विपस्सना, हिप्नोटाईज करने के केंद्र
एक विपस्सी साधक को मैंने पूछा-
"आपने गोयंकाजी को देखा है ?"
उन्होंने कहा- "जी नहीं, किन्तु विपस्सना केंद्रों में उनके कैसेट/सीडी सुने हैं।"
"आपने विपस्सना की है ?" मेरा दूसरा प्रश्न था ।
"जी, मैंने कई दफा की है, 10 दिन से लेकर 30 दिन के शिविर तक। यह भगवान् बुद्ध का अनुपम मार्ग है, आप जरूर एक बार करिए।" -उसने लगे हाथों मुझे सलाह दे डाली।
मैंने जानना चाहा- "विपस्सना है क्या ?"
"जी, यह शरीर और मन की साधना है।"
"शरीर और मन को साधने की क्या जरुरत है ?"
"कि हम, अकुशल कर्म और अकुशल विचारों से बचें।"
"किन्तु इसके लिए तो पञ्चशील और अष्टांगिक मार्ग है ? विपस्सना की क्या जरुरत है ?"
"जी, एकाग्रता के लिए। "
"अच्छा, यानि आप उठते-बैठते, कार्य करते हुए शरीर और मन को साध कर नहीं रख सकते ?"
"जी, एकाग्रता से शांति भी मिलती है।"
"तुम्हें 'शान्ति' क्यों चाहिए ?"
"जीवन-संघर्ष में सुकून प्राप्त करने।"
"तुम संघर्ष से डरते हो ?"
"जी, डरने जैसे कोई बात नहीं है किन्तु 'शांन्ति' तो चाहिए न ?"
"यानि अगर संघर्ष और 'शांति' में चुनाव हो तो तुम 'शांति' चुनोगे ?"
जी, संघर्ष कौन चाहेगा ?
"किन्तु बुद्ध ने तो संघर्ष का रास्ता चुना था। ? चाहे कोलियों से युद्ध न करने के मुद्दे पर अपने सेनानायक से संघर्ष हो या......"
"सर, भगवान बुद्ध ने हमेशा 'शान्ति' का मार्ग चुना। अभिनिष्क्रमण का उक्त कारण, जो आप बतला रहे हैं, हम ठीक नहीं मानते।"
"हम ठीक नहीं मानते, मतलब ?"
"जी, गोयनकाजी ठीक नहीं मानते।"
मैं उन्हें देखता रहा। वे बोलते रहे। वे बीच में बार-बार 'आत्मानुभव' और इस तरह की बातें भी कर रहे थे। मैंने उन्हें सावधान किया कि बुद्ध तो किसी 'आत्मा' को नहीं मानते, फिर वे 'आत्मा को बीच में क्यों लाते हैं ?
वे फिर, 'आत्मा' का अर्थ 'स्वयं/खुद' बताने लगे। उसने कहा- "सर, जो बातें हमें मालुम हैं, वही बता रहे हैं।"
मैंने उसे ढाढंस बंधाते हुए कहा- "हमारा भी मकसद कुछ सीखने का ही है।"
उसने फिर सलाह दे डाली- "सर, आप 10 या 15 दिन का शिविर जरूर करें। आपको बहुत लाभ होगा।"
"किस चीज का लाभ ?" मैंने पूछा।
"जी आपके मनो-विकार सब दूर हो जाएंगे।"
"किस तरह के मनोविकार ?"
"जी, विपस्सना के प्रति आपकी जो धारणा है !"
"यानि विपस्सना के प्रति मुझे आशंका नहीं करनी चाहिए ?"
"बिलकुल नहीं, क्योंकि यह भगवान बुद्ध का मार्ग है।"
एक विपस्सी साधक को मैंने पूछा-
"आपने गोयंकाजी को देखा है ?"
उन्होंने कहा- "जी नहीं, किन्तु विपस्सना केंद्रों में उनके कैसेट/सीडी सुने हैं।"
"आपने विपस्सना की है ?" मेरा दूसरा प्रश्न था ।
"जी, मैंने कई दफा की है, 10 दिन से लेकर 30 दिन के शिविर तक। यह भगवान् बुद्ध का अनुपम मार्ग है, आप जरूर एक बार करिए।" -उसने लगे हाथों मुझे सलाह दे डाली।
मैंने जानना चाहा- "विपस्सना है क्या ?"
"जी, यह शरीर और मन की साधना है।"
"शरीर और मन को साधने की क्या जरुरत है ?"
"कि हम, अकुशल कर्म और अकुशल विचारों से बचें।"
"किन्तु इसके लिए तो पञ्चशील और अष्टांगिक मार्ग है ? विपस्सना की क्या जरुरत है ?"
"जी, एकाग्रता के लिए। "
"अच्छा, यानि आप उठते-बैठते, कार्य करते हुए शरीर और मन को साध कर नहीं रख सकते ?"
"जी, एकाग्रता से शांति भी मिलती है।"
"तुम्हें 'शान्ति' क्यों चाहिए ?"
"जीवन-संघर्ष में सुकून प्राप्त करने।"
"तुम संघर्ष से डरते हो ?"
"जी, डरने जैसे कोई बात नहीं है किन्तु 'शांन्ति' तो चाहिए न ?"
"यानि अगर संघर्ष और 'शांति' में चुनाव हो तो तुम 'शांति' चुनोगे ?"
जी, संघर्ष कौन चाहेगा ?
"किन्तु बुद्ध ने तो संघर्ष का रास्ता चुना था। ? चाहे कोलियों से युद्ध न करने के मुद्दे पर अपने सेनानायक से संघर्ष हो या......"
"सर, भगवान बुद्ध ने हमेशा 'शान्ति' का मार्ग चुना। अभिनिष्क्रमण का उक्त कारण, जो आप बतला रहे हैं, हम ठीक नहीं मानते।"
"हम ठीक नहीं मानते, मतलब ?"
"जी, गोयनकाजी ठीक नहीं मानते।"
मैं उन्हें देखता रहा। वे बोलते रहे। वे बीच में बार-बार 'आत्मानुभव' और इस तरह की बातें भी कर रहे थे। मैंने उन्हें सावधान किया कि बुद्ध तो किसी 'आत्मा' को नहीं मानते, फिर वे 'आत्मा को बीच में क्यों लाते हैं ?
वे फिर, 'आत्मा' का अर्थ 'स्वयं/खुद' बताने लगे। उसने कहा- "सर, जो बातें हमें मालुम हैं, वही बता रहे हैं।"
मैंने उसे ढाढंस बंधाते हुए कहा- "हमारा भी मकसद कुछ सीखने का ही है।"
उसने फिर सलाह दे डाली- "सर, आप 10 या 15 दिन का शिविर जरूर करें। आपको बहुत लाभ होगा।"
"किस चीज का लाभ ?" मैंने पूछा।
"जी आपके मनो-विकार सब दूर हो जाएंगे।"
"किस तरह के मनोविकार ?"
"जी, विपस्सना के प्रति आपकी जो धारणा है !"
"यानि विपस्सना के प्रति मुझे आशंका नहीं करनी चाहिए ?"
"बिलकुल नहीं, क्योंकि यह भगवान बुद्ध का मार्ग है।"
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