Saturday, December 30, 2017

मिलिंद पञ्ह में ‘पूर्व-जन्म के कर्म’

6.‘‘भन्ते नागसेन, को पटिसन्दहति?’’ राजा आह।
‘‘भन्ते नागसेन, कौन पुनर्मिलन करता है?’’
‘‘नामरूपं महाराज, पटिसन्दहति।’’ थेरो आह।
‘‘महाराज! नाम और रूप पुनर्मिलन करता है।’’
‘‘किं इमं येव नामरूपं पटिसन्दहति?’’
‘‘क्या यही नाम और रूप पुनर्मिलन करता है?’’

‘‘न खो महाराज, इमं येव नामरूपं न पटिसन्दहति।’’
‘‘ नहीं महाराज, यही नाम और रूप पुनर्मिलन नहीं करता।’’

‘‘इमिना पन, महाराज, नामरूपेन कम्मं करोति सोभनं वा पापकं वा, तेन कम्मेन अञ्ञेन नामरूपं पटिसन्दहति।’’ ‘‘
किन्तु महाराज, इस नाम और रूप से कर्म करता है; पुण्य या पाप,  उस कर्म से दूसरा नाम और रूप पुनर्मिलन करता है।’’

‘‘यदि भन्ते, न इमं येव नामरूपं पटिसन्दहति, ननु सो मुत्तो भविस्सति पापकेहि कम्मेहि।’’
‘‘यदि भन्ते! यही नाम और रूप पुनर्मिलन नहीं करता, तो निश्चय ही वह पाप-कर्मोंसे मुक्त होगा ?’’

‘‘यदि न पटिसन्दहेय्य, मुत्तो भवेय्य पापकेहि कम्मेही। यस्मा च खो महाराज, पटिसन्दहति, तस्मा न मुत्तो पापकेहि कम्मेहि।’’
‘‘यदि पुनर्मिलन न हो, तो मुक्त हो पाप कर्मों से। जब तक पुनर्मिलन होता है, तब तक पाप-कर्मों से मुक्ति नहीं।’’

'पुनर्मिलन' के प्रश्न की विवेचना करते हुए, बाबासाहब डा. अम्बेडकर अपने कालजयी ग्रन्थ 'बुद्धा एंड धम्मा' में लिखते हैं- अच्छा हो, इस प्रश्न को दो हिस्सों में बाँट लिया जाए।  1. किस चीज का जन्म ? 2. किस व्यक्ति का जन्म ?

बुद्ध के अनुसार चार भौतिक पदार्थ हैं, चार महाभूत हैं जिससे शरीर बना है- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु। प्रश्न है जब शरीर का मरण होता है तो इन चार महाभूतों का क्या होता है ? बुद्ध ने कहा कि आकाश में जो भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप से विद्यमान हैं, वे उनमे मिल जाते हैं। इस विद्यमान तैरती हुई राशि में से जब इन चार महा भूतों का पुनर्मिलन होता है, तो पुनर्जन्म होता है।
इन भौतिक पदार्थों के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे उसी शरीर के हो जिसका मरण हो चुका है।  वे नाना मृत -शरीरों के भौतिक अंश हो सकते हैं। यह बात ध्यान देने की है कि शरीर का मरण होता है लेकिन भौतिक पदार्थ बने रहते हैं। बुद्ध इसी प्रकार के पुनर्जन्म को मानते थे(भगवान बुद्ध और उनका धम्म : खंड 4 भाग 2 )।

अब प्रश्न के दूसरे भाग को लें। किस व्यक्ति का जन्म ? इसके के लिए, पहले हम देखें कि व्यक्ति के मरने पर क्या होता है ? दरअसल, व्यक्ति के मरने का अर्थ  शरीर में शक्ति/उर्जा  का नव-निर्माण रुक जाना है और दूसरे, शक्ति का शरीर से निकल कर विश्व में संचरण कर रही अनंत शक्ति-पुंज में मिल जाना है ।
 

 दो स्कंधों का मिलन है- नाम और रूप स्कन्ध । पृथ्वी, आप, तेज, वायु चार महाभूतों का मिलन 'रूप' स्कंध  है।  वेदना,  सञ्ञा, संखार, विञ्ञान का मिलन 'नाम' स्कंध  है। वेदना नाम अनुभूति है, यथा सुख-दुक्खादि वेदना । घर, पेड़, गावं आदि विषयक कल्पनाओं को सञ्ञा कहते हैं। स्मृति में अंकित भिन्न-भिन्न अनुभवों को संखार कहते हैं। इन्हीं अनुभवों के आधार पर हमें कुछ पदार्थों में रूचि होती है और कुछ पदार्थों में अरुचि । विञ्ञान का  अर्थ है- जानना। यथा आँख से पेड़ को देख कर हम जानते हैं कि यह पेड़ है, कान से शब्द को सुन कर हम जानते हैं कि कोई कुछ कह रहा है। मोटे तौर पर वेदना, संज्ञा, संखार-  रूप के संपर्क से विज्ञान की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हैं(महा वेदल्ल सुत्त : म. नि. 1-5-3)।


 मिलिन्द-पञ्ह के उक्त ‘कर्म’ के ब्राह्मणी-सिद्धांत को बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपने कालजयी ग्रंथ ‘बुद्धा एॅण्ड धम्मा’ में यह कहते हुए नकार दिया है कि‘‘बुद्ध के कर्म का सिद्धांत का संबंध मात्र ‘कर्म’ से था और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से।’’(देखें- दूसरा भागः चतुर्थ काण्ड, कर्मः 2/3, पृ. 269)
प्रस्तुति- अ. ला. ऊके

Friday, December 29, 2017

सील

सील(शील) का अर्थ है, सदाचार। सील का अर्थ है, उच्च नैतिक आचरण। एक उपासक अथवा सामणेर के लिए सील सामान्यतः ‘निदेशक-तत्व’ होते हैं जबकि भिक्खु अथवा भिक्खुनी के लिए वे ‘नियम’ होते हैं। वह उन्हें तोड़ नहीं सकता अन्यथा संबंधित अपराध के दंड का भागी होता है। एक व्यक्ति सील पर प्रतिष्ठित हो, एक अच्छा व्यक्ति बन सकता है।

सील, जीवन जीने का मापदण्ड हैं। सवाल है, जीवन जीने का मापदण्ड क्यों होना चाहिए? इसलिए कि व्यक्ति जान सकें कि कितने मापदण्डों पर वह खरा है। और यही वह सोपान है, जहां धम्म की आवश्यकता होती है। अगर धम्म न हो तो एक गृहस्थ को अथवा भिक्खु को कैसे पता चले कि समाज/संघ में रहने के लिए उसे कैसे रहना चाहिए? किन मापदण्डों का पालन करना है?

सील मापदण्ड है, सामाजिक अथवा संघ के प्रत्येक सदस्य की सहभागिता का। अगर आप अकेले किसी निर्जन स्थान में रहते हैं, तो इस तरह के किसी मापदण्ड की आवश्यकता नहीं।

बौद्ध समाज में अलग-अलग वर्ग के लिए अलग-अलग मापदण्ड है- 1. गृहस्थों के लिए- पंचसील। खास अवसरों यथा अष्टमी, पूर्णिमा पर अष्टसील। सामणेरों के लिए दस सील और भिक्खु तथा भिक्खुणियों के लिए क्रमश: 227/322 सील बतलाएं गए हैं।

भिक्खु और भिक्खुणियों के सीलों को विनय में ‘पातिमोक्ख’ कहते हैं।
जीवहिंसा से विरत रहना, वेरमणी सील है। किन्तु यह मात्र निषेधात्मक नहीं है। इसका विधिपक्ष भी है। प्राणी मात्र के प्रति करुणा इसका विधायक पक्ष है। थेरवादी परम्परा में इसके निषेध पर, विरति पर अधिक जोर है। वहीं, महायान परम्परा में इसके विधायक पक्ष पर, करुणा पर जोर है।
प्रस्तुति- अ. ला. ऊके 

Tuesday, December 19, 2017

पालि की यह दुर्दशा क्यों?

पालि की यह दुर्दशा क्यों?
1. ‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर का कालजयी है। यह शोध ग्रंथ है, जिसकी परम्परागत बौद्ध देशों में आलोचना भी हुई थी, किन्तु चहुं ओर अभिनन्दन भी हुआ था। चूंकि यह शोध ग्रंथ है और बुद्ध और उनके धम्म के नए-नए आयाम खोलता है, सद्धम्म को मानवता के लिए अनिवार्य सिद्ध करता है, अतयव जो लोग भाग्य, भगवान और कर्म को पुनर्जन्म से जोड़कर देखने के अभ्यस्त है, ऐसे परजीवियों को भला यह कैसे स्वीकार्य हो सकता था?
‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ को बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर ने पालि और अंग्रेजी भाषा के अनेको ग्रंथ अध्ययन कर लिखा था। बाबासाहेब पालि भाषा के अनुत्तर विद्वान थे। वृहत् ‘पालि शब्द कोस’ इसका गवाह है। और यही कारण है कि पालि और संस्कृत के स्वनामधन्य पंडितों को धता बता कर दुनिया को वे दिखा सके कि ‘सद्धम्म’ कैसा है। बुद्ध की देसना में क्या है, क्या नहीं है। यहां तक कि उन्होंने कौन-सा प्रसंग कहां से लिया गया है, बतलाना भी गैर जरूरी समझा। यह तो भदन्त आनन्द कौसल्यायन थे जिन्होंने बाद के अपने अनुवाद में इस पर काम किया। सवाल है कि क्या इसी तरह के शोध-ग्रंथ और नहीं आना चाहिए?
इस समय ति-पिटकाधीन अनेको ग्रंथ हिंन्दी और अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं, तथापि अनेको ग्रंथ आज भी पालि अथवा पालि मिश्रित संस्कृत में अटके पड़े हैं। इन्हें हिन्दी में अनुदित करने की महत्ती आवश्यकता है। बिना पालि जाने यह किस तरह संभव है? अगर हम अपने बच्चों को पालि पढ़ाएंगे नहीं तो यह काम कौन करेगा? आखिर, प्रसिद्ध ऐतिहासिक बौद्ध-ग्रंथ ‘महावंस’ के अनुवादक स्वामी द्वारकादास शास्त्री जैसे ब्राहमण विद्वानों के भरोसे हम कब तक बैठे रहेंगे? विश्वविद्यालयों में, नाम के लिए ही सही, स्थापित बौद्ध विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर रमाशंकर त्रिपाठी जैसे संस्कृत प्रोफेसर कब तक बैठे रहेंगे? हमें जातीय तौर इन ब्राह्मण विद्वानों से कोई शिकायत नहीं है, किन्तु बौद्ध विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर पालि-भाषा का प्रोफेसर क्यों नहीं होना चाहिए?
जहां तक हमें ज्ञात है, पालि भाषा के प्रोफेसर डॉ. विमलकीर्ति हैं, जिन्होंने ‘सद्धम्मपुण्डरिक’ जैसे कई महत्वपूर्ण बौद्ध-ग्रंथों का अनुवाद किया है। किन्तु देश में ऐसे कितने पालि के प्रोफेसर बौद्ध-ग्रंथों पर शोध कर रहे हैं और करा रहे हैं? प्रथम तो स्कूल-कॉलेजों में पालि पढ़ाई नहीं जाती। और अगर कोई जैसे- तैसे पढ़ ले तो शोध के लिए उसे कोई गॉइड नहीं मिलता। उसे कहा जाता है कि बेहतर है वह संस्कृत में पी. एच. डी. कर लें! संस्कृत में नहीं तो नागरी में गीता अथवा मानस पर कर लें?

2. बुद्ध, उनका धम्म और पालि के प्रति वैमनश्यता के चलते स्कूल और कॉलेजों में पालि पढ़ायी नहीं जाती। संस्कृत को बिना जनता की मांग के स्कूल और कालेजों में जबरन पढ़ाया जाता है। महानगरों से लेकर दूरस्थ स्थानों में महाविद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय खोले जाते हैं। टीवी से लेकर प्रचार मिडिया तक इस मद में अरबों रूपया खर्च किया जाता है। किन्तु पालि-ग्रंथ, जो एकमात्र स्रोत है, भारत के इतिहास को बतलाने वाले, के अनुवाद और प्रसार पर घोर उदासीनता बरती जाती है। इसके विपरित, यूपीएसी में  किसी तरह चल रही ‘पालि भाषा’ को हटा दिया जाता है!
सवाल है, पालि के प्रति सरकार के भेदभाव पूर्ण रवैये के चलते हमारे बच्चों को पालि कौन पढ़ाएगा? रोजी-रोटी की समस्या से हमारे उन लोगों को, जो इस दिशा में कुछ कर सकते हैं, फुर्सत नहीं है। जो रोजी-रोटी से ऊबर चुके हैं, उनका मुंह सरकार ने विभिन्न सुविधाएं देकर बंद करा दिया है। सवाल है, हमारे युवा पालि पढ़ेंगे कैसे? उन पर शोध करेंगे कैसे?

3. हम बाबासाहेब को नमन करते हैं, उनके कृत्यों को स्मरण करते हैं, किन्तु ‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ जैसे शोध ग्रंथ प्रकाशित हो, ति-पिटक ग्रंथों के नए-नए आयाम खुले, इस दिशा में हम मौन है! हम तो हम, हमारे भिक्खु-गण भी विनय पिटक में दिए गए  दैनिक जीवनचर्या के निर्देशों के आगे कुछ नहीं देखते। क्या बुद्ध की देसना ति-रतन वन्दन और पंचशील तक ही सीमित है ? हम यह क्यों नहीं देखते कि अश्वघोष, नागसेन, नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु, बुद्धघोष, कुमारजीव, दिग्गनाग, धम्मकीर्ति, शांतिदेव जैसे दार्शनिक परवर्तितकाल में बौद्ध दर्शन का विकास कर दर्शन-शास्त्र का कितना बड़ा किला बाद की सदियों में खड़ा कर सके ? अगर तक्षसीला, नालन्दा, ओदन्तपुरी, वल्लभि, विक्रमसीला, जगद्दल जैसे विश्व प्रसिद्ध बौद्ध विश्वविद्यालय उस काल में नहीं होते तो क्या ऐसा संभव था?
अठारवीं और उन्नसीसवीं सदी में पूर्व और पश्चिमी देशो में जिस विज्ञानवादी दर्शन का विकास हुआ, उस पर बौद्ध दार्शनिक असंग, वसुबन्धु और दिग्गनाग ने चौथी-पांचवी सदी में जबरदस्त काम किया था। सनद रहे, दूसरी सदी के दौर में ही बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के शून्यवाद ने ‘पदार्थ’ को पहली बार परिभाषित किया। क्या यह विश्व को बौद्ध दार्शनिको की अभिनव देन नहीं है? यही कारण है कि पश्चिम के दार्शनिकों ने छटवीं सदी के बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति को ‘कान्ट’ की संज्ञा दी। आखिर, आज ऐसे बौद्ध दार्शनिक पैदा क्यों नहीं हो रहे हैं?
चौथी सदी प्रारम्भ में बुद्धघोष ने सिंहलद्वीप जाकर पालि-ग्रंथों पर जो अट्ठकथाएं लिखी, उन अट्ठकथाओं पर अट्ठकथाएं अब और क्यों नहीं लिखी जा रही है? अगर मानस पर हजार-हजार शोध ग्रंथ लिखे जा रहें हैं तो पालि-ग्रंथ क्यों अछूत हैं?
स्पष्ट, है, पालि भाषा के पठन-पाठन की महत्ती आवश्यकता है। ति-पिटकाधीन ग्रंथों पर कितना ही शोध होना बाकि है। ललितविस्तर जैसे आज भी कई ग्रंथ हैं, जिनके लेखकों का पता नहीं हैं। इसकी खोज कौन करेगा? बिना पालि पढ़े क्या यह संभव है?

4. भारत सरकार के अनुसार पालि ‘मृत-भाषा है! जबकि  संस्कृत और हिन्दी की तरह इसकी ‘नागरी लिपि’ ही है। सवाल है, कि आखिर इसे जीवित कौन करेगा? आज, हमारे आदिवासी भाइयों ने गोन्डी भाषा को पुनः जीवित कर ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया है। एक अच्छी बात उनके साथ यह थी कि वे अपने घरों में इसे बोल रहे थे। उन्होंने इसे अपनी ‘भाषा-संस्कृति’ के रूप में सहज कर रखा था। दूसरी ओर, पालि जो हमारी भाषा-संस्कृति’ है, धम्म-विरासत है, को हमने ‘वैदिक-संस्कृति’ के झांसे में आकर विस्मृत कर दिया।

5. इसी प्रकार हिमालयीन अंचल के क्षेत्र तिब्बत, भूटान, सिक्किम हो, अथवा आसाम, लद्दाख, अरुणाचल, यद्यपि वहां भिन्न-भिन्न बोलियां बोली जाती हैं किन्तु लिपि, ध्वनि, अर्थ में उनकी ‘धर्म-भाषा’ एक है और वह है- भोट भाषा।  परम्परागत बौद्ध आज भी ‘भोट भाषा’ बोलते हैं। इसकी अपनी ‘भोट लिपि’ है। ‘भोट’ सब्द  ‘बौद्ध’ अथवा ‘बोध’ का अपभ्रंश है। यह धर्म-भाषा उनके जन्म से लेकर विवाह और मृत्यु जैसे संस्कारों की भाषा है। यह संस्कार लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक प्रायः लामा कराते हैं। लामा बौद्ध भिक्खु है।
स्मरण रहे, भोट भाषा में बौद्ध साहित्य का विपुल भंडार है। ‘कंजूर-तंजूर’ तिब्बति ति-पिटक है। कंजूर में 1108 और तंजूर में 3458 ग्रंथ संग्रहित हैं। भला हो, राहुल सांस्कृत्यायन का जिन्होंने कितनी ही पोथियां जिसमें अथाह बौद्ध साहित्य भरा पड़ा है, तिब्बत के बौद्ध विहारों(गोनपाओं) के तहखानों की कई-कई महिनों खाक छानकर बुद्ध के जन्म स्थान भारत में लाकर भारत सहित विश्व के बौद्ध अध्ययताओं को उपकृत किया। किन्तु भोट भाषा और लिपि, जो हिमालयीन एक बड़े भू-भाग में बोली और लिखी जाती है, के प्रति भारत सरकार का क्या रवैया है? कितनी ही भाषाएं जिन्हें कोई बोलता तक नहीं, सरकार ने संविधान की ‘भाषा-अनुसूची’ में रखकर उनका संवर्द्धन किया है। किन्तु भोट भाषा के प्रति सरकार का रवैया उदासीन ही नहीं नकारात्मक भी है(स्रोतः हिमालय की धर्म भाषा, बौद्ध निबन्धावलीः लेखक कृष्णनाथ)।

6. पालि भाषा का अथाह भण्डार है। घरों और विहारों में हम इसका पाठ भी करते हैं। आवश्यकता है, इसके दैनदिनी में व्यवहार करने की। यह धम्म-सेवियों के रुचि और उत्साह से सहज ही किया जा सकता है। प्रोफेसर प्रफुल्ल गढ़पाल जैसे धम्म-सेवी इस दिशा में कार्यरत भी हैं। किन्तु इसको गति जन-सहयोग के बिना नहीं मिल सकती। अगर हम अपने-अपने घरों की दीवार पर लिख लें कि पालि हमें पढ़ना है, बच्चों को पढ़ाना है, तो यह कतई नामुमकीन नहीं है।
कुछ हमारे भाई सवाल करते हैं कि अंग्रेजी आदि विदेशी भाषा न पढ़कर पालि क्यों पढ़े, क्यों हम वक्त जाया करें? इसमें रोजगार भी नहीं है? इसके उत्तर में हम यही कहेंगे कि भविष्य में इस दिशा में रोजगार के अवसर भी खुल सकते हैं।
हमारे कई लोगों के पास उनके अपने स्कूल और महाविद्यालय हैं। अगर अतिरिक्त भाषा के तौर पर वे अपने स्कूलों में पालि पढ़ाना प्रारम्भ कर दें तो? हम देखते हैं कि देश के कई प्रांतों में मानस और गीता को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है। कॉलेजों में पढ़ाया जा रहा है। योग को पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया है। और आप तो पालि को अतिरिक्त भाषा के रूप में पढ़ा रहे है। अंग्रेजी में तो रोमन लिपि होती है। यहां, पालि पढाने में बच्चें पहले से नागरी लिपि से वाकिफ होते हैं। सोचिए, इस प्रकार अगर स्वयं-सेवी की तरह हम अपने स्कूल और कॉलेजों में पालि पढ़ाना प्रारम्भ करें तो, निश्चित रूप से रोजगार के अवसर आपके दरवाजे पर होंगे।
विदित हो कि महाराष्ट्र के कुछ विद्यालय-महाविद्यालयों में पालि पढ़ाया जा रहा है। यह कोर्स महाराष्ट्र राज्य माध्यमिक व उव्व माध्यमिक शिक्षण मंडल द्वारा मान्यता प्राप्त है। उल्लासनगर में संचालित ‘तक्षसीला महाविद्यालय’ जैसे अनेको शिक्खण-संस्थानों में पालि भाषा के रूप में पढ़ायी जाती है। हमें बतलाया गया है कि हिन्दी और पालि का 50-50 प्रतिशत वाला संयुक्त पेपर होता है।
इधर, वर्तमान दिल्ली सरकार ने पालि विश्वविद्याय की स्थापना के प्रति रुचि दिखाई है। महाराष्ट्र में पालि विश्वविद्वालय की स्थापना के लिए वहां की जनता ने बौद्ध भिक्खुओं के साथ आन्दोलन छेड़ रखा है। सोचिए, ये प्रयास अगर कारगर होते हैं, तो क्या रोजगार के अवसर नहीं खुलेंगे?
और फिर, आप इतने ‘निकट दृष्टि-दोष’ से बाधित कैसे हो सकते हैं? हमारे आदिवासी भाई हमारे लिए रोशनी है। हम अगर ‘अपना दीपक आप न बन सकें’ तो उनकी रोशनाई में अपना अक्स ढूंढ सकते हैं।
-अ. ला. ऊके :  भ. बुद्धदत्त पालि पसिक्खण, संवद्धन संट्ठान

Friday, October 20, 2017

विद्वानों की तरह चर्चा (विमंसन पञ्हो)

‘‘भन्ते नागसेन! सल्लपिस्ससि(चर्चा करोगे) मया(मेरे) सद्धिं(साथ)?’’ यवनो राजा मिलिन्दो आह(कहा)।
‘‘‘सचे(यदि) त्वं महाराज! पण्डितवादं(विद्वानों की तरह चर्चा) सल्लपिस्ससि, सल्लपिस्सामि(चर्चा करूंगा)।’’
‘‘सचे पन(किन्तु) राजवादं(राजाओं की तरह) सल्लपिस्ससि, न सल्लपिस्सामि।’’
‘‘कथं(कैसे), भन्ते नागसेन, पण्डिता सल्लपन्ति(चर्चा करते हैं)?’’
पण्डितानं खो, महाराज, सल्लापे(चर्चा में) आवेठनं(लपेटना) करियति(करते है), निब्बठेनं(खोलना) अपि करियति, निग्गहनं(पकड़ना) करियति, पटिकम्मं(प्रति-कर्म )अपि करियति, विस्सासो(विस्वास) अपि करियति, पटिविस्सासोपि(अविश्वास) करियति,  न च तेन(उससे) पण्डिता कुप्पन्ति(कुपित होते हैं)। एवं(इस प्रकार) खो, महाराज, पण्डिता सल्लपन्ति।’’
‘‘कथं पन, भन्ते, राजानो सल्लपन्ति?’
‘‘राजानो खो, महाराज, सल्लापे एकं वत्थुं(वस्तु को) पटिजानन्ति(कहता है)। यो(जो) तं(उस) वत्थु विलोमेति(विलोम में बोलता है), तस्स(उसको) दण्डं आणापेति(आदेश दिया जाता है)। एवं खो, महाराज, राजानो सल्लपन्ति।’’
‘‘पण्डितवादं अहं भन्ते, सल्लपिस्सामि, नो राजवादं। एवं विस्सट्ठो(विश्वास रखें) भदन्तो सल्लपतु(चर्चा करें), मा(मत) भायतु(डरें)।’’
‘‘सुट्ठु(उत्तम है) महाराजा‘ति थेरो अब्भानुमोदि(अनुमोदन किया)।
प्रस्तुति- अ. ला. ऊके 

वासेट्ठ-सुत्त

‘‘कथं बाह्मणो होति?’’ -भारद्वाज माणवो वासेट्ठ माणवं  पुच्छि।
‘‘बाहमण कैसे(कथं) होता है?’’ -भारद्वाज माणवक ने वासेट्ठ माणवक से पूछा।
‘‘मातितो च पितितो च जातिवादेन बाह्मणो होती"ति भारद्वाज माणवो एवं आह।
‘‘माता-पिता के रक्त-संबंध से(जातिवादेन) ‘बाहमण’ पैदा होता है।’’ -भारद्वाज माणवक ने यह कहा(एवं आह)।
‘‘यतो सीलवा च वत-सम्पन्नो होति, एतावत्ता सो बाह्मणो होति’’ति वासेट्ठ माणवो पटि-आह।
‘‘जो सीलवन्त और व्रत-सम्पन्न होता है, वह ‘बाहमण’ होता है।’’ -वासेट्ठ माणवक ने कहा।
अथ खो वासेट्ठो माणवो भारद्वाज माणवं आमन्तेसि- ‘गोतमो साक्य पुत्तो सक्यकुला पब्बजितो इच्छानंगले विहरति।  आयात भो भारद्वाज, समणं गोतमं एतं अत्थं पुच्छिस्साम। यथा समणो गोतमो ब्याकरिस्सति, तथा धारेस्साम।’
तब, वासेट्ठ माणवक ने भारद्वाज माणवक को आमंत्रित किया- ‘श्रमण गौतम साक्य-पुत्र, साक्य-कुल में प्रव्रजित इच्छानंगल उपवन में विहार कर रहे हैं। आओ(आयात) भारद्वाज, श्रमण गौतम से इसका(एतं) अर्थ(अत्थं) पूछेंगे(पुच्छिस्साम)। जैसा(यथा) श्रमण गौतम याख्या करेंगे(व्याकरिस्सति), वैसा धारण कर लेंगे।’
अथ खो वासेट्ठ-भारद्वाज माणवा येन भगवा तेनुपसंकमिंसु। उपसंकमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदनीयं कथं साराणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्त निसीदिंसु।
तब, वासेट्ठ-भारद्वाज माणवक जहां(येन) भगवान थे, गए(तेनुपसंकमिंसु)। पास जाकर(उपसंकमित्वा) भगवान के साथ कुसल-क्षेम पूछा(सम्मोदनीयं कथं साराणीयं) और पूछकर(वीतिसारेत्वा) एक ओर(एकमन्तं) बैठ गए(निसीदिंसु)।
एकमन्त निसिन्नो खो वासेट्ठो माणवो भगवन्तं गाथाय अज्झभासि-
‘‘एक ओर बैठे वासेट्ठ माणवक ने गाथा में कहा-
‘‘जातिवादस्मिं, विवादो अत्थि गोतम।
जातिया बाहमणो होति, उदाहु भवति कम्मना?’’
जन्म के संबंध में(जातिवादस्मिं) विवाद है(अत्थि), गौतम। बाहमण, जन्म से होता है अथवा(उदाहु) कर्म से?
भगवा-
‘‘न जच्चा बाह्मणो होति, न जच्चा होति अबाह्मणो।
कम्मना बाह्मणो होति, कम्मना होति अबाह्मणो।।’’
भगवान-
न जन्म से(जच्चा) बाहमण होता है, न जन्म से अबाहमण होता है। अपितु, कर्म से बाहमण होता है और कर्म से ही अबाहमण होता है।
अभिक्कन्तं भो गोतम! एते मयं भगवन्तं गोतमं सरणं गच्छाम, धम्मं च भिक्खु संघं सरणं गच्छाम।
धन्य(अभिकन्तं) है, गौतम! हम भगवान गौतम की सरण जाते हैं, धम्म और भिक्खु-संघ की सरण जाते हैं(वासेट्ठसुत्त :महावग्गः सुत्तनिपात)। प्रस्तुति- अ. ला. ऊके 

Tuesday, October 17, 2017

Save Pali

क्या आप जानते हैं-
कि सारा ति-पिटक पालि-भाषा में है।
-कि बुद्ध-पूजा और ति-रत्न वन्दना, जो पालि में है, प्रत्येक बुद्धिस्ट प्रतिदिन अनिवार्य तौर पर करता है।
-कि धर्मान्तरण के बाद भारत में बुद्धिस्टों की संख्या करोड़ों तक पहुंच गई है।
-कि बुद्ध-विहार, जो गांव और शहर में करोड़ों की संख्या में हैं, बुद्ध-पूजा पालि में ही होती है।
-कि लद्दाख आदि क्षेत्रों में बसने वाले पारम्परिक बौद्धों की दैनिक बुद्ध वन्दना पालि में ही होती है।
-कि भारत के बाहर बुद्धिस्ट देशों में प्रतिदिन बुद्ध वन्दना पालि में ही होती है, भले ही लिपि अलग हो।
-कि भारत के बाहर गैर-बुद्धिस्ट देशों में बसे करोड़ों बुद्धिस्ट प्रतिदिन बुद्ध वन्दना पालि-भाषा में करते हैं, लिपि जो भी हो।

-कि भाषा,  समाज की पहचान होती है, उसकी अस्मिता होती है।
-कि भाषा, समाज को एक खास दर्जा देती है, उसे एक मुकाम हासिल कराती है।
-कि लोगों को, अपनी भाषा पर गर्व होता है।
-कि पालि, बुद्ध की भाषा है। सारे बुद्ध वचन पालि में है। पालि बुद्धवाणी है। बाबासाहेब के अनुसार, बुद्ध हमारे आदर्श है। चूंकि बुद्धवचन पालि में है, इसलिए पालि हमारी भाषा है। पालि हमारी अस्मिता का प्रतीक है।

मगर, अजीब बात है कि पालि, हम बोल नहीं सकते?
-कि प्रतिदिन बुद्ध वन्दना हम पालि में करते हैं। धम्म वन्दना पालि में करते हैं। संघ वन्दना पालि में करते हैं। परित्राण-पाठ और अन्य सुत्तों का पठन-पाठन हम पालि में करते हैं। किन्तु, पालि हम बोल नहीं सकते!

-सम्राट अशोक के जितने भी शिला-लेख मिले हैं, सभी पालि में हैं। चाहे कश्मीर हो या कन्याकुमारी, कलकत्ता या मुम्बई। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि तब सारे भारत में, और इसके आस-पास के क्षेत्रों में, जहां तक सम्राट अशोक का साम्राज्य था, पालि जन-भाषा थी? लोक-भाषा थी। तभी तो अशोक अपने शिला-लेखों में धम्म-प्रचार का काम पालि में करते हैं?

-बुद्ध के समय भले ही पालि, मगध और इसके आस-पास के क्षेत्रा में बोली जाती रही हो, किन्तु सम्राट अशोक के काल में यह सारे वृहत्त भारत में बोली जाती थी।
इतिहास खंगालते हुए बाबासाहेब ने बतलाया है कि, हम पुराने बौद्ध ही हैं। धर्मान्तरण से हम कोई नया धर्म नहीं अपना रहे हैं।
निस्संदेह, तब पालि, हमारी भाषा थी। हम पालि में बात करते थे। ऐसी सरल और सुबोध भाषा का लोप भारत से क्यो हुआ? किसने किया? क्यों किया?

क्या आपको पता है-
-कि केन्द्र सरकार के अनुसार, पालि ‘मृत-भाषा’ है?
-कि केन्द्र शासन ने पालि को यूपीएससी (UPSC) से हटा दिया है?
-कि इसका कारण सरकार ने पालि के बोलने वालों का नगण्य होना बताया है?
-कि ‘भारतीय संस्कृति के संरक्षण’ के नाम पर भी सरकार पालि को संरक्षण देने तैयार नहीं है।
-कि बीते 2013 में हमारे कुछ लोगों द्वारा फेसबुक पर चलायी गई एक मुहीम  'Save Pali'  धीरे-धीरे शांत होकर अब विस्मृत हो गई।
-अ. ला. उके
भ. बुद्धदत्त पालि पसिक्खण, संवद्धन पतिट्ठान

पालि गाथा

पालि भासा, पालि भासा।
पालि मम, पिय भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि किय, सरला भासा!

पालि भासा, पालि भासा।
पालि बुद्ध-वचनस्स भासा।।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि ति-पिटकस्स, भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि किय सरला भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पाणसमा मम, पिय भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
बुद्ध-काले, लोक-भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
असोक-काले, रट्ठ-भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि बहु, पुरातन भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि अतीव, सरला भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
सम्भासनं, करणीयं भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
थोकं-थोकं, वदनीयं भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि बहु रमणीया भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि मम संखारानं  भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि मम हदयस्स भासा।

पालि भासा, पालि भासा।
पालि कियति, मधुरा भासा!!
-अ. ला. ऊके
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1. रट्ठ- राष्ट्र । 2. थोकं-थोकं- थोड़ी-थोड़ी।       3. संखारानं- संस्कारों की। 4. कियति- कितनी!

हमें, पालि क्यों सीखना चाहिए?

हमें  पालि क्यों सीखना चाहिए?
क्योंकि, पालि बुद्ध की भाषा है। क्योंकि, पालि धम्म की भाषा है।
क्योंकि, पालि हमें एकता के सूत्र में बांधती है। क्योंकि, पालि हमें धम्म का पाठ पढ़ाती है। क्योंकि, पालि हम में धम्म का एहसास है।
पालि, हमें इसलिए सीखना चाहिए-
क्योंकि, पाली ति-पिटक की भाषा है। सारे बौद्ध-ग्रंथ पालि में हैं। पालि जाने बिना ति-पिटक पढ़ा नहीं जा सकता। पढ़े बिना इसमें शोध व चिंतन किया नहीं जा सकता। क्या आज हमारे युवाओं को ति-पिटक ग्रंथों पर शोध नहीं करना चाहिए?
अगर गीता और मानस पर नए-नए शोध प्रबन्ध लिखे जाते हैं तो ति-पिटक ग्रंथों पर शोध-प्रबन्ध क्यों नहीं लिखे जाना चाहिए? शोध-प्रबन्ध लिखने से धम्म के नए-नए आयाम खुलेंगे। हमारे पथ-प्रदर्शक बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने पालि सीखकर ही तो ‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ लिखा था। पालि पढ़े बिना क्या ऐसा कालजयी ग्रंथ लिखना संभव था? 
क्योंकि, अशोक-काल में पालि लोक-भाषा थी। क्योंकि, अशोक-काल में पालि राष्ट्र-भाषा थी। क्या यह जानने की आवश्यकता नहीं है कि अशोक के समय पालि राष्ट्र-भाषा क्यों थी?
क्योंकि, अशोक बुद्ध की तरह धम्म का प्रचार पालि में चाहते थे। क्योंकि, धम्म ही पालि है। क्योंकि, पालि ही धम्म है। और इसलिए अशोक ने पालि को राष्ट्र-भाषा के रूप में स्वीकार किया।   
क्योंकि, अशोक ने सारे शिला-लेख पालि में हैं। क्योंकि, जब अशोक स्वयं अपने सिला-लेखों में लिखवाता है कि यह ‘धम्म-लिपि’ है तो फिर ‘यह ‘ब्राहमी-लिपि’ क्यों और कैसे हो गई?
बुद्ध-वचनों के अर्थ का अनर्थ ब्राहमण अपने वर्ग-हित के लिए किस प्रकार करते हैं, अशोक अच्छी तरह जानते थे। उसे स्वयं हजारों भिक्खुओं के प्राण-दंड का, अनजाने में भागीदार होना पड़ा था।
क्या बुद्ध की देशना ऐसी हो सकती है कि एक तरफ तो वह ‘आत्मा’ को नकार दे और दूसरी तरफ पुनर्जन्म भी मान ले? इतिहास गवाह है कि इस तरह की दो मुंही बातें ब्राहमण अपने ‘भगवानों’ से कराते रहे हैं।
  अशोक के शिला-लेख में साफ-साफ लिखा है कि यह धम्म-लिपि है। फिर, यह ‘ब्राहमी-लिपि’ कब और कैसे हो गई? क्या हमारे लोगों को यह जानने की आवश्यकता नहीं है? और अगर हमारे लोग, पालि नहीं सीखेंगे तो ऐसा होना ही है।
अशोक के शिला-लेखों को पढ़ते हमें आना चाहिए। हमें पढ़ते इसलिए भी आना चाहिए क्योंकि, इन शिला-लेखों में बुद्ध-वचन हैं। अंग्रेजों ने क्या पढ़ा, अथवा हमें क्या पढ़ाना चाहा, क्या हमें इसकी जांच नहीं करनी चाहिए? और, बिना पाली सीखें यह कैसे संभव है?
धम्म प्रचार का कार्य अशोक पालि में करता है। राजकीय मुद्रा का एक बड़ा भाग वह पालि के प्रचार-प्रसार पर खर्च करता है। क्यों ? 
पालि हमें इसलिए भी सीखनी चाहिए क्योंकि, पालि हमारे संस्कारों  की भाषा है। पालि हमारे आचार और विचारों की भाषा है। हमारे यहां, बच्चे को होश में आते ही उसे जो संस्कार दिए जाते हैं, वे पालि में होते हैं।
क्योंकि, हमारे घरों में, बुद्ध विहारों में बुद्ध-वन्दना पालि में होती है। बोधि-पूजा, चैत्य-पूजा आदि की सारी गाथाएं पालि में हैं। दैनिक सुत्त-पठन पालि में होता है।
अगर हिन्दी, मराठी अथवा अंग्रेजी की तरह पालि भी हम पढ़ना-लिखना सीख लें तो-
1. पालि जानने वालों की संख्या में इजाफा होगा। लोकतंत्र में सारी योजनाएं संख्या के आधार पर होती है।
-सरकार, पालि के विकास पर ध्यान देगी।
-पालि, तीसरी भाषा के रूप में स्कूल-कालेजों में पढ़ायी जा सकेगी।
-पालि में रोजगार के अवसर खुलेंगे।
2. बुद्ध-वन्दना की गाथाएं और सुत्त हम ठीक से समझ पाएंगे।
-हमारी विरासत, ति-पिटक ग्रंथों की ओर लोगों का ध्यान जाएगा।
-इन के अनुवाद और पठन-पाठन पर शोध-परक काम होगा।
-लोग अपनी-अपनी प्रादेशिक भाषाओं में इनका अनुवाद करेंगे।
3. भारत को बौद्धमय बनाने में मदद मिलेगी।
पालि सीखने के लिए क्या करना चाहिए?
अपने घर की दीवार पर लिख लेना चाहिए कि ‘पालि हमें सीखना है’।
@amritlalukey.blogspot.com


बुद्ध-भूमि महाविहार : नागपुर



बुद्ध-भूमि महाविहार
बोद्ध-पसिक्खणं संट्ठानं।

 ता नागपुर नगरे सुपतिट्ठिता।

 भदन्त आनन्द कोसल्यायण तस्सा निमाण-कत्ता।
बहु सामणेर-बालका इध पठन्ति, पाठेन्ति।

-अ. ला. ऊके
भ. बुद्धदत्त पालि पसिक्खण, संवद्धन पतिट्ठान

कथा दुब्बलेन बलेन च

एकस्मिं वने एको सीहो आसि ।
तस्मिं वने पन एको ससो अपि आसि ।
एकं  दिनं सीहो ससम्हा आह- ‘‘अहं तुवं खादामि।’’
ससो वदति- ‘‘सीहो राजा, मा मं खाद।’’
सीहो- ‘‘कथं?’’
ससो- ‘‘महाराज! अस्मिं वने अञञो  सीहो अपि अत्थि। सो मं खादतुं इच्छति।’’
सीहो- ‘‘कुत्थो वसति सो दुग्गतो ?’’
ससो- ‘‘महाराज! सो सन्तिके एकस्मिं उदपाने वसति।’’
सीहो- ‘‘तं दस्सतु  ।’’
ससो- महाराज! मम पिठं-पिठं आगच्छतु  ।’’
‘‘पस्स महाराज!’’ -ससो एकं उदपानं सन्तिके ठितं आह।
‘‘को रे दुग्गतो?’’ -उदपाने अञञो सीहो दिस्वा मिगराजा सींहनादं नदित्वा अगज्जि।
अञञस्स सीहस्स अपि पटिनदित्वा, मिगराजा उदपाने पक्खन्दि।
-अ. ला. ऊके
भ. बुद्धदत्त पालि पसिक्खण, संवद्धन पतिट्ठान
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कुत्थ- कहां। आह- कहा। उदपान- कुआ      सन्तिके-पास के            ठितं- खड़ा हो
अवोच- बोला।           नदति- गर्जना अञञ- अन्य।      पक्खन्दति- कूदना।

दरार

लघुकथाः दरार
तब मैं जीजाजी के साथ रहता था। उस समय उनके परिवार में मेरी बर्ड़ी बहन और बड़ी बिटिया थी। जीजाजी, सरकारी नौकरी में सहायक खाद्य -निरीक्षक थे। तब उनकी पोसि्ंटग बालाघाट थी।
जिसकी किस्मत खुलती है, उसे ही गांव से शहर आने का मौका नसीब होता है। तब, मैं हाई-स्कूल में पढ़ रहा था। पढ़ाई के लिए मुझे बालाघाट मेरी बड़ी बहन लायी थी। जीजाजी की उदारता न होती तो बेशक, मैं उनके यहां टिक न पाता। तब इस परिवार में, जीजाजी का एक छोटा भाई भी रहता था। इसका नाम देवराज था। देवराज मेरे से एकाध साल छोटा होगा। मेरी उससे अच्छी पटती थी।
एक खाद्य-निरीक्षक के अन्डर में जिले की कई राईस-मिलें और खाद्य-दुकानें हुआ करती हैं। निरीक्षण के लिए जीजाजी जब-तब जाते और रात-बरात पीकर घर आते थे। वे या तो बिना भोजन किए चुपचाप सो जाते या बहन से मार-पीट करते।
पीकर आना और घरवाली से मार-पीट करना भारतीय समाज में आम बात है। यह ‘सीन’ कभी-कभी असहनीय भी हो जाता है। इससे निपटने महिलाएं या तो किसी ‘देवी’ का उपवास करती है या घुट-घुट कर जल-मरती है। मेरी बहन सन्तोषी माता का व्रत रखती थी।
ऐसा ही एक ‘व्रत-उद्यापन’ का दिन था। उपवास में सारा दिन चला गया था। शाम को बहन का उपवास खत्म होना था। जीजाजी का कोई पता नहीं था। समय काटने बहन पड़ोसन से, उन्हीं के आंगन में खड़ी हो बतिया रही थी।
रात करीब 10.30 बजे जीजाजी आए। बहन को आभास हो गया था किन्तु, वह बतियाते रही। शायद, अपनी झल्लाहट दूर कर रही थी। इस बीच जीजाजी मुझसे 2.3 बार पूछ चूके थे।
थोड़ी ही देर में बहन आई और किचन में चली गई। वह थाली लगाने लगी। इसी बीच, जीजाजी ने सिर के बाल पकड़ा और बहन को मारना-पीटना शुरू कर किया। वह पूछ रहे थे कि उसने आने में आधा घंटा क्यों लगया?
जीजाजी बूरी तरह पीट रहे थे। मुझे सहन नहीं हुआ। मैं घर के पीछे बाड़ी तरफ चला गया। किन्तु, देवराज, जो वहीं था, ने खड़े हो जीजाजी का हाथ पकड़ लिया। शायद जीजाजी को इस ‘सीन’ की अपेक्षा नहीं थी। हम सब, बिना भोजन किए चुपचाप सो गए।
सबेरे, जीजाजी ने हम दोनों को बुलाया और घर से निकल जाने का आदेश दिया। एकाध साल बाद मैं पुनः जीजाजी के यहां रहने लगा था किन्तु देवराज; उनके रिश्तों में आई दरार फिर कभी भर न सकी।
- अ. ला. उके

Monday, September 11, 2017

बुद्ध सर्वज्ञ नहीं (Buddha rejected that He is omniscient)

बुद्ध के समकालीन जैन तीर्थंकर वर्द्धमान को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कहा जाता था।  इसका प्रभाव पीछे बुद्ध के अनुयायियों पर भी पड़े बिना नहीं रहा । तो भी बुद्ध स्वयं सर्वज्ञता के ख्याल के विरुद्ध थे(राहुल सांकृत्यायन : बौद्ध संस्कृति : पृ 56)।

"सुतं मेतं, भन्ते- समणो गोतमो सब्बञ्ञू् सब्बदस्सावी।"
 ‘‘मैने ऐसा(मे-एतं)  सुना(सुतं) है,  भन्ते! समण गौतम सर्वज्ञ(सब्बञ्ञू् ), सर्वदर्शी(सब्बदस्सावी) हैं।
अपरिसेसं ञाणदस्सनं पटिजानाति।
निखिल(अपरिसेसं ) ज्ञान-दर्शन(ञाणदस्सनं) का दावा करते(पटिजानाति) हैं।
चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठितं।
चलते(चरतो), खड़े(तिट्ठतो), सोते(सुत्तस्स) जागते(जागरस्स) निरन्तर(सततं) सदा ज्ञान-दर्शन उपस्थित(पच्चुपट्ठितं) रहता है।
कच्चि ते, भन्ते, भगवतो वुत्तवादिनो।
 क्या भन्ते! ऐसा कहने वाले (ते) भगवान के प्रति(भगवतो) यथार्थ कहने वाले हैं?
न च भगवन्तं अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति?"
कहीं, वे भगवान की असत्य(अभूतेन) से निन्दा तो नहीं करते?’’- वच्छगोत्त परिब्बाजक ने बुद्ध से पूछा।

"ये ते, वच्छ, एवमाहंसु- समणो गोतमो सब्बञञू .
वत्स! जो कोई(ये ते) मुझे ऐसा कहते (एवं-आहंसु) हैं- समण गोतम सर्वज्ञ हैं;
न मे ते वुत्तवादिनो, वे(ते) मेरे बारे में(मे) यथार्थ कहने वाले(वुत्तवादिनो) नहीं(न) हैं।
अब्भाचिक्खन्ति च पन मं असता अभूतेन।"
वह असत्य से मेरी(मं) निन्दा ही करते(अब्भाचिखन्ति) हैं।’’ -बुद्ध ने कहा(स्रोत- तेविज्जवच्छगोत्त सुत्तः मज्झिम निकाय)। प्रस्तुति- अ. ला. ऊके
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कच्चि - संदेहार्थक अव्यय
अब्भाचिक्खति- दोषारोपण/ निंदा करना (अब्भाक्खाति )