Tuesday, October 30, 2018

सिद्धार्थ गोतम का बोधि-लाभ

सिद्धार्थ गोतम का बोधि-लाभ
यह कहना कि सिद्धार्थ को ध्यान-साधना से बोधि हुआ, बुद्ध और उनके धम्म को समझने में सम्यक दृष्टि का अभाव ही कहा जा सकता है।

आइए, पहले यह विचार करे कि सिद्धार्थ के सामने वे कौन-से प्रश्न थे, जिनसे वे जूझ रहे थे ?  वे कौन-से कारण थे, जिनके चलते उन्हें गृह त्याग करना पड़ा ?  परम्परागत मान्यता है कि एक बूढ़े, एक रोगी, एक मृत तथा एक साधु को देख कर उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया। किन्तु इस मान्यता को, जो पालि अट्ठकथाओं पर आधारित थी, जिन्हें बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद बुद्धघोस जैसे बौद्धाचार्यों ने परम्परागत सिंहल अट्ठकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पालि भाषा में लिखा था,  बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने अस्वीकार किया(नम्र निवेदन: भदन्त आनंद कौसल्यायन: बुद्ध और उनका धम्म पृ 14)।

भदन्त आनंद कौसल्यायन भी अट्ठकथा आधारित उक्त मत को कमतर आंकते हुए ति-पिटक के अंतर्गत ही सुत्तनिपात(खुद्दक निकाय) के अत्तदंड सुत्त(अठ्वग्ग ) का सन्दर्भ देते हुए बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के मत को पुष्ट करते हैं। स्मरण रहे, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने प्रो. धर्मानंद कोसंबी का समर्थन करते हुए जनता के दुक्ख के कारणों की गहराई में जाकर उन कारणों को नष्ट करने का उपाय जान कर, जनता को उसकी जानकारी करा कर दुक्ख का मूलोच्छेद करने के उद्देश्य से ही गृह त्याग किया था(वही, पृ  15-16 )।  इस स्थापना के बाद, अब हम आसानी से सिद्धार्थ गौतम की जद्दो-जहद और बोधि-लाभ को समझ सकते हैं।

क्योंकि, बूढ़े, रोगी, मृत और साधु को देख सिद्धार्थ गोतम का अभिनिष्क्रमण, उनके घर से निकलने के घटना-क्रम को न सिर्फ बड़े हलके में पेश करता है, बल्कि, बोधि-लाभ के बाद उनके द्वारा दी गए उपदेशों की धार भी कुंद करता है। क्योंकि, जिसका हेतु ही हास्यास्पद हो, विवेक-बुद्धि पर खरा न उतरता हो, उसका परिणाम भी स्वाभाविक रूप से हास्यास्पद होगा।              

यह सच है कि 'नए प्रकाश की खोज में' सिद्धार्थ गौतम भृगु ऋषि से लेकर आलार काळम और उद्दक रामपुत्त के आश्रम में रह कर ध्यान-साधना और चित्त की एकाग्रता की तमाम प्रचलित कष्ट-दायक समाधि-मार्ग का अभ्यास किया (बुद्ध और उनका धम्म पृ 105 - 109)। तदुपरांत,  यह भी सच है कि सिद्धार्थ गौतम ने सांख्य मार्ग और समाधि मार्ग के परीक्षण के साथ तपश्चर्या और आत्म-पीडन के बड़े ही उग्र रूप का छः वर्ष के लम्बे अरसे तक अभ्यास किया। तब भी उसे कोई नया-प्रकाश दिखाई नहीं दिया और संसार में जो दुक्ख की समस्या है, जिस पर उसका मन केंद्रित था, उस समस्या का कोई हल उसे दिखाई नहीं दिया(वही, पृ  111-112 )।

अब सिद्धार्थ के पास विकल्प सिर्फ चिंतन और मनन था न कि ध्यान-साधना का । निस्संदेह, सिद्धार्थ सांख्य मत से प्रभावित थे। कपिल ही एक ऐसा दार्शनिक था जिसकी शिक्षाएं सिद्धार्थ को तर्क-संगत और कुछ कुछ यथार्थ पर आश्रित जान पड़ी। उन्हें यह बात मान्य थी कि सत्य प्रमाणित होना चाहिए। यथार्थता का आधार बुद्धिवाद होना चाहिए। उन्हें यह बात मान्य थी कि किसी ईश्वर के अस्तित्व व उसके सृष्टिकर्ता होने का कोई तर्कानुकूल व यथार्थताश्रित कारण विद्मान नहीं है। उन्हें यह बात मान्य थी कि संसार में दुक्ख है। इसके आलावा कपिल की शेष शिक्षाओं की बुद्ध उपेक्षा की, क्योंकि उनका उनके लिए कोई उपयोग न था(बुद्ध और उनका धम्म,  पृ  126 )।

वेद, उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों में सिद्धार्थ गौतम को ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया जो मानव के नैतिक उत्थान में सहायक हो। उन्होंने वैदिक दर्शन को बेकार जान उसकी सम्पूर्ण रूप से अवहेलना की(वही, पृ  123 )। उपनिषदों की मुख्य स्थापना यह थी कि 'ब्रह्म'  ही सत्य है तथा 'आत्मा' और 'ब्रह्म' एक ही है। सिद्धार्थ गौतम को 'ब्रह्म' की वास्तविकता का  कोई प्रमाण नहीं मिला इसलिए उन्होंने उपनिषदों की स्थापना को अस्वीकार कर दिया।

सिद्धार्थ गौतम ने ब्राह्मणों के इस सिद्धांत का खंडन किया कि वेद अपौरुषेय है और उन पर प्रश्न चिन्ह नहीं लग सकता(वही, पृ  126 -127 )। उनकी सम्मति में कोई बात ऐसी हो ही नहीं सकती जो गलत होने की संभावना से परे हो। सिद्धार्थ गौतम  के लिए विचार-स्वातंत्र्य सर्वाधिक महत्त्व की बात थी। उन्हें इस बात का निश्चय था कि विचार स्वातंत्र्य ही सत्य को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।  वेदों की अपौरुषेयता को मान लेने का मतलब था विचार-स्वातंत्र्य को अस्वीकार कर देना (वही, पृ  129 )।

चातुर्वर्ण के नाम पर ब्राह्मणवाद ने जिस प्रकार के समाज-संगठन की कल्पना की, सिद्धार्थ गौतम को सर्वथा अप्राकृतिक लगा । वे एक खुले और स्वतन्त्र समाज के पक्षधर थे (वही, पृ  129 )। इसका उद्देश्य कमजोरों को दबाना, उनका शोषण करना तथा उन्हें सर्वथा गुलाम बनाए रखना था।

सिद्धार्थ गौतम की दृष्टि में जिस कर्म-वाद की ब्राह्मणों ने रचना की है वह विद्रोह की भावना को सर्वथा दबाने के लिए ही है। शूद्र और स्त्रियां- जिनकी मानवता को ब्राह्मणवाद ने बुरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया था, सर्वथा शक्तिहीन थी।  वह इस पद्यति के विरुद्ध जरा भी सर न उठा सकती थी।  ब्राह्मणवाद के अधीन बेचारे शूद्र स्वार्थी ब्राह्मणों, शक्तिशाली क्षत्रियों और धनी वैश्यों के एक भयानक षड्यंत्र के शिकार-मात्र बन कर रह गए। इन्हीं कारणों से सिद्धार्थ ने ब्राह्मणवाद को सद्धर्म का, जीवन के सच्चे धर्म का परम विरोधी मान कर अस्वीकार कर दिया((वही, पृ  131 )।

अपने समकालीन चाहे पुराण कस्सप, पकुध कच्चायन, मक्खलि गोसाल, अजित केसकम्बल, संजय बेलट्ठिपुत्त अथवा निगंठ नाथपुत्त: सिद्धार्थ गौतम को इन दार्शनिकों का कोई एक मत भी अच्छा नहीं लगा। उनको ऐसा लगा की ये सब ऐसे आदमियों के ही विचार थे जो या तो निराशावादी थे या असहाय थे या किसी भी भले-बुरे परिणाम की और से सर्वथा उदासीन थे।  इसलिए उन्होंने अन्यत्र ही कहीं से प्रकाश पाने की आशा रखी(वही, पृ  136 )।

अपने चिंतन-मनन की प्रक्रिया में सिद्धार्थ गौतम ने इनमे कुछ बातों को छांट कर अलग रखते हुए उन्हें सिरे से ख़ारिज किया।  वेदों को स्वयं प्रमाण मानना, आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास, पूर्वजन्म के कर्म में विश्वास को सिद्धार्थ गौतम ने सर्वथा त्याग किया। उन्होंने इस सिद्धांत का खंडन किया कि  किसी ईश्वर ने आदमी का निर्माण किया अथवा वह किसी 'ब्रह्म' के शरीर का अंश है(वही, पृ  137 -138 )।

सिद्धार्थ गौतम ने स्वीकार किया कि अच्छा या बुरा जो भी है, उसका पूर्वगामी मन है। इसलिए सबसे मुख्य बात मन को साधना है (वही, पृ  139) । क्रोध या आवेश में प्राय: अनर्थ हो जाता है, इसलिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है। शाक्य सेनापति के तेवर सिद्धार्थ के जेहन में तैर रहे थे। सिद्धार्थ चिंतन करने लगे कि वे कौन-से कारण थे कि मध्यस्थता की बात उसके गले नहीं उतरी ? सिद्धार्थ सोच रहे थे कि शक्ति का प्रयोग उचित नहीं है। इसमें  स्थायी समाधान नहीं है । चिंतन की निरंतर प्रक्रिया से गुजरते हुए सिद्धार्थ गोतम निर्णय पर पहुंचे कि अतिवाद से बचा जाना चाहिए, चाहे उसका स्वरूप  निगंठनाथ पुत्तों की शारीरिक कष्ट-साध्य पीड़ा हो या चार्वाकीय चिंतन का भौतिकवाद ।

धम्म क्या है,  का उत्तर देते हुए बाबासाहब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि बुद्ध का धम्म न ध्यान-साधना अथवा विपस्सना हैं और न कोई रहस्यवाद अथवा संसार से स्वार्थ-पूर्ण पलायन। बुद्ध के धम्म का एक 'सामाजिक सन्देश' है । और, यह 'सामाजिक सन्देश' ही बुद्ध की शिक्षा है। लेकिन इसे आधुनिक लेखकों ने दफना दिया(वही, पृ 241)। क्योंकि, इतिहास लिखने का एकाधिकार ब्राह्मणों के पास था। बाद में कुछ विदेशियों ने भी इतिहास लिखा किन्तु अधिकांश वही, जो ब्राह्मणों ने उन्हें बताया। ब्राह्मणों ने सिलेक्टिवली बुद्ध के इतिहास को तोडा, मरोड़ा।  क्योंकि, बुद्धिज़्म, ब्राह्मणिज्म का एन्टीडोट है. यह उसके आधार भूत ढांचे पर ही वार करता है।
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