दैनिक भाष्कर जबलपुर 15 नव. 11 में प्रकाशित खबर के अनुसार, हरिद्वार के गायत्री महाकुम्भ के दौरान मची भगदड़ में 20 लोग मारे गए और 50 से अधिक घायल हुए हैं. शांति कुञ्ज के गायत्री यज्ञ में शामिल होने आये कई लोग अभी भी लापता बतलाये जाते हैं. ज्ञात हो कि 1551 यज्ञ शालाओं में हवन के दौरान मची भगदड़ में ये हादशा हुआ.शांति कुञ्ज के प्रमुख डा. प्रणव पंडया ने दावा किया है कि अधिकतर लोगों की मृत्यु दम घुटने से हुई हैं. लेकिन पोस्ट मार्टम रिपोर्ट के अनुसार डा. पंडया के दावे झूटे शाबित हुए हैं.
अमूमन इस तरह के हादशों के बाद हो-हल्ला मचता है.जाँच की जाती है और चूँकि, मामला धार्मिक आस्था से जुड़ा होता है, अत: धर्म-मठाधीशों के दबाव के चलते कु-व्यवस्था सबंधी तथ्य दबा दिए जाते है.क्योंकि, अफसर और नेता दोनों माथा टेकने तो वहीँ जाते हैं.कुछ समय के बाद धर्म-भीरु जनता भी सोचती है- छोडो यार, पोल तो अपनी ही खुल रही है.जहाँ तक मिडिया की बात है, वह युधिष्टिर के 'नरो वा कुंजरों' की स्थिति अख्तियार कर लेता है, मामलों में.
आपको याद होगा, अभी इसी साल शबरीमाला में मकर्ज्योती का दर्शन करने पहुचे 102 लोग मौत के मुंह में समा गए थे.पिछले वर्ष मार्च में उ.प्र. के प्रतापगढ़ के कृपालु महाराज के आश्रम में प्रसाद वितरण के दौरान मची भगदड़ में 63 लोगों की जान गई थी. इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के नैनी देवी के मंदिर में 162 लोग मृत्यु के मुंह में समा गए थे.जोधपुर के चामुंडा मंदिर में मची भगदड़ में 249 लोगों की मौत, लोग अभी भूले नहीं होंगे. जन. 2005 में महा.के सतारा जिले के मांधर देवी के मंदिर में मची भगदड़ में 300 लोगों की जान गई थी. इसी तरह सन 2003 में नाशिक के कुम्भ मेले में 40 लोग मौत के मुंह में समा गए थे. उधर, मुसलमानों का हाल भी कम बुरा नहीं है. दर साल जो काबा और मक्का-मदीना जाते हैं,सैकड़ों की संख्या में कीड़े-मकोड़ों की तरह मारे जाते हैं.
सवाल व्यवस्था का नहीं है.लोग अंधे हो जाते हैं,इस तरह के मौकों पर.लोग पिल पड़ते हैं, ऐसे मौकों पर जाने के लिए.जगह नहीं तो ट्रेन की छत पर चढ़ जाते हैं.माथे पर चमकीले गहरे लाल कपड़े की पट्टी बांध लेतें हैं.अधिकांश अफीम या गांजे की पिनक में होते हैं. इसीलिए तो मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है.
धार्मिक आयोजनों में लोग अक्ल को साथ लेकर नहीं चलते.असल में धर्म और अक्ल का आपस में कोई रिश्ता ही नहीं है.जहाँ धर्म है, वहां अक्ल नहीं होती और जहाँ अक्ल होती है, वहां धर्म नहीं होता.धर्म के ठेकेदार भी यही चाहते हैं. ये मठाधीश अच्छी तरह जानते हैं कि जहाँ लोगों को अक्ल आई, धर्म को उन्होंने छोड़ा.अत: वे भरसक कोशिश करते हैं कि अक्ल और धर्म का घाल-मेल न हो.
मगर बीइंग ए ह्यूमन, लोगों के पास अक्ल तो होती ही है.अब होता यह है कि लोग टाइम बीइंग के लिए अंधे बन जाते हैं, इस तरह के धार्मिक हवन और यज्ञों में जाने के लिए.आप ही बतलाइए,सत्यनारायण की कथा में एक डाक्टर और इंजिनियर जा सकता है क्या ? मगर सत्य यही है कि ये डाक्टर और इंजिनियर न केवल जाते हैं बल्कि, अपने यहाँ चौथी-पांचवी पढ़े पंडित को बुला कर कथा करवाते हैं ! आप जहाँ पले-बढे, उस घर और परिवार के संस्कार आप कैसे भूल सकते हैं ? आपकी दादी, नानी, काका घर के वरिष्ठ क्या आपको छोड़ देंगे ? नहीं जनाब, यह इतना आसान नहीं है. कालेज के विज्ञानं की क्लास में आर्कमिडीज और न्यूटन की थ्योरी पढाना अलग बात है. किन्तु ,घर में सत्यनारायण की कथा करने पर सवाल उठाना बिलकुल जुदा बात है.
अमूमन इस तरह के हादशों के बाद हो-हल्ला मचता है.जाँच की जाती है और चूँकि, मामला धार्मिक आस्था से जुड़ा होता है, अत: धर्म-मठाधीशों के दबाव के चलते कु-व्यवस्था सबंधी तथ्य दबा दिए जाते है.क्योंकि, अफसर और नेता दोनों माथा टेकने तो वहीँ जाते हैं.कुछ समय के बाद धर्म-भीरु जनता भी सोचती है- छोडो यार, पोल तो अपनी ही खुल रही है.जहाँ तक मिडिया की बात है, वह युधिष्टिर के 'नरो वा कुंजरों' की स्थिति अख्तियार कर लेता है, मामलों में.
आपको याद होगा, अभी इसी साल शबरीमाला में मकर्ज्योती का दर्शन करने पहुचे 102 लोग मौत के मुंह में समा गए थे.पिछले वर्ष मार्च में उ.प्र. के प्रतापगढ़ के कृपालु महाराज के आश्रम में प्रसाद वितरण के दौरान मची भगदड़ में 63 लोगों की जान गई थी. इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के नैनी देवी के मंदिर में 162 लोग मृत्यु के मुंह में समा गए थे.जोधपुर के चामुंडा मंदिर में मची भगदड़ में 249 लोगों की मौत, लोग अभी भूले नहीं होंगे. जन. 2005 में महा.के सतारा जिले के मांधर देवी के मंदिर में मची भगदड़ में 300 लोगों की जान गई थी. इसी तरह सन 2003 में नाशिक के कुम्भ मेले में 40 लोग मौत के मुंह में समा गए थे. उधर, मुसलमानों का हाल भी कम बुरा नहीं है. दर साल जो काबा और मक्का-मदीना जाते हैं,सैकड़ों की संख्या में कीड़े-मकोड़ों की तरह मारे जाते हैं.
सवाल व्यवस्था का नहीं है.लोग अंधे हो जाते हैं,इस तरह के मौकों पर.लोग पिल पड़ते हैं, ऐसे मौकों पर जाने के लिए.जगह नहीं तो ट्रेन की छत पर चढ़ जाते हैं.माथे पर चमकीले गहरे लाल कपड़े की पट्टी बांध लेतें हैं.अधिकांश अफीम या गांजे की पिनक में होते हैं. इसीलिए तो मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है.
धार्मिक आयोजनों में लोग अक्ल को साथ लेकर नहीं चलते.असल में धर्म और अक्ल का आपस में कोई रिश्ता ही नहीं है.जहाँ धर्म है, वहां अक्ल नहीं होती और जहाँ अक्ल होती है, वहां धर्म नहीं होता.धर्म के ठेकेदार भी यही चाहते हैं. ये मठाधीश अच्छी तरह जानते हैं कि जहाँ लोगों को अक्ल आई, धर्म को उन्होंने छोड़ा.अत: वे भरसक कोशिश करते हैं कि अक्ल और धर्म का घाल-मेल न हो.
मगर बीइंग ए ह्यूमन, लोगों के पास अक्ल तो होती ही है.अब होता यह है कि लोग टाइम बीइंग के लिए अंधे बन जाते हैं, इस तरह के धार्मिक हवन और यज्ञों में जाने के लिए.आप ही बतलाइए,सत्यनारायण की कथा में एक डाक्टर और इंजिनियर जा सकता है क्या ? मगर सत्य यही है कि ये डाक्टर और इंजिनियर न केवल जाते हैं बल्कि, अपने यहाँ चौथी-पांचवी पढ़े पंडित को बुला कर कथा करवाते हैं ! आप जहाँ पले-बढे, उस घर और परिवार के संस्कार आप कैसे भूल सकते हैं ? आपकी दादी, नानी, काका घर के वरिष्ठ क्या आपको छोड़ देंगे ? नहीं जनाब, यह इतना आसान नहीं है. कालेज के विज्ञानं की क्लास में आर्कमिडीज और न्यूटन की थ्योरी पढाना अलग बात है. किन्तु ,घर में सत्यनारायण की कथा करने पर सवाल उठाना बिलकुल जुदा बात है.
No comments:
Post a Comment