड़े समाज-सुधारकों द्वारा छींटा-कशी की जाती रही हैं, मगर, किसी भी धर्म के बौद्धिक वर्ग ने अब तक पहल नहीं की है.तर्क और बुद्धि पर आस्था की  जीत होती रही है. आस्था ठीक कही जा सकती है, जब तक की वह तर्क और बुद्धि की कसौटी पर खरी हो.मगर तर्क और बुद्धि से परे आस्था को किस तरह जायज ठहराया जा सकता है ?
         आये दिनों संत-महात्माओं के बड़े-बड़े दरबार लगते हैं. इन में बड़ी मात्रा में महिलाएं शामिल होती है. सती प्रसग में जब 'नारी सुभाऊ'  पर महात्माजी प्रवचन करते है तो  नारी सहज जड़ जन्य  चौपाई को ऐ महिलाएं भी उसी रौ में दोहराती है.महात्माजी और सामने बैठा पुरुष समाज तो ठीक है किन्तु नारी समाज के लिए यह प्रसंग कौन-सा आदर्श और नैतिकता  प्रस्तुत करते हैं, बहस का विषय है.
             आचरण और विचारों से मैं बुद्धिस्ट हूँ.स्नान करने के बाद अगरबत्ती मैं भी लगता हूँ. अपने पूजा-स्थल में मैंने अपने सास-ससुर और माँ-बाप के फोटो रखे हैं. मैं नित्य उन्हें स्मरण कर नमन करता हूँ.मैंने ऐसे किसी देवी-देवता के फोटो नहीं रखे हैं,जिन्हें प्रत्यक्ष नहीं जानता.मैं भगवान् बुद्ध और डा बाबा साहेब आम्बेडकर की पूजा करता हूँ मगर, वैसी नहीं जैसे बजरंग बलि या माँ काली को पूजा जाता है.भगवान् बुद्ध को पुष्प अर्पित कर मैं इस बात को दोहराता हूँ कि जिस तरह डा आम्बेडकर ने आपकी देशना को समाज के कल्याण के लिए सीढ़ी बनाया, मैं भी उस पथ पर चलने का यत्न करूँगा.
         धार्मिक-ग्रंथों के असंगत प्रसंगों से समाज में बड़े दुष्परिणाम हो रहे हैं. हमारी महिलाएं लाख पढ़ी-लिखी हो, उनके विरुद्ध पुरुष वर्ग इन प्रसंगों का अपने सोहलियत के हिसाब से उपयोग करने से नहीं हीचकिचाता.आज, उच्च शिक्षा के कारण कुछ महिलाएं कार्पोरेट जगत में आने लगी हैं मगर,उनके सामाजिक शोषण में कहीं फर्क नहीं आया है. निश्चित रूप से उनके सामाजिक शोषण के पीछे हमारी दूषित नैतिकता जिम्मेदार है. और दूषित नैतिकता के जिम्मेदार हैं ,हमारे धर्म-ग्रन्थ. पण्डे-पुजारी लगातार अंध-विश्वास फैला  रहे हैं. टी वी और अन्य प्रचार माध्यम इसे लगातार बढ़ावा दे रहें हैं. 
               ये ठीक है की शिक्षा से आँखे खुलती हैं मगर,स्कूल और कालेजों में भी तो यही पढाया जाता है. सांस्कृतिक विरासत के नाम पर हम यही तो पढ़ाते हैं.देश का संविधान शिक्षा में वैज्ञानिक सोच के निर्माण किये जाने की बात करता है. मगर क्या ऐसा हो रहा है ? यथा-स्थितिवादी ताकतें निहित स्वार्थ-वश इन अतार्किक और अप्रासंगिक प्रसंगों को हटाने/बदलाव करने में हठ-धर्मिता दिखाती है. और अफ़सोस तो यह भी है कि शिक्षा के नीति-निर्धारकों की कुर्सी पर ये ही लोग बैठे हैं.                       

The Indian Tribes have to search their root

             In 1947,during the transfer of power,prominent indian leaders having their claims were going to made agreement.At this time, Gandhiji had signed 9 points agreement with Indian trible's leaders.As per this agreement, Gandhiji assured them that they are the original inhabitant of this country. Now, what's the status of this. Are they feeling the such status ?      
          The year 1993 was declared the international year of indigenous people.Debosis Chakravarti, a Indian representative told to UN that India has no such  indigenous people !
           During the 2nd round table conference,Dr Ambedkar had raised the issue and provision made in 5th & 6th schedule of Indian consitution about seperate and independed statehood  for tribes.Are these tribes feeling such statehood ? Or, is there any mischief with these tribes ? Where is the root of these tribes ?
           
           Every society have history.History have leaders who faught their cause.This history inspires people.People learn lesson from their history.They feel proud and cite these leaders while on talking. Is there such history of Tribes ? What is the history of Tribes ? Who are their leaders ?
           As known to every one, Eklavya is projected as the hero of Tribes.But, whether Eklavya is the hero of Tribes ? How he inspire to hisTribe's people ?
              History is not written by these tribes historians.It is fact that history is written by non-tribes historians.It is writen by different people in different period.It is not necessary that all written episodes/happenings are correct.The historical episodes require attention with respect to other related facts.That is why, History should not be read blindly.
            The second point is that history is written by different people having their own knowledge.The history always reflect the mind-set of writer.If writer is British,definitely his mind-set would be British coloniser verses defeated Indian.If writer is Hindu (Brihmn),his mind-set would not be free with caste supremacy.Even the history written by British historian is full of mischiefs what supplied by high caste Brahmin hindu.
             History has not written by Tribes people.It was written either by British people or Brahmin hindu.The mind-set of Brahmin hindu is well known towards indigenous people i.e.Dalit-aadivasi.In his cause, he can go to write that the Brahmins are so sacred that even god Rama has washed their feet.
           Brahmin historians never be generous to Dalit and Adivasi.The theme behind this, is to rule over these societies for long. And for this, they have to destroy the history & identities of these indigenous people.Generate hatred among them towards their leaders & history.Project their hero as their slaves.
               Eklavya,as we know the projected episode,has given his thumb to Brahmin guru.Indeed,he is a defeated man.How can a defeated man be a hero of Tribes? But, this is true.This is the concipiracy by which Brahmin ruled over indigenous people.In their religious scriptures (Puran and shashtra), they given Parvati to trible leader Shankara and enslaved him.They used the same trick to Vrattasura and all other indigenous leaders.
             In the 11th century,the first trible king was Sangramsingh in Jabalpur-Mandla region.Dalpatshah was his son. Dalpatshah was married with Durgavati.Dalpatshah died just after three years of his marriage.Brahmin play the same trick with Rani Durgavati. She surrendered her trible identity and became hindu Vaishnav Dharmi.Since then,tribles are going to search their root.
             Today,Baba Amte identified these tribles as Vanvasis.So many Asharam schools are being run to teach them that they are Vaishnav dharmi.Are tribe's intelectuals listening ?