Monday, February 14, 2011

कुछ कविताएँ

नारी धर्म  

एक लम्बे अन्तराल के बाद
अनायास,
जब मुलाकात हुई
तो बिस्तर की तरफ देख
उसने कहा-

पिछले तीन वर्षों से,
बिस्तर पर पड़ा है
न उठ सकता है,
न चल सकता है

मैंने, तब भी
चुहलता से छेड़ा  -
आखिर उसे, इस तरह
जिन्दा रखने की
क्या जरूरत है ?

प्रत्युत्तर में, उसने
 मुझे
घूर कर देखा
और कहा-

मेरा पति है,वह
सुख-दुःख का साथ है
तन-मन से सेवा करना
मेरा धर्म है.
****       ****          ****            ****

विद्रोह

नहीं पढना,
मुझे अब मर्सिया
तुम्हारी संस्कृति और
सभ्यता पर

नहीं लिखना,
मुझे गीत और ग़ज़ल अब 
तुम्हारे राष्ट्र और
देश-भक्ति पर

बल्कि,लिखूंगा 
अब मुक्त-छंद मैं
अपनी बेबसी और
लाचारी पर

****       ****         ****          ****

कबीर 

कबीर
शायद,
नहीं मिला-
तुझे कोई आम्बेडकर
जैसे,
मिला था
बुद्ध को

वर्ना,
बदलाव के
तेवर
कम नहीं,
तेरे पास
अब भी
****          ****         ****          ****

No comments:

Post a Comment