मेरी बेटी आजकल दिल्ली में है. उसे वहां ज्वाब लगी है.उसने बी.ई.( CS ) के बाद DAVV इंदौर के IMS संस्थान से HR में MBA किया है. कल उसका फोन आया था. वह बतला रही थी कि अपने एक फ्रेंड के साथ दिल्ली के बंगला साहिब गुरुद्वारा गयी थी. बातें दिलचस्प थी. आईये मैं वह डिस्कशन आपसे शेयर करूँ कि बंगला साहिब गुरुद्वारा में बेटी क्या देखती है और मैं क्या सोचता हूँ -
"डेडी, आज मैं बंगला साहिब गुरुद्वारा गयी थी."
"गुरुद्वारा ?"
"हाँ, मैं गुरुद्वारा गयी थी. कल मेरे कुछ फ्रेंड्स इंदौर IMS से आये थे.राजीव चौक मैं उन लोगों से मिलने गयी थी. लास्ट में मैंने एक फ्रेंड से कहा, यहाँ पास में ही बंगला साहिब गुरुद्वारा है. चलो वहां चलते हैं. हम दोनों वहां गए. डेडी बड़ा सकुन वहां मिल रहा था.जीरो मूड लेवल का एहसास हो रहा था. गजब की शांति और गंभीरता का एहसास हो रहा था...."
"तुम वहां पहली बार गयी थी. एकदम डिफरेंट क्लायमेंट में तुम गयी थी. तुम्हें जो एहसास हो रहा था, नेचुरल था. स्वाभाविक था." -मैंने उसके भावों को पकड़ने की कोशिश की.
"डेडी, मैंने वहां देखा, बड़े-बड़े लोग, इस बात की परवाह न करते हुए कि वे किसी फेक्ट्री के मालिक हैं या किसी उंच पद पर; जन-सेवा के कार्य बड़ी शांति और धैर्य से कर रहे थे. कोई झाड़ू लगा रहा था, कोई आगंतुकों के जूते-चप्पल साफ कर रहा था.कहीं कोई इरीटेशन नहीं, माथे पर शिकन नहीं. मुझे यह सब देख बड़ा अच्छा लग रहा था.मुझे लग रहा था कि मैं इस सब का पार्ट हूँ, हिस्सा हूँ."
"स्वाभविक है और बिलकुल स्वाभाविक था कि तुम्हे वैसा लगे." - मैंने कहा.
"डेडी, मगर जब हम अपने बुध्दिस्ट टेम्पल में जाते हैं. तो वहां इस तरह का एहसास नहीं होता ? मैंने कभी वहां ऐसा महसूस नहीं किया ?"
"तुम किस बुध्दिस्ट टेम्पल में गयी हो ?"
"अरे, हम लोग जब सीतापुर गए थे तब, 'मेनपाट' भी गए थे. आपको याद है, हम वहां तिब्बतियों के बुध्दिस्ट टेम्पल में गए थे ?"
"अच्छा,अच्छा." - मैंने याद करते हुए कहा.
"मगर, तुम जब दिल्ली में थी, हम लोग अभी पिछले महीने ही नागपुर गए थे .यू नो, आप जब नागपुर जाते हैं, रास्ते में कई बुध्दिस्ट टेम्पल पड़ते हैं. नागपुर सिटी के जस्ट बाहर कामठी रोड पर 'नागलोक बुध्दिस्ट टेम्पल' है. सिटी के अन्दर भी इन्दोरा का फेमस बुध्दिस्ट टेम्पल है. तुमने कामठी के 'ड्रेगन पेलेस' का नाम तो सुना ही होगा.हम लोग वहां भी गए थे. तुम्हारी मम्मी साथ में थी. यकीन करो, हम लोगों को वहां,वही एहसास हुआ जिसे तुम 'जीरो मूड लेवल' कहती हो. हमे जरा भी वहां से उठने का मन नहीं कर रहा था.लग रहा था , बैठे रहे और बस बैठे रहे."- मैंने अपनी फिलिंग शेयर की.
"डेडी, हम बुध्दिस्ट है. हम बुध्दिस्ट बाय हार्ट है. दिल-दिमाग से है.बुध्दिस्ट टेम्पल से उठने का मन नहीं करता, ये स्वाभाविक है. पर मैं जीरो मूड की बात रही हूँ. विचारों के शून्यता के लेवेल की बात कर रही हूँ."
"हाँ भई, मैं भी उसी की बात कर रहा हूँ. तुम्हे बुद्धिस्ट टेम्पल में गए काफी दिन हो गए हैं. ऐसा करो, दिल्ली में ही कई बुध्दिस्ट टेम्पल हैं. तुम अब हो ही आओ वहां एक बार.हम तब, इस पाईंट पर चर्चा करेंगे.
" रहा सवाल सिख गुरुद्वारों में जन-सेवा भाव का, तो नि;संदेह वह अन्यथा नहीं दीखता. गुरु नानक सहित सिखों की तमाम गुरु-शिष्य परम्परा बेशक, इसके लिए सेल्यूट की पात्र है.इस परम्परा को जो उन्होंने सम्भाल कर रखा हैं, अनुकरणीय है...
दरअसल, सिख धर्म में आगंतुकों के जूते-चप्पल साफ करने की बात हो या फिर, बिना छोटे-बड़े और उंच-नीच का भेद किये लंगर में खाना खिलाने की; तुम्हे इसे समझने के लिए इतिहास में जाना होगा. कबीर और नानक करीब करीब समकालीन थे. दोनों महापुरुषों के पैदा होने के समय सामाजिक-धार्मिक परिस्थितियां एक जैसी थी. दोनों के उपदेशों में भी ख़ास फर्क नहीं था. हाँ, उनके गुरु-शिष्य परम्परा में जरुर फर्क था. क्योंकि, कबीर जुलाहा जाति में पैसा हुए थे और दूसरे उनके माँ-बाप का पता नहीं था.यू नो, हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में इन बातों का बड़ा महत्त्व होता है. कबीर, यद्यपि अधिक प्रखर थे, मानवीय और सामाजिक मसलों पर नानक से अधिक क्रांतिकारी थे मगर, कबीर की गुरु-शिष्य परम्परा ने, कबीर का वही हाल किया जो कभी इन प्रति-क्रांतिकारी शक्तियों ने बुध्द का किया था. बुध्द और महावीर समकालीन थे.फर्क इतना था कि बुध्द अधिक क्रांतिकारी थे.
नि;संदेह, गुरुद्वारों में जन-सेवा दिखती है. चाहे अमीर हो या गरीब, महजबिया हो या खत्री, लोग जब गुरुद्वारों के अन्दर जाते हैं, इन लबादों को बाहर ही छोड़ देते है. मगर, गुरुद्वारे के बाहर निकलते से ही फिर वे इन लबादों को ओढ़ लेते हैं. क्योंकि,सिखों के सामाजिक जीवन में जाति-पांति के उंच-नीच की घृणा है.
"डेडी, आज मैं बंगला साहिब गुरुद्वारा गयी थी."
"गुरुद्वारा ?"
"हाँ, मैं गुरुद्वारा गयी थी. कल मेरे कुछ फ्रेंड्स इंदौर IMS से आये थे.राजीव चौक मैं उन लोगों से मिलने गयी थी. लास्ट में मैंने एक फ्रेंड से कहा, यहाँ पास में ही बंगला साहिब गुरुद्वारा है. चलो वहां चलते हैं. हम दोनों वहां गए. डेडी बड़ा सकुन वहां मिल रहा था.जीरो मूड लेवल का एहसास हो रहा था. गजब की शांति और गंभीरता का एहसास हो रहा था...."
"तुम वहां पहली बार गयी थी. एकदम डिफरेंट क्लायमेंट में तुम गयी थी. तुम्हें जो एहसास हो रहा था, नेचुरल था. स्वाभाविक था." -मैंने उसके भावों को पकड़ने की कोशिश की.
"डेडी, मैंने वहां देखा, बड़े-बड़े लोग, इस बात की परवाह न करते हुए कि वे किसी फेक्ट्री के मालिक हैं या किसी उंच पद पर; जन-सेवा के कार्य बड़ी शांति और धैर्य से कर रहे थे. कोई झाड़ू लगा रहा था, कोई आगंतुकों के जूते-चप्पल साफ कर रहा था.कहीं कोई इरीटेशन नहीं, माथे पर शिकन नहीं. मुझे यह सब देख बड़ा अच्छा लग रहा था.मुझे लग रहा था कि मैं इस सब का पार्ट हूँ, हिस्सा हूँ."
"स्वाभविक है और बिलकुल स्वाभाविक था कि तुम्हे वैसा लगे." - मैंने कहा.
"डेडी, मगर जब हम अपने बुध्दिस्ट टेम्पल में जाते हैं. तो वहां इस तरह का एहसास नहीं होता ? मैंने कभी वहां ऐसा महसूस नहीं किया ?"
"तुम किस बुध्दिस्ट टेम्पल में गयी हो ?"
"अरे, हम लोग जब सीतापुर गए थे तब, 'मेनपाट' भी गए थे. आपको याद है, हम वहां तिब्बतियों के बुध्दिस्ट टेम्पल में गए थे ?"
"अच्छा,अच्छा." - मैंने याद करते हुए कहा.
"मगर, तुम जब दिल्ली में थी, हम लोग अभी पिछले महीने ही नागपुर गए थे .यू नो, आप जब नागपुर जाते हैं, रास्ते में कई बुध्दिस्ट टेम्पल पड़ते हैं. नागपुर सिटी के जस्ट बाहर कामठी रोड पर 'नागलोक बुध्दिस्ट टेम्पल' है. सिटी के अन्दर भी इन्दोरा का फेमस बुध्दिस्ट टेम्पल है. तुमने कामठी के 'ड्रेगन पेलेस' का नाम तो सुना ही होगा.हम लोग वहां भी गए थे. तुम्हारी मम्मी साथ में थी. यकीन करो, हम लोगों को वहां,वही एहसास हुआ जिसे तुम 'जीरो मूड लेवल' कहती हो. हमे जरा भी वहां से उठने का मन नहीं कर रहा था.लग रहा था , बैठे रहे और बस बैठे रहे."- मैंने अपनी फिलिंग शेयर की.
"डेडी, हम बुध्दिस्ट है. हम बुध्दिस्ट बाय हार्ट है. दिल-दिमाग से है.बुध्दिस्ट टेम्पल से उठने का मन नहीं करता, ये स्वाभाविक है. पर मैं जीरो मूड की बात रही हूँ. विचारों के शून्यता के लेवेल की बात कर रही हूँ."
"हाँ भई, मैं भी उसी की बात कर रहा हूँ. तुम्हे बुद्धिस्ट टेम्पल में गए काफी दिन हो गए हैं. ऐसा करो, दिल्ली में ही कई बुध्दिस्ट टेम्पल हैं. तुम अब हो ही आओ वहां एक बार.हम तब, इस पाईंट पर चर्चा करेंगे.
" रहा सवाल सिख गुरुद्वारों में जन-सेवा भाव का, तो नि;संदेह वह अन्यथा नहीं दीखता. गुरु नानक सहित सिखों की तमाम गुरु-शिष्य परम्परा बेशक, इसके लिए सेल्यूट की पात्र है.इस परम्परा को जो उन्होंने सम्भाल कर रखा हैं, अनुकरणीय है...
दरअसल, सिख धर्म में आगंतुकों के जूते-चप्पल साफ करने की बात हो या फिर, बिना छोटे-बड़े और उंच-नीच का भेद किये लंगर में खाना खिलाने की; तुम्हे इसे समझने के लिए इतिहास में जाना होगा. कबीर और नानक करीब करीब समकालीन थे. दोनों महापुरुषों के पैदा होने के समय सामाजिक-धार्मिक परिस्थितियां एक जैसी थी. दोनों के उपदेशों में भी ख़ास फर्क नहीं था. हाँ, उनके गुरु-शिष्य परम्परा में जरुर फर्क था. क्योंकि, कबीर जुलाहा जाति में पैसा हुए थे और दूसरे उनके माँ-बाप का पता नहीं था.यू नो, हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में इन बातों का बड़ा महत्त्व होता है. कबीर, यद्यपि अधिक प्रखर थे, मानवीय और सामाजिक मसलों पर नानक से अधिक क्रांतिकारी थे मगर, कबीर की गुरु-शिष्य परम्परा ने, कबीर का वही हाल किया जो कभी इन प्रति-क्रांतिकारी शक्तियों ने बुध्द का किया था. बुध्द और महावीर समकालीन थे.फर्क इतना था कि बुध्द अधिक क्रांतिकारी थे.
नि;संदेह, गुरुद्वारों में जन-सेवा दिखती है. चाहे अमीर हो या गरीब, महजबिया हो या खत्री, लोग जब गुरुद्वारों के अन्दर जाते हैं, इन लबादों को बाहर ही छोड़ देते है. मगर, गुरुद्वारे के बाहर निकलते से ही फिर वे इन लबादों को ओढ़ लेते हैं. क्योंकि,सिखों के सामाजिक जीवन में जाति-पांति के उंच-नीच की घृणा है.
यू नो, हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में इन बातों का बड़ा महत्त्व होता है.aapko hindu se bda parhej hai lagta hai aapki bhasa hindu virodhi hai
ReplyDelete