'बौद्ध-ग्रथों का ब्राह्मणीकरण: एक विमर्श'
'बुद्धा एंड हिज धम्मा' के 'परिचय' में बाबासाहब अम्बेडकर ने दीघनिकाय आदि पालि ग्रंथों में वर्णित बुद्धचरित के कई प्रसंगों अथवा बुद्ध के नाम पर प्रचारित कई बुद्ध-उपदेशों के तारतम्य में जो चिंता और असहमति व्यक्त की है, पाठक भली-भांति परिचित हैं. ग्रन्थ लिखने के बाद यदि वे और जीवित रहते तो निस्संदेह उस पर बौद्ध जगत के सामने खुल कर कहते. लेख के अंत में उन्होंने अपेक्षा की है कि उनके द्वारा उठाये प्रश्नों पर लोग चिन्तन करेंगे.
बुद्ध के धम्म का केंद्र समाज है, बल्कि एक सामाजिक आन्दोलन है. यह धर्मान्तरित बौद्धों के लिए सामाजिक दासता से आजादी है. उनके लिए धम्म का अर्थ समता, स्वतंत्रता और भातृत्व है. यह व्यक्तिगत कदापि नहीं है.
किसी भी समाज के लिए, उसके धर्म-ग्रन्थ और उनमें वर्णित पात्र आदर्श होते हैं. लोग उनसे प्रेरणा लेते हैं. अपने इतिहास को जानते, समझते हैं. धर्म-ग्रन्थ समाज की धरोहर होते हैं.
डॉ अम्बेडकर को ति-पिटकाधीन हजारों ग्रन्थ होने के वावजूद क्यों 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' लिखना पड़ा ? सनद रहे, यह किसी ग्रन्थ की अट्ठकथा अथवा टीका नहीं है, जैसे कि अन्यय ति-पिटक ग्रंथों पर पूर्व में लिखी जाती रही है. क्योंकि इसमें पारंपरिक स्थापनाओं से हट कर न सिर्फ बुद्धचरित का वर्णन है बल्कि उपदेशों में मौलिक अंतर हैं. धर्मान्तरित बौद्धों के लिए यही आधार-ग्रन्थ है.
पारंपरिक स्थापनाओं से हट कर चिंतन कितना दुरूह और हिम्मत का काम है, यह वही जानता है, जो इस पथ पर चलता है. 'इन्टरनेशनल पालि फाउन्डेशन' बाबासाहब के उसी चिंतन को आगे बढाता है. फाउन्डेशन की स्थापना के समय ही हमने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था. ति-पिटकाधीन ग्रंथों का अध्ययन 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' की दृष्टि से हमारा लक्ष्य है. हम उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. 'बौद्ध-ग्रथों के ब्राह्मणीकरण पर विमर्श' इसी कड़ी का हिस्सा है. प्रयास होगा कि यह एतिहासिक विमर्श पुस्तक के रूप में उपलब्ध हो. भवतु सब्ब मंगलं.