Monday, February 3, 2020

पालि का उदगम

प्राकृत  भाषा-
प्राकृत का अर्थ  है, प्रकृति-जन्य। जो भी प्राकृतिक है, प्रकृति-जन्य है, अभी-संस्कृत(परिष्कृत) नहीं है, प्राकृत है। प्राकृत भाषाओं के प्राचीनतम रूप तृतीय शताब्दी ई. पू. के महाराजा अशोक के शिलालेखें में सुरक्षित मिलते हैं। एक शिलालेख में इस प्राकृत का पालि नाम मिलता है। यही पालि भाषा बौद्धों की पवित्र साहित्यिक भाषा बनी है। शिलालेखों, स्तम्भ-लेखों, समस्त साहित्यिक ग्रंथों और कुछ अंशों में संस्कृत नाटकों में सुरक्षित इन प्राचीन प्राकृत भाषाओं से ही वर्तमान भारत की अधिकांश भाषाएं बोलियां, जैसे पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, हिन्दी, बिहारी और बंगला- निकली है।

संस्कृत-
यह वैदिक भाषा का परवर्ती परिष्कृत(अभी-संस्कृत)  रूप है जिसे पाणिनि ने 300 ई. पू. में सूत्र आबद्ध किया था.  इसमें वैदिक भाषा के बहुत से प्राचीन रूप (शब्दरूप और धातु-रूप यथा लोट लकार आदि ) पूर्णतया लुप्त हो गए और नए शब्दों का समावेश हुआ। वैदिक भाषा के परिष्कृत होने से प्राकृत भाषाओँ को 'असभ्य', 'पैशाची' और 'जन-साधारण की भाषा' कहा गया।

द्रविड़ परिवार-
दक्षिण भारत की द्रविड़ परिवार की भाषाएं तेलगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम यद्यपि आर्य-परिवार की भाषाएं नहीं हैं, तथापि आर्य-ब्राह्मणों के दक्षिण में प्रवेश से इनमें संस्कृत शब्द भरे हुए हैं और इनके साहित्य में संस्कृत भाषा की रचना-शैली की ही सर्वत्र प्रधानता है। पढ़ना-लिखना आर्य-ब्राह्मणों का एकाधिकार था।

सैन्धव सभ्यता की वर्णमाला-
तृतीय शताब्दी ई. पू. के सिक्कों तथा अशोक के अभिलेखों के वर्ण चिन्हों और सैन्धव सभ्यता के वर्ण-संकेतों में उल्लेखनीय साम्यता से भाषा-विज्ञानी सैन्धव सभ्यता को भारतीय लिपि की जननी

सेमेटिक वर्णमाला का प्रभाव-
मेसोपोटामिया से इधर फैलते हुए, शायद 700 ई. पू. के लगभग, सेमिटिक भाषा की वर्णमाला का एक रूप भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रारम्भ हुआ। इस लिपि को भारत में जो सबसे पहले अपनाया गया, उसका ज्ञान हमें तृतीय शताब्दी ई. पू. के सिक्कों और अभिलेखों से होता है। अशोक ने अपने शिलालेख में इसे धम्मलिपि कहा है, किन्तु  आर्य-ब्राह्मण लेखकों ने इसे ‘ब्राह्मी’ अर्थात ‘ब्रह्मा के मुख से निसृत लिपि’ कह प्रचारित किया।

मातृ-लिपि-
इसी धम्मलिपि से ही भारत की सभी परकालीन लिपियां निकली हें। इनमें सबसे महत्वपूर्ण नागरी लिपि है। नागरी का अभिप्राय है ‘नगर-निवासियों  की लिपि’ या शायद गुजरात के 'नागर ब्राह्मणों की लिपि'। बाद में 8वीं शताब्दी के लगभग इसे ‘देवनागरी’ अर्थात देवताओं के नगरों की लिपि’ कहा गया।

उत्तर भारत में संस्कृत भाषा बहुधा नागरी लिपि में ही लिखी जाती है, परन्तु बंगाल और उड़ीसा आदि प्रान्तों में अपनी प्रान्तीय लिपियों- बंगला और उड़िया आदि  में भी लिखी जाती है। दक्षिण भारत में संस्कृत के लिए नियमित रूप से द्रविड़ परिवार की लिपियों की ही उपयोग किया जाता है(स्रोत-  संस्कृत व्याकरण प्रवेशिकाः डॉ आर्थर ए. मेकडानल) ।
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धम्मलिपि एक ऐसी प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन धम्मलिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। अशोक ने अपने लेखों की लिपि को ‘धम्मलिपि’ का नाम दिया है।

साधारणत:  धम्मलिपि को 'ब्राह्मी लिपि' कह कर इसे अशोक से जोड़ा जाता है। किन्तु इसका स्रोत नहीं बताया जाता। स्मरण रहे, ईसा पूर्व 4 थी सदी में व्याकरणाचार्य पाणिनि ने जब वैदिक भाषा को सूत्र-बद्ध किया तो किसी लिपि का उल्लेख नहीं किया है। जबकि बौद्धों के ग्रन्थ ललितविस्तर( ईसा की पहली सदी) में बालक सिद्धार्थ को ब्राह्मण गुरु से 64  भाषा और लिपियों की सूची दे उन में प्रवीण होने की बात कही गई है।

अशोक के विभिन्न स्थानों में प्राप्त अभिलेखों में  कुल 4 लिपियों का प्रयोग हुआ है-
1. धम्मलिपि  2. खरोस्टि 3. आरमाईक 4. ग्रीक

 धम्मलिपि की विशेषताएँ-
-यह बाँये से दाँये की तरफ लिखी जाती है।
-यह मात्रात्मक लिपि है। व्यंजनों पर मात्रा लगाकर लिखी जाती है।
-कुछ व्यंजनों के संयुक्त होने पर उनके लिये 'संयुक्ताक्षर' का प्रयोग (जैसे प्र= प् + र) ।
-वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय लिपियों में है।
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