विट्ठल रामजी शिंदे
देश की आजादी के आन्दोलन के दौरान दो प्रकार की विचारधाराए काम कर रही थी. एक वे जिनका लक्ष्य ब्रिटिश भारत को अंग्रेजों से आजाद करा कर देश की सत्ता को अपने हाथ में लेना था और दूसरे वे जो आजादी के साथ-साथ यह भी चाहते थे की देश की सत्ता,जिससे बलात उनको दूर रखा गया था, जो सदियों से उनके हाथ में नहीं थी, की हिस्सेदारी में वे शरीक हो.पहले प्रकार की विचारधारा का नेतृत्व महात्मा गांधीजी कर रहे थे जबकि दूसरी का बाबासाहब डा.आंबेडकर.इसके आलावा कुछ लोग ऐसे भी थे जो इन दोनों विचारधाराओं के बीच सेतु का काम कर रहे थे. विट्ठल रामजी शिंदे का व्यक्तित्व इसी कड़ी का हिस्सा था.
विट्ठल रामजी शिंदे ही वह वजह थे जिसके कारण लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे कट्टर हिन्दू नेता को अस्पृश्यता के विरुध्द बोलने के लिए मंच पर खड़े होना पड़ा था. ये विट्ठल रामजी शिंदे ही थे, जिनके प्रयास से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को अस्पृश्यता के प्रश्न को अपने राष्ट्रीय एजेंडे में शामिल करना पड़ा था.
विट्ठल रामजी शिंदे का जन्म 23 अप्रेल सन 1873 को जामखंडी ( कर्नाटक) में हुआ था. उनके पिता रामजी बसवंत शिंदे, जामखंडी स्टेट में नौकरी किया करते थे. विट्ठल रामजी का ब्याह 9 वर्ष की उम्र में हुआ था. तब, उनके पत्नी की उम्र मुश्किल से 1 वर्ष रही होगी.
मेट्रिक पास करने के बाद विट्ठल रामजी शिंदे ने पूना में आ कर फर्ग्युशन कालेज से बी. ए. और सन 1898 में एल.एल.बी किया था. इस दौरान उन्हें पूना के प्रसिध्द एडव्होकेट गंगाराम भाऊ म्हस्के और समाज सुधारक बडौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड से आर्थिक सहायता मिली थी.
शुरू में विट्ठल रामजी शिंदे प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये थे. प्रार्थना समाज द्वारा प्राप्त आर्थिक सहायता से वे उच्च विद्या-अध्ययन हेतु इंग्लैण्ड गए थे इस शर्त के साथ कि वापिस आ कर वे संस्था का काम करेंगे. इंग्लैण्ड स्थित आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के मानचेस्टर कालेज में शिंदे ने विभिन्न धर्मों, खास कर बौध्द धर्म और पाली भाषा का गहन अध्ययन किया था.
सन 1903 में इंग्लैण्ड से लौटने के बाद मुम्बई में उन्होंने 'यंग थीइस्ट यूनियन' ( Young Theist Union) संस्था स्थापित की थी. संस्था के सदस्यों के लिए उन्होंने शर्ते रखी थी कि वे मूर्तिपूजा और जाति-पांति की घृणा में विश्वास कभी नहीं करेंगे. वे सन 1913 तक प्रार्थना समाज में रहे. यद्यपि, बाद के दिनों में उनके कार्यों का उन्हीं के लोग विरोध करने लगे थे.
विट्ठल रामजी शिंदे ने वर्ष 1905 में पूना के मिठनगंज पेठ में अछूतों के लिए रात्रि-स्कूल खोला था.इसी प्रकार 14 मार्च 1907 को अछूत जातियों के सामाजिक-धार्मिक सुधार के निमित्त 'सोमवंशीय मित्र समाज' की स्थापना की थी.
प्रार्थना समाज की ओर से 18 अक्टू. 1906 को डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन की स्थापना की गयी थी. विट्ठल रामजी शिंदे इसके महासचिव थे. सन 1912 तक डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन के पास विभिन्न 4 राज्यों में करीब 23 स्कूल और 5 छात्रावास थे. विट्ठल रामजी शिंदे ने कई रचनात्मक कार्य किये. मुम्बई और सी.पी. बरार में उन्होंने अस्पृश्यों के लिए कई आश्रम, स्कूल और पुस्तकालय खोले थे. सन 1917 को उन्होंने अखिल भारतीय निराश्रित अस्पृश्यता निवारक संघ की स्थापना की थी.
बाद के दिनों में विट्ठल रामजी शिंदे ने पूना को अपना कार्य क्षेत्र बनाया था. यहाँ पर स्थानीय प्रशासन द्वारा उन्हें 7 एकड़ जमीन का प्लाट दिया गया था जो कभी पहले ज्योतिबा फुले और उनके 'सत्य-शोधक समाज' के नाम एलाट किया गया था.
अस्पृश्यता जैसे सामाजिक सुधार के आधारभूत प्रश्न उठाने से विट्ठल रामजी शिंदे के उनके अपने ही लोगों से मतभेद बढ़ते जा रहे थे. दरअसल, वे प्रार्थना समाज के 'सामाजिक सुधार' के फ्रेम में खुद को ढाल नहीं पा रहे थे. मतभेद बढ़ते गए और अंतत: सन 1910 में उन्होंने प्रार्थना समाज को पूरी तरह छोड़ दिया था.
सन 1917 में मान्तेगु-चेम्स फोर्ड के चुनाव सुधार की घोषणा के साथ ही देश की राजनैतिक परिस्थितियां तेजी से बदल रही थी. सीटों के रिजर्वेशन के कारण पिछड़ी जातियों का ध्रुवीकरण हो रहा था.स्थिति को भांपते हुए विट्ठल रामजी शिंदे ने 'मराठा राष्ट्रीय संघ' की स्थापना की और नव. 1917 में एक विशाल अधिवेशन कर सन 1916 के कांग्रेस के 'लखनऊ पेक्ट' को भारी समर्थन दिया.
अस्पृश्यता के प्रश्न को अखिल भारतीय स्तर पर उठाने के लिए विट्ठल रामजी शिंदे लगातार प्रयास कर रहे थे. उन दिनों जहाँ कांग्रेस की सभा होती थी, शिंदे वहीँ 'डिप्रेस्ड क्लास मिशन' का अधिवेशन आयोजित करते थे. अंतत: शिंदे के प्रयासों से सन 1917 में कलकत्ता के अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार अस्पृश्यता के विरुध्द प्रस्ताव रखा था. वह भी शायद, इसलिए संभव हो पाया था क्योंकि, अधिवेशन की अध्यक्षता अंग्रेज महिला बेसन्ट साहिबा कर रही थी.
सामाजिक सुधार की दिशा में विट्ठल रामजी शिंदे ने 23 मार्च सन 1918 को मुम्बई में बडौदा के महाराजा सयाजी राव गायकवाड की अध्यक्षता में एक अधिवेशन आयोजित किया था. अधिवेशन में उपस्थित लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक लीक से हट कर भाषण दिया था. तिलक ने कहा था, 'यदि ईश्वर को जाति मान्य है, तो मैं ईश्वर को ही नहीं मानूंगा.' परन्तु, सभा के अंत में अस्पृश्यता के खात्मे के विरुध्द प्रस्ताव पर तिलक ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. इसी प्रकार मुम्बई प्रोविंसियल की कन्फेरेंश जो लोनावाला में हुई थी, में शिंदे स्वराज की मांग का प्रस्ताव रखने तैयार थे बशर्त सभी लोग एक मत से अस्पृश्यता के विरुध्द प्रस्ताव पारित करे.
दांडी-मार्च सत्याग्रह के दौरान विट्ठल रामजी शिंदे के दो अनुयायियों, पाताड़े और गाडगे ने गाँधीजी का जम कर विरोध किया था. उनका कहना था कि गाँधीजी को और किसी मार्च के पहले अस्पृश्यता के विरोध के लिए सत्याग्रह करना चाहिए.
सन 1919 में पूना म्यूनिसपैलटी के लडके और लडकियों के शिक्षा की अनिवार्य के प्रस्ताव का तिलक के अनुयायियों ने विरोध किया था.वे लडकियों के लिए शिक्षा की अनिवार्यता के विरुध्द थे. शिंदे स्त्री शिक्षा के जबरदस्त समर्थक थे. उनके एक दूसरे अधिवेशन में जब तिलक स्त्री शिक्षा पर भाषण दे रहे थे तब, लोगों ने भारी गुस्सा जाहिर किया था. यहाँ तक कि शिंदे को उन्हें अपनी सुरक्षा में लेकर अधिवेशन के बाहर निकालने में मदद करनी पड़ी थी.
विट्ठल रामजी शिंदे , पृथक चुनाव प्रणाली के विरुध्द थे. वे उसे देश के लिए विभाजनकारी मानते थे.पूना में मराठों के लिए आरक्षित सीट से उन्होंने लड़ने से मना कर दिया था.शुरू में कोल्हापुर के साहू महाराज, शिंदे के साथ थे किन्तु ब्राह्मणों से तंग आ कर जब उन्होंने क्षत्रियों के धार्मिक संस्कार किये जाने के लिए क्षत्रिय जगतगुरु के नियुक्त किये जाने का आदेश निकाला तो शिंदे द्वारा उसकी आलोचना किये जाने से वे उनसे नाराज हो गए थे.
शिंदे से उनके अपने 'डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन' के लोग भी नाराज थे. बाध्य हो कर पूना में संस्था का नेतृत्व शिंदे को ऐसे ही एक नाराज साथी को सौपना पड़ा.
रचनात्मक कार्यों के साथ शिंदे लेखन विधा से भी अपने विचारों का आदान-प्रदान करते थे. 'उपासना' और सुबोध चन्द्रिका' जैसी मासिक/साप्ताहिक पत्रिकाओं में सामाजिक सुधार के मुद्दों पर उनके लेख प्रकाशित होते रहते थे. सन 1933 में उनके द्वारा प्रकाशित 'बहिष्कृत भारत' और 'भातीय अस्प्रेश्यताचे प्रश्न' अस्पृश्यता के प्रश्न पर ही केन्द्रित पत्रिकाओं के अंक थे. हालेंड के विश्व धर्म सम्मेलन में उनका पढ़ा गया एक लेख ' हिन्दुस्तानातिल उदार धर्म' काफी प्रसिध्द हुआ था. 'आठवणी आणि अनुभव ' नामक शिंदे ने अपनी आत्मकथा लिखी थी.
सती प्रथा के निर्मूलन के लिए विट्ठल रामजी शिंदे ने जबरदस्त काम किया था. इसके विरुध्द जनचेतना जाग्रत करने महाराष्ट्र में एक सर्व धर्मी संस्था बनायीं गयी थी जिसके शिंदे सेक्रेटरी थे.
सन 1924 के दौर में शिंदे ने केरल के वैकम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन में भाग लिया था. परन्तु उनका यह कार्य उनके 'ब्रहमो समाज' के लोगों को पसंद नहीं आया. निराश हो कर शिंदे पूना लौट आये. शिंदे का ध्यान अब बौध्द धर्म तरफ गया. उन्होंने 'धम्मपद' आदि ग्रंथों का गहन अध्ययन किया. इसी अध्ययन के सिलसिले में सन 1927 में उन्होंने बर्मा की यात्रा की थी.
शिंदे के अन्तिम समय निराशजनक था.समाज सुधार के प्रति उनके मन में जो पीड़ा थी और जिसके लिए वे ता-उम्र अपने लोगों से संघर्ष करते रहे थे, को न तो दलित जातियों का समर्थन मिला और न ही उनके अपने लोगों का. इसी संत्रास में यह महापुरुष २ जन. 1944 को दुनिया से अलविदा हो गया.
देश की आजादी के आन्दोलन के दौरान दो प्रकार की विचारधाराए काम कर रही थी. एक वे जिनका लक्ष्य ब्रिटिश भारत को अंग्रेजों से आजाद करा कर देश की सत्ता को अपने हाथ में लेना था और दूसरे वे जो आजादी के साथ-साथ यह भी चाहते थे की देश की सत्ता,जिससे बलात उनको दूर रखा गया था, जो सदियों से उनके हाथ में नहीं थी, की हिस्सेदारी में वे शरीक हो.पहले प्रकार की विचारधारा का नेतृत्व महात्मा गांधीजी कर रहे थे जबकि दूसरी का बाबासाहब डा.आंबेडकर.इसके आलावा कुछ लोग ऐसे भी थे जो इन दोनों विचारधाराओं के बीच सेतु का काम कर रहे थे. विट्ठल रामजी शिंदे का व्यक्तित्व इसी कड़ी का हिस्सा था.
विट्ठल रामजी शिंदे ही वह वजह थे जिसके कारण लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे कट्टर हिन्दू नेता को अस्पृश्यता के विरुध्द बोलने के लिए मंच पर खड़े होना पड़ा था. ये विट्ठल रामजी शिंदे ही थे, जिनके प्रयास से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को अस्पृश्यता के प्रश्न को अपने राष्ट्रीय एजेंडे में शामिल करना पड़ा था.
विट्ठल रामजी शिंदे का जन्म 23 अप्रेल सन 1873 को जामखंडी ( कर्नाटक) में हुआ था. उनके पिता रामजी बसवंत शिंदे, जामखंडी स्टेट में नौकरी किया करते थे. विट्ठल रामजी का ब्याह 9 वर्ष की उम्र में हुआ था. तब, उनके पत्नी की उम्र मुश्किल से 1 वर्ष रही होगी.
मेट्रिक पास करने के बाद विट्ठल रामजी शिंदे ने पूना में आ कर फर्ग्युशन कालेज से बी. ए. और सन 1898 में एल.एल.बी किया था. इस दौरान उन्हें पूना के प्रसिध्द एडव्होकेट गंगाराम भाऊ म्हस्के और समाज सुधारक बडौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड से आर्थिक सहायता मिली थी.
शुरू में विट्ठल रामजी शिंदे प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये थे. प्रार्थना समाज द्वारा प्राप्त आर्थिक सहायता से वे उच्च विद्या-अध्ययन हेतु इंग्लैण्ड गए थे इस शर्त के साथ कि वापिस आ कर वे संस्था का काम करेंगे. इंग्लैण्ड स्थित आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के मानचेस्टर कालेज में शिंदे ने विभिन्न धर्मों, खास कर बौध्द धर्म और पाली भाषा का गहन अध्ययन किया था.
सन 1903 में इंग्लैण्ड से लौटने के बाद मुम्बई में उन्होंने 'यंग थीइस्ट यूनियन' ( Young Theist Union) संस्था स्थापित की थी. संस्था के सदस्यों के लिए उन्होंने शर्ते रखी थी कि वे मूर्तिपूजा और जाति-पांति की घृणा में विश्वास कभी नहीं करेंगे. वे सन 1913 तक प्रार्थना समाज में रहे. यद्यपि, बाद के दिनों में उनके कार्यों का उन्हीं के लोग विरोध करने लगे थे.
विट्ठल रामजी शिंदे ने वर्ष 1905 में पूना के मिठनगंज पेठ में अछूतों के लिए रात्रि-स्कूल खोला था.इसी प्रकार 14 मार्च 1907 को अछूत जातियों के सामाजिक-धार्मिक सुधार के निमित्त 'सोमवंशीय मित्र समाज' की स्थापना की थी.
प्रार्थना समाज की ओर से 18 अक्टू. 1906 को डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन की स्थापना की गयी थी. विट्ठल रामजी शिंदे इसके महासचिव थे. सन 1912 तक डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन के पास विभिन्न 4 राज्यों में करीब 23 स्कूल और 5 छात्रावास थे. विट्ठल रामजी शिंदे ने कई रचनात्मक कार्य किये. मुम्बई और सी.पी. बरार में उन्होंने अस्पृश्यों के लिए कई आश्रम, स्कूल और पुस्तकालय खोले थे. सन 1917 को उन्होंने अखिल भारतीय निराश्रित अस्पृश्यता निवारक संघ की स्थापना की थी.
बाद के दिनों में विट्ठल रामजी शिंदे ने पूना को अपना कार्य क्षेत्र बनाया था. यहाँ पर स्थानीय प्रशासन द्वारा उन्हें 7 एकड़ जमीन का प्लाट दिया गया था जो कभी पहले ज्योतिबा फुले और उनके 'सत्य-शोधक समाज' के नाम एलाट किया गया था.
अस्पृश्यता जैसे सामाजिक सुधार के आधारभूत प्रश्न उठाने से विट्ठल रामजी शिंदे के उनके अपने ही लोगों से मतभेद बढ़ते जा रहे थे. दरअसल, वे प्रार्थना समाज के 'सामाजिक सुधार' के फ्रेम में खुद को ढाल नहीं पा रहे थे. मतभेद बढ़ते गए और अंतत: सन 1910 में उन्होंने प्रार्थना समाज को पूरी तरह छोड़ दिया था.
सन 1917 में मान्तेगु-चेम्स फोर्ड के चुनाव सुधार की घोषणा के साथ ही देश की राजनैतिक परिस्थितियां तेजी से बदल रही थी. सीटों के रिजर्वेशन के कारण पिछड़ी जातियों का ध्रुवीकरण हो रहा था.स्थिति को भांपते हुए विट्ठल रामजी शिंदे ने 'मराठा राष्ट्रीय संघ' की स्थापना की और नव. 1917 में एक विशाल अधिवेशन कर सन 1916 के कांग्रेस के 'लखनऊ पेक्ट' को भारी समर्थन दिया.
अस्पृश्यता के प्रश्न को अखिल भारतीय स्तर पर उठाने के लिए विट्ठल रामजी शिंदे लगातार प्रयास कर रहे थे. उन दिनों जहाँ कांग्रेस की सभा होती थी, शिंदे वहीँ 'डिप्रेस्ड क्लास मिशन' का अधिवेशन आयोजित करते थे. अंतत: शिंदे के प्रयासों से सन 1917 में कलकत्ता के अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार अस्पृश्यता के विरुध्द प्रस्ताव रखा था. वह भी शायद, इसलिए संभव हो पाया था क्योंकि, अधिवेशन की अध्यक्षता अंग्रेज महिला बेसन्ट साहिबा कर रही थी.
सामाजिक सुधार की दिशा में विट्ठल रामजी शिंदे ने 23 मार्च सन 1918 को मुम्बई में बडौदा के महाराजा सयाजी राव गायकवाड की अध्यक्षता में एक अधिवेशन आयोजित किया था. अधिवेशन में उपस्थित लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक लीक से हट कर भाषण दिया था. तिलक ने कहा था, 'यदि ईश्वर को जाति मान्य है, तो मैं ईश्वर को ही नहीं मानूंगा.' परन्तु, सभा के अंत में अस्पृश्यता के खात्मे के विरुध्द प्रस्ताव पर तिलक ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. इसी प्रकार मुम्बई प्रोविंसियल की कन्फेरेंश जो लोनावाला में हुई थी, में शिंदे स्वराज की मांग का प्रस्ताव रखने तैयार थे बशर्त सभी लोग एक मत से अस्पृश्यता के विरुध्द प्रस्ताव पारित करे.
दांडी-मार्च सत्याग्रह के दौरान विट्ठल रामजी शिंदे के दो अनुयायियों, पाताड़े और गाडगे ने गाँधीजी का जम कर विरोध किया था. उनका कहना था कि गाँधीजी को और किसी मार्च के पहले अस्पृश्यता के विरोध के लिए सत्याग्रह करना चाहिए.
सन 1919 में पूना म्यूनिसपैलटी के लडके और लडकियों के शिक्षा की अनिवार्य के प्रस्ताव का तिलक के अनुयायियों ने विरोध किया था.वे लडकियों के लिए शिक्षा की अनिवार्यता के विरुध्द थे. शिंदे स्त्री शिक्षा के जबरदस्त समर्थक थे. उनके एक दूसरे अधिवेशन में जब तिलक स्त्री शिक्षा पर भाषण दे रहे थे तब, लोगों ने भारी गुस्सा जाहिर किया था. यहाँ तक कि शिंदे को उन्हें अपनी सुरक्षा में लेकर अधिवेशन के बाहर निकालने में मदद करनी पड़ी थी.
विट्ठल रामजी शिंदे , पृथक चुनाव प्रणाली के विरुध्द थे. वे उसे देश के लिए विभाजनकारी मानते थे.पूना में मराठों के लिए आरक्षित सीट से उन्होंने लड़ने से मना कर दिया था.शुरू में कोल्हापुर के साहू महाराज, शिंदे के साथ थे किन्तु ब्राह्मणों से तंग आ कर जब उन्होंने क्षत्रियों के धार्मिक संस्कार किये जाने के लिए क्षत्रिय जगतगुरु के नियुक्त किये जाने का आदेश निकाला तो शिंदे द्वारा उसकी आलोचना किये जाने से वे उनसे नाराज हो गए थे.
शिंदे से उनके अपने 'डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन' के लोग भी नाराज थे. बाध्य हो कर पूना में संस्था का नेतृत्व शिंदे को ऐसे ही एक नाराज साथी को सौपना पड़ा.
रचनात्मक कार्यों के साथ शिंदे लेखन विधा से भी अपने विचारों का आदान-प्रदान करते थे. 'उपासना' और सुबोध चन्द्रिका' जैसी मासिक/साप्ताहिक पत्रिकाओं में सामाजिक सुधार के मुद्दों पर उनके लेख प्रकाशित होते रहते थे. सन 1933 में उनके द्वारा प्रकाशित 'बहिष्कृत भारत' और 'भातीय अस्प्रेश्यताचे प्रश्न' अस्पृश्यता के प्रश्न पर ही केन्द्रित पत्रिकाओं के अंक थे. हालेंड के विश्व धर्म सम्मेलन में उनका पढ़ा गया एक लेख ' हिन्दुस्तानातिल उदार धर्म' काफी प्रसिध्द हुआ था. 'आठवणी आणि अनुभव ' नामक शिंदे ने अपनी आत्मकथा लिखी थी.
सती प्रथा के निर्मूलन के लिए विट्ठल रामजी शिंदे ने जबरदस्त काम किया था. इसके विरुध्द जनचेतना जाग्रत करने महाराष्ट्र में एक सर्व धर्मी संस्था बनायीं गयी थी जिसके शिंदे सेक्रेटरी थे.
सन 1924 के दौर में शिंदे ने केरल के वैकम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन में भाग लिया था. परन्तु उनका यह कार्य उनके 'ब्रहमो समाज' के लोगों को पसंद नहीं आया. निराश हो कर शिंदे पूना लौट आये. शिंदे का ध्यान अब बौध्द धर्म तरफ गया. उन्होंने 'धम्मपद' आदि ग्रंथों का गहन अध्ययन किया. इसी अध्ययन के सिलसिले में सन 1927 में उन्होंने बर्मा की यात्रा की थी.
शिंदे के अन्तिम समय निराशजनक था.समाज सुधार के प्रति उनके मन में जो पीड़ा थी और जिसके लिए वे ता-उम्र अपने लोगों से संघर्ष करते रहे थे, को न तो दलित जातियों का समर्थन मिला और न ही उनके अपने लोगों का. इसी संत्रास में यह महापुरुष २ जन. 1944 को दुनिया से अलविदा हो गया.
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