
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती को शायद ही इल्म हो कि हम जैसे सिर-फिरे बन्दे 700 -800 साल बाद उनकी दरगाह पर यह देखने आएंगे कि दरगाह आखिर होती क्या है ? दरगाह, दर की गाह। गाह शायद कब्र से मुत्तल्लिक़ है।



यद्यपि चादर का राज मुझे आज तक पल्ले नहीं पड़ा। ज्यादह से ज्यादह यही समझ आया कि अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग रिवाज हैं। अगरचे, अलग-अलग न हो तो सब गड्ड-मड्ड हो जाएगा, फिर मौलवी और पंडित में भेद न रह जायेगा। टोपी और पगड़ी के बीच हर हाल में फर्क होना चाहिए। मुझे अपने प्रधान-मंत्री नरेंद्र मोदी का वाकया याद आया। अखबार और टीवी चैनलों पर कई-कई दिनों तक इस बात पर बहस होती रही कि देश के प्रधान-मंत्री को टोपी पहनना चाहिए या नहीं।


मेरी नजर जहाँ तक गई, ख्वाजा के दरबार में टोपियां ही टोपियां नजर आई। एक बन्दे से कहा- "टोपी लगाना जरुरी है क्या ?" "जनाब, इबादत करना हो तो टोपी अथवा सर पर रुमाल/गमछा रखना जरुरी है।" -बन्दे ने घूर कर जवाब दिया- "मगर, हम तो घूमने आएं हैं ?" " तो ताजमहल जाओ, यह कोई घूमने की जगह है ?" बड़ा अजीब-सा जवाब था। कब्र दोनों थी। मुझे समझ नहीं आया। बहरहाल, हमने सामने की दुकान से एक टोपी खरीद ली। यह एक अजीब सी थ्रिलिंग थी। सुना है, गुरुद्वारे में भी सर पर गमछा अथवा रुमाल बांध कर जाना होता है। क्या पता, यह हसरत कब पूरी होगी !
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