कमबख्त यही मुझे छोड़ता
एक साधू अपने शिष्य के साथ नदी पार कर रहे थे। नदी में बाढ़ थी। बाढ़ के पानी में शिष्य को कम्बल बहता दिखा। उसने जोर गुरु से कहा-
'गुरुजी! देखो, कम्बल बहा जा रहा है। मैं उसे पकड़ूँ क्या ?
बेटा! लोभ में मत पड़। हो सकता है वह कम्बल न हो। गुरु ने चेतावनी दी। मगर, चेला कहाँ मानने वाला था। वह गुरु की बात को अनसुनी कर कम्बल की ओर बढ़ा ।
कम्बल से काफी देर उलझते देख गुरु ने आवाज लगायी- अरे भाई, क्या हुआ ? कम्बल पकड़ में नहीं आ रहा हो तो छोड़ दो ?
कम्बल से जकड़े शिष्य ने डूबती-उतरती आवाज में जवाब दिया- गुरूजी, मैंने तो छोड़ दिया। मगर, कमबख्त, यही मुझे छोड़ नहीं रहा है। ये कम्बल नहीं, रीछ है।
एक साधू अपने शिष्य के साथ नदी पार कर रहे थे। नदी में बाढ़ थी। बाढ़ के पानी में शिष्य को कम्बल बहता दिखा। उसने जोर गुरु से कहा-
'गुरुजी! देखो, कम्बल बहा जा रहा है। मैं उसे पकड़ूँ क्या ?
बेटा! लोभ में मत पड़। हो सकता है वह कम्बल न हो। गुरु ने चेतावनी दी। मगर, चेला कहाँ मानने वाला था। वह गुरु की बात को अनसुनी कर कम्बल की ओर बढ़ा ।
कम्बल से काफी देर उलझते देख गुरु ने आवाज लगायी- अरे भाई, क्या हुआ ? कम्बल पकड़ में नहीं आ रहा हो तो छोड़ दो ?
कम्बल से जकड़े शिष्य ने डूबती-उतरती आवाज में जवाब दिया- गुरूजी, मैंने तो छोड़ दिया। मगर, कमबख्त, यही मुझे छोड़ नहीं रहा है। ये कम्बल नहीं, रीछ है।
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