बावीस प्रतिज्ञाओं की प्रासंगिकता
एक दिल्ली के प्रोफ़ेसर है। वे धर्म अथवा 'धम्म' के मामले में तटस्थ है। किन्तु, उनका उदबोधन, चाहे सामाजिक सरोकार हो, धार्मिक अथवा राजनैतिक, बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं से प्रारम्भ होता है। वे बड़ी ही रोचकता से बाबासाहब की इन बावीस प्रतिज्ञाओं को सामने रखती हैं। मंच पर बैठे विद्वत-जन, फिर चाहे जिस बैनर और डॉयस पर आसीन हस्तियां हो, साँस रोक कर उनका विश्लेषण और विषय-सम्बद्धता परखती हैं और आश्चर्य, कि उस विषय-सम्बद्धता को वे आगे बढ़ाती हैं।
मेरे कुछ अन्य मित्र भी हैं, जो बर्मी गुरु सत्यनारायण गोयनकाजी की विपस्सना से जुड़े हैं। वे 22 प्रतिज्ञाओं पर बात करना पसंद नहीं करते। उनकी चर्चाओं में ये प्रतिज्ञाएं नदारत होती हैं। विपस्सना केन्दों में इन 22 प्रतिज्ञाओं की न तो चर्चा होती है और न ही इन पर चिंतन-मनन । मुझे यह खालीपन आश्चर्य-जनक रूप से चुभता है। मैंने अपनी यह पीड़ा अपने मित्रों से शेयर की। वे बड़े अजीब-से तर्क देतें हैं। कहीं-कहीं तो वे बाबासाहब पर ही प्रश्न खड़ा करते हैं ? बावीस प्रतिज्ञाओं की बात छोड़िए, वे बुद्धिज़्म सम्बन्धी बाबासाहब की पैठ पर ही ऊँगली उठाते हैं ?
सनद रहे, 14 अक्टू 1956 को धम्म दीक्षा के अवसर पर बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों ये 22 प्रतिज्ञाएँ कराई थी। धर्मान्तरित बौद्ध, इन प्रतिज्ञाओं को अपने मुतिदाता के अंतिम वचन मानते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे महापरिनिर्वाण सुत्त में आनंद को दिए गए उपदेश 'अत्त दीपो भव' को बुद्ध के अनुयायी मानते हैं। जिस तरह बुद्धानुयायी, पांच शीलों को जीवन की आचार- संहिता के तौर पर ग्रहण करते हैं, ठीक उसी प्रकार बाबासाहेब अम्बेडकर के अनुयायी भी इन 22 प्रतिज्ञाओं को जीवन की आचार-संहिता मानते हैं।
और, यह भी सच है कि बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त ये प्रतिज्ञाएँ, उन सड़े-गले आदर्शों से हमें बाहर निकालती है, जो हमारी सामाजिक अवनति के लिए जिम्मेदार है, उन उच्च आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित करती है जो समता, स्वतंत्रता और बधुता का आधार है। हमारे मसीहा और मुक्तिदाता बाबासाहब डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त ये 22 प्रतिज्ञाएँ, हमारी पहचान है। ये हमें अ-बौद्धों से अलग करती है, हमारे चरित्र और संस्कारों को गढ़ती है।
इन 22 प्रतिज्ञाओं का महत्त्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि विवाह के अवसर पर वर-वधु को दिलाई जाने वाली पांच-पांच- प्रतिज्ञाएं, जो असमानता पर आधारित होने के कारण बदलते परिवेश में असंगत प्रतीत हो रही थी, के स्थान पर अब, वर और वधु की घर और परिवार में समान आदर और हिस्सेदारी तय करते हुए समाज के सामने, दोनों को ये बावीस प्रतिज्ञाएं कराई जाती है।
प्रारंभ में, बुद्ध के 'ऐहि भिक्खु' कहने मात्र से ही धम्म-दीक्षा हो जाती थी। तदन्तर, तथागत के महापरिनिर्वाण के बाद 'ति-सरण और पञ्चसील' धम्म-दीक्षा का अंग बना। भदन्त धर्मानंद कोसम्बी के अनुसार, शायद, धम्म के संस्थापक होने के कारण, 'बुद्ध की सरण' को जोड़ा गया(भ. बुद्ध, जीवन और दर्शन) । किन्तु बाबासाहब अम्बेडकर को जब, अपने 'छ करोड़ अनुयायियों' को 'धम्म-दीक्षा' देने का वक्त आया तो उन्होंने पारम्परिक 'ति-सरण' और 'पञ्च-सील' के साथ 'बावीस प्रतिज्ञाओं' को भी उस 'धम्म-दीक्षा' कार्य-विधि में सम्मिलित किया। 'महाबोधि सोसायटी ऑफ़ इंडिया' के जनरल सेक्रेटरी डी वलिंसिंहा को लिखे पत्र में बाबासाहब अम्बेडकर ने लिखा कि भारत से बुद्धिज़्म के गायब होने की वजह यह थी कि लोग बुद्ध के साथ अन्य देवी-देवताओं को भी पूजते थे जिन्हें ब्राह्मणों ने बुद्धिज़्म के विनाश के लिए खड़े किए थे(रिवायवल ऑफ़ बुद्धिज़्म: डॉ अम्बेडकर लाइफ एंड मिशन: धंनजय कीर )।
बावीस प्रतिज्ञाएँ, बौद्ध जगत के लिए अनोखी नहीं हैं। ये बुद्ध की देशना में अंतर्भूत है । आज से 2500 हजार वर्ष पहले, बुद्ध ने वैदिक दर्शन और उसकी व्यवस्था से खुद को अलग करते हुए इनकी नीव रखी थी। ईश्वर में अविश्वास, आत्मा में अविश्वास, आत्मा के संसरण में अविश्वास, वेदों में अविश्वास, उपनिषदो में अविश्वास, ब्राह्मणी-ग्रंथों में अविश्वास, ब्रह्म में अविश्वास, ब्रह्मा के सृष्टि कर्ता होने में अविश्वास, कर्म-पुनर्जन्म में अविश्वास, चतुर्वर्ण-व्यवस्था में अविश्वास, ऊंच-नीच के घृणा पर आधारित जाति-पांति में अविश्वास(बुद्ध और उनका धम्म: खंड- 1 भाग - 5 से 7 ), ये बावीस प्रतिज्ञाओं में ही अंतर्भूत थी ।
चूँकि, ये 22 प्रतिज्ञाएँ धम्म का आधार है, धम्म में अंतर्भूत हैं, यह सवाल असंगत है कि बाबासाहब ने इन्हें धम्म-दीक्षा का अनिवार्य भाग क्यों बनाया ? बुद्ध ने अपनी किसी बात को 'गुप्त' नहीं रखा। बाबासाहब अम्बेडकर ने भी अपनी किसी बात को गुप्त नहीं रखा, जैसे ब्राह्मण और आरएसएस के लोग प्राय: करते हैं। वे दंभ तो 'वशुधैव कुटुम्बकं' का करते हैं किन्तु अपने जाति-बांधवों के साथ कुत्ते-बिल्लियों से भी बदतर व्यवहार करते हैं ! 'कास्ट इन इण्डिया' से लेकर, 'एन्हिलेशन आफ कास्ट', 'हू वेयर शूद्रा' से लेकर 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' तक बाबासाहब की सारी कृतियाँ इन बावीस प्रतिज्ञाओं का आगाज करती हैं, पुष्ट करती है।
प्रथम आठ प्रतिज्ञाओं में अ-बौद्ध संस्कारों से दूर रहने की बात कही गई है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश या राम-कृष्ण अथवा गौरी-गणपति हिन्दू-देवी-देवताओं को मानना अ-बौद्ध चिंतन है। वेदों को प्रमाण मानना हो या जगत की उत्पत्ति और प्रलय की संकल्पना अथवा ईश्वर को सृष्टि-कर्ता और ब्रह्म को विश्व का मूलाधार सिद्ध करना; बुद्ध ने सिरे से ख़ारिज किया है। बुद्ध के अनुसार ईश्वराधीन धर्म कल्पनाश्रित है और इसके परिणामस्वरूप भ्रामक सोच पैदा होती है(बुद्धा एंड हिज धम्मा, खंड 1, भाग- 5 से 7 )। बुद्ध ने इसका भी खंडन किया कि ईश्वर ने आदमी का निर्माण किया है अथवा वह किसी ब्रह्म के शरीर का अंश है(तेविज्ज सुत्त:दीघ निकाय )। बुद्ध ने कहा कि विश्व विकास की प्रक्रिया की परिणति है और उसका स्वभाव सतत परिवर्तन है। चूँकि मनुष्य प्रकृति का अंग है, इसलिए निरंतर परिवर्तन मनुष्य का स्वभाव है( बुद्धा एंड हिज धम्मा: खंड- 3 : भाग- 4 )।
भदंत आनंद कोसल्यायान के अनुसार, दरअसल, इसमें सृष्टि के निर्माण-पालन-संहार कर्ता अथवा किसी देवी-देवता का अपमान करने का उद्देश्य न होकर सत्य का अन्वेषण करते हुए देश के बहु-संख्यक हिन्दू समाज को तत्संबंधित अंध-श्रद्धा से मुक्त करना है। क्योंकि इस अँध-श्रद्धा का प्रभाव न चाहते हुए भी दलित-आदिवासी सहित अल्प-संख्यकों पर पड़ता ही है। और फिर, धर्मान्तरित बौद्ध ही क्यों, अ-धर्मान्तरित दलित-आदिवासी भी जो ब्राह्मणवाद के जाल में फंस कर धार्मिक उन्मांद के नशे में लिप्त हैं, उनके लिए ये बावीस प्रतिज्ञाएं जैसे उम्मीद की किरणे हैं। हिन्दू-देवी-देवताओं का उल्लेख का सीधा मतलब है, बाबासाहब इन प्रतिज्ञाओं को अंगीकार करने की परिणति का लाभ वे धर्मान्तरित बौद्धों तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे। बाबासाहब जितने दलित और परिगणित जातियों के उत्थान के लिए चिंतित थे, उससे कहीं अधिक इस देश की सामाजिक एकता और सांप्रदायिक अखंडता के लिए चिंतित थे। क्योंकि, ये दोनों तत्व न सिर्फ सामाजिक-आर्थिक समृद्धता की ओर लोगों को ले जाते हैं वरन देश की अखंडता को भी मजबूत भी करते हैं ।
ब्राह्मण, जो संख्या में बहुत कम हैं, जानते हैं कि वे अधिक दिनों तक बहुसंख्यकों पर शासन नहीं कर सकते और इसलिए 'हिन्दू राष्ट्र' अथवा 'गर्व से कहो, हिन्दू है' जैसे नारे लगवा कर अपनी अल्प-संख्या को बहुसंख्या में तब्दील करते हैं । नए-नए देवी-देवताओं को रातों-रात खड़े कर धर्मान्धता का आलम पैदा करते हैं। कभी सूअर/गाय के नाम से तो कभी मंदिर/मस्जिद के नाम से आम जन को उत्तेजित करते हैं । ब्राह्मणों की इस 'चाल' का भंडाफोड़ करने बाबासाहब ने 'हू वेयर दी शूद्राज' नामक खोज-परक ग्रंथ लिखा। किन्तु देश का पिछड़ा और अन्य पिछड़ा वर्ग है कि 'गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं' के मद में बेसुध पड़ा है ! हिन्दू समाज का यह वर्ग 'श्रीरामचरित मानस' के साथ-साथ अगर इन बावीस प्रतिज्ञाओं को पढ़े तो शिक्षा और उन्नति का प्रकाश उनके घरों में भी पहुँच सकता है जैसे धर्मान्तरित बौद्धों के घरों में पहुंचा है।
प्रतिज्ञा क्र. 9 और 10 तक में समता और उसकी स्थापना के लिए सतत प्रयास की बात कही गई है। स्पष्ट रूप से ये प्रतिज्ञाएं बुद्ध के ऊंच-नीच की घृणा पर आधारित जाति-पांति और चातुर्वर्ण-व्यवस्था पर आधारित जन्मगत असमानता पर किए गए कठोर प्रहार से अनुप्रेरित हैं। देखे- दीघ निकाय का अम्बट्ठ सुत्त, लोहिच्च सुत्त, मज्झिम निकाय का मधुरिय सुत्त, कण्णत्थलक सुत्त, अस्सलायन सुत्त, ऐसुकारी सुत्त, वासेट्ठ सुत्त आदि । गोया, बुद्ध के हर उपदेश में क्रांति नजर आती है, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्रांति। धार्मिक सड़ांध और सामाजिक कुरूतियों के विरुद्ध क्रांति। बुद्ध की देशना में 'शांति' तो कहीं नहीं दिखती जिसका बुद्ध को विष्णु का अवतार बताने वाले, प्रचार करते हैं। मुझे इनकी इस 'शांति' में किसी साजिश की बू आती है।
3 अक्टू 1954 को आकाशवाणी पर दिए अपने उदबोधन में बाबासाहब अम्बेडकर ने कहा था कि भारत के संविधान की उद्देशिका में समता, स्वतंत्रता, और बंधुता पर आधारित राजकीय ध्येय के आदर्श का प्रतिपादन किया गया है, किन्तु इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के सामाजिक आचार विचार इन आदर्शों को अस्वीकार करते हैं। बाबासाहब कहते हैं कि जब तक समाज में यह अंतर-विरोध जारी रहेगा, सामाजिक समता दु;स्वप्न ही होगी। निस्संदेह, ये प्रतिज्ञाएं धर्मान्तरि बौद्धों के लिए अनुकरणीय कदम है। चूँकि बाबासाहब के स्वप्नों का भारत बनाने की जिम्मेदारी इन्हीं के कन्धों पर हैं इसलिए यह उन्हीं का दायित्व है कि वे इस दिशा में समाज और देश का पथ-प्रदर्शन करें।
प्रतिज्ञा क्र.11 और 12 में अष्टांगिक मार्ग और दस पारमिता तथा प्रतिज्ञा क्र. 13 से 17 में पञ्चशील पालन की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 18 में प्रज्ञा, शील, करुणा को जीवन में अंगीकार करने की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 19 में असमानता और ऊंच-नीच पर आधारित हिन्दू धर्म को त्याग कर समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित धम्म को अपनाने की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 20, 21 और 22 में धम्म को एक नए जीवन के रूप में स्वीकारने और तदनुसार आचरण करने की वचन-बद्धता दुहराई गई है।
-अ ला उके मो 9630826117
एक दिल्ली के प्रोफ़ेसर है। वे धर्म अथवा 'धम्म' के मामले में तटस्थ है। किन्तु, उनका उदबोधन, चाहे सामाजिक सरोकार हो, धार्मिक अथवा राजनैतिक, बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं से प्रारम्भ होता है। वे बड़ी ही रोचकता से बाबासाहब की इन बावीस प्रतिज्ञाओं को सामने रखती हैं। मंच पर बैठे विद्वत-जन, फिर चाहे जिस बैनर और डॉयस पर आसीन हस्तियां हो, साँस रोक कर उनका विश्लेषण और विषय-सम्बद्धता परखती हैं और आश्चर्य, कि उस विषय-सम्बद्धता को वे आगे बढ़ाती हैं।
मेरे कुछ अन्य मित्र भी हैं, जो बर्मी गुरु सत्यनारायण गोयनकाजी की विपस्सना से जुड़े हैं। वे 22 प्रतिज्ञाओं पर बात करना पसंद नहीं करते। उनकी चर्चाओं में ये प्रतिज्ञाएं नदारत होती हैं। विपस्सना केन्दों में इन 22 प्रतिज्ञाओं की न तो चर्चा होती है और न ही इन पर चिंतन-मनन । मुझे यह खालीपन आश्चर्य-जनक रूप से चुभता है। मैंने अपनी यह पीड़ा अपने मित्रों से शेयर की। वे बड़े अजीब-से तर्क देतें हैं। कहीं-कहीं तो वे बाबासाहब पर ही प्रश्न खड़ा करते हैं ? बावीस प्रतिज्ञाओं की बात छोड़िए, वे बुद्धिज़्म सम्बन्धी बाबासाहब की पैठ पर ही ऊँगली उठाते हैं ?
सनद रहे, 14 अक्टू 1956 को धम्म दीक्षा के अवसर पर बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों ये 22 प्रतिज्ञाएँ कराई थी। धर्मान्तरित बौद्ध, इन प्रतिज्ञाओं को अपने मुतिदाता के अंतिम वचन मानते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे महापरिनिर्वाण सुत्त में आनंद को दिए गए उपदेश 'अत्त दीपो भव' को बुद्ध के अनुयायी मानते हैं। जिस तरह बुद्धानुयायी, पांच शीलों को जीवन की आचार- संहिता के तौर पर ग्रहण करते हैं, ठीक उसी प्रकार बाबासाहेब अम्बेडकर के अनुयायी भी इन 22 प्रतिज्ञाओं को जीवन की आचार-संहिता मानते हैं।
और, यह भी सच है कि बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त ये प्रतिज्ञाएँ, उन सड़े-गले आदर्शों से हमें बाहर निकालती है, जो हमारी सामाजिक अवनति के लिए जिम्मेदार है, उन उच्च आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित करती है जो समता, स्वतंत्रता और बधुता का आधार है। हमारे मसीहा और मुक्तिदाता बाबासाहब डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त ये 22 प्रतिज्ञाएँ, हमारी पहचान है। ये हमें अ-बौद्धों से अलग करती है, हमारे चरित्र और संस्कारों को गढ़ती है।
इन 22 प्रतिज्ञाओं का महत्त्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि विवाह के अवसर पर वर-वधु को दिलाई जाने वाली पांच-पांच- प्रतिज्ञाएं, जो असमानता पर आधारित होने के कारण बदलते परिवेश में असंगत प्रतीत हो रही थी, के स्थान पर अब, वर और वधु की घर और परिवार में समान आदर और हिस्सेदारी तय करते हुए समाज के सामने, दोनों को ये बावीस प्रतिज्ञाएं कराई जाती है।
बावीस प्रतिज्ञाएँ, बौद्ध जगत के लिए अनोखी नहीं हैं। ये बुद्ध की देशना में अंतर्भूत है । आज से 2500 हजार वर्ष पहले, बुद्ध ने वैदिक दर्शन और उसकी व्यवस्था से खुद को अलग करते हुए इनकी नीव रखी थी। ईश्वर में अविश्वास, आत्मा में अविश्वास, आत्मा के संसरण में अविश्वास, वेदों में अविश्वास, उपनिषदो में अविश्वास, ब्राह्मणी-ग्रंथों में अविश्वास, ब्रह्म में अविश्वास, ब्रह्मा के सृष्टि कर्ता होने में अविश्वास, कर्म-पुनर्जन्म में अविश्वास, चतुर्वर्ण-व्यवस्था में अविश्वास, ऊंच-नीच के घृणा पर आधारित जाति-पांति में अविश्वास(बुद्ध और उनका धम्म: खंड- 1 भाग - 5 से 7 ), ये बावीस प्रतिज्ञाओं में ही अंतर्भूत थी ।
चूँकि, ये 22 प्रतिज्ञाएँ धम्म का आधार है, धम्म में अंतर्भूत हैं, यह सवाल असंगत है कि बाबासाहब ने इन्हें धम्म-दीक्षा का अनिवार्य भाग क्यों बनाया ? बुद्ध ने अपनी किसी बात को 'गुप्त' नहीं रखा। बाबासाहब अम्बेडकर ने भी अपनी किसी बात को गुप्त नहीं रखा, जैसे ब्राह्मण और आरएसएस के लोग प्राय: करते हैं। वे दंभ तो 'वशुधैव कुटुम्बकं' का करते हैं किन्तु अपने जाति-बांधवों के साथ कुत्ते-बिल्लियों से भी बदतर व्यवहार करते हैं ! 'कास्ट इन इण्डिया' से लेकर, 'एन्हिलेशन आफ कास्ट', 'हू वेयर शूद्रा' से लेकर 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' तक बाबासाहब की सारी कृतियाँ इन बावीस प्रतिज्ञाओं का आगाज करती हैं, पुष्ट करती है।
प्रथम आठ प्रतिज्ञाओं में अ-बौद्ध संस्कारों से दूर रहने की बात कही गई है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश या राम-कृष्ण अथवा गौरी-गणपति हिन्दू-देवी-देवताओं को मानना अ-बौद्ध चिंतन है। वेदों को प्रमाण मानना हो या जगत की उत्पत्ति और प्रलय की संकल्पना अथवा ईश्वर को सृष्टि-कर्ता और ब्रह्म को विश्व का मूलाधार सिद्ध करना; बुद्ध ने सिरे से ख़ारिज किया है। बुद्ध के अनुसार ईश्वराधीन धर्म कल्पनाश्रित है और इसके परिणामस्वरूप भ्रामक सोच पैदा होती है(बुद्धा एंड हिज धम्मा, खंड 1, भाग- 5 से 7 )। बुद्ध ने इसका भी खंडन किया कि ईश्वर ने आदमी का निर्माण किया है अथवा वह किसी ब्रह्म के शरीर का अंश है(तेविज्ज सुत्त:दीघ निकाय )। बुद्ध ने कहा कि विश्व विकास की प्रक्रिया की परिणति है और उसका स्वभाव सतत परिवर्तन है। चूँकि मनुष्य प्रकृति का अंग है, इसलिए निरंतर परिवर्तन मनुष्य का स्वभाव है( बुद्धा एंड हिज धम्मा: खंड- 3 : भाग- 4 )।
भदंत आनंद कोसल्यायान के अनुसार, दरअसल, इसमें सृष्टि के निर्माण-पालन-संहार कर्ता अथवा किसी देवी-देवता का अपमान करने का उद्देश्य न होकर सत्य का अन्वेषण करते हुए देश के बहु-संख्यक हिन्दू समाज को तत्संबंधित अंध-श्रद्धा से मुक्त करना है। क्योंकि इस अँध-श्रद्धा का प्रभाव न चाहते हुए भी दलित-आदिवासी सहित अल्प-संख्यकों पर पड़ता ही है। और फिर, धर्मान्तरित बौद्ध ही क्यों, अ-धर्मान्तरित दलित-आदिवासी भी जो ब्राह्मणवाद के जाल में फंस कर धार्मिक उन्मांद के नशे में लिप्त हैं, उनके लिए ये बावीस प्रतिज्ञाएं जैसे उम्मीद की किरणे हैं। हिन्दू-देवी-देवताओं का उल्लेख का सीधा मतलब है, बाबासाहब इन प्रतिज्ञाओं को अंगीकार करने की परिणति का लाभ वे धर्मान्तरित बौद्धों तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे। बाबासाहब जितने दलित और परिगणित जातियों के उत्थान के लिए चिंतित थे, उससे कहीं अधिक इस देश की सामाजिक एकता और सांप्रदायिक अखंडता के लिए चिंतित थे। क्योंकि, ये दोनों तत्व न सिर्फ सामाजिक-आर्थिक समृद्धता की ओर लोगों को ले जाते हैं वरन देश की अखंडता को भी मजबूत भी करते हैं ।
ब्राह्मण, जो संख्या में बहुत कम हैं, जानते हैं कि वे अधिक दिनों तक बहुसंख्यकों पर शासन नहीं कर सकते और इसलिए 'हिन्दू राष्ट्र' अथवा 'गर्व से कहो, हिन्दू है' जैसे नारे लगवा कर अपनी अल्प-संख्या को बहुसंख्या में तब्दील करते हैं । नए-नए देवी-देवताओं को रातों-रात खड़े कर धर्मान्धता का आलम पैदा करते हैं। कभी सूअर/गाय के नाम से तो कभी मंदिर/मस्जिद के नाम से आम जन को उत्तेजित करते हैं । ब्राह्मणों की इस 'चाल' का भंडाफोड़ करने बाबासाहब ने 'हू वेयर दी शूद्राज' नामक खोज-परक ग्रंथ लिखा। किन्तु देश का पिछड़ा और अन्य पिछड़ा वर्ग है कि 'गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं' के मद में बेसुध पड़ा है ! हिन्दू समाज का यह वर्ग 'श्रीरामचरित मानस' के साथ-साथ अगर इन बावीस प्रतिज्ञाओं को पढ़े तो शिक्षा और उन्नति का प्रकाश उनके घरों में भी पहुँच सकता है जैसे धर्मान्तरित बौद्धों के घरों में पहुंचा है।
प्रतिज्ञा क्र. 9 और 10 तक में समता और उसकी स्थापना के लिए सतत प्रयास की बात कही गई है। स्पष्ट रूप से ये प्रतिज्ञाएं बुद्ध के ऊंच-नीच की घृणा पर आधारित जाति-पांति और चातुर्वर्ण-व्यवस्था पर आधारित जन्मगत असमानता पर किए गए कठोर प्रहार से अनुप्रेरित हैं। देखे- दीघ निकाय का अम्बट्ठ सुत्त, लोहिच्च सुत्त, मज्झिम निकाय का मधुरिय सुत्त, कण्णत्थलक सुत्त, अस्सलायन सुत्त, ऐसुकारी सुत्त, वासेट्ठ सुत्त आदि । गोया, बुद्ध के हर उपदेश में क्रांति नजर आती है, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्रांति। धार्मिक सड़ांध और सामाजिक कुरूतियों के विरुद्ध क्रांति। बुद्ध की देशना में 'शांति' तो कहीं नहीं दिखती जिसका बुद्ध को विष्णु का अवतार बताने वाले, प्रचार करते हैं। मुझे इनकी इस 'शांति' में किसी साजिश की बू आती है।
3 अक्टू 1954 को आकाशवाणी पर दिए अपने उदबोधन में बाबासाहब अम्बेडकर ने कहा था कि भारत के संविधान की उद्देशिका में समता, स्वतंत्रता, और बंधुता पर आधारित राजकीय ध्येय के आदर्श का प्रतिपादन किया गया है, किन्तु इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के सामाजिक आचार विचार इन आदर्शों को अस्वीकार करते हैं। बाबासाहब कहते हैं कि जब तक समाज में यह अंतर-विरोध जारी रहेगा, सामाजिक समता दु;स्वप्न ही होगी। निस्संदेह, ये प्रतिज्ञाएं धर्मान्तरि बौद्धों के लिए अनुकरणीय कदम है। चूँकि बाबासाहब के स्वप्नों का भारत बनाने की जिम्मेदारी इन्हीं के कन्धों पर हैं इसलिए यह उन्हीं का दायित्व है कि वे इस दिशा में समाज और देश का पथ-प्रदर्शन करें।
प्रतिज्ञा क्र.11 और 12 में अष्टांगिक मार्ग और दस पारमिता तथा प्रतिज्ञा क्र. 13 से 17 में पञ्चशील पालन की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 18 में प्रज्ञा, शील, करुणा को जीवन में अंगीकार करने की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 19 में असमानता और ऊंच-नीच पर आधारित हिन्दू धर्म को त्याग कर समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित धम्म को अपनाने की बात है। प्रतिज्ञा क्र. 20, 21 और 22 में धम्म को एक नए जीवन के रूप में स्वीकारने और तदनुसार आचरण करने की वचन-बद्धता दुहराई गई है।
-अ ला उके मो 9630826117
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