Dadasaheb Bhaurao Gaikwad |
दादा साहेब गायकवाड पर डा. आंबेडकर का प्रचंड विश्वास था. उनके गुरु शिष्य के संबंधों की झलक हमें 20 नव. 1937 को नाशिक के जिला युवक संघ द्वारा दादा साहेब गायकवाड की अमूल्य सेवाओं के लिए उनके अभिनन्दन के अवसर पर बाबा साहेब डा. आंबेडकर के द्वारा प्रकट उद्गार से मिलती है. इस मौके पर विराजमान बाबा साहेब ने अपने भाषण में ने कहा था कि अगर उन्हें अपनी आत्म-कथा लिखने का अवसर आया तो उसका अधिकतम भाग भाऊराव गायकवाड का होगा.
Dadasaheb Bhaurao Gaikwad and other social activists |
भाऊराव का जन्म दलित समाज की उस महार जाति में हुआ था जिसे छूना उच्च जाति के हिन्दू पाप समझते थे. बालकभाऊ राव को भी जाति की वह पीड़ा झेलनी पड़ी, जिस पर उसका कोई बस नहीं था. स्कूल के रजिस्टर में उनका नाम 'भावडया किसन महार' लिखा गया था. क्लास में जहाँ बच्चों की लाइन ख़त्म होती थी, उन्हें वहां बैठना होता होता था.सब बच्चों की तरह भाऊराव को अपना सवाल दिखाने के लिए स्लेट नीचे जमीन पर रख कर गुरूजी तरफ खिसकाना होता था. गावं के स्कूल के बाद नाशिक के स्कूल में उनका नाम 'भाऊराव कृष्णाजी गायकवाड' लिखा गया था..
with Dr Ambedkar during his Nasik visit |
सन 1919 में भाऊराव की माताजी चल बसी. माताजी के देहांत के बाद भाऊराव नौकरी के लिए हाथ-पैर मारने लगे. इस समय तक उन्होंने मेट्रिक पास कर लिया था. शुरू में भाऊ राव को नाशिक के एक्साईज डिपार्टमेंट में नौकरी मिली. परन्तु, वह उसे रास नहीं आई. पोस्ट एंड टेलीग्राफ विभाग में भाऊराव ने कुछ समय काम किया. मगर, यहाँ भी ज्यादा दिन वे टिक नहीं सके. सन 1920 के वर्ष में राजश्री छत्रपति शाहू छात्रावास नाशिक में नया नया खुला था. भाऊ राव को वहां नौकरी मिली.छात्रावास के अधीक्षक के रूप में भाऊराव ने नौकरी ज्वाइन की.यह उसे ठीक लगी.
छात्रावास अधीक्षक के रूप में अपना कार्य समाप्त करने के बाद भाऊराव, सीधे छात्रावास के ग्रंथालय में जाते और अपना शेष समय यही बिताया करते थे. इस ग्रंथालय में उन्होंने गांधीजी,मार्क्स, एंजिल, लेनिन आदि के बारे में खूब पुस्तके पढ़ी. छात्रों के साथ नित बैठ कर उन्होंने अपनी अंग्रेजी भाषा को समृध्द किया.
With Dr Ambedkar Babu Jagjeevanram etc |
भाऊराव जब 9 -10 वर्ष के थे तभी उनका ब्याह रखमाजी दानी की पुत्री सीताबाई से हुआ था. काफी समय तक भाऊराव को कोई सन्तान नहीं हुई थी. थक हार कर सीताबाई ने भाऊराव को दूसरी शादी करने के लिए राजी किया. 20 मई 1928 को सीताबाई की छोटी बहन गीताबाई से भाऊराव का दूसरा ब्याह हुआ था.
भाऊराव ने सामाजिक आंदोलनों में अपने भागीकारिता की शुरुआत शैक्षणिक कार्यों से की.उन्होंने मनमाड में बच्चों के लिए अनेक छात्रावास खोले. उन्होंने वहां एक 'अनाथ विद्यार्थी आश्रम' की स्थापना की थी. तब, गावों के सार्वजानिक पनघटों/कुओं से पानी भरने के लिए अस्पृश्य जातियों को मनाही थी. भाऊराव ने इसके लिए 'पनघट आन्दोलन' शुरू किया.उन्होंने कई आन्दोलन और सत्याग्रह किये. मगर, किसी भी तरह का सत्याग्रह या आन्दोलन शुरू करने के पहले भाऊराव आवश्यक रूप से बाबा साहेब डा. आंबेडकर से सलाह जरुर लेते थे.
With Dr Ambedkar |
सन 1930 के दशक के दौरान नाशिक नगर पालिका का सदस्य रहते हुए भाऊराव ने दलित जातियों के सामाजिक और आर्थिक विकास के निमित्त कई प्रस्ताव पारित कराने में अहम् भूमिका निभायी. सफाई का काम दलित जाति के लोग करते हैं.पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम करने से उनकी मानसिकता भी उसी तरह की बन गयी है.दूसरी ओर, ब्राह्मण और उच्च जाति के लोग इस कार्य को हिकारत की नजर से देखते हैं. 28 मार्च 1932 को नाशिक नगरपालिका कार्यकारिणी की बैठक में भाऊराव ने मांग की कि इसमें बदलाव होना चाहिए. यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड की इस मांग को आज तक आजाद भारत में स्वीकारा नहीं गया.
With Dr Ambedkar |
With Dr Ambekar |
दादा साहेब गायकवाड नाशिक जिला बोर्ड के चेयरमेन थे. वे राय साहेब मेश्राम के देहांत के बाद औरंगाबाद के मिलिंद महाविद्यालय के निर्माण समिति के इंचार्ज रहे थे. उन्होंने बड़े-बड़े पदों को सुशोभित किया. मगर, एक बात है. उन्होंने अपनी ग्रामीण वेश-भूषा को कभी नहीं छोड़ा था. वे हमेशा टोपी और धोती में रहते थे.यह ग्रामीण वेश-भूषा उनकी पहचान थी. गावं-देहात से आये हुए लोगों को उनसे मिलने और बात करने में जरा भी दिक्कत पेश नहीं होती थी.वे बड़ी आत्मीयता से मिलते थे.लोग चाहे गावं के हो या देहात के, वे बड़ी सहजता से बात करते थे. उनके बात करने के लहजे में विनोद मगर, शालीनता होती थी.
पेरूमल कमेटी के समय, दादा साहेब ने देश भर में दौरा कर तथ्यों को जुटाने के लिए जो काम किया, वह उनकी लगन,परिश्रम और समाज के कमजोर वर्ग के प्रति उनकी तड़प को बयां करता है.नाशिक और दिल्ली में दादासाहेब के आवास दीन-दुखियों के लिए मन्दिर से कम न थे. दिन-दुखी और दलित समाज के प्रश्नों को उठाने का उनका एक खास अंदाज था.
तत्कालीन लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और मऊ में डा. बाबा साहेब आंबेडकर राष्ट्रीय सामाजिक विज्ञानं संस्थान के पहले महानिदेशक रहे सहारे जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि एक दिन दादा साहेब ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा था कि 'भाऊसाहेब, हमारे लोग जो बड़े पदों पर पहुँच गए हैं, उन्हें अपनी स्वच्छ छवि और पारदर्शिता के प्रति सजग रहना चाहिए. उन्हें इसे अपनी सम्पत्ति के तौर पर देखना चाहिए. समाज में ऐसे लोगों का नाम रहता है'. सहारे ने लिखा हैं कि वे शासन में और भी बड़े-बड़े पदों पर रहे और अपनी पूरी सेवा में दादा साहेब के इस सलाह का पालन ईमानदारी से किया, इसका उन्हें गर्व है.
जैसे कि बतलाया जा चूका है, दादा साहेब की दो पत्नियाँ थी. ये दोनों उनके यहाँ आने-जाने वाले कार्य-कर्ताओं का पूरा-पूरा ध्यान रखती थी. दादा साहेब कार्य-कर्ताओं को अपने जीवन की पूंजी मानते थे. उन्होंने निर्देश दे रखा था कि बाहर से आये कार्य-कर्ताओं की भूख-प्यास का ख्याल रखा जाये.
With Dr Ambedkar at Nasik |
दादा साहेब गायकवाड जमीनी कार्य-कर्ता थे. गावं-देहात के लोगों के रोजमर्रा की समस्याओं से वे सीधे जुड़े थे.किसी दलित के खेत को मराठे ने जबरदस्ती जोत लिया हो या किसी दलित स्त्री को कुँए में पानी भरने नहीं दिया गया हो अथवा किसी दलित जाति के बच्चे को स्कूल के बाहर ही बैठाल दिया गया हो या काम करने के बाद भी किसी गरीब को मजदूरी न मिली हो, ऐसे एक नहीं कई छोटे-बड़े कामों में दादा साहेब गायकवाड सुबह से शाम तक लगे रहते थे.
दलित अस्मिता के प्रतीक महाड चवदार तालाब का पानी पीने के आन्दोलन में कर्मवीर भाऊराव की अहम् भूमिका थी. बाबा साहेब डा. आंबेडकर के नेतृत्व में हुए इस संघर्ष ने देश की दलित जातियों के मुर्दा शरीरों में स्वाभिमान और आत्म-सम्मान की भावना को जाग्रत किया था. महाड़ के चवदार तालाब का पानी पीने के लिए 19-20 मार्च 1927 को सत्याग्रह हुआ था. किन्तु, कुछ ही दिनों बाद सनातनी हिन्दुओं ने तालाब के पानी में गाय का गोबर, मूत्र और घी डाल कर शुध्दिकरण किया. इस पर दलित जातियों की ओर से 25 दिस. 1927 को फिर सत्याग्रह हुआ. इसी दिन 'मनुस्मृति दहन' भी किया गया. क्योंकि, इसी ग्रन्थ के कारण ही तो दलितों को जानवरों से बदतर समझा जा रहा था.
With Karmveer Bhaurao Patil, Gadge Baba Dr Ambedkar |
इसी तरह नाशिक के कालाराम मन्दिर का आन्दोलन था. यह आन्दोलन पांच वर्षों तक चला था. इस आन्दोलन के अध्यक्ष पतितपावन दास थे. दादा साहेब गायकवाड संघर्ष समिति के सचिव थे.
चवदार तालाब का संघर्ष और नाशिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश का संघर्ष; इन दोनों आंदोलनों ने दलित समाज को जो सदियों से सो रहा था, एकाएक हडबडा कर जगा दिया था. इन दोनों आंदोलनों ने उसे एहसास कराया था कि वे अपने मानवी हकों की लड़ाई लड़ सकते हैं.बाबा साहेब डा. आंबेडकर के नेतृत्व में हुए इन आंदोलनों में कर्मवीर दादा साहेब गायकवाड की भूमिका सदैव याद रहेगी.
सन 1932 के पूना करार के बाद हिन्दुओं की ओर से बाबा साहेब डा. आंबेडकर को जान से मारने की धमकियाँ मिल रही थी, इसके चलते सन 1934 के दौरान बाबा साहेब ने अपना मृत्यु-पत्र तैयार करवा लिया था और उसकी एक प्रति दादा साहेब गायकवाड को भेज दी थी कि कदाचित ऐसा होता है,तब भी उनके द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को बंद न रखा जाये. आन्दोलन चलाने का खर्च मुम्बई स्थित उनका राजगृह बेच पूरा किया जाये.
दादा साहेब के व्यक्तित्व के जुझारूपन की झलक सन 1959 से 1965 के दौरान उनके द्वारा भूमिहीनों के बीच पड़ती भूमि बाँटने के लिए चलाया गया आन्दोलन था.दादा साहेब की सोच थी की देश की सारी पड़ती जमीन को भूमिहीनों में बाँट देनी चाहिए. इससे न केवल ख़ाली पड़ती जमीन का उपयोग होगा वरन लोगों के द्वारा पड़ती भूमि पर खेती किये जाने से भूमिहीनों की हालत में सुधार आयेगा. इस सत्याग्रह में दादा साहेब गायकवाड कई बार जेल गए.
दादा साहेब को उनकी अमूल्य सेवाओं के कारण उन्हें 26 जन. 1968 को पद्मश्री की उपाधि से नवाजा गया था. दादा साहेब को ब्लड प्रेसर और मधुमेह की बीमारी थी. इस बीमारी ने उन्हें 29 दिस. 1971 को हम से छीन लिया.राष्ट्र उनका सदैव ऋणी रहेगा.
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