Thursday, July 30, 2020

भिक्खु-संघ और उसकी प्रासंगिकता

भिक्खु-संघ और उसकी प्रासंगिकता
1.  बुद्ध ने भिक्खु-संघ की स्थापना धम्म प्रचार-प्रसार के लिए की थी। उन्होंने इसे  'एक जीवन चरिया' के रूप  में खड़ा किया था। दो भिक्खुओं को एक दिशा में एक साथ जाने के लिए उन्होंने स्पष्ट मना किया था। विनय के अनुसार आठ वस्तुओं के अलावा भिक्खु कोई दूसरी वस्तु नहीं रख सकता। वर्षावास के अलावा कोई भिक्खु किसी विहार में दो-तीन दिनों से अधिक ठहर नहीं रह सकता।
2 . हमें भारी अफ़सोस है कि भिक्खु-संघ इन 5 प्रमुख नियमों में से एक भी नियम का पालन नहीं करते दिखता।बाबासाहब अम्बेडकर, भिक्खु-संघ से कतई प्रसन्न नहीं थे। और इसलिए उन्होंने धम्म-प्रचारकों की फ़ौज खड़ा करने का निर्णय लिया। क्या भिक्खु-संघ ने इससे कोई सबक लिया ?
3 . यह तथ्य है कि भिक्खु-संघ से न तो बाबासाहब प्रसन्न थे और न ही उनके अनुयायी ही। यह सच है कि चीवर का हर हाल में सम्मान किया जाना चाहिए। किन्तु भिक्खु-संघ को भी चीवर की मर्यादा का भान होना चाहिए।
4 . यह भी तथ्य है कि बहुत से भिक्खु स्व-इच्छा से चीवर नहीं लिए हैं बल्कि किन्ही घरेलु/पारिवारिक परेशानी से घर से बेघर हुए हैं। कुछ भिक्खु ऐसे हैं जिन्होंने बुद्धविहारों पर कब्ज़ा कर लिया है ! क्या धम्म का कार्य ऐसे होता है ? कुछ भिक्खुओं का कार्य  'परित्राण पाठ' भर करना रह गया है ! क्या इस तरह समाज का भला हो सकता है ?
5 . बुद्धगया हो या सारनाथ,  कुछ धम्म-प्रेमी और भिक्खु विदेशों से यहाँ आकर ति-पिटक  संगायन करते हैं। वहां, हमारे यहाँ का भिक्खु-संघ भिखारियों की तरह व्यवहार करता है ! क्या फंड की कमी है उन्हें ? हमें ऐसा नहीं लगता। सिंहलद्वीप, म्यांमार, थाईलेंड आदि छोटे-छोटे देशों से हमारे यहाँ दान में कई टनों वजनी बड़ी-बड़ी बुद्ध की मूर्तियां आती हैं। गरीब वे हैं या हम ? 
6 . सवाल नीयत का है। क्या धम्म के प्रति भिक्खु-संघ की नीयत ठीक है ?  उपासक अगर दान नहीं करते तो गलती उपासक की है या दान की महिमा बतलाने वाले की ? लोग घर, परिवार और गाड़ी, बंगला ही बनाने में मस्त  हैं तो संस्कार-कर्ता अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता।
7 . बौद्ध स्थविर मिगेत्तुवते ने क्रिश्चियन विद्वानों को परास्त कर सिंहल द्वीप में धम्म को पुन: स्थापित किया था(राहुल सांस्कृत्यायन: बौद्ध संस्कृति: पृ. 81 )। क्या कोई स्थविर मिगेत्तुवते भारत में पैदा हुआ ?  क्या कोई अनागारिक धम्मपाल भारत में पैदा हुआ ?
8 . आज, साकेत में खुदाई/समतलीकरण के दौरान बुद्ध की मुर्तिया निकल रहीं है। बुद्धगया महाबोधिविहार का भिक्खु-संघ राम मंदिर निर्माणाधीन महंत को 'गंगा-जल' भेट करता हैं ! क्या धम्म-प्रचार की यह नीयत है ?

Wednesday, July 29, 2020

पालि' सीखना आवश्यक है-

पालि' सीखना आवश्यक है-
भाषा, संस्कृति का हिस्सा है. बोल-भाषा और आचार-विचारों से ही संस्कृति का निर्माण होता है. हमारा देश बहु-भाषी देश है. निस्संदेह यहाँ संस्कृतियाँ अनेक हैं. हर समाज की अपनी भाषा और संस्कृति है.
पालि का सम्बन्ध जितना ति-पिटक से हैं, उससे कहीं अधिक सम्बन्ध बुद्ध की वाणी से है. पालि, बुद्ध की भाषा है. पालि बुद्ध के वचन है. आप पालि सीख कर बुद्ध वचनों को सीखते हैं.
जिस प्रकार, समाज और संस्कृति पर्यायवाची हैं, ठीक उसी प्रकार भाषा और संस्कृति पर्याय वाची है. आप संस्कृति से भाषा को अलग नहीं कर सकते. भाषा है तो संस्कृति है और संस्कृति है तो समाज है. और इसलिए बुद्ध को नष्ट करने के लिए सर्व-प्रथम उसकी भाषा अर्थात उसके ग्रंथों को जलाया गया. महीनों नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, जगद्दल आदि बौद्ध विश्वविद्यालयों के विशाल ग्रंथालय जलते रहे.
पालि हमारी संस्कृति है, हमारी अस्मिता है. यह हमारी संस्कार-भाषा है. सारे बौद्ध संस्कार हमारे पालि में होते हैं और इसलिए, बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा पुनर्स्थापित बुद्ध और उनके धम्म को बचाए रखना है, तो पालि सीखना आवश्यक है.

नागपंचमी

भारत का इतिहास क्रांति व प्रतिक्रांति का इतिहास रहा है।
इसी इतिहास में क्रांति का प्रतिनिधित्व नागवंशीय आंदोलन ने किया।इस देश का इतिहास ही नागवंश के इतिहास से प्रारंभ होता हैं, शिशुनाग यह उस संघर्ष का नेतृत्व करने वाला पहला नागवंशी सेनानी था।
ई.स.पूर्व 642 में मगध साम्राज्य का उदय हुआ, यह एक युगान्तकारी घटना थीं, इसका संस्थापक शिशुनाग था।यहाँ से नागवंशीय राजाओ का इतिहास शुरू होता है।।यही लोग श्रमण संस्कृति के नेतृत्व करने वाले वीर सेनानी थे।
तथागत बुद्ध के जिन मानवतावादी पवित्र विचारधारा को जिन नाग लोगो ने जम्बूद्वीप अर्थात भारत वर्ष में प्रसारित किया, नागपंचमी यह उन्ही नाग लोगो का पर्व है।।नाग लोक भग्गवांन बुद्ध के उपासक थे,।
नागपंचमी का सम्बंध नाग अर्थात साँप से न होकर 5 महापराक्रमी नागवंशीय राजाओ के प्रतीक ( टोटेम )के रूप मनाया जाता था, जो गणपद्धति को मानने वाले थे, तथा बुद्ध के विचारो पर चलकर जिन्होंने समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व , न्याय के आधार पर अपना एक स्वतंत्र गणराज्य स्थापित किया था। इन पांच नागवंशीय राजाओ में प्रथम '" अनंत " राजा था। जम्मूकश्मीर का अनंतनाग शहर इनकी स्मृति को याद दिलाता है जो इनके अतीत का गवाह हैं। दूसरा ::-कैलाश मानसरोवर क्षेत्र का प्रमुख राजा "वासुकी " नागराजा था। तीसरा ::- तीसरा नागराजा "तक्षक "था, जिनके नाम से पाकिस्तान में तक्षशिला हैं चौथा राजा "करकोटक" " ऐरावत" थे जिनका राज्य का क्षेत्र रावी नदी के पास था। व पांचवा राजा पद्म था जिसका गोमती नदी के पास का क्षेत्र मणिपुर, असम प्रदेश था, इसी नागा वंशीयो से नागालैंड बना।
ये पांचो नागवंशीय राजाओ की राज्य की सीमाये परस्पर एक दूसरे से लगी हुई थी। तथा ये नागराजा श्रमण संस्कृति की रक्षा करते व असमानता, अन्याय वाली वर्ण संस्कृति को प्रश्रय देने वालो के साथ लगातार संघर्ष कर उन्हें राज्य से बाहर खदेड़ते। साथ ही अपने राज्यो की प्रजा में तथागत बुद्ध के विचारों को फैलाते,।। इसी के चलते पांचों राज्य की प्रजा अपने श्रमण संकृति के रक्षक ,मानवतावादी , महापराक्रमी राजाओ की स्मृति में प्रत्येक साल मिलकर एक उत्सव मनाते थे, इसे ही नागपंचमी कहा जाता हैं, पांच राज्यो में ये उत्सव अत्यंत हर्षोल्लास से मनाए जाने के कारण धीरे धीरे यह उत्सव पूरे पूरे अखण्ड भारत में मनाया जाने लगा। जिसका परिणाम यह हुवा की वर्ण संस्कृति के लोगो मे खलबली मच गई, और उन्होंने नागवंशीय राजाओ के गौरवशाली इतिहास को मिटाने के लिए षडयंत्र करके योजनाबद्ध तरीके से नागराजा का सम्बंध साँप के साथ होना बताया। जिसका दुष्परिणाम यह हुवा की आज वर्तमान की नागपंचमी यह सांप को पूजने वाली पंचमी हो गयी। जो साँप के पूजने व दूध पिलाने तक ही इस पर्व को सीमित कर दिया गया,तथा वास्तविक नागवंशीय राजाओ का उत्सव विलुप्त हो गया।।
फिर भी लोग आज के दिन अपने घरो की दिवालो पर पाँच नाग के चित्र बनाते है लेकिन आज के वर्तमान नागवंशीय लोगो को, की वे अपने घरों को दिवालो पर पांच ही नाग का चित्र क्यो बनाते हैं, व इनकी पूजा क्यो करते हैं, इसकी जानकारी बिल्कुल भी नही है, सच तो ये हैं कि पाँच नाग श्रमण संस्कृति के रक्षक पाँच नागवंशीय पराक्रमी राजाओ के ही प्रतीकात्मक रुप है, इसलिए नागवंशीय लोगों को धर्म के अंधविश्वास रूपी जंजाल से बाहर निकलकर, नागपंचमी उत्सव के वास्तविक महत्व को जानना व समझना होगा।।। नागपंचमी के यह उत्सव तथागत बुद्ध से जुड़ा हुवा हैं, यही कारण हैं कि तथागत बुद्ध के सिर के ऊपर नाग के फन वाली मूर्तिया देखनो को मिलती हैं,,।।
** कोई भी समाज अपने भूतकाल के वैभव पर जिंदा नही रह सकता, अपना भविष्य गढ़ने के लिए भूतकाल का सहारा लेना आवश्यक हो सकता हैं किंतु मात्र भूतकाल की हमारी पुर्णवीरता,, हमारा भविष्य तब तक नही गढ़ सकती जब तक की वर्तमान में हम इसके लिए प्रयत्न न करे।।***

Monday, July 27, 2020

Brahma: Gotam More

11 entries for brahma in PED:
brahma
brahmaka
brahmacariya
brahmacariyaka
brahmacariyavant
brahmañña
brahmaññatā
brahmaññattha
brahmatta
brahmattara
brahmavant
Brahma & Brahmā [fr. bṛh, see brahant. Perhaps less with regard to the greatness of the divine principle than with ref. to the greatness or power of prayer or the ecstatic mind (i. e. holy enthusiasm). On etym. see Osthoff, "Bezzenberger's Beiträge" xxiv.142 sq. (=Mir bricht charm, spell: Oicel. bragr poetry)] -- I. Brahman (nt.) [cp. Vedic bráhman nt. prayer; nom. sg bráhma] 1. the supreme good; as a buddhistic term used in a sense different from the brahmanic (save in controversy with Brahmans); a state like that of Brahmā (or Brahman) A ii.184 (brahmappatta). In cpds. brahma˚. -- 2. Vedic text, mystic formula prayer DA i.244 (brahmaŋ aṇatī ti brāhmaṇo).
II. Brahmā [cp. Vedic brahmán, m., one who prays or chants hymns, nom. sg. Brahmā] 1. the god Brahmā chief of the gods, often represented as the creator of the Universe (vasavattī issaro kattā nimmātā) D i.18 iii.30, also called Mahābrahmā (D i.235 sq., 244 sq. iii.30; It 15; Vism 578; DhA ii.60); and Sahampati (Vin i.5; D ii.157; S i.136 sq.; Vism 201; KhA 171 SnA 56) and Sanaŋkumāra (D ii.226; iii.97). The duration of his life is given as being 1 kalpa (see Kvu 207, 208). -- nom. Brahmā Vin i.5; D ii.46; J vi.486 Miln 224; Vism 2 (brahmānaŋ atibrahmā, Ep. of Buddha Bhagavā); SnA 229 (B. mahānubhāvo); gen abl. Brahmano D ii.209; Vism 205; SnA 177; instr Brahmanā D i.252; ii.239; Dh 105, 230; Vism 48, 405 DhA ii.60; acc. Brahmānaŋ D ii.37; voc. Brahme S i.138. -- 2. a brahma god, a happy & blameless celestial being, an inhabitant of the higher heavens (brahma -- loka; in which to be reborn is a reward of great merit); nom. sg. brahmā S i.142 (Baka br.) M i.327 (id.); A iv.83; PvA 138 (˚devatā for brahma˚?) gen. abl. brahmuno S i.142, 155; instr. brahmunā D iii.147, 150 & brahmanā PvA 98; voc. sg. brahme M i.328. pl. nom. brahmāno Miln 13, 18 (where J vi.486 has Mahā -- brahmā in id. p.); DhsA 195; gen brahmānaŋ Vism 2; Mhbv 151. -- paccekabrahmā a br. by himself S i.149 (of the name of Tudu; cp. paccekabuddha). -- sabrahmaka (adj.) including the brahma gods D i.62; A ii.70; Vin i.11; DA i.174.
III. brahma (adj. -- n.) [cp. brahmā II. 2; Vedic brahma˚ & Sk. brāhma] 1. holy, pious, brahmanic (m.) a holy person, a brahmin -- (adj.) J ii.14 (br vaṇṇa=seṭṭha vaṇṇa C.); KhA 151 (brahma -- cariyaŋ brahmaŋ cariyaŋ). -- (m.) acc. brahmaŋ Sn 285; voc brahme (frequent) Sn 1065 (=brahmā ti seṭṭhavacanaŋ SnA 592); J ii.346; iv.288; vi.524, 532 Pv i.129 (=brāhmaṇa PvA 66). -- 2. divine, as incorporating the highest & best qualities, sublime, ideal best, very great (see esp. in cpds.), A ;i.132 (brahmā ti mātāpitaro etc.), 182; iv.76. -- 3. holy, sacred, divinely inspired (of the rites, charms, hymns etc.) D i.96 (brahme mante adhiyitvā); Pv ii.613 (mantaŋ brahmacintitaŋ) =brāhmaṇānaŋ atthāya brahmaṇā cintitaŋ PvA 97, 98). -- Note. The compn form of all specified bases (I. II. III.) is brahma˚;, and with regard to meaning it is often not to be decided to which of the 3 categories the cpd. in question belongs.
-- attabhāva existence as a brahma god DhA iii.210 -- ujjugatta having the most divinely straight limbs (one of the 32 marks of a Great Man) D ii.18; iii.144, 155 -- uttama sublime DhsA 192. -- uppatti birth in the brahma heaven S i.143. -- ûposatha the highest religious observance with meditation on the Buddha practice of the uposatha abstinence A ;i.207. -- kappa like Brahmā Th 1, 909. -- kāya divine body D iii.84 J i.95. -- kāyika belonging to the company of Brahmā, N of a high order of Devas in the retinue of Br (cp. Kirfel, Kosmographie pp. 191, 193, 197) D i.220 ii.69; A iii.287, 314; iv.40, 76, 240, 401; Th 1, 1082 Vism 225, 559; KhA 86. -- kutta a work of Brahmā D iii.28, 30 (cp. similarly yaŋ mama, pitrā kṛtaŋ devakṛtaŋ na tu brahmakṛtaŋ tat Divy 22). See also under kutta. -- giriya (pl.) name of a certain class of beings possibly those seated on Brahmagiri (or is it a certain class of performers, actors or dancers?) Miln 191 -- ghaṭa (=ghaṭa2) company or assembly of Brahmans J vi.99. -- cakka the excellent wheel, i. e. the doctrine of the Buddha M i.69; A ii.9, 24; iii.417; v.33; It 123 Ps ii.174; VbhA 399 (in detail); -- cariya see separate article. -- cārin leading a holy or pure life, chaste, pious Vin ii.236; iii.44; S i.5, 60; ii.210; iii.13; iv.93, A ii.44; M iii.117; Sn 695, 973; J v.107, 382; Vv 3411 (acc. pl. brahmacāraye for ˚cārino); Dh 142; Miln 75 DA i.72 (brahmaŋ seṭṭhaŋ ācāraŋ caratī ti br. c.) DhA iii.83; a˚ S iv.181; Pug 27, 36. -- cintita divinely inspired Pvi i.613=Vv 6316 (of manta); expln at PvA 97 as given above III.3, differs from that at VvA 265 where it runs: brahmehi Aṭṭhak' ādīhi cintitaŋ paññācakkhunā diṭṭhaŋ, i. e. thought out by the divine (seer Aṭṭhaka and the others (viz. composers of the Vedic hymns: v. s. brāhmaṇa1, seen with insight). -- ja sprung from Brahmā (said of the Brāhmaṇas) D iii.81 83; M ii.148. Cp. dhammaja. -- jacca belonging to a brahman family Th 1, 689. -- jāla divine, excellent net N. of a Suttanta (D No. 1) Vism 30; VbhA 432, 516 KhA 12, 36, 97; SnA 362, 434. -- daṇḍa "the highest penalty," a kind of severe punishment (temporary deathsentence ) Vin ii.290; D ii.154; DhA ii.112; cp. Kern Manual p. 87. -- dāyāda kinsman or heir of Brahmā D iii.81, 83. -- deyya a most excellent gift, a royal gift, a gift given with full powers (said of land granted by the King) D i.87 (=seṭṭha -- deyyaŋ DA i.246; cp. Dial. i.108 note: the first part of the cpd. (brahma) has always been interpreted by Brahmans as referring to themselves But brahma as the first part of a cpd. never has that meaning in Pali; and the word in our passage means literally "a full gift." -- Cp. id. p. Divy 620 where it does not need to mean "gift to brahmans," as Index suggests); D i.114; J ii.166=DhA iii.125 (here a gift to a br., it is true, but not with that meaning) J vi.486 (sudinnaŋ+); Mhbv 123. We think that both Kern (who at Toev. s. v. unjustly remarks of Bdhgh's expln as "unjust") and Fick (who at "Sociale Gliederung" p. 126 trsls it as "gift to a Brahman") are wrong, at least their (and others') interpretation is doubtful. -- devatā a deity of the Brahmaloka PvA 138 (so read for brahmā˚). -- nimantanika "addressing an invitation to a brahma -- god," title of a Suttanta M i.326 sq., quoted at Vism 393. -- nimmita created by Brahmā D iii.81, 83. -- patta arrived at the highest state, above the devas, a state like the Br. gods M i.386 A ii.184. -- patti attainment of the highest good S i.169 181; iv.118. -- patha the way to the Br. world or the way to the highest good S i.141; A iii.346; Th 1, 689 Cp. Geiger, Dhamma 77. -- parāyana devoted to Brahmā Miln 234. -- parisā an assembly of the Brahma gods D iii.260; M i.330; S i.155; A iv.307. -- pārisajja belonging to the retinue of Br., N. of the gods of the lowest Rūpa -- brahmaloka S i.145, 155; M i.330; Kvu 207; cp. Kirfel, Kosmographie 191, 194. -- purohita minister or priest to Mahābrahmā; ˚deva gods inhabiting the next heaven above the Br. -- pārisajjā devā (cp. Kirfel loc. cit.) Kvu 207 (read ˚purohita for ˚parohita!). -- pphoṭana [a -- pphoṭana; ā+ph.] a Brahmaapplause divine or greatest applause DhA iii.210 (cp Miln 13; J vi.486). -- bandhu "brahma -- kinsman," a brāhmaṇa in descent, or by name; but in reality an unworthy brahman, Th 2, 251; J vi.532; ThA 206 cp. Fick, Sociale Gliederung p. 140. -- bhakkha ideal or divine food S i.141. -- bhatta a worshipper of Br J iv.377 sq. -- bhavana Br. -- world or abode of Br. Nd1 448. -- bhūta divine being, most excellent being, said of the Buddha D iii.84; M i.111; iii.195, 224; S iv.94 A v.226; It 57; said of Arahants A ii.206; S iii.83 -- yāna way of the highest good, path of goodness (cp brahma -- patha) S v.5; J vi.57 (C. ariyabhūmi: so read for arāya˚). -- yāniya leading to Brahmā D i.220 -- loka the Br. world, the highest world, the world of the Celestials (which is like all other creation subject to change & destruction: see e. g. Vism 415=KhA 121) the abode of the Br. devas; Heaven. -- It consists of 20 heavens, sixteen being worlds of form (rūpa -- brahmaloka) and four, inhabited by devas who are incorporeal (arūpa˚). The devas of the Br. l. are free from kāma or sensual desires. Rebirth in this heaven is the reward of great virtue accompanied with meditation (jhāna) A i.227 sq.; v.59 (as included in the sphere called sahassī cūḷanikā lokadhātu). -- The brahmās like other gods are not necessarily sotāpannā or on the way to full knowledge (sambodhi -- parāyaṇā); their attainments depend on the degree of their faith in the Buddha Dhamma, & Sangha, and their observance of the precepts. -- See e. g. D ;iii.112; S i.141, 155, 282; A iii.332; iv.75, 103; Sn 508, 1117; J ii.61; Ps i.84 Pv ii.1317; Dhs 1282; Vbh 421; Vism 199, 314, 367 372, 390, 401, 405, 408, 415 sq., 421, 557; Mhbv 54 83, 103 sq., 160; VbA 68; PvA 76; VbhA 167, 433 437, 510. See also Cpd. 57, 141 sq.; Kirfel, Kosmographie 26, 191, 197, 207, and cp. in BSk. literature Lal. Vist. 171. The Br. -- l. is said to be the one place where there are no women: DhA i.270. -- yāva Brahmalokā pi even unto Br.'s heaven, expression like "as far as the end of the world" M i.34; S v.265, 288 -- ˚ûpaga attaining to the highest heaven D ii.196 A v.342; Sn 139; J ii.61; Kvu 114. -- ˚ûpapatti rebirth in Heaven Sn 139. -- ˚parāyana the Br. -- loka as ultimate goal J ii.61; iii.396. -- ˚sahavyatā the company of the Br. gods A iv.135 sq. -- yāna the best vehicle S v.5 (+dhammayāna). -- vaccasin with a body like that of Mahābrahmā, combd with -- vaṇṇin of most excellent complexion, in ster. passage at D i.114, 115 M ii.167, cp. DA i.282: ˚vaccasī ti Mahābrahmuṇo sarīra -- sadisena sarīrena samannāgato; ˚vaṇṇī ti seṭṭhavaṇṇī -- vāda most excellent speech Vin i.3. -- vimāna a palace of Brahmā in the highest heaven D iii.28, 29 It 15; Vism 108. -- vihāra sublime or divine state of mind, blissful meditation (exercises on a, altruistic concepts; b, equanimity; see on these meditations Dial i.298). There are 4 such "divine states," viz. mettā karuṇā, muditā, upekkhā (see Vism 111; DhsA 192 and cp. Expositor 258; Dhs trsl. 65; BSk. same, e. g Divy 224); D ii.196; iii.220 (one of the 3 vihāra's dibba˚, brahma˚, ariya˚); Th 1, 649; J i.139 (˚vihāre bhāvetvā . . . brahmalok' ûpaga), ii.61; Dhs 262 Vism 295 sq. (˚niddesa), 319. -- veṭhana the head -- dress of a brahmin SnA 138 (one of the rare passages where brahma˚=brahma III. 1). -- sama like Brahmā Sn 508 SnA 318, 325; DhsA 195. -- ssara "heavenly sound, a divine voice, a beautiful and deep voice (with 8 fine qualities: see enumd under bindu) D ii.211=227 J i.96; v.336.
Brahmaka (adj.) only in cpd. sa˚; with Brahmā (or the Br. world). q. v.
Brahmacariya (nt.) [brahma+cariya] a term (not in the strictly Buddhist sense) for observance of vows of holiness, particularly of chastity: good & moral living (brahmaŋ cariyaŋ brahmāṇaŋ vā cariyaŋ=brahmacariyaŋ KhA 151); esp. in Buddh. sense the moral life, holy life, religious life, as way to end suffering Vin i.12, 19, renouncing the world, study of the Dhamma D i.84, 155; ii.106; iii.122 sq., 211; M i.77 147, 193, 205, 426, 463, 492, 514; ii.38; iii.36, 116 S i.38, 43, 87, 105, 154, 209; ii.24, 29, 120, 219, 278 284 (˚pariyosāna); iii.83, 189; iv.51, 104, 110, 126 136 sq., 163, 253, v.7 sq., 15 sq., 26 sq., 54 sq., 233 262, 272, 352; A i.50, 168, 225; ii.26, 44, 185; iii.250 346; iv.311; v.18, 71, 136; Sn 267, 274 (vas -- uttama) 566, 655, 1128; Th 1, 1027, 1079; It 28, 48, 78, 111 Dh 155, 156, 312; J iii.396; iv.52; Pv ii.913; DhA iv.42 (vasuttamaŋ); VbhA 504. -- brahmacariyaŋ vussati to live the religious life A i.115 (cp. ˚ŋ vusitaŋ in formula under Arahant II. A); ˚assa kevalin wholly given up to a good life A i.162; ˚ŋ santānetuŋ to continue the good life A iii.90; DhA i.119; komāra˚; the religious training of a well -- bred youth A iii.224; Sn 289. -- abrahmacariya unchastity, an immoral life sinful living M i.514; D i.4; Sn 396; KhA 26.
-- antarāya raping DhA ii.52. -- ânuggaha a help to purity A i.167; iv.167; Dhs 1348. -- ûpaddava a disaster to religious life, succumbing to worldly desires M iii.116. -- vāsa state of chastity, holy & pure life adj. living a pure life A i.253; J iii.393; Kvu 93 DhA i.225.
Brahmacariyaka (adj.) [fr. brahmacariya] only in phrase ādi˚ leading to the highest purity of life D i.189, 191 iii.284; A iv.166.
Brahmacariyavant (adj.) [fr. brahmacariya] leading the religious life, pure, chaste S i.182; Dh 267.
Brahmañña (adj.) [fr. brāhmaṇa] brahman, of the brahman rank; brahmanhood, of higher conduct, leading a pure life D i.115 (at which passage DA i.286 includes Sāriputta, Moggallāna & Mahākassapa in this rank) M ii.167; A i.143. -- abstr. der. brāhmaññā (nt.) higher or holy state, excellency of a virtuous life D i.166; Vin iii.44; J iv.362 (=brāhmaṇa dhamma C.); brahmañña (nt.) D ii.248; brahmaññā (f.) D iii.72, 74; A i.142; brahmaññattha (nt.) S ;iii.192; v.25 sq., 195; A i.260 (brāhmaññattha).
Brahmaññatā (& brāh˚) [fr. brahma or brāhmaṇa] state of a brahman D iii.145, 169; Dh 332, cp. DhA iv.33 -- Neg. a˚; D iii.70, 71.
Brahmaññattha see brahmañña.
Brahmatta (nt.) [abstr. fr. brahma] state of a Brahma god, existence in the Br. world Vbh 337; Vism 301 VbhA 437; DhA i.110. brahmattabhāva is to be read as brahm' attabhāva (see under brahma).
Brahmattara at J iii.207 (of a castle) is probably to be read brahmuttara "even higher than Brahmā," i. e unsurpassed, magnificent. C. explns by suvaṇṇa-pāsāda.
Brahmavant (adj.) [fr. brahma] "having Brahmā," possessed or full of Brahmā; f. brahmavatī Np. Vism 434.
18 entries for brahma in CPED:
brahma: the Brahma; the Creator. (m.)
brahmakāyika: belonging to the company of Brahmas. (adj.)
brahmaghosa: having a sound similar to that of Brahma. (adj.)
brahmacariyā: religious life; complete chastity. (f.)
brahmacārī: leading a chaste life. ()
brahmajacca: belonging to the brahman caste. (adj.)
brahmañña: brahmanhood; pure life. (nt.)
brahmaññatā: brahmanhood; pure life. (f.)
brahmaṇakaññā: Brahman maiden. (f.; adj.)
brahmadaṇḍa: a (kind of) punishment by stopping all conversation and communication with one. (m.)
brahmadeyya: a royal gift. (nt.)
brahmappatta: arrived at the highest state. (adj.)
brahmabandhu: a relative of the brahma, i.e. a brahman. (m.)
brahmabhūta: most excellent. (adj.)
brahmaloka: the brahma world. (m.)
brahmalokūpaga: taking birth in the Brahma-world. (adj.)
brahmavimāna: mansion of a brahma god. (nt.)
brahmavihāra: divine state of mind; a name collectively given to mettā, karuṇā, muditā, and upekkhā. (m.)
21 entries for brahma in DPPN:
brahma
brahmakāyikādevā
brahmacariyasutta
brahmajālasutta
brahmaññasutta
brahmadatta
brahmadattakumāra
brahmadattajātaka
brahmadeva
brahmadevasutta
brahmanimantanikasutta
brahmapārisajja
brahmapurohita
brahmavaḍḍhana 1
brahmavaḍḍhana 2
brahmavatī
brahmāyu
brahmāyusutta
brahmālithera
brahmāsamyutta
brahmāsutta
brahma - See
brahmakāyikā devā - See Brahmaloka.
Brahmacariya Sutta
1. Brahmacariya Sutta. Brahmacariyā is practised for nought else but self restraint and cessation of Ill. A.ii.26.

2. Brahmacariya Sutta. The best practice is the Noble Eightfold Path. Its fruits are sotāpatti, etc. S.v.26.

3. Brahmacariya Sutta. The best practice is the Noble Eightfold Path. Its aim is the destruction of lust, hatred, and illusion. S.v.26f.

Brahmajāla Sutta
The first sutta of the Dīgha Nikāya. It was preached to the paribbājaka Suppiya and his disciple Brahmadatta. It first explains the sīlā, or moral precepts, in three successive sections cūla (concise), majjhima (medium), and mahā (elaborate) and then proceeds to set out in sixty two divisions various speculations and theories regarding the "soul" (D.i.46). Other names for it are Atthajāla, Dhammajāla, Ditthijāla, and Sangāmavijaya. At the end of the discourse the ten world systems trembled (D.i.46). It is said that once when Pinndapātiya Thera recited this sutta at the Kalyāniya vihāra, his mind concentrated on the Buddha, the earth trembled; the same phenomenon occurred when the Dīghabhānaka Theras recited it at the Ambahtthikā, to the east of the Lohapāsāda (DA.i.131).

The Brahmaj'āla was the first sutta preached in Suvannabhūmi, when Sona and Uttara visited it as missionaries (Mhv.xii.51).

The Sutta is often quoted, sometimes even in the Canon. E.g., S.iv. 286, 287.

Brahmañña Sutta
1. Brahmañña Sutta. The highest life is the Noble Eightfold Path, and the fruits thereof are sotāpatti, etc. S.v.26.

2. Brahmañña Sutta. The highest life is the Noble Eightfold Path, and its aim is the destruction of lust, hatred, and illusion. S.v.26; cf. Brahmacariya Sutta (3).

3. Brahmañña Sutta. Few are they who reverence brahmins, many they who do not. S.v.468.

Brahmadatta
1. Brahmadatta. King of Kāsi. He captured Kosala and murdered its king Dīghiti and Dīghiti's wife, but made peace later with Dīghiti's son, Dīghāvu, restored to him his father's kingdom, and gave him his own daughter in marriage. Vin.i.342ff.; DhA.i.56f.

2. Brahmadatta. King of the Assakas and friend of Renu. When Mahāgovinda divided Jambudīpa into seven equal portions for Renu and his six friends, Brahmadatta was given the kingdom, of the Assakas, with Potama as his capital. D.ii.235f.

3. Brahmadatta. In the Jātaka Commentary this is given as the name of numerous kings of Benares. In most cases we are told nothing further of them than that they reigned at Benares at the time of the incidents related in the story. Brahmadatta, was probably the dynastic name of the kings of Benares. Thus, for instance, in the Gangamāla Jātaka (J.iii.452) Udaya, king of Benares, is addressed as Brahmadatta.

In the Gandatindu Jātaka (J.v.102-106) however, Pañcāla, king of Uttarapañcāla, is also called Brahmadatta; in this case it was evidently his personal name. It was also the name of the husband of Pingiyāni (q.v.). He was a king, but we are not told of what country. He is identified (J.v.444) with Kunāla.

4. Brahmadatta Thera. He was the son of the king of Kosala, and, having witnessed the Buddha's majesty at the consecration of Jetavana, he entered the Order and in due course became an arahant. One day, while going for alms, he was abused by a brahmin, but kept silence. Again and again the brahmin abused him, and the people marvelled at the patience of Brahmadatta, who then preached to them on the wisdom of not returning abuse for abuse. The brahmin was much moved and entered the Order under Brahmadatta. Thag. vs. 441 6; ThagA.i.460ff.

5. Brahmadatta. Head of a dynasty of thirty six kings, all of whom ruled at Hatthipura. His ancestors ruled at Kapilanagara. MT. 127; Dpv.iii.18.

6. Brahmadatta. A Pacceka Buddha. In the time of Kassapa Buddha he had been a monk and had lived in the forest for twenty thousand years. He was then born as the son of the king of Benares. When his father died he became king, ruling over twenty thousand cities with Benares as the capital, but, wishing for quiet, he retired into solitude in the palace.

His wife tired of him and committed adultery with a minister who was banished on the discovery of his offence. He then took service under another king and persuaded him to attack Brahmadatta. Brahmadatta's minister, much against his will, and having promised not to take life, made a sudden attack on the enemy and drove them away. Brahmadatta, seated on the field of battle, developed thoughts of metā and became a Pacceka Buddha. SNA.i.58ff.

7. Brahmadatta. A brahmin, father of Kassapa Buddha. J.i.43; Bu.xxv.34.

8. Brahmadatta. Pupil of the Paribbājaka Suppiya. A conversation between these two led to the preaching of the Brahmajāla Sutta. D.i.1.

9. Brahmadatta. A monk, sometimes credited with having supplied the illustrations to the aphorisms in Kaccāyama's grammar. P.L.C. 180.

10. Brahmadatta. See also Ekaputtika-, Catumāsika-, Cūlani-, and Sāgara-; and below, s.v. Brahmadatta-kumāra.

Brahmadatta-kumāra
1. Brahmadatta-kumāra. Son of Brahmadatta, king of Benares. He was the Bodhisatta. For his story see Dummedha Jātaka. J.i.259ff.

2. Brahmadatta-kumāra. See Rājovāda Jātaka. J.ii.2ff.

3. Brahmadatta-kumāra. Brother of Asadisa; see the Asadisa Jātaka. J.ii.87ff.

4. Brahmadatta-kumāra. See the Asitābhū Jātaka. J.ii.229ff.

5. Brahmadatta-kumāra. See the Tilamutthi Jātaka. J.ii.277ff.

6. Brahmadatta-kumāra. See the Dhonasākha Jātaka. J.iii.158ff.

7. Brahmadatta-kumāra. See the Susīma Jātaka. J.iii.391ff.

8. Brahmadatta-kumāra. See the Kummāsapinda Jātaka. J.iii.407ff.

9. Brahmadatta-kumāra. See the Atthāna Jātaka. J.iii.475ff.

10. Brahmadatta-kumāra. See the Lomasakassapa Jātaka. J.iii.514ff.

11. Brahmadatta-kumāra. See the Suruci Jātaka. J.iv.315ff.

12. Brahmadatta-kumāra. See the Sankicca Jātaka. J.v.263ff.

13. Brahmadatta-kumāra. See the Mahāsutasoma Jātaka. J.v.457ff.

14. Brahmadatta-kumāra. See the Bhūridatta Jātaka. J.vi.159ff.

Brahmadatta Jātaka (No.323)
Once, the Bodhisatta, after studying at Takkasilā, became an ascetic in the Himālaya, visited Uttarapañcāla, and resided in the garden of the Pañcāla king. The king saw him begging for alms, invited him into the palace and, having shown him great honour, asked him to stay in the park. When the time came for the Bodhisatta to return to the Himālaya, he wished for a pair of single soled shoes and a leaf parasol. But for twelve years he could not summon up enough courage to ask the king for these things! He could only get as far as telling the king he had a favour to ask, and then his heart failed him, for, he said to himself, it made a man weep to have to ask and it made a man weep to have to refuse. In the end the king noticed his discomfiture and offered him all his possessions; but the ascetic would take only the shoes and the parasol, and, with these, he left for the Himālaya.

The king is identified with Ananda. J.iii.78ff.

Brahmadeva
1. Brahmadeva. One of the two chief disciples of Revata Buddha. Bu.vi.21; J.i.35.

2. Brahmadeva. A khattiya of Hamsavatī to whom Tissa Buddha preached his first sermon (BuA.189). He later became the Buddha's chief disciple. Bu.xviii.21.

3. Brahmadeva Thera. The son of a brahmin woman. Having joined the Order, he dwelt in solitude and became an arahant. One day he went to Sāvatthi for alms, and, in due course, arrived at his mother's house. She was in the habit of making an oblation to Brahmā, but, on that day, Sahampatī appeared before her and told her to bestow her gifts on her son. S.i.140f.

4. Brahmadeva. Aggasāvaka of Metteyya Buddha. Anāgatavamsa, vs. 97.

brahmadeva-sutta - Records the story of Brahmadeva Thera (q.v. 3) and his mother. S.i.140ff.
Brahmanimantanika Sutta
Preached at Jetavana. The Buddha tells the monks of his visit to Baka Brahmā, who holds the view that this world is eternal. The Buddha tells Baka that his view is false, whereupon Māra, having taken possession of one of the Brahmās, protests and urges the Buddha not to be recalcitrant. Baka himself agrees with the Buddha, who tells him of planes of existence of which Baka knows nothing. Baka then says that he will vanish from the Buddha's presence, but finds himself unable to do so. The Buddha then vanishes and repeats a stanza for the Brahmās to hear. Baka admits defeat, but Māra again enters into a Brahmā and asks the Buddha not to communicate his doctrine to others. The Buddha refuses to agree to this.

The sutta is so called because it was preached on account of Baka Brahmā's challenge (M.i.326ff). Cp. Bakabrahma Sutta.

brahmapārisajja, brahmapurohita - See Brahmaloka.
brahmapārisajja, brahmapurohita - See Brahmaloka.
brahmavaddhana 1 - An old name for Bārānasī (J.iv.119). A king named Manoja reigned there. For details see the Sona Nanda Jātaka. J.v.312ff.
brahmavaddhana 2 - Son of Metteyya Buddha before his Renunciation. Anāgatavamsa, vs.48.
brahmavatī - A brahminee, the mother of Metteyya Buddha. Vsm.434; DhSA.415; Dvy.60; Anāgatavamsa, vs. 96.
Brahmāyu
A brahmin foremost in Mithilā in his knowledge of the Vedas.

On hearing of the Buddha at the age of one hundred and twenty, he sent his pupil Uttara to discover if the Buddha had on his body the marks of a Mahāpurisa. Uttara therefore visited the Buddha and, having seen the thirty two marks, resolved to observe the Buddha in his every posture and, to this end, followed him about for seven months. He then returned to Brahmāyu and told him of the result of his investigations. Brahmāyu folded his palms reverently and uttered the praises of the Buddha. Soon after, the Buddha came to Mithilā and took up his residence in the Makhādeva ambavana. Brahmāyu, having sent a messenger to announce his arrival, visited the Buddha.

It is said that all those present rose to greet him, but Brahmāyu signed to them to be seated. He satisfied any remaining doubts he had as to the marks on the Buddha's body and then proceeded to ask him questions on various topics. At the end of the discussion he fell at the Buddha's feet, stroking them and proclaiming his name. The Buddha asked him to compose himself, and preached to him on "progressive" discourse. Brahmāyu invited the Buddha and his monks to his house, where he entertained them for a week. His death occurred not long after, and the Buddha, when told of it, said that Brahmāyu had become an Anāgāmī (M.ii.133ff). Brahmāyu's salutation of the Buddha is described as panipāta. ItvA.177.

Brahmāyu Sutta
Records the story of the conversion of Brahmāyu (q.v.).

The Sutta contains a description of the thirty two marks of the Mahāpurisa (Cp. Lakkhana Sutta ) and also particulars of the Buddha's conduct in various circumstances - such as walking, eating, meditating, preaching, etc. That is an example of a sutta in which the word "dhammacakkhu" means the three Paths leading to anāgāmiphala. MA.ii.617.

Brahmāli Thera
He belonged to a brahmin family of Kosala, and, through association with spiritually minded friends and his own realization of the ills of samsāra, he entered the Order. Dwelling in the forest he soon developed insight and acquired arahantship.

In the time of Vipassī Buddha he was a householder, and, seeing the Buddha going on his alms rounds, he gave him a vāra-fruit. Thag.vs.205-6; ThagA.i.327f.

brahmā-samyutta - The sixth section of the Samyutta Nikāya. S.i.136 59.
Brahmā Sutta
1. Brahmā Sutta. The Buddha is under the Ajapālanigrodha, soon after the Enlightenment, pondering on the four satipatthānas as the only way to Nibbanā. Sahampati visits him and agrees with his sentiments. S.v.167.

2. Brahmā Sutta. The scene is the same as in the above. The Buddha is reflecting on the five indriyas (saddhā, sati, etc.), as the way to Nibbāna, and Sahampati visits him and agrees with him, relating how, when he was a monk named Sahaka, in the time of Kassapa Buddha, he developed the five indriyas and was born in the Brahma world. S.v.232f.

Friday, July 24, 2020

भदंत प्रज्ञाशील महाथेरो।

भारतीय बौद्ध महासभा का एक ग्रुप विश्व हिन्दू परिषद के लिए काम करता है यह आप भली भांति जानते है क्यों की आप गुजरात के और विशेष कर अहमदाबाद के है। आपको यह भी मालूम है कि महामहिम दलाई लामा जी के साथ विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता बौद्ध बनकर उनसे धन ऐंठने का काम भी करते रहे है।

मेरा सत्ताईस साल का अहमदाबाद के उपासकों से संपर्क है। कुछ साल पहले 201-13 के बीच बुद्ध धम्म दीक्षा आयोजित किया था तब मुझे गुजरात में घुसने नहीं देने की घोषणा भारतीय बौद्ध महासभा विश्व हिन्दू परिषद वालों ने की थी। श्री अशोक सिंघल विश्व हिन्दू परिषद के गुजर गए वे बौद्ध देशों में भंते के साथ बौद्ध प्रतिनिधित्व करते थे।
भरी सभा में लेटकर उक्त भंते को साष्टांग दंडवत करते थे और विदेशों के टिकट भी वे ही निकालते थे। श्री अशोक सिंघल के जैसे ही श्री इंद्रेश कुमार का काम है। हर साल चीवर पुजन का कार्यक्रम करते है, कभी बुद्ध गया में भी दिल्ली से भिक्षुओं को साथ ले गये थे। दिल्ली के डॉ आंबेडकर भवन में बौद्धों को इकट्ठा करने का कार्यक्रम किया था। उसमें नागपुर से अनुसूचित जाति मोर्चा (भाजपा) के द्वारा समता सैनिक दल के नाम से गुजरात में काम करने वाले महोदय गये हुए थे। मैंने घुग्घुस चंद्रपुर के एक भिक्षु को आवश्यक काम से दिल्ली बुलाया था। रिजर्वेशन करके उसे इ टिकट भेजा था। उसे समझ में नहीं आया और वह अनुसूचित जाति मोर्चा वालों के साथ बैठकर ट्रेन में आते समय मैंने उसे अपने कोच और सीटपर क्यों नहीं बैठा? तब समता सैनिक दल वाले से बात कराई, जिसको मैं नागपुर से ही जानता था। तब उसने बहाना बनाकर कहा की मैं अनुसूचित जाति मोर्चा वाले के साथ दिल्ली किसी काम से जा रहा हूं। भंते जी को हमने साथ में लिया है। भंते ने बात करायी थी, तब मुझे पता चला कि डॉ आंबेडकर भवन रानी झांसी रोड पर कार्यक्रम है।

कार्यक्रम में गदा (हनुमान वाला हथियार) बांटने पर एक महिला बौद्ध साध्वी(अपने को भिक्षुणी बताती है) के साथ गदा बांटने को लेकर विवाद हो गया था। उस कार्यक्रम में हमारे दिल्ली कार्यालय संघाराम बुद्ध विहार के भंते लोग सामिल थे।

बहुत घालमेल लोगों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कर रखा है। डॉ पी जी ज्योतीकर विश्व हिन्दू परिषद के उत्तर गुजरात के उपाध्यक्ष और महाबोधि सोसायटी आफ इंडिया में भी वरिष्ठ पदाधिकारी कारी है। महामहिम दलाई लामा जी के संगठनों में भी सहभागी होते रहे है। हिंदू बौद्ध भाई भाई का कार्यक्रम चलाते रहे है। बुद्धगया महाबोधि महाविहार में मेरे छह वर्ष काम करने के दरम्यान डॉ पी जी ज्योतीकर जी ने महाबोधि सोसायटी में श्रामणेर की प्रव्रज्या लेकर दस दिन थे। मेरे पास मिलने आया करते थे।

अनागारिक धम्मपाल द्वारा बनाई हुई महाबोधि सोसायटी आफ इंडिया में साठ से अधिक प्रतिशत कट्टर हिंदू ब्राम्हण सदस्य हुआ करते थे। क्योंकि प्रथम अध्यक्ष श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाली ब्राम्हण थे।

आयुष्मान चंद्रपाल शैलानी पूर्व सांसद और कार्यकारी सदस्य महाबोधि सोसायटी ने वार्षिक अधिवेशन में बौद्ध सदस्यों की संख्या बढ़ाने को लेकर हंगामा करने पर श्रीलंका वाले भारतीय बौद्ध भिक्षुओं का नेतृत्व करने वालोंं ने महाबोधि सोसायटी आफ इंडिया के संविधान में संशोधन कर बौद्धों की संख्या बढ़ाने का प्रावधान किया।

दिल्ली के एक इंजीनियर कार्यकर्ता जापानी संस्था रेयूकाई के लिए काम करते थे और युग उद्बोधन नाम से मासिक पत्रिका निकालते थे। उनका बौद्ध समन्वय संगठन था, आयुष्मान के पी आर बंधु नाम था। वे अपनी पत्रिका में बहुत से विवादित मुद्दों को छापते थे। मैं उनकी पत्रिका का संरक्षक था।
पटना में स्वेटर बेचने वाले तिब्बती लोगों ने डॉ के पी आर बंधु, डॉ बी एन करुणाकर, पंचशील नर्सिंग होम और उनके साथी गण तथा मुंगेर के आंबेडकर बोधिकुंज सोसायटी के लामाजी श्री नारायण सिंह की पिटाई की और दिन भर पुलिस थाने में बंद रहना पड़ा था। मामला यह था कि दलाई लामा के खिलाफ युग उदबोधन पत्रिका में लिखा हुआ लेख था।

बुद्धगया महाबोधि महाविहार मुक्ति आंदोलन समिति के साथ यह सभी लोग जुड़े हुए थे तथा भदंत आर्य नागार्जुन शुरेई ससाईजी बुद्ध गया मुक्ति आंदोलन समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।

पटना में 06दिसंबर 1993 को गांधी मैदान पर विशाल बौद्ध धम्म दीक्षा का आयोजन भदंत आनंद महाथेरो तत्कालीन राष्ट्रीय महासचिव के देखरेख में और पुलिस(रेलवे) के डिआईजी आयुष्मान मैकुराम, अध्यक्ष, अनुसूचित जाति जनजाति कर्मचारी संगठन बिहार राज्य के नेतृत्व में हुआ था।

आयुष्मान रमण के चौहान आपने पोस्ट पर प्रतिक्रिया लिखने के कारण मुझे कुछ खुलासा करना उचित लगा। क्योंकि आप आयुष्मान निखिल गौतम, आयु. मिलिंद  प्रियदर्शी, आयुष्मान जयवर्धन हर्ष, आयु. जनबंधु कौशांबी, अमृतलाल परमार(रेलवे), आयु. दीक्षित भाई सुतरिया, रमणभाई आयु. एम के परमार, भाईलाल गोहिल और गुजरात बुद्धिस्ट अकादमी, डॉ आंबेडकर स्टडी सर्कल के प्रमुख एअर इंडिया में कार्यरत थे अब सेवानिवृत्त आयुष्मान प्रेमराज मेश्राम, आयुष्मान मेघराज वानखडे, आयुष्यमति अनिता वानखडे और महाराष्ट्रीयन बौद्ध आयुष्मान अंताराम गजभिए, बापूनगर बुद्ध विहार समिति के कार्यकर्ता आयुष्मान तिगांवकर, साठे, आदि जो दिवंगत हो गये, सभी पदाधिकारी गण और बाद में जूडे आयुष्मान रमेश बैंकर साहब आदि के द्वारा गुजरात में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर और उनके बताए धम्म के प्रचार प्रसार में मेहनत और संघर्ष रत रहें है। धम्म बंधु पागल बाबा और आयुष्मान मदन जी ने जो अमर कार्य किया है उसको इतिहास कभी भूला नहीं सकेगा।

भदंत प्रज्ञाशील महाथेरो।
सुवन मोक्ख बलाराम अरण्य विहार, चैया। दक्षिण थाईलैंड
शुक्रवार 24 जुलाई 2020

Thursday, July 23, 2020

कुछ सवाल:संजीव चन्दन

कुछ सवाल:
ज्यादा नहीं छह से आठ साल के इन सवालों पर स्मृतियां दौडाएं
1. भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री ने अपना लालकिला किस शहर में बनाया था और कब?
2. भाजपा का भव्य कार्यालय कब बना और कहां?
3. गोरक्षा के नाम पर पहली-दूसरी-तीसरी हत्या कब हुई और कहां?
4. 2013 के बाद पाकिस्तान के आतंकवादियों ने कब और कहां पहला अटैक किया?
5. 2017 के बाद उत्तरप्रदेश में एनकाउंटर की शुरुआत कहाँ से और कब से हुई?
6. जेएनयू पर पहला और संगठित हमला कबसे शुरू हुआ?
7. किस नेता ने मोर के आंसू से गर्भ लेती मोरनी का रहस्य और जेएनयू में कंडोम की संख्या बतायी?
8. किस नेता ने भारत की पहली सर्ज़री बतायी और कब?
9. प्रधानमंत्री ने कितनीबार और कौन-कौन से ऐतिहासिक तथ्यों का उलट-फेर करते हुए बोल्डली अपनी बात कही?
10. पहली बार किस जगह या संस्थान का नाम बदला गया?
11. नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताने का पुनीत ऐतिहासिक काम इन वर्षों में किसने और कब किया?
12. पहला संस्थान कौन सा था जिसे सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया गया?
13. नोटबन्दी के दौरान बैंकों में लाइन लगते हुए कितनी मौतें हुईं?
14. जीएसटी में कितने बदलाव हुए?
15. पहली चुनी हुई राज्यसरकार कहाँ गिरायी गयी, जहां विधायकों की बड़ी खेप केंद्र की सत्ताधारी पार्टी में शामिल हो गयी?
16. किन जजों ने और कब अपने ही चीफ जस्टिस के खिलाफ मोर्चा खोला?
17. कोरोना का पहला केस कब और कहां मिला, और किस रफ्तार से बढ़ा?
18. सीएए और एनआरसी की क्रोनोलॉजी क्या है?
19. किन राज्यों को मंदिर और भक्ति का उपहार मिला और किस राज्य को सरकारी ठेके?
20. पहली ' नागरी' गिरफ्तारी माओवाद समर्थक के नाम पर कब हुई? और गिरफ्तार नागरों में से किसके लैपटॉप में पीएम की हत्या की चिट्ठी मिली?
21. पहला दलित उत्पीड़न का मामला कब और कहां आया, जो राष्ट्रीय मुद्दा बना?
ऐसे अनेक और सवाल हैं? क्या इसके उत्तर याद हैं, बिना गूगल किये? क्या सबकुछ फ्लश नहीं हो जाता रहा है?
जो लोग राजनीति बदलने का संघर्ष कर रहे हैं, उनके लिए चेतावनी है यह। स्टार्टर में उलझा रखे गए हैं वे, मेन कोर्स कभी शुरू ही नहीं हुआ?

महिलाओं की भागीदारी

बिहार में विधानसभा चुनाव आसन्न है। यदि महामारी के कारण नवम्बर में चुनाव नहीं हुआ तो भी अप्रैल 2021 के पहले-पहले तक चुनाव होना ही होना है।
इन चुनावों में महिलाओं की भागीदारी सबसे चिंताजनक होती है। बिहार उन राज्यों में रहा है जो महिलाओं के मताधिकार के सवाल पर 1929 तक दकियानूस ख्याल रखता था। वहां की परिषद में इस सम्बंध में होने वाली तीन बहसों में अधिकांश माननीय का ख्याल होता था कि महिलाएं घर तो सम्भाल नहीं पा रहीं हैं, राजनीति क्या सम्भालेंगी।
लेकिन बिहार ही पहला राज्य है जिसने 2005 में स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50% आरक्षण दे दिया। इसके पहले राजस्थान आदि में स्थानीय निकायों में मिला आरक्षण 50 से नीचे था। पिछले 30 सालों की हकीकत यह है कि महिलाएं पब्लिक स्फीयर में आज दिखती हैं। लालू प्रसाद के समय से शुरू हुआ यह बदलाव नीतीश कुमार के जमाने में ठोस होता गया-हालांकि स्थानीय निकायों के प्रतिनिधित्व को कमजोर करने का काम भी पिछले 10-15 सालों में ही नौकरशाही ने किया।
पब्लिक स्फीयर में भागीदारी के बावजूद महिलाओं की सदनों में उपस्थिति न के बराबर है। आज बिहार विधानसभा में कुल 28 महिला-सदस्य हैं, जो विधानसभा की पूरी सदस्य संख्या का लगभग 11-12% है। वहीं बिहार विधानपरिषद में 75 सदस्यों में 5 महिलाएं ( लगभग 6-7%) हैं।
बिहार में अबतक 15वीं विधानसभा में सर्वाधिक महिलाएं थीं। 243 की सदस्य संख्या वाली विधानसभा में 35 महिलाएं, यानी 14-15%। जबकि इसके पहले सबसे ज्यादा संख्या 1957 में दूसरी विधानसभा में थी, चौतीस। यद्यपि तब विधानसभा की कुल संख्या 330 थी, कुल प्रतिशत 10-11।
पहली विधान सभा (1952) में 13 महिला सदस्यों से शुरुआत करने के बाद बिहार में महिला-प्रतिनिधित्व में शुरुआती बढ़त जरूर हुई, 1957 (34), 1962 (25) लेकिन समाजिक न्याय की राजनीति के उदय के साथ 1967 से महिलाओं की संख्या घटकर 10 हो गई। इसे इस रूप में भी शायद देखा जा सकता है कि छूट गये समूहों की राजनीतिक आकांक्षा जब आकार लेती है, तो महिलाओं का स्वप्न उसमें जरूर शामिल होता है लेकिन प्रतिनिधित्व उसी अनुपात में हो जरूरी नहीं। कई वर्ष तक यह संख्या 15 के नीचे रही। 1969-72 में तो मात्र चार महिलाएं विधानसभा पहुंचीं।
आगे चलकर इसी सामाजिक न्याय का असर दिखा और महिलाओं की संख्या बढ़ने लगी। लेकिन कुलमिलाकर आज भी यह संख्या संतोषप्रद नहीं है।
इसके पहले 26 जनवरी 2019 को यहां मैंने पोस्ट लिखा था:
महिलाओं के मताधिकार के सवाल पर बिहार विधान परिषद में 1921, 1925, 1929 में हुई बहस पढ़ रहा हूँ। अजब-गजब तर्क दिये जा रहे हैं महिलाओं के मताधिकार के खिलाफ। इन बहसों को आज की उन बहसों के साथ देखा जा सकता है जो संसद में महिलाओं के आरक्षण के सवाल पर होती रही हैं
भारत में त्रावणकोर और मद्रास प्रोविंस ने 1921 में सीमित मताधिकार महिलाओं को दे दिया था। बिहार में 1929 में मिला। दो बार प्रस्ताव गिरा। 1921 में 21 वोट मताधिकार प्रस्ताव के पक्ष में गिरा और 32 वोट खिलाफ में। 1925 में 18 के मुकाबले 32 वोट से यह प्रस्ताव गिरा लेकिन 1929 में 14 के मुकाबले 47 वोट से प्रस्ताव पारित हुआ।
कुछ दिनों तक महात्मा गांधी भी महिलाओं के मताधिकार के खिलाफ थे। उनका मानना था कि महिलाओं को आजादी की लड़ाई में पुरुषों की मदद करनी चाहिए। हालांकि उनका यह विचार बदला भी। बिहार में शिक्षा के लिए अपने योगदान के लिए जाने जाने वाले सर गणेश दत्त सिंह ने 1929 में भी इस मताधिकार के खिलाफ वोट किया था।
बिहार प्रोविंस के माननीय सदस्य बहस में बता रहे हैं कि कैसे महिलाएं बच्चा पालन की अपनी मुख्य भूमिका को भी नहीं निभा पा रही हैं और बच्चे मर रहे हैं। यह वोट के लिए उनकी अयोग्यता के पक्ष में एक तर्क है। माननीय सदस्य लोग महिलाओं की भलाइ घर के भीतर होने में ही बता रहे हैं। चहारदीवारी में ही उनका सर्वांगीन विकास संभव है। कुछ माननीय उनके मताधिकार के बाद कॉउंसिल मे उनके चुने जाने से भयभीत हैं। यहां पुरुषों द्वारा संचालित कॉउंसिल में पुरुषों के डिबेट का फूहड़ दृश्य है-उसपर से दावा यह कि वे महिलाओं से बेहतर महिलाओ का पक्ष समझते हैं। तर्क यह भी कि यूं ही नहीं पुरुषों को महिलाओं का हसबैंड बनाया गया है-हसबैंड मतलब स्वामी-पुरुषों में काबिलियत है और महिलाओं में अक्षमता।
सर गणेश दत्त सिंह तो प्रस्ताव का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि 'उन्होंने कहा कि पुरुषों ने महिलाओं पर बहुत वर्षों तक शासन किया है। तो क्या वे महिलाओं द्वारा शासित होना चाहते हैं? हंसते हुए पूछते हैं कि क्या सभी क्षेत्रों में?' महिलाओ में निरक्षरता एव अशिक्षा का जिम्मेदार भी वे महिलाओ को ही बताते हैं।
ये इतिहास के दस्तावेज हैं और आज लगभग 100 बाद भी इस बात की बानगी कि क्यों भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 से 12 प्रतिशत तक आज भी सिमटा है और महिला आरक्षण बिल की रुकावटें क्या-क्या हैं?
2014 में स्त्रीकाल ने 1921, 1925 और 1929 में बिहार विधानसभा मे महिला मताधिकार की बहसों का संक्षेप प्रकाशित किया था। (अरुण नारायण द्वारा सम्पादित एक पत्रिका में मुसाफिर बैठा द्वारा प्रस्तुत सारांश था वह)

Sunday, July 19, 2020

ब्राह्मणवाद

1941 के आसपास कोई भी जज ब्राह्मण नहीं था l 1947 में देश आजाद हुआ सारे राज्यों के मुख्यमंत्री ब्राह्मण बन गए बिना चुनाव क l जितनी भी देश में यूनिवर्सिटी थी सब के वाइस चांसलर ब्राह्मण बन गए बिना किसी कंपटीशन एग्जाम के l अब मैं 1941 की बात करता हूं, जिस समय पर अंग्रेजों के अधीन भारत था l ब्राह्मणों को न्यायिक प्रक्रिया में कभी भी नहीं रखा गया, कारण यह बेईमान व्यभिचारी होने की वजह से इनके पास न्यायिक चरित्र नहीं था, परंतु देश आजाद हुआ इन्हीं के हाथ में सारी शासन सत्ता आ गई, और शासन सत्ता आने के कारण सारे मुख्य पदों पर यह भर्ती होने लगे l हमारे संविधान में न्यायिक आयोग का प्रविधान है परंतु न्यायिक आयोग को आज तक देश में इन ब्राह्मणों ने लागू नहीं होने दिया, आज लगभग 88 परसेंट हाईकोर्ट में और 98% सुप्रीम कोर्ट में ब्राह्मण बैठे हुए हैंl दूसरी तरफ मंदिरों में इनका पूरा पूरा अघोषित आरक्षण है, परंतु न्यायिक प्रक्रिया में जो कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आज तक इन्होंने न्यायिक आयोग को लागू नहीं होने दिया और वहां पर कालेजियम सिस्टम की व्यवस्था लागू की हुई है l कॉलेजियम सिस्टम जो 7 या 5 जज होते हैं वह उन सीटों को आपस में बांट लेते हैं l देश में मात्र 485 घराने हैं जो पूरी न्यायिक प्रक्रिया को पूरे देश में कंट्रोल किए हुए हैं इन्हीं घरानों से सारे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज आते हैं l बाकी किसी को भी यह इस प्रक्रिया में घुसने नहीं देते और यदि कोई घुस भी जाए तो उसको उल्टे सीधे आरोप लगाकर निकाल देते हैं l सी.एस. कारनन, पी.डी. दिनाकरन आदि के उदाहरण आपके सामने हैं l दुर्भाग्य से के.जी. बालाकृष्णन इस देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने उस समय पर रिटायरमेंट के बाद उनका नाम राष्ट्रपति के लिए ना चलाया जाए इस वजह से ब्राह्मणों ने सोची-समझी रणनीति के तहत उनके पीछे आय से अधिक संपत्ति का आरोप लगाया ताकि उनके नाम पर राष्ट्रपति के लिए विचार ही ना किया जाए l इस समय पर देश में लॉक डाउन चल रहा है और करोना महामारी की वजह से न्यायिक कार्य 90% बंद है, परंतु ऐसे हालात में भी सुप्रीम कोर्ट में बैठे मनुवादी सोच के ब्राह्मण जजों ने आरक्षण के ऊपर जो वक्तव्य दिया है कि आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण का प्रावधान है और अनुच्छेद 16 एक मौलिक अधिकार वाला अनुच्छेद है l अब इन मूर्ख लोगों को कौन समझाए ठीक से यह संविधान भी नहीं पढ़ पाते l यदि देश को आगे बढ़ाना है तो समाज के सारे वर्गों का उसके अंदर सहयोग वांछनीय है l यदि व्यवस्था को इसी तरीके से चलाया जाएगा तो देश का संपूर्ण और सर्वांगीण विकास संभव हो ही नहीं सकता और शायद जिस तरीके से सारी संवैधानिक संस्थाओं को यह मौजूदा सरकार कभी अपने आप कभी सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से खंडित करते जा रहे हैं, यह देश को 500 साल पीछे गुलामी में ले जाना चाहते हैं l और हमारे एस.सी., एस.टी., ओ.बी.सी लोग हिंदू वाद की अफीम में मस्त है l

हमारा दुश्मन कौन ?

1- जब दो वोट के अधिकार के लिए बाबा साहब लंदन में अंग्रेजों से लड़ रहे थे। तो उस समय मोहम्मद अली जिन्ना और सर आगार खां नाम के दो मुसलमान भाइयों ने बाबासाहेब का साथ दिया था।
2- जब ज्योतिबा फुले हमारे लिए पहली बार स्कूल खोल रहे थे तब उस समय उस्मान शेख नाम के मुसलमान भाई ने ही ज्योति राव फुले को जमीन दी थी।
3- माता सावित्री बाई फुले—उस्मान शेख की बहन फातिमा शेख ने सावित्री बाई फुले का साथ दिया और पहली शिक्षिका भी हुई।
4- जब बाबासाहेब हमें पानी दिलाने के लिए सत्यग्रह कर रहे थे तो उस सत्यग्रह को करने के लिए जमीन मुसलमान भाइयों ने दिया था।
5- बाबासाहेब को संविधान लिखने के लिए संविधान सभा में नहीं जाने दिया जा रहा था, तब बंगाल के 48% मुसलमान भाइयों ने ही बाबा साहब को चुनकर संविधान में भेजा था। खुद हमारे अपने कुछ लोगो ने वोट नहीं देकर गद्दारी की था बाबासाहेब से।
6) मुसलमान टीपू सुल्तान ने हमारी बहन बेटी को तन ढकने का अधिकार दिया था अन्यथा हिन्दू ब्राह्मण के कारण हमारी बहन बेटी को स्तन खुलें रखने के लिए मजबूर किया गया था। 
हमारा दुश्मन कौन  ? 

Friday, July 17, 2020

'ब्रह्म' और उसका मायाजाल

'ब्रह्म' और उसका मायाजाल-
ब्रह्म, ब्रह्मा, ब्राह्मण, ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचारी, ब्रह्मकन्या(सस्वती), ब्राह्मीबूटी, ब्रह्मकर्म(ब्राह्मण-कर्म), ब्रह्मकला, ब्रह्मकल्प, ब्रह्म-सम, ब्रह्मकांड(ज्ञान-कांड), ब्रह्मकाष्ठ(शहतूत का पेड़), ब्रह्मकुंड, ब्रह्मकूट(एक पर्वत), ब्रह्मकोश, ब्रह्मगति(मोक्ष), ब्रह्मगांठ(जनेऊ की गांठ), ब्रह्माण्ड, ब्रह्मग्रंथि, ब्रह्मघात(ब्राह्मण की हत्या), ब्रह्मघोष(वेद-पाठ), ब्रह्मचक्र, ब्रह्म-साक्षात्कार, ब्रह्मजटा, ब्रह्मतत्व, ब्रह्मताल, ब्रह्मतेज, ब्रह्मदंड, ब्रह्मदंडी(एक बूटी), ब्राह्मणयष्टि(एक पौधा), ब्रह्मदान, ब्रह्मदाय(ब्राह्मण को दिया जाने वाला धन), ब्रह्मदूषक(वेद-निंदक), ब्रह्मद्वार(ब्रह्म-रंध्र), ब्रह्मद्वेषी(ब्राह्मण का द्वेषी), ब्रह्मनद(सरस्वती), ब्रह्मनाभ(विष्णु), ब्रह्मपत्र(पलाश पत्र), ब्रह्मपद(मुक्ति/ब्राह्मण का पद), ब्रह्मपरिषद(ब्राह्मणों की सभा), ब्रह्मपादप(पलाश), ब्रह्मपारायण(वेदों में पारायण), ब्रह्मपाश(ब्रह्म शक्ति से परिचालित पाश), ब्रह्मपुत्री(सरस्वती), ब्रह्मपुर, ब्रह्मलोक,  ब्रह्मपुराण, ब्रह्मबल, ब्रह्मबीज, ब्रह्मभाग(ब्राह्मण को मिलने वाला भाग), ब्रह्मभूत, ब्रह्मभोज(ब्राह्मण को भोज), ब्रह्ममीमांसा(वेदांत दर्शन), ब्रह्ममुहूर्त, ब्रह्मयुग, ब्रह्मयोग, ब्रह्मयोनि, ब्रह्मरेखा, ब्रह्मलेख, ब्रह्मविद्या, ब्रह्मवृति, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मशाप, ब्रह्मसमाज, ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्मण्य, ब्रह्मत्व, ब्रह्मविज्ञान, ब्रहशास्त्र, ब्रह्मांभ(गोमूत्र), ब्रह्माक्षर(ॐ), ब्रह्मानंद, ब्रह्माभ्यास(वेदाध्ययन), ब्रह्मावर्त, ब्रह्मासन, ब्रह्मिष्ठा(दुर्गा), ब्राह्मी आदि आदि( स्रोत- बृहत हिंदी कोश: कालिकाप्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव)।   

Thursday, July 16, 2020

डॉ लहरी: बकलम पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ

महापुरुष
उन्हें किसी भी दिन शहर के अन्नपूर्णा होटल में पच्चीस रुपए की थाली का खाना खाते हुए देखा जा सकता है। इसके साथ ही वह आज भी बीएचयू में अपनी चिकित्सा सेवा निःशुल्क जारी रखे हुए हैं। डॉ लहरी को आज भी एक हाथ में बैग, दूसरे में काली छतरी लिए हुए पैदल घर या बीएचयू हास्पिटल की ओर जाते हुए देखा जा सकता है।
लोगों का निःशुल्क इलाज करने वाले बीएचयू के जाने-माने कार्डियोथोरेसिक सर्जन पद्म श्री डॉ. टी.के. लहरी (डॉ तपन कुमार लहरी) ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उनके घर पर जाकर मिलने से इनकार कर दिया है। योगी को वाराणसी की जिन प्रमुख हस्तियों से मुलाकात करनी थी, उनमें एक नाम डॉ टीके लहरी का भी था। मुलाकात कराने के लिए अपने घर पहुंचने वाले अफसरों से डॉ लहरी ने कहा कि मुख्यमंत्री को मिलना है तो वह मेरे ओपीडी में मिलें। इसके बाद उनसे मुलाकात का सीएम का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। अब कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री चाहते तो डॉ लहरी से उनके ओपीडी में मिल सकते थे लेकिन वीवीआईपी की वजह से वहां मरीजों के लिए असुविधा पैदा हो सकती थी।
जानकार ऐसा भी बताते हैं कि यदि कहीं मुख्यमंत्री सचमुच मिलने के लिए ओपीडी में पहुंच गए होते तो डॉ लहरी उनसे भी मरीजों के क्रम में ही मिलते और मुख्यमंत्री को लाइन में लगकर इंतजार करना पड़ता। बताया जाता है कि इससे पहले डॉ लहरी तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को भी इसी तरह न मिलने का दो टूक जवाब देकर निरुत्तरित कर चुके हैं। सचमुच 'धरती के भगवान' जैसे डॉ लहरी वह चिकित्सक हैं, जो वर्ष 1994 से ही अपनी पूरी तनख्वाह गरीबों को दान करते रहे हैं। अब रिटायरमेंट के बाद उन्हें जो पेंशन मिलती है, उसमें से उतने ही रुपए लेते हैं, जिससे वह दोनो वक्त की रोटी खा सकें। बाकी राशि बीएचयू कोष में इसलिए छोड़ देते हैं कि उससे वहां के गरीबों का भला होता रहे।
उन्हें किसी भी दिन शहर के अन्नपूर्णा होटल में पच्चीस रुपए की थाली का खाना खाते हुए देखा जा सकता है। इसके साथ ही वह आज भी बीएचयू में अपनी चिकित्सा सेवा निःशुल्क जारी रखे हुए हैं। डॉ लहरी को आज भी एक हाथ में बैग, दूसरे में काली छतरी लिए हुए पैदल घर या बीएचयू हास्पिटल की ओर जाते हुए देखा जा सकता है। वह इतने स्वाभिमानी और अपने पेशे के प्रति इतने समर्पित रहते है कि कभी उन्होंने बीएचयू के बीमार कुलपति को भी उनके घर जाकर देखने से मना कर दिया था।
ऐसे ही डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है। तमाम चिकित्सकों से मरीज़ों के लुटने के किस्से तो आए दिन सुनने को मिलते हैं लेकिन डॉ. लहरी देश के ऐसे डॉक्टर हैं, जो मरीजों का निःशुल्क इलाज करते हैं। अपनी इस सेवा के लिए डॉ. लहरी को भारत सरकार द्वारा वर्ष 2016 में चौथे सर्वश्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार 'पद्म श्री' से सम्मानित किया जा चुका है। डॉ लहरी ने सन् 1974 में प्रोफेसर के रूप में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अपना करियर शुरू किया था और आज भी वह बनारस में किसी देवदूत से कम नहीं हैं। बनारस में उन्हें लोग साक्षात भगवान की तरह जानते-मानते हैं। जिस ख्वाब को संजोकर मदन मोहन मालवीय ने बीएचयू की स्थापना की, उसको डॉ लहरी आज भी जिन्दा रखे हुए हैं।
वर्ष 2003 में बीएचयू से रिटायरमेंट के बाद से भी उनका नाता वहां से नहीं टूटा है। आज, जबकि ज्यादातर डॉक्टर चमक-दमक, ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं, लंबी-लंबी मंहगी कारों से चलते हैं, मामूली कमीशन के लिए दवा कंपनियों और पैथालॉजी सेंटरों से सांठ-गांठ करते रहते हैं, वही मेडिकल कॉलेज में तीन दशक तक पढ़ा-लिखाकर सैकड़ों डॉक्टर तैयार करने वाले डॉ लहरी के पास खुद का चारपहिया वाहन नहीं है। उनमें जैसी योग्यता है, उनकी जितनी शोहरत और इज्जत है, चाहते तो वह भी आलीशान हास्पिटल खोलकर करोड़ों की कमाई कर सकते थे लेकिन वह नौकरी से रिटायर होने के बाद भी स्वयं को मात्र चिकित्सक के रूप में गरीब-असहाय मरीजों का सामान्य सेवक बनाए रखना चाहते हैं। वह आज भी अपने आवास से अस्पताल तक पैदल ही आते जाते हैं। उनकी बदौलत आज लाखों ग़रीब मरीजों का दिल धड़क रहा है, जो पैसे के अभाव में महंगा इलाज कराने में लाचार थे। गंभीर हृदय रोगों का शिकार होकर जब तमाम ग़रीब मौत के मुंह में समा रहे थे, तब डॉ. लहरी ने फरिश्ता बनकर उन्हें बचाया।
डॉ लहरी जितने अपने पेशे के साथ प्रतिबद्ध हैं, उतने ही अपने समय के पाबंद भी। आज उनकी उम्र लगभग 75 साल हो चुकी है लेकिन उन्हें देखकर बीएचयू के लोग अपनी घड़ी की सूइयां मिलाते हैं। वे हर रोज नियत समय पर बीएचयू आते हैं और जाते हैं। रिटायर्ड होने के बाद विश्वविद्यालय ने उन्हें इमेरिटस प्रोफेसर का दर्जा दिया था। वह वर्ष 2003 से 2011 तक वहाँ इमेरिटस प्रोफेसर रहे। इसके बाद भी उनकी कर्तव्य निष्ठा को देखते हुए उनकी सेवा इमेरिटस प्रोफेसर के तौर पर अब तक ली जा रही है। जिस दौर में लाशों को भी वेंटीलेटर पर रखकर बिल भुनाने से कई डॉक्टर नहीं चूकते, उस दौर में इस देवतुल्य चिकित्सक की कहानी किसी भी व्यक्ति को श्रद्धानत कर सकती है।
रिटायर्ड होने के बाद भी मरीजों के लिए दिलोजान से लगे रहने वाले डॉ. टीके लहरी को ओपन हार्ट सर्जरी में महारत हासिल है। वाराणसी के लोग उन्हें महापुरुष कहते हैं। अमेरिका से डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद 1974 में वह बीएचयू में 250 रुपए महीने पर लेक्चरर नियुक्त हुए थे। गरीब मरीजों की सेवा के लिए उन्होंने शादी तक नहीं की। सन् 1997 से ही उन्होंने वेतन लेना बंद कर दिया था। उस समय उनकी कुल सैलरी एक लाख रुपए से ऊपर थी। रिटायर होने के बाद जो पीएफ मिला, वह भी उन्होंने बीएचयू के लिए छोड़ दिया। डॉ. लहरी बताते हैं कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें अमेरिका के कई बड़े हॉस्पिटल्स से ऑफर मिला, लेकिन वह अपने देश के मरीजों की ही जीवन भर सेवा करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। वह प्रतिदिन सुबह छह बजे बीएचयू पहुंच जाते हैं और तीन घंटे ड्यूटी करने के बाद वापस घर लौट आते हैं। इसी तरह हर शाम अपनी ड्यूटी बजाते हैं। इसके बदले वह बीएचयू से आवास के अलावा और कोई सुविधा नहीं लेते हैं।

Naming of the ancient Ashok edicts script as Dhammalipi

Renaming of Brahmi script to Dhammalipi divides teachers, historians in Maharashtra
by MAYURA JANWALKAR,
July 13, 2020 04:47 PM
Class XII Pali language book cover
Class XII Pali language book cover
The renaming of the ancient script Brahmi to Dhammalipi in the Class XII Pali language textbook published by the Maharashtra State Bureau of Text Book Production and Curriculum Research has divided teachers and historians in Maharashtra and led to a searing debate.
Pali Pakaso is the name of the textbook published by Balbharati, the state textbook and curriculum bureau. With the eruption of the controversy, Balbharati’s Pali textbook review committee is now reviewing the book.
While some academicians, on either side of the debate, say that the first written evidence of the script were the edicts of Emperor Ashoka in 3 BC, others say that the Brahmi script was in use at least two centuries prior in 5 BC. In Maharashtra, academicians insisting on retaining the name Brahmi feel the move to rename the script has political motives.
This year, Balbharati has published 10,000 Pali textbooks for Class 12 which are now out for sale. The ancient Indian language has been a subject of choice for students mainly from the Marathwada and Vidarbha region in the state. Teachers of the language say that like Sanskrit, students often choose to learn Pali as it is a “scoring subject” and its grammar is easier than Sanskrit’s.
In 2019, in the Class 12 examination held by the Maharashtra Board of Secondary and Higher Secondary Education, 9,120 students registered to take the examination in the subject of which 8,999 appeared and 8,727 passed. Pali had a pass percentage of 96.98 per cent in 2019.
Pali is also the preferred subject of students wanting to pursue higher studies in archaeology, epigraphy or numismatics. According to school education department officials, apart from Maharashtra, Pali is taught at the school level in Bihar, Uttar Pradesh, Haryana, Mizoram and Manipur too. The Oxford Centre for Buddhist Studies also offers an online course in Pali.
Leading the argument for changing the name of the script to Dhammalipi is Nashik-based Atul Bhosekar, Director, Trirashmi Research Institute of Buddhism, Indic Languages and Scripts (TRIBILS).
“We have been promoting this theory for ten years after conducting research, and in 2014, TRIBILS published a book ‘Iyam Dhammalipi’ which we shared with various universities and professors to seek their views on it. The Pali committee that has accepted the name as Dhammalipi has done so on its own after all academic considerations and analysis,” said Bhosekar.
According to Bhosekar, German Indologist Georg Buhler, who coined the name Brahmi in the second half of the 19th century, was influenced by French Indologist Terrian De Lacouperie, and was ‘very biased’ in his opinion. “Biased in the sense that he started naming all these scripts as derived from Lord Brahma…. Not a single scholar then, or later, questioned how the name Brahmi came about,” argued Bhosekar.
Bhosekar said, “Buhler was influenced by Indologists in those days or people who believed that the universe is made by Lord Brahma and therefore, the script is made by him and therefore it should be named Brahmi.” He said that the word Dhammalipi, which should be the actual name of the script, had been wrongly translated by Indologists including Buhler.
The issue began to simmer with a June 11 letter to the textbook committee by Abhijit Dandekar, Associate Professor of Epigraphy, Palaeography and Numismatics at the Deccan College Post-Graduate and Research Institute, Pune. He wrote that there was no script by the name of Dhammalipi in ancient India.
Referring to Richard Solomon’s Indian Epigraphy, 1998, Dandekar added that research of Indian and Chinese texts, carried out by several scholars for over a century, shows that the name of the script is Brahmi.
Manjiri Bhalerao, Associate Professor, Shri Balmukund Lohia Centre of Sanskrit and Indological Studies, Pune, who has also written to Balbharati, said, “Unless and until we have concrete evidence of the name Dhammalipi it should not be introduced at the textbook level. When these students go for higher studies, they will become a laughing stock because not just in Maharashtra, but everywhere else too, the script is known as Brahmi,” said Bhalerao.
Historians and scholars are also firmly of the view that the script pre-existed Ashoka and his dhamma edicts.
Speaking to The Indian Express, professor of history at Ashoka University and author of the seminal Ashoka in Ancient India (2015) Nayanjot Lahiri said renaming Brahmi as Dhammalipi would be giving students a “skewed education”.
She said, “The archaeological evidence of the earliest Brahmi comes from Tamil Nadu. This is much before it was used by Emperor Ashoka for the propagation of Dhamma. There are scientific dates that go back to the 5th century BC. Pali again is not something that is associated only with the propagation of Dhamma. I really feel it is meaningless to be doing these kind of things. The name Brahmi is anyway mentioned in ancient texts.”
Head of the Ancient Indian History, Culture and Archaeology department at St Xavier’s College, Mumbai, Anita Rane Kothare said at least 40 students learn Pali in her department. “Brahmi is a script and Pali is a language. Ashoka proposed Dhamma through his edicts. It was called Dhammalipi, maybe, by people who followed Buddhism later but the script was always called Brahmi. It has nothing to do with Buddhism. Brahmi as a script has been used for Ardhamagadhi and Pali both. The Ardhamagadhi language was used by Jains. Ashoka never called it Dhammalipi at all.”
Kothare said the script may have existed at least since 5th-6th century BC and said that facts or history should be studied without bias. “This is provoking a barrier between Hindus and Buddhists. A common Buddhist man doesn’t know Brahmi or Dhammalipi. This is instigated by the educated,” said Kothare.
Meanwhile, letters continue to pour in at Balbharati mostly in support of Dhammalipi.
“I have sent all the letters to our Pali textbook committee to take into account all the references and evidence and give their findings at the earliest so we can decide our future course of action,” said Vivek Gosavi, Director, Balbharati.
Gosavi said that Balbharati had received three letters in support of Brahmi – two from Pune and one from Mumbai – but had received over 70 letters in support of the name Dhammalipi from Amravati, Nagpur, Parbhani, Solapur, Beed, Pune and Mumbai.
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To,
The Director,
M. S. Pathyapustak Nirmiti Mandal,
Balbharati,
Pune-411004
support@ebalbharti.in
Sub.: For renaming of Ashoka's edicts script as 'Dhammalipi'.
Sir,
1. Bureau of Text Book Production and Curriculum Research Pune (M. S) has taken very corrective measure to renaming of Ashoka's edicts script as Dhammalipi. Pali Textbook Review Committee's academicians are well familiar with the facts that the first written evidence of the script were the edicts of Empror Ashoka about in 300 BC.
2. As written 'Iyan dhammalipi' in Ashoka's edicts; have authentic credibility and clarity, leaves no doubt or confusion on account of linguistic or Pali grammar support and explanation. It is not written in one or two edicts but 40 times on about 35 edicts.
3. To say that; since Brahma created universe and being a ancient script; it is a Brhmilipi; which is totally wrong, unjustified, baseless and unscientific. Merely mentioning of Brhmalipi in Sanskrit epic Lalitvistar (100-200 AC) i.e. about 400-500 years after Great Ashoka is equally have no credibility. The oldest Hindu scripture Rigveda; and all other entire sanskrit literature found in Nagari Script script only; and not in any Brahmilipi. Hence; such link have no base atall.
4. No any concrete ancient evidence, document or edict is found in so called Brahmilipi by ASI.
5. To oppose this corrective measure is uncalled and unjustified.
6. Indeed; in Pali literature; Brahmin supremacy is reflected since long back. Subsequently thousands of the Brahmanic compound words and phrases are found in Buddhist literature; like
Saman-Brahman, Brahma-vihar, Brahm-chariya, Brahma-lipi etc; and Brahma-loka, Brahma-anand, Brahm-randhra, Brahma-vani, Brahma-vakya, Brahmastra, Brahma-hatya, Brahma-nakshatra, Brahma-gyana, Brahma-gantha, Brahmaand etc.
There is no such pronounciation in Pali language like; Dharma = Dhamma. Karma = Kamma.  Marg = Magga. Warga = Wagga. Arya = Ariya. Sarva = Sabba etc.
Hence it proves itself that; all these words brought after 'Panini's Ashtadhyay'; the Sanskrit grammar; who was the student of Taxashila Buddhist University in 3rd century B.C.; when Samrat Askoka had already been engraved the complete Pali literature in Dhamma Lipi.
This supremacy work is found every where in Buddhist literature. Therefore it is proved that Pali language and Dhamma Lipi was existing at the time of Panini.
This is our submission in favour of being corrected by renaming Ashoka edicts script as Dhammalipi. Thanks for that innovative step. Expecting for fair decision please.
Your sincerely
ipstbhopal@gmail.com
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Email : support@ebalbharti.in

Wednesday, July 15, 2020

Whether the praise of 'Indra', 'Brhma' be continue ?

Whether the praise of 'Indra', 'Brhma' be continue ?
1. In Buddha Viharas, We Buddhists, recites 'Buddha Vandana' and other 'Mangal Gathas' daily.
2. In this Recitation, we praise Indra, Brhma and others Devatas including and Brahmanas in various Mangala Gathas and Sutta.
2. Buddha himself had rejected Indra, Brahma and other deities.
3. Dr. Ambedkar have also rejected all these deities and gave 22 Pledges to his followers on 14th Oct. 1956 at Nagpur.
4. Bhukkhu-Sangha never bothered and objected this.
5. Our humble question is- 
Whether the praise of 'Devata',  'Indra', 'Brhma', including 'Brahmana'  should be continue in our various Mangala Gathas and Sutta ?

Tuesday, July 14, 2020

We are not against Vipassana-

We are not against Vipassana-
We are not against Vippasana, however, it is not part and parcel of Buddhism. Rather, we keep it one Objective of IPST for further research, being a physical/mental health care Technic. We aware our people about these vast Vipassana Centres, as they teach Buddha's life and philosophy in line of Hindu scriptures. And, hence, they are killing Ambedkar thoughts with support of Hindus and their organisations.

Challenges before Ambedkarites.

Challenges before Ambedkarites.
Buddhism is known for it's scientific temper.
We, the followers of Buddha have scientific temper, and reasoning.
In Kesa Mutti Sutta, Buddha said,
you should not follow the things by tradition or
as it is written in own scripture,
but you must follow the things, what have reasoning.
Babashab Ambedkar also say, 'it shall be the duty of every citizen
to develop the scientific temper, humanism and the spirit of inquiry
and reform' in Indian Constitution section 51A(h).
Having a scientific temper, if we observe other's; i. e.
their way of life, their scriptures, critically
equally we should have critical with our own
way of life and scriptures.
We could not have double standard.
Observing things critically have nothing to do with 'rejection' or 'negativity'
rather it insist us to follow Buddhsit way of life.

Monday, July 13, 2020

Buddha- Charit

Buddha- Charit-
Baba sahab Ambedkar had described  Buddha-charita what he found in available literature.  He chooses what he found better.  All ref. literature of Buddha and His Dhamma are Sanskrit kavya Granth and Attha-Katha. You can not rely on Kavya-Gratha/Attha-katha. Dr. Ambedkar tried to draw picture of Buddha-charita what he could tried better. If you want to see some sample, please go Mahapadana Sutt (DeeghaNikaya) or Lalit Vistar.

असमंजस-

असमंजस-
महाराष्ट्र के सेकेंडरी स्कूल पाठ्य-क्रम में सम्राट अशोक शिलालेखों की धम्मलिपि का समावेश किया गया। ब्राह्मण भाषाविदों को यह कृत्य अधर्म प्रतीत हुआ । स्मरण रहे, अभी तक इसे 'ब्राह्मीलिपि' के रूप में  प्रचारित किया जाता रहा है। भाषा, साहित्य और इतिहास पर एकाधिकार रखने वालों को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता है भला ? इन्हें 'ब्राह्मण संस्कृति' और 'राष्ट्र-भक्ति'  खतरे में दिखने लगी।

धम्मलिपि जिसे स्कूल-कालेजों में अब तक 'ब्राह्मीलिपि' के रूप में पढ़ाया जाता रहा है, के इस मुद्दे पर बुद्धिस्ट /अम्बेडकर के अनुयायी, जो  आरएसएस  से संचालित सरस्वती स्कूलों और संस्कृत महाविद्यालयों/विश्व विद्यालयों में पढ़े हैं, बड़े असमंजस में दिखे. यह स्वाभिक भी है. इन शिक्षा-संस्थानों में पाठ्य-पुस्तकें ही इस प्रकार की होती है कि बच्चे/विद्यार्थी वैदिक संस्कृति से संस्कृति से संस्कारित और 'राष्ट्र-भक्ति' से सारोबार होते हैं।

बौद्ध-ग्रंथों में घुसे ब्राह्मण संस्कृति के प्रतीक/रक्षक /पोषक शब्दों को चिन्हित कर उनके स्थान पर बौद्ध संस्कृति के शब्द को स्थानापन्न किये जाने के प्रश्न पर वे सहमत नजर नहीं आये. उनका तर्क है, आप कितने शब्दों को हटाएंगे ?  इससे तो एक बड़ा विवाद खड़ा हो जायेगा ? हम जो कुछ करना चाहते हैं, यह उसके विपरीत होगा ?
ति-पिटक ग्रंथों और दैनिक पाठ किये जाने वाले सुत्तों/गाथाओं में आने वाले इंद्र, ब्रह्म आदि ये शब्द हमारी धम्म और संस्कृति का अंग है ?

एक तरफ जहाँ ब्राह्मणवाद की चूलें हिल रहीं है, राजस्थान के हाई कोर्ट में वर्षों से स्थापित मनु की मूर्ति हटाई जा रहीं है, ऐसे में ब्राह्मण संस्कृति के पोषक हमारे साथियों को जागने की जरुरत है. हो सकता है, इससे उनकी प्रतिष्ठा और सम्बद्ध प्रतिष्ठानों पर सवाल खड़े हो, किन्तु हमारे मिशन में उनका सहयोग इस धरा पर बुद्ध शासन स्थापित करने में मददगार होगा। विश्व के लोग बुद्ध के इस धरती पर माथा टेकने आते हैं. आईये, हम उन्हें मूल बुद्धवचनों से परिचित कराये। सादर।


Sunday, July 12, 2020

सनद रहे-

ताकि सनद रहे-
1.  धम्म, जो बाबासाहब अम्बेडकर ने जो दिया, हमें उस पर गर्व है।
2. धर्मान्तरण का हेतु सामाजिक परिवर्तन है।
3. बुद्ध का धम्म, जैसे कि बाबासाहब अम्बेडकर ने स्थापित किया,  एक सामाजिक- सांस्कृतिक आन्दोलन था।
4. धम्म का केंद्र मनुष्य न होकर समाज है। कोई मनुष्य अगर किसी निर्जन स्थान में रहता है, तो उसे धम्म की आवश्यकता नहीं है।

5. बुद्ध ने हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत ही नहीं दी, एक अनुपम, समता, स्वतंत्रता और भातृत्व पर केन्द्रित मानव कल्याण का दर्शन दिया।
6. इसमें अन्धविश्वास, व्यक्तिपूजा और चमत्कार के लिए कोई स्थान नहीं है।

7. विपस्सना, जो कि गोयनकाजी का कंसेप्ट है और जिसे उन्होंने बर्मा आदि देशों से लाये थे,  बुद्ध और उनकी  देशना से कोई सम्बन्ध नहीं है। अधिक-से- अधिक इसे शारीरिक-मानसिक बिमारियों को दुरुस्त करने का इलाज कहा जा सकता है।

8. बुद्ध ने तप, काया-क्लेश आदि विधियों को तरजीह नहीं दी। यह कहना कि विपस्सना से 'निब्बान' की प्राप्ति होती है, बुद्ध और उनके धम्म का दुष्प्रचार है।

9. पञ्ञा,  करुणा, मेत्ता, निब्बान, परिनिब्बान और महापरिनिब्बान, पटिच्च-सम्मुत्पाद आदि शब्द/शब्दावली  धम्म की धरोहर है। यह हमारी भाषा और संस्कृति की पहचान है। हरेक शब्द की व्युत्पत्ति और इतिहास होता है। बुद्ध ने नया और अनुत्तर धम्म ही विश्व को नहीं दिया, वरन अपनी बात रखने के लिए उन्हें कई नए शब्द गढ़ने पड़े।  

Friday, July 10, 2020

पराभव सुत्त

पराभव सुत्त
Parâbhava Sutta*
एवं मे सुतं-
एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। अथ खो अञ्ञतरा अरहन्ता अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं जेतवनं ओभासेत्वा, येन भगवा तेनुपसंकमि;
Evañ me sutañ-
Ekañ samayañ Bhagavâ Sâvatthiyam viharati, Jetavane Anâthapiòdikassa ârâme. Atha kho aòòatarâ Arahantâ abhikkantâya rattiyâ abhikkantavaòòâ kevalkappañ Jetavanañ obhâsetvâ yena bhagavâ tenupasañkami.
उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्त अट्ठासि। एकमन्त ठिता खो सो अरहन्ता भगवन्तं गााथाय अज्झभासि-
Upasañkamitvâ Bhagavantañ abhivâdetvâ ekamantam atthâsi. Ekamaantam thitâ kho sâ Arahantâ Bhagavantañ gâthâya ajjhabhâsi-

अरहन्ता -
‘‘पराभवन्तं पुरिसं मयं, पुच्छाम गोतमं
“Parâbhavantañ purisañ mayañ, pucchâma Gotamañ
‘‘पराभव(पतन) को प्राप्त मनुष्यों के बारे में हम(मयं) पूछते हैं(पुच्छाम), गौतम
“About man’s downfall, asking thee, O’ Gotama! we

भगवन्तं पुट्ठमागम्म, किं  पराभवतो मुखं
Bagavantañ putthamâgamma, kiñ parâbhavato mukhañ ?”
भगवान के पास पूछने के लिए आए हैं(पुट्ठ-आगम्म) कि पराभव के क्या कारण(कि) हैं, बतलाएं ?
Have come here with our question; Pray, tell us what the causes of man’s downfall are ?”

भगवा .
सुविजानो भवं होति, अविजानो पराभवो
Suvijâno bhavañ hoti, avijâno parâbhavo

सहज बुद्धि-गम्य(सुविजानो) की वृद्धि(भवं) होती है, असहज बुद्धि-गम्य(अविजानो) का पराभव
Righteousness person is the progressive one, un-righteousness is the decline one

धम्मकामो भवं होति, धम्मदेस्सी पराभवो ।।1।।
Dhammakâmo  bhavañ hoti, Dhammadessî parâbhavo.
धम्म-प्रेमी की भव(वृद्धि) होती है और धम्म-देस्सी(द्वेषी) का पराभव होता है।
He who loves Dhamma is progresses, he who is averse  to it; declines.

असन्तस्य पिया होन्ति, सन्ते न कुरुते पियं
Asantassa piyâ honti, Sante na kurute piyañ
असन्त(दुष्टों) का प्रिय होना, सन्त(सज्जनों)का प्रिय न होना(न कुरुते पियं)
The wicked are dear to him, with the virtuous he finds no delight.

असतं  धम्मं रोचेति, तं पराभवतो मुखं।। 2।।
Asantañ dhammañ roceti, tañ parâbhavato mukham.
असन्तो के धम्मं(आचरण) में रुचि, यह(तं) पराभव(विनाश) का कारण है।
He approves the teachings of the wicked, this is the cause of man’s downfall.

निद्दासीली सभासीली, अनुट्ठाता च यो नरो
Niddâsîlî sabhâsîlî, Anutthâtâ ca yo naro
निद्रालु(निद्दासीली), भीड़-भाड़ पसन्दी(सभासीली), अनुद्योगी(अनुट्ठाता) जो ऐसा नर है
Fond of sleep and company, inactive and lazy,

अलसो कोध पञ्ञाणो, तं पराभवतो मुखं।। 3।।
Alaso kodha paòòâòo, tañ parâbhavato mukhañ.
और जो आलसी(अलसो), क्रोधी (क्रोध-पञ्ञाणो) होता है, तो यह उसके पराभव का कारण है।
And manifesting anger, this is the cause of man’s downfall.

यो मातरं वा पितरं वा, जिण्णकं गतयोब्बनं
Yo mâtarañ vâ pitarañ vâ, jiòòakañ gatayobbanañ
माता अथवा पिता का, जो(यो) जीर्ण(जिण्णकं) एवं गत-यौवन(गत-योब्बनं) को प्राप्त हैं
Mother or father, who are old and past their youth;

पहू सन्तो न भरति, तं पराभवो मुखं।। 4।।
Pahû santo na bharati, tañ parâbhavato mukhañ.
समर्थ होते हुए(पहू-सन्तो) भी न(नहीं) भरण-पोषण करता, तो यह उसके पराभव का कारण है।
Being affluent, one does not support; this is the cause of man’s downfall.

यो याचकं वा समणं वा, अञ्ञं वापि वनिब्बकं
Yo yâcakañ vâ samaòañ vâ, aòòañ vâpi vanibbakañ
जो(यो) याचक, समण या अन्य दूसरे(अञ्ञं वा-अपि) वनिब्बकं(दरिद्र) को
To a beggar or ascetic or any other mendicant

मुसावादेन वञ्चेति, तं पराभवो मुखं ।। 5।।
Musâvâdena vaòceti, Tañ parâbhavato mukhañ.
मुसावादेन अर्थात झूठ बोलकर धोखा देता(वञ्चेति) है, तो यह उसके पराभव का कारण है.
If he deceive by falsehood; this is the cause of man’s downfall.

पहूत-वित्तो पुरिसो, स-हिरञ्ञो स-भोजनो
Pahûta-vitto puriso, sa-hiraòòo sa-bhojano
बहुत धनवान(पहूत-वित्तो) पुरुष, जो स्वर्ण(स-हिरञ्ञो) और भोजन से सम्पन्न(स-भोजनो) है
Having passes much wealth and abundance of gold and food

एको भुञ्जति सादूनि, तं पराभवो मुखं ।। 6।।
Eko bhuòjati sâdûni, tañ parâbhavato mukhañ.
अकेले ही सुस्वादि(सादूनि) पदार्थों का भोग करता है, तो यह उसके पराभव का कारण है।
He enjoy delicacies all by himself; this is the cause of man’s downfall. 

जातित्थद्धो धनत्थद्धो, गोत्तत्थद्धो च यो नरो
Jâtitthaddho dhanatthaddho, gottatthaddho ca yo naro
जाति-अहंकार(जातित्थद्धो), धन-अहंकार,(धनत्थद्धो) और गोत्र-अहंकारी(गोतत्थद्धो) जो नर
To be proud of one’s birth, wealth and clan

स-ञातिं अतिमञ्ञे ति, तं पराभवो मुखं ।। 7।।
Sañ òâtiñ atimaòòeti, tañ parâbhavato mukhañ.
सजातीय बंधु-बांधवों का निरादर(अति-मञ्ञे ति) करता है, तो यह उसके पराभव का कारण है।
And to despise one’s own kinsmen,this is the man’s downfall.

इत्थिधुत्तो सुराधुत्तो, अक्खधुत्तो च यो नरो
Itthidhutto surâdhutto, akkhadhutto ca yo naro
स्त्री में धुत(रत), शराब में धुत(सुराधुत्तो) और अक्ख(जुएं का खेल) में धुत जो नर 
A man who is addicted to women, a drunkard, a gambler 

लद्धं लद्धं विनासेति, तं पराभवो मुखं ।। 8।।
Laddhañ laddhañ vinâseti, tañ parâbhavato mukhañ.
लब्ध अर्थात प्राप्त(लद्धं) धन का विनाश करता है, तो यह उसके पराभव का कारण है।
Given to a life of indulgence in immoral pleasures; this is the cause of man’s downfall.

सेहि दारेहि असन्तुट्ठो, बेसियासु पदिस्सति
Sehi dârehi asantuttho, vesiyâsu padissati
जो स्व-पत्नि(दारेहि) से असंतुष्ट रहता है, वेश्याओं(बेसियासु) के साथ दिखाई देता(पदिस्सति) है,
Not to be contented with wife and to be seen with whores

दिस्सति परदारेसु, तं पराभवो मुखं ।। 9।।
Dissati paradâresu, tañ parâbhavato mukhañ.
और पराई स्त्रियों(परदारेसु) के साथ दिखता(दिस्सति) है, तो यह उसके पराभव का कारण है।
And the wives of others, this is the cause of man’s downfall.

अतीत-योब्बनो पोसो, आनेति तिम्बुरुत्थनिं
Atîta-yobbano poso, âneti timburuthaniñ
यौवन बीत जाने पर(अतीत-योब्बनो) तिम्बुरुत्थनिं(तिंबरु वृक्ष के फल सदृश्य छोटे स्तन वाली अर्थात नवयुवती) को (ब्याह कर) लाता(आनेति) है
Being past one’s youth, to take a young wife

तस्सा इस्सा न सुपति, तं पराभवो मुखं ।।10।।
Tassâ issâ na supati, tañ parâbhavato mukhañ.
और उसकी ईष्या(इस्सा) से नहीं सो पाता(सुपति), तो यह उसके पराभव का कारण है।
And to be unable to sleep  for jealously of her; this is the cause of man’s  downfall.

इत्थि सोण्डिं  विकिरणिं, पुरिसं वा’पि तादिसं
Itthi soòdiñ vikiraòiñ, purisañ vâ'pi tâdisañ
किसी शराबी(सोण्डिं) विकिरणिं(खा-पी कर उड़ाने वाली स्त्री) या वैसे ही(तादिसं) पुरुष को
To place in authority a women given to drink and squandering

इस्सरियस्मिं ठापेति, तं पराभवो मुखं ।।11।।
Issariyasmiñ thâpeti, tañ parâbhavato mukhañ
ऐश्वर्य के स्थान पर(इस्सरियस्मिं) स्थापित करता(ठापेति) है, तो यह उसके पराभव का कारण है।
Or a man of similar behavior; this the cause of man’s downfall.

अप्प भोगो महातण्हो, खत्तिये जायते कुले
Appabhogo mahâtaòho, khattiye jâyaate kule
अल्प भोग(धन) वाला, क्षत्रीय(उच्च) कुल में पैदा(जायते), महा लालची(महातण्हो) नर
To be of noble birth, with vast ambition and of slender means

सो’ध रज्जं पत्थयति, तं पराभवो मुखं ।।12।।
So'dha rajjañ patthayati, tañ parâbhavato mukhañ
वह यहां राज्य(रज्जं) पाने की इच्छा करता(पत्थयति) है, तो यह उसके पराभव का कारण होता है।
And to crave here for ruler ship, this is the cause of man’s downfall.

एते पराभवे लोके,  पण्डितो समवेक्खिय
Ete parâbhave loke, paòdito samavekkhiya
जो विद्वान इस लोक के पराभवों(विनाश-मूलक धर्मों) को भली-भांति समझकर(समवेक्खिय)
These causes of man’s downfall in the world, who realize fully

अरियो दस्सन सम्पन्नो, स लोकं भजते जीवति
Ariyo dassana-sampanno, sa lokañ bhajate jivati.
अीरय(श्रेष्ठ) दृष्टि से सम्पन्न होते हैं, वे लोक में सुखपूर्वक जीवन जीते हैं।
 The noble sage, endowed with Ariyan insight, lives happily in the world.
           -- पराभव सुत्तं निट्ठितं --
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*Ref- 1. Suttanipata; Khuddaka Nikaya.   2. www: budhanet.net
3. महापरित्राण सूत्रपाठः भदन्त धर्मकीर्ति महाथेरो. 4. सुत्तनिपातः धर्मानन्द कोसम्बी, संपादक- पु. वि. बापट

विशेष-
‘धम्मपदः गाथा और कथा’ में दिल्ली विश्वविद्यालय के बौद्ध अध्ययन विभाग के रीडर  डाॅ. संघसेनसिंह लिखते हैं कि ब्राह्मण-वग्ग में ब्राह्मण शब्द को पारिभाषिक पद के रूप में व्याख्यायित किया गया है। पूरे वग्ग में ब्राह्मण शब्द एक-दो स्थानों को छोड़कर सर्वत्र ‘अरहन्त’ के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। अरहन्त-पद(स्थान) प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में सर्वश्रेष्ठ पद है, निब्बान(निर्वाण) है, मोक्ष है(प्राक्कथन पृ. 14-15)। परित्तं-गाथाओं में देवता के स्थान पर ‘अरहन्त’ शब्द हमें पढ़ने को मिलता है, यथाः ‘अरहन्तानं च तेजेन, रक्खं बन्धामि सब्ब सो’ आदि। किन्तु बाद के पाठों में कई स्थानों पर ‘देवता’ शब्द खटकता है। लेखक द्वय अ. ला. ऊके और प्रो हेमलता महिस्वर के द्वारा सम्पादित ग्रन्थ 'धम्म-परित्तं' में इस तरह के अबौद्ध शब्दावली को दुरुस्त करने का प्रयास किया गया है। आखिर, कब तक हम ‘भवन्तु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब देवता’ का पाठ करते रहेंगे ?


22 प्रतीज्ञाएं

For All Hon. Members, please Note-
The Following 22 Vows have to be followed by heart and deeds. Members who takes it otherwise, better leave us.
22 प्रतीज्ञाएं
 On the Eve of conversion,
22 Vows given by Babasahab Dr Ambedkar to his followers at Diksha Bhumi Nagpur
1. मैं ब्रम्हा, विष्णु, महेश को ईश्वर नहीं मानूंगी/मानूंगा और न उनकी पूजा करूंगी/करूंगा।
    I shall have no faith in Brahma, Vishnu and Maheshwara nor shall I worship them.
 2. मैं राम और कृश्ष्ण को ईश्वर नहीे मानूंगी/मानूंगा और न उनकी पूजा करूंगी/ करूंगा।
    I shall have no faith in Rama and Krishna who are believed to be incarnation of God nor shall I worship them.
3. मैं गौरी-गणपति आदि हिन्दू धर्म के किसी देवी-देवताओं को नहीे मानूंगी/ मानूंगा और न
    उनकी पूजा करूंगी/ करूंगा।
    I shall not believe in Gauri-Ganesh and other gods-goddesses of    Hindu religion nor shall  I worship them.
4. ईश्वर ने अवतार लिया है, इस पर मेरा विश्वास नहीं है।
     I do not believe in the incarnation of God.
5. बुद्ध विष्णु का अवतार; यह झूठा और कपटी प्रचार है, ऐसा मैं जान गयी/ गया हूँ।
     I believe, Buddha is the incarnation of Vishnu; is a false and malicious propaganda.
6. मैं श्राद्ध नहीं करूंगी/ करूंगा, न पिंड-दान करूंगी/ करूंगा।
     I shall not perform Shradha nor shall I give ‘Pinda-dâna’
7. बौद्ध धम्म के विरुद्ध मैं कोई आचरण नहीं करूंगी/ करूंगा।
      I shall not practice anything which is against the teaching of Buddha
8. मैं कोई भी क्रिया-कर्म ब्राह्मणों के हाथों नहीं करवाऊंगी/ करवाऊंगा।
     I will not perform any rituals to be performed by Brahmins.
9. सभी मनुष्य मात्र समान हैं, ऐसा मैं मानती/ मानता हूँ।
     I believe that all human beings are equal
10. मैं समता स्थापित करने के लिए प्रयत्न करूंगी/ करूंगा।
     I shall make efforts to establish equality.
11. मैं बुद्ध के द्वारा बतलाए गए अट्ठंगिक मार्ग का पालन करूंगी/ करूंगा।
     I shall follow the Eight-fold-Path as told by the Buddha.
12. मैं बुद्ध द्वारा बतलाई गई दस पारमिताओं का पालन करूंगी/ करूंगा।
I shall practice Ten Parmitas as prescribed by the Buddha
13. मैं प्राणि-मात्रा के प्रति दया-भाव रखूंगी/ रखूंगा।
I shall have compassion and loving kindness for all living beings.
14. मैं चोरी नहीं करूंगी/ करूंगा।
I shall not steal.
15. मैं व्यभिचार नहीं करूंगी/ करूंगा।
I shall not commit adultery.
16. मैं झूठ नहीं बोलूंगी/ बोलूंगा।
I shall not lie.
17. मैं सुरा-मेरय आदि मादक-कारक पदार्थों का सेवन नहीं करूंगी/ करूंगा।
I shall not consume liquior/intoxicants.
18. मैं अपने जीवन को बौद्ध धम्म के तीन तत्वोंः प×ाा(प्रज्ञा), सील और करुणा पर ढालने का प्रयास करूंगी/ करूंगा।
I shall lead a life based on Buddhist Principle of Prajnya, Sheel and Karuna.
19. मैं मानव-मात्रा के उत्थान के लिए हानिकारक और मनुष्य-मात्रा को ऊंच-नीच माननेवाले
हिन्दू-धर्म को त्यागती/ त्यागता हूँ और बौद्ध धम्म को स्वीकार करती/ करता हूँ।
   I solemnly declare that henceforth, I shall lead my life as per Buddha's principle and teaching. I denounce Hindu religion, which is harmful for my development as a human being and which has treated human being unequal lowly and I accept Buddhism as my religion.
20. मेरा यह पूर्ण विश्वास है कि बुद्ध का धम्म ही एक मात्रा सद्धम्म है।
   I am convinced that Buddha’s Dhamma is Saddhamma.
21. मैं यह मानती/ मानता हूँ कि आज मुझे नया जीवन मिला है।
I believe that I am taking a new-birth.
22. मैं यह पवित्रा प्रतिज्ञा करती/ करता हूँ कि आज से मैं बुद्ध धम्म के अनुसार आचरण करूंगी/ करूंगा।
I solemnly declare that henceforth, I shall lead my life as per Buddha’s principle and teaching.