पढ़ने का शौक मुझे बचपन से ही था. स्कूल/कालेज लाइफ में मुझे दोस्तों की एक तिगडी मिली थी.इस
तिगडी में जासूसी उपन्यास जम कर पढ़े जाते थे.जासूसी उपन्यास पढ़ने का शौक मुझे यहीं से पैदा हुआ.मैंने ढेर सारे उपन्यास पढ़े. कभी-कभी सामाजिक उपन्यास भी पढ़ लेता था.जासूसी उपन्यास पढ़ने से बेशक, मुझ में एक साहित्यिक सोच विकसित हुई.आप जब एक लम्बे समय तक कुछ खास तरह का लिटरेचर पढ़ते है,उस पर चिंतन करते हैं,स्वाभाविक रूप से तब आपकी भाषा-शैली में तदनुरूप बदलाव आता है.
सन 1977 के दौर में जब मैं नौकरी में आया तब भी मुझे जो दोस्त मिले,वे साहित्यिक रुझान वाले थे. तब हम लोग सारिका, कादम्बिनी, नवनीत जैसी पत्रिकाएं पढ़ते थे.हम लोग बाकायदा मैगजीन क्लब चलाते थे.इस दौर में मैंने इस तरह का काफी साहित्य पढ़ा. और तब ही मैं देश के चोटी के साहित्यकारों की लेखनी, भाषा-शैली और उनके जिंदगीनामे से रुबरूं हुआ. सादत हसन मंटो,राही मासूम रजा, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव,कमला दास, मेह्रुनिसा परवेज अमृता प्रीतम आदि साहित्यकारों से मैं काफी प्रभावित हुआ.
फिर आता है, नब्बे का दशक. अब मैंने अपने अन्दर उमड़ते-घुमड़ते विचारों को शक्ल देना शुरू कर दिया था.पत्र-पत्रिकाएँ जो मैं पढ़ता, उन पर प्रतिक्रियाएं देना शुरू कर दिया था.इससे मुझ में लेखन शैली का विकास
हुआ.
एक दलित कौम का होने के कारण मुझ में सामाजिक विद्रोह की भावना तो जैसे अन्तर्निहित थी.तिस पर, मुझे अपने फादर से समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा मिला था.मेरे फादर बीडी के ठेकेदार थे. उन्होंने करीब 30-35 वर्ष तक बीडी का कारखाना चलाया था. यह बात 1925-60 के दौर की है.वे तब के चौथी पास थे. पटेल और जागीरदारों के ज़माने में उन्होंने एक लम्बे समय तक शोषक पटेल-जागीरदारों के अत्याचारों के विरुद्ध समाज का नेतृत्व किया था. मेरा बचपन कुछ इसी तरह के माहौल में बिता था.उस समय अपने खेतों में काम करने के पूर्व हमारे लोगों को गाँव के पटेल/जमीदारके खेत में जाकर पहले उनके खेती का काम करना पड़ता था.
लेखनी के साथ-साथ मैंने सामाजिक क्षेत्र में काम करना शुरू किया.दलित साहित्य सम्मेलनों/मंचों में मैंने शिरकत की. और इन सब से फायदा यह हुआ कि सामाजिक कार्यों और साहित्य से जुड़े लोगों से मेरा वैचारिक रिश्ता बना.विचारों के आदान-प्रदान से आपकी सोच में विविधता, पैनापन और गंभीरता आती है.आप विषय को समग्रता से पकड़ने का प्रयास करते हैं.मुझे भी इसका फायदा हुआ.
कभी-कभी मैं अपने विचारों को कविता की शक्ल में प्रगट करता था. काफी कवितायेँ विभिन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी थी. तब यार लोगों ने सलाह दिया की क्यों न कुछ सिलेक्टेड कविताओं का एक संग्रह निकाला जाय ? सन 1998 में नव लेखन प्रकाशन हजारीबाग (बिहार) से प्रकाशित 'पत्थर उठाते हाथ' वही काव्य संग्रह है.
हुआ.
एक दलित कौम का होने के कारण मुझ में सामाजिक विद्रोह की भावना तो जैसे अन्तर्निहित थी.तिस पर, मुझे अपने फादर से समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा मिला था.मेरे फादर बीडी के ठेकेदार थे. उन्होंने करीब 30-35 वर्ष तक बीडी का कारखाना चलाया था. यह बात 1925-60 के दौर की है.वे तब के चौथी पास थे. पटेल और जागीरदारों के ज़माने में उन्होंने एक लम्बे समय तक शोषक पटेल-जागीरदारों के अत्याचारों के विरुद्ध समाज का नेतृत्व किया था. मेरा बचपन कुछ इसी तरह के माहौल में बिता था.उस समय अपने खेतों में काम करने के पूर्व हमारे लोगों को गाँव के पटेल/जमीदारके खेत में जाकर पहले उनके खेती का काम करना पड़ता था.
लेखनी के साथ-साथ मैंने सामाजिक क्षेत्र में काम करना शुरू किया.दलित साहित्य सम्मेलनों/मंचों में मैंने शिरकत की. और इन सब से फायदा यह हुआ कि सामाजिक कार्यों और साहित्य से जुड़े लोगों से मेरा वैचारिक रिश्ता बना.विचारों के आदान-प्रदान से आपकी सोच में विविधता, पैनापन और गंभीरता आती है.आप विषय को समग्रता से पकड़ने का प्रयास करते हैं.मुझे भी इसका फायदा हुआ.
एक बड़े संत हुए हैं-महंत बालकदास साहेब. आप महाराष्ट्र और मध्य-प्रदेश के सीमांत क्षेत्र भंडारा-बालाघाट में कबीर पंथ के प्रख्यात विद्वान् हुए हैं.आपकी विद्वता और व्यक्तित्व से पिताजी काफी प्रभावित थे.तब मेरी उम्र करीब 13-14 साल रही होगी,जब पिताजी ने बालकदास साहेब को गुरु बनाया था.गुरूजी की मुझ पर भारी कृपा थी. शायद वे मुझे अपनी गद्दी का उत्तराधिकारी के रूप में देखते थे. निश्चित रूप से मैंने उन से काफी कुछ सिखा. मगर,गद्दी के उत्तराधिकारी बनने का मेरा इष्ट नहीं था. दरअसल,हम लोग आम्बेद्करवादी थे.समाज किधर जा रहा है, इसका मुझे इल्म था.बाबा साहेब के विचारों से मैं बड़ा प्रभावित था.कबीर के विचार जितने भी क्रन्तिकारी रहे हो,कबीर-पंथ को इसके ठेकेदारों ने इसे हिन्दू धर्म का एक संप्रदाय बना कर रख दिया है. कबीर विचारधारा का हिन्दू धर्म से घाल-मेल मुझे रास नहीं आ रहा था. मैंने समय-समय पर हुई चर्चा में गुरूजी को अपने विचारों से अवगत करा दिया था. किन्तु,गुरुजी को उनके गद्दी का उपयुक्त वारिस दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था.मैंने निर्णय लिया कि गुरूजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर मैं एक ग्रन्थ की रचना करूँ.और इस तरह मैं गुरु-ऋण से कुछ हद तक मुक्त होऊं.सन 1992 में प्रकाशित 'साक्षात्कार' मेरे इसी ऋण की कुछ हद तक अदायगी थी.
सन 1992 में ही विश्वनाथ प्रतापसिहं की सरकार द्वारा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी.सवर्ण हिन्दू और उनका मिडिया इसका पुरजोर विरोध कर रहा था.पान-ठेलों से लेकर हाट-बाजार और बस-ट्रेनों में इसी की चर्चा थी.मैंने देखा की आरक्षित वर्ग के अधिकांश लोगों को यही मालूम नहीं था की उन्हें आरक्षण क्यों मिला है ? और यहीं कारण है की वे गली-हाट में खड़े हो कर और ट्रेनों में सफ़र के दौरान आरक्षण विरोधियों को काउंटर नहीं कर पा रहे थे.तभी मुझे लगा की क्यों न उस पृष्ठ-भूमि और तथ्य-तर्कों को एक पुस्तक का रूप देकर लोगों तक पहुचाया जाय ? सन 1995 में सागर प्रकाशन मैनपुरी (उ.प्र.) से प्रकाशित पुस्तक 'आरक्षण और हिन्दू-मानसिकता' इसी की परिणति है.
कभी-कभी मैं अपने विचारों को कविता की शक्ल में प्रगट करता था. काफी कवितायेँ विभिन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी थी. तब यार लोगों ने सलाह दिया की क्यों न कुछ सिलेक्टेड कविताओं का एक संग्रह निकाला जाय ? सन 1998 में नव लेखन प्रकाशन हजारीबाग (बिहार) से प्रकाशित 'पत्थर उठाते हाथ' वही काव्य संग्रह है.
अब बात जब संग्रह की आयी तो लेख, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थे, को एक पुस्तक की शक्ल देना अपरिहार्य-सा हो गया.सन 2008 में शिल्पायन पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स दिल्ली द्वारा प्रकाशित 'दलित चिंतन के विविध आयाम' इसी तरह का ग्रन्थ है.
इस दौरान कवितायेँ और लेख जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहें,उनमे से कुछ का लेखा-जोखा निम्न हैं-
क्यों लगता है चमार को चमार कहना बुरा ? लेख दलित साहित्य 2001 (संपा-जय प्रकाश कर्दम )
Separate educational institutions Article Dalit Voice (Bangalore)Nov I /02
-must for dalit identity and culture
-और भारतीय संविधान
-बदलता परिदृश्य और भंगी समाज लेख हम दलित अक्टू. 98
संत पतित पावनदास: दलित स्वाभिमान की दहकती आग- लेख बहुजन संघर्ष: जुला-अग. 97
नाई की की दूकान और देव संस्कृति लेख बहुजनों का बहुजन भारत: जुला . II/97
क्या बसपा चमारों की पार्टी है ? लेख हम दलित:जून 97
दलितों की एकता सामूहिक बौद्ध लेख अश्वघोष:जून-जुलाई 99 (संपा.डा.तुलसीराम )
-धर्मान्तरण से ही संभव
डा. आम्बेडकर;स्वतंत्रता आन्दोलन - लेख हम दलित दिस.98 (संपा- प्रेम कपाडिया दिल्ली )-धर्मान्तरण से ही संभव
-और भारतीय संविधान
-बदलता परिदृश्य और भंगी समाज लेख हम दलित अक्टू. 98
दलित समाज में विशिष्ट वर्ग की बात करना बेमानी है. लेख हम दलित सित. 98
राष्ट्रीय स्वत्रंता आन्दोलन और डा आम्बेडकर लेख सजग प्रहरी (नई दिल्ली) मई 98
राष्ट्रीय स्वत्रंता आन्दोलन और डा आम्बेडकर लेख सजग प्रहरी (नई दिल्ली) मई 98
यक्ष प्रश्न कविता बहुजन संघर्ष: फर.-मई 98 (संपा-नागेश चौधरी)
दलित साहित्यकार और आम्बेडकर चिंतन लेख हम दलित अप्रैल 98
काव्य-पाठ 1.डा आम्बेडकर का छाया चित्र कविता प्रसारण- आकाशवाणी शहडोल(म.प्र.) 30 अप्रैल 98
और स्कूल का गणतन्त्र दिवसदलित साहित्यकार और आम्बेडकर चिंतन लेख हम दलित अप्रैल 98
काव्य-पाठ 1.डा आम्बेडकर का छाया चित्र कविता प्रसारण- आकाशवाणी शहडोल(म.प्र.) 30 अप्रैल 98
2. जाति का आतंक 3.बगावत की चिगारियां
काव्य-पाठ 1.आस्था और हम कविता प्रसारण- आकाशवाणी शहडोल(म.प्र.) 11 दिस. 97
2. पत्थर उठाते हाथ
-बदले जाने पर इतनी हाय-तौबा क्यों ?
डा. आम्बेडकर की स्टेचू को लेख अनार्य भारत:सित. 97
-अपमानित करने वाले कौन लोग थे ?
हिन्दू सामाजिक-धार्मिक तिलिस्म से टूटते शुद्र और दलित- लेख हम दलित सित. 97
राष्ट्रीय एकता और दलित लेख हम दलित सित. 97 हिन्दू सामाजिक-धार्मिक तिलिस्म से टूटते शुद्र और दलित- लेख हम दलित सित. 97
संत पतित पावनदास: दलित स्वाभिमान की दहकती आग- लेख बहुजन संघर्ष: जुला-अग. 97
नाई की की दूकान और देव संस्कृति लेख बहुजनों का बहुजन भारत: जुला . II/97
क्या बसपा चमारों की पार्टी है ? लेख हम दलित:जून 97
क्या बसपा क्गामारों की पार्टी है ? लेख हम दलित जून . 97
सिध्दार्थ गौतम बुद्ध लेख दैनिक भाष्कर, जबलपुर(म.प्र.) 22 मई 97
सिध्दार्थ गौतम बुद्ध लेख दैनिक भाष्कर, जबलपुर(म.प्र.) 22 मई 97
परिभाषाएं 1.दफ्तर 2. कलर्क 3. इतिहास व्यंग रचना प्रसारण- आकाशवाणी शहडोल(म.प्र.) 29 मई . 97
4. साइंस 5. लेखक 6. कवि
7.कुत्ता 8. गधा 9. मंदिर-मस्जिद
महान देश भक्त डा बाबा साहेब आम्बेडकर लेख दैनिक भाष्कर, जबलपुर 14 अप्रैल 97
हम और हमारी धर्म-निरपेक्षता लेख बहुजनों का बहुजन भारत (औरंगाबाद) अप्रैल II/ 97
व्यक्ति परिवर्तन या राजनितिक परिवर्तन - लेख बहुजनों का बहुजन भारत: जन. II/97
-व्यवस्था-परिवर्तन का पर्याय नहीं
राष्ट्र और राष्ट्र-भक्ति लेख बहुजन संघर्ष फर. 97
राष्ट्र और राष्ट्र-भक्ति लेख बहुजन संघर्ष फर. 97
Two major issues of indian dalit and riddle of their leadership Article Dalit Vioce Feb I /96
खयाली सच लेख आम्बेडकर मिशन पत्रिका सित-अक्टू. 96
काव्य-पाठ 1.व्यवस्था 2. स्थिति-प्रज्ञ कविता प्रसारण- आकाशवाणी शहडोल(म.प्र.) 13 अक्टू. 96
अरुण शौरी के लेख 'दलित साहित्य के नाम पर नफ़रत का जहर' पर एक प्रतिक्रिया लेख बहुजन संघर्ष जून 96
अरुण शौरी के लेख 'दलित साहित्य के नाम पर नफ़रत का जहर' पर एक प्रतिक्रिया लेख बहुजन संघर्ष जून 96
अरुण शौरी के लेख ' जाँच-पड़ताल के बगैर पूजा का अभिनन्दन' पर एक प्रतिक्रिया -हम दलित अप्रैल 96
राष्ट्रीय एकता और दलित- लेख बहुजनों का बहुजन भारत जुलाई II/ 96
हिन्दू संस्कृति और बेंडिट क्वीन लेख बहुजन संघर्ष( नागपुर )अप्रैल-मई 96
मुस्लिम राष्ट्रीयता और हिन्दू राष्ट्रवाद लेख आम्बेडकर मिशन पत्रिका जन.फर +मार्च-अप्रैल 96
दलित-पिछड़ी जातियों के विद्रोही तेवर लेख दलित वायस (हिंदी) फर . 96
अनु.जाति,जन-जाति और पिछड़े वर्ग के आरक्षण - लेख हम दलित अप्रैल . 96
-का सवाल और डा. आम्बेडकर
हिंदुत्व और हिदुवाद राष्ट्रीयता है तो साम्प्रदायिकता क्या है ? लेख बहुजन संघर्ष फर. 96
बुद्ध भगवान् कैसे ? लेख अनार्य भारत: नव. 96
काव्य-पाठ 1.व्यवस्था 2. स्थिति-प्रज्ञ कविता प्रसारण- आकाशवाणी शहडोल(म.प्र.) 13 अक्टू. 96
आम्बेडकर मिशन क्या है ? लेख हम दलित नव . 96
काव्य-पाठ: 1.नारी, तुम क्या हो ? कविता प्रसारण- आकाशवाणी शहडोल(म.प्र.) 13 अक्टू. 96
2. पुरुष का लिखना नारी पर
3.अखबार और कवि 4. सड़क और मैं
मुस्लिम आरक्षण लेख हम दलित अग. 96
दलित साहित्य में भाषा के संतुलन का सवाल लेख धम्म दर्पण ( दिल्ली )जन.-जून 96
नारी कविता दैनिक भाष्कर, जबलपुर(म.प्र.) 15 मई 96
नौकरी और धर्म लेख आम्बेडकर वाणी मई . I/96
गाँधी युग का अवसान बनाम आम्बेडकर युग का प्रारंभ लेख बहुजनों का बहुजन भारत: मार्च . II/96मुस्लिम राष्ट्रीयता और हिन्दू राष्ट्रवाद लेख आम्बेडकर मिशन पत्रिका जन.फर +मार्च-अप्रैल 96
दलित-पिछड़ी जातियों के विद्रोही तेवर लेख दलित वायस (हिंदी) फर . 96
पंचायती राज और दलित लेख हम दलित फर . 96
म.प्र. के आदिवासी बाहुल्य अंचल में संविधान की लेख आम्बेडकर वाणी (इंदौर)जन. I/96
-6 वी. अनुसूची लागु किये जाने की राजनीति
भारतीय ट्रेड यूनियन और दलित-आदिवासी लेख बहुजनों का बहुजन भारत: जन. II/96
बाबा साहेब और हैट लेख हम दलित दिस . 95
सामान नागरिक सहिंता लेख हम दलित सित . 95
सामान नागरिक सहिंता लेख हम दलित सित . 95
विदेशी पर्यटक और हिन्दू भारत लेख हम दलित सित . 95
भारतीय सस्कृति के मायने हिन्दू संस्कृति नहीं लेख हम दलित जुला . 95
डा .आम्बेडकर और भारतीय संविधान लेख अनार्य भारत (मैनपुरी ) फर. I/ 95
खयाली सच लेख अनार्य भारत (मैनपुरी )दिस. II/ 94
वर्त्तमान दलित राजनीति की धुंध मान्य. कांसीराम- लेख अनार्य भारत (मैनपुरी )मई . II/ 94
ईसाई मिशनरियां और दलित-आदिवासियों का धर्मांतरण लेख प्रबुद्ध आवाज, मई II/92
नौकरी के दरम्यान उच्च पदों पर आपको पर्याप्त समय नहीं मिलता है और यही कारण है की धीरे-धीरे मेरा लेखन कम होते गया. मगर यह बात नहीं की मैं चुप बैठा रहा. दरअसल, मैंने रचनात्मक कार्यों में इस दरम्यान ज्यादा ध्यान दिया.बीरसिहंपुर पाली जिला उमरिया(म.प्र.) में मैंने अपनी नौकरी के दौरान( सन 1999-2008) एक स्कूल (परिवर्तन मिशन स्कूल) का सञ्चालन किया जिस में उन मजदूरों के बच्चें पढ़ते थे जो स्लम एरिया में रहते थे.
जब कहीं प्रोजेक्ट स्टार्ट होता है तो वहां आस-पास एरिया के गरीब मजदूर डेली रोजी-रोटी के लिए झोपड़-पट्टे बना कर बस जाते हैं या बसा दिए जाते हैं. मजदूर तो पावर-हॉउस में दैनिक मजदूरी करते हैं मगर उनके बच्चें कुछ तो अपनी माँ के साथ कालोनी में झाड़ू-पोछा और बर्तन साफ करने में हाथ बटाते हैं और बाकी झोपड़-पट्टों के आस-पास खेलते रहते हैं.इन खेलते बच्चों को पकड़ कर मैंने स्कूल शुरू किया.
वास्तव में, कालोनी एरिया में मैंने साथियों की मदद से बौद्ध विहार निर्माण किया था. बौद्ध विहार परिसर काफी लम्बा-चौड़ा था. मुझे लगा की इस बौद्ध विहार परिसर में अगर गरीब बच्चों को पढाया जाय तो यह असली बाबा साहेब का मिशन होगा.यह स्कूल सन 2008 से खींचते-खींचते सन 2010 तक तो चला मगर, फिर इसके सञ्चालन में इक्छा-शक्ति के कमी के कारण यह बंद हो गया क्योंकि, जुलाई सन 2007 में मैं अपने प्रमोशन और स्थानांतरण की वजह से अपनी नौकरी के पहले वाले प्रोजेक्ट चचाई आ गया था.
चचाई में मैं अधीक्षण अभियंता के पद पर पदोन्नत हो कर आया था.जैसे की बता चूका हूँ,उच्च पदों पर आप जैसे-जैसे पहुँचते हैं,जिम्मेदारियों के बढ़ने के कारण आपको कुछ और करने की फुर्सत नहीं होती.दिस.2010 में अपनी सरकारी सेवा से सेवानिवृत हुआ. किन्तु,इस बीच लेपटॉप आ गया. लेपटॉप ने मेरे लेखन का दृश्य ही बदल दिया.वर्तमान में मैंने ब्लॉग के माध्यम से अपनी साहित्यिक यात्रा को जारी रखा है.
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