Wednesday, April 4, 2018

बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर(बचपन और उच्च शिक्षा )

14 अप्रेल 2018 पर विशेष-

बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर
(बचपन और उच्च शिक्षा )

प्राक्कथन

बाबासाहेब डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर, विश्व में आज, एक ऐसा व्यक्तित्व है, जिससे लोग सर्वाधिक प्रेरणा प्राप्त करते हैं। चाहे सामाजिक मसला हो, आर्थिक अथवा राजनैतिक, लोग उन्हें उद्धरित कर अपनी बात को युक्ति-युक्त सिद्ध करते हैं। दलित-शोषित और पीड़ित समाज के लोग तो उन्हें अपना उद्धारक और मसीहा मानते हैं, विहारों और अपने पूजा-स्थलों में बुद्ध के साथ उनकी मूर्ति रख पूजा करते हैं।
आम तौर पर हमारे देश में और विदेेश में भी शासक दल के नेता अपने आदर्श पुरुषों की जनता के पैसे से मूर्तियां बना कर महत्वपूर्ण स्थानों में स्थापित करते हैं, उनके नाम पर सड़क और पुलों के नाम रखते हैं।  और तो और,  पहले से रखे नामों को बदल तक डालते हैं। किंतु बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर की मूर्तियां, लोग अपने खर्च से, अपने पैसे से गांव-गांव और चौराहे-चौराहे पर स्थापित करते हैं, उनका जन्म दिवस 14 अप्रेल छोड़िए, मई और जून तक  उनकी जयन्ती के कार्यक्रम आयोजित कर अपने उद्धारक और मसीहा की जय-जयकार करते हैं ।
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प्रति वर्षानुसार इस वर्ष भी पुनः 14 अप्रेल का शुभ दिन सामने है। इस अवसर पर, लोग उनकी जीवनी पढ़ना चाहेंगे, उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं को स्मरण करना चाहेंगे। प्रस्तुत पुस्तिका/लेख उनके प्रारम्भिक जीवन से लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने तक केन्द्रित है। कोशिश है, इस संबंध में पाठकों को सटीक और प्रमाणित जानकारी  मिलें।

पारिवारिक पृष्ठ भूमि- 
डॉ अम्बेडकर का जीवन, जन्म से लेकर उच्च शिक्षा प्राप्ति तक अनेक प्रकार की मुसीबतों और कष्टों का सामना करने में बिता था। यद्यपि अम्बेडकर के पिता ब्रिटिश फ़ौज में सूबेदार थे तब भी बड़ा परिवार होने के कारण घर खर्च का निर्वाह सुचारु रूप से नहीं हो पाता था। ऐसी हालत में भी उन्होंने बालक भीमराव को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी(डॉ.  बी. आर. आंबेडकर: व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ.  15 ; डॉ. डी.  आर. जाटव )।
महार; एक शक्तिशाली और बहादूर जाति-
बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर महार जाति में पैदा हुए थे। महार जाति एक ऐसी जाति है, जो शक्तिशाली, समझदार, लड़ाकू और बहादूर कही जाती है। कुछ लोगों का विचार है कि महार ही महाराष्ट्र की मूल निवासी हैं। भारत के यूरोपियन सबसे पहले महारों के ही सम्पर्क में आए। वे सेना में भर्ती हुए(आधुनिक भारत के निर्माताः भीमराव अम्बेडकरः पृ. 8ः डब्लू. एन. कुबेर ) ।
इष्ट इंडिया कंपनी और महार-
इष्ट इंडिया कंपनी ने महारों को भी सेना में भर्ती किया था।  कंपनी में एक अच्छा नियम यह था की सरकारी सेना में जो लोग काम करते, चाहे वे कर्मचारी हों अथवा अफसर, उनके बच्चों को अनिवार्य रूप से शिक्षा दी जाती थी। प्रत्येक सैनिक टुकड़ी के लिए स्वतन्त्र स्कूल थे। इन स्कूलों के लिए योग्य शिक्षक तैयार करने हेतु पूना में एक नॉर्मल स्कूल था। रामजी सकपाल के पिता चूँकि सेना में थे, इसलिए उनके लिए शिक्षा प्राप्ति के साधन सुलभ थे। सेना में अनिवार्य शिक्षा के नियम से बहुत से महार परिवारों को पढ़ने-लिखने के अवसर प्राप्त हुए, अन्यथा सेना के बाहर सभी स्कूलों के द्वार महार बच्चों के लिए उस समय बंद थे, क्योंकि घोर छुआछूत का सामाजिक वातावरण विद्यमान था (जाटव, पृ. 15 ) ।
सेना में महारों की भर्ती बंद-
सन् 1892 में, भारत सरकार ने सेना में महार लोगों की भर्ती पर प्रतिबंध लगा दिया, तब सूबेदार रामजी भागे-भागे प्रसिद्द समाज सुधारक महादेव गोविन्दराव रानाडे के पास गए थे और एक  पिटीशन लिखवाया कि सरकार इस प्रकार की अन्याय पूर्ण आज्ञा रद्द करें( जाटव, पृ 16)।  आगे चल कर, यह आदेश फर. 6, 1917 को रद्द कर दिया गया था।  प्रथम विश्व युद्ध 1914-18 के दौरान महार बटालियन- 111 की स्थापना की गई थी ( पृ. 8, कुबेर) ।
पूर्वज अम्बवड़े/अम्बेड़ गांव के निवासी-
डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के दादा मालोजी/मलनाक सकपाल महाराष्ट्र; रत्नागिरि जिले के अम्बवड़े/अम्बेड़ के निवासी थे। वे ब्रिटिश फौज के एक अवकाश प्राप्त सैनिक थे(वही, पृ. 8ः कुबेर )। उनकी चार संतानों में दो ही बची थी। रामजीराव उनकी चौथी संतान थी। रामजी के बड़ी बहन मीरा पंगु होने के कारण उन्हीं के साथ रहती थी(बाबासाहेब का जीवन-संघर्षः पृ. 20ः चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु )।
पिता रामजी सूबेदार-
रामजी सकपाल(1848-1913) ब्रिटिश फौज में सन् 1866 की अवधि में सूबेदार मेजर लक्ष्मण मुरबाड़कर की कमान में भर्ती हुए थे। उन्हें सूबेदार के पद पर तरक्की मिली थी(डॉ. अम्बेडकर; कुछ अनछुए प्रसंगः पृ. 18ः नानकचन्द रत्तू)। वे एक सैनिक स्कूल में 14 साल तक मुख्य अध्यापक रहे थे(कुबेर पृ. 8 )।
सूबेदार रामजीराव मराठी भाषा में पारंगत थे। वे अंग्रेजी भाषा पर भी अच्छी पकड़ रखते थे। गणित उनका दूसरा प्रिय विषय था। वे क्रिकेट और फुटबाल के खिलाड़ी थे(डॉ. अम्बेडकरः लॉइफ एॅण्ड मिशनः धनंजय कीर, पृ. 11)। सूबेदार रामजी सत्यशोधक समाज के प्रणेता ज्योतिबा फुले के प्रशंसक थे और वे सामाजिक सुधारों के कार्यों में एक कदम आगे बढ़ हिस्सा लेते थे(कीर, पृ. 11 )।
सत्यशोधक समाज-
सत्यशोधक समाज की स्थापना 19वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने की थी। फुले स्त्रियों और शूद्रों को अनिवार्य शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे।  वही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पुणे में पहली बार अछूतों के लिए प्याऊ लगवाए,  सन् 1848 में महिलाओं के लिए और सन् 1851 में अछूतों के लिए स्कूल खोलें। कोल्हापुर के शाहू महाराजा ज्योतिबा फुले को महाराष्ट्र  का मार्थिन लूथर कहा करते थे( कुबेर, पृ. 17 )। बाबासाहेब ने तीन महापुरुषों को अपना प्रेरणा-स्रोत बतलाया है- बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले। उन्होंने अपनी पुस्तक ' हु वेयर दी शुद्रास ' (Who were the Shudras) ज्योतिबा फुले को समर्पित की थी।
कबीर-पंथी परिवार -
उस समय अछूतों और विशेषकर महार समाज के लोग तीन प्रकार के भक्ति सम्प्रदायों में बंटे थे- कबीर-पंथी, रामानंदी और नाथ सम्प्रदायी। सूबेदार रामजी सन् 1896 में कबीर पंथ के अनुयायी बने थे। पहले वे रामानंदी  थे( पृ. 9, कुबेर )। कबीर साहेब ने जाति-प्रथा को दुतकारा था और स्वाभाविक है, हिन्दुओं में अछूत समझे जाने वाली जाति के लोग कबीर साहेब को स्वीकारते। सूबेदार रामजी के घर में प्रति दिन भजन और सत्संग होती थी (जिज्ञासु, पृ. 20)।
माता भीमाबाई-
रामजीराव का विवाह सूबेदार मेजर मुरवाड़कर की पुत्री भीमाबाई से हुआ था। सूबेदार मुरवाड़कर मुरबाद जिला ठाना तत्कालीन बाम्बे स्टेट के निवासी थे। भीमाबाई(1854- 1896) सुन्दर, चौड़े मस्तक, घुंघरवाले बाल, चमकती गोल आंखे और छोटी नाक वाली गौर-वर्ण कद-काठी की महिला थी। उसके पिता और छह अंकल सभी आर्मी में सूबेदार मेजर थे। उनका परिवार भी कबीर-पंथी था(कीर, पृ. 9 ) । भीमाबाई यद्यपि बड़़े घर की लड़की थी किन्तु उन्होंने अपने स्वभाव और आदतों को बदल कर अपनी ससुराल के अनुरूप ढाल लिया था (चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु पृ. 20 )।
भीमराव चौदवीं संतान-
सूबेदार रामजी की 14 संतानें हुई थी- 3 पुत्र और 11 पुत्रियां। जिसमें 9 की मौत अल्पायु में हुई थी। शेष 5 में 3 पुत्र और 2 पुत्रियां थी। बड़े दो पुत्रों के नाम बालाराम और आनन्दराव थे। मंझली दो पुत्रियों के नाम मंजुला और तुलसी थे। उनकी चौदहवीं संतान हमारे नायक, बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर हैं।(वही, पृ. 20)। बालक भीमराव का जन्म 14 अप्रेल 1891  के सुबह तड़के महू(मिलिटी हेड क्वार्टर्स ऑफ वार) छावनी, इन्दौर में हुआ था(रत्तू, पृ. 18 )।
भिवा-
यद्यपि बच्चे का नाम ‘भीम’ रखा गया था किन्तु परिवार के लोग और पड़ोसी उसे प्यार से ‘भिवा’ कह कर ही बुलाते थे(मून. पृ. 2 )। सूबेदार रामजी सकपाल सैनिक छावनी में रहते थे। स्पष्ट है, एक कड़े अनुशासन में बालक भीम का पालन-पोषण हुआ था।
बालाराम-
सूबेदार रामजी के बड़े पुत्र बालाराम(1860 - 1915 लगभग ) अपने पिता की तरह एक हट्टे-कट्टे और मिलनसार व्यक्ति थे। वे मुम्बई नगरपालिका में क्लर्क की नौकरी करते थे। नौकरी के अलावा वे मिलिटी में बैंड भी बजाया करते थे। वे एक अछूत नेता के रूप में भी उभरे थे। वे सेवानिवृत होने के पूर्व 55 वर्ष की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुए थे। वे अपने पीछे दो पत्नियां, एक बेटा और  सखूबाई नाम की बेटी छोड़ गए थे(रत्तू, पृ 18 )।
दापोली केम्प-
भीमराव जब पैदा हुए, उनके पिता फौज में नौकर थे। भीमराव बमुश्किल 2 साल के रहे होंगे जब उनके पिता सूबेदार रामजी सेना से अवकाश प्राप्त करके वे 50/- रूपये मासिक पेंशन प्राप्त करने लगे थे। वे अन्य कुछ सेवा-निवृत कर्मियों के साथ केम्प मऊ से अम्बवाडे गावं के पास केम्प-दापोली चले आए और वहीं रहने लगे थे(मून, पृ. 3 )।
शिक्षा के दरवाजे बंद-
सन् 1894 के लगभग दापोली मुनिसिपिल शिक्षा विभाग ने प्रस्ताव पास किया कि अछूत बच्चों को स्कूलों में भर्ती न किया जाएं। अछूत समाज के लोगों ने इसका विरोध कलेक्टर से किया(मून. पृ. 3 )। मुनिसिपल शिक्षा विभाग के प्रस्ताव के मद्दे-नजर सूबेदार रामजी को बच्चों को स्कूल भेजने की चिन्ता सताए जा रही थी। बालक भीम के साथ के बच्चें स्कूल जाने लगे थे। सूबेदार रामजी ने एक अंग्रेज सैनिक अफसर से इस बात की फरियाद की कि उन्होंने जीवन भर सरकार की सेवा की है, उनके बच्चों को कहीं दाखिला नहीं मिले तो बड़ा अन्याय होगा। अंतत: उस अफसर के कहने पर भीम को केम्प स्कूल में प्रवेश मिल गया। भीम अपने बड़े भाई आनंदराव के साथ स्कूल जाने लगा(जाटव, पृ.  17 )।
दापोली से सतारा केम्प-
सूबेदार रामजी का परिवार बड़ा था।  परिवार चलाने के लिए पेंशन, उन्हें पर्याप्त नहीं होती थी।  वे अल्पकालीन किसी नौकरी की तलाश में थे(कुबेर. पृ. 8 )। उन्होंने आर्मी में आवेदन किया और सतारा केम्प के  पी. डब्ल्यू. डी. विभाग में उन्हें स्टोर-कीपर की नौकरी मिल गई(मून, पृ. 3 )। सन् 1896 में नौकरी के चलते सूबेदार रामजी परिवार सहित सतारा चले गए थे(जिज्ञासु, पृ. 21 )।
दापोली/सतारा में शैशव काल-
भीम का शैशवकाल दापोली और सतारा में बीता था। सतारा में, जहां रामजी सूबेदार रहते थे, उनके पड़ोस में उन्हीं के जैसे 10-15 और पेंशनर भी रहते थे(जिज्ञासु, पृ. 21)। भीम स्कूल से आते ही अपना बस्ता घर में फैंक देता और पड़ोस के बच्चों में खेलने चला जाता। स्कूल में जो कुछ पढ़ाया जाता, वह उसे ही पढ़ता था, बाकि सारा समय खेल-कूद में बिताया करता था(जाटव, पृ 18  )।
चंचल और बलिष्ठ-
भीम शैशव-काल मेंस्वभाव से बड़े चंचल और शरीर से बलिष्ठ थे। खेल-कूद में वे अपने साथ के बच्चों को पीट दिया करते थे जिससे बच्चों के अभिभावक इसकी शिकायत सूबेदार रामजी से अकसर किया करते(जिज्ञासु, पृ 21 )।
माता भीमाबाई का निधन-
भीमराव जब सतारा के एलफिंस्टन स्कूल में पढ रहे थे, उनकी माता भीमाबाई चल बसी। वह काफी दिनों से बीमार थी। इस समय भीमराव तकरीबन 6 वर्ष के थे(कीर, पृ. 10 )। पाठक स्मरण रखे, सतारा में माता भीमाबाई की समाधी है। बाबासाहेब अकसर वहां जाया करते थे(रत्तू. पृ. 20 )।
भीम माँ के प्यार से वंचित हो गया। वह नितांत अकेला हो गया। भीम की बहनें मंजुला और तुलसी विवाहित थीं। वे बारी-बारी से अपने भाइयों की देखभाल किया करती थी। रामजी की बहन मीराबाई भी घर संभालने में यथा संभव सहायता करती थी(रत्तू. पृ. 19 )।
पहली कक्षा में  भर्ती-
रामजीराव ने अपने पुत्र भीम का नाम सतारा के एक सरकारी स्कूल की कक्षा- 1 में भर्ती कराया था। यह हाई स्कूल दर्जे तक था। वर्तमान में इस स्कूल का नाम प्रतापसिंग हाई स्कूल है। यह तिथि भर्ती रजिस्टर में 07.11.1900 अंकित है। इस समय भीमराव की उम्र 9 वर्ष 8 माह थी। स्कूल में उनका नाम 'भीवा रामजी अम्बावेडकर' लिखा गया था ( कुबेर. पृ. 8)।
आम्बावडेकर से अम्बेडकर-
आम्बावडे(जिला रत्नागिरि) भीमराव का पैतृक गांव था। महाराष्ट्र में नाम के साथ गांव का नाम जोड़ने का चलन है। किन्तु यह ‘अम्बावेडकर’ उपनाम अधिक समय तक भीमराव के साथ नहीं रहा। एक शिक्षक (कृष्णा केशव अम्बेडकर) ने जो प्रतीत होता है, भीमराव को अधिक चाहता था और जिनका स्वयं का उपनाम अम्बेडकर था, भीमराव से कहा कि हाजिरी रजिस्टर में उसका नाम अम्बेडकर लिख रहे हैं क्योंकि पुकारने में अम्बावेडकर कठिन लगता है(कुबेर, पृ. 9 )। स्मरण रहे, सूबेदार रामजी अपना नाम रामजीराव मालोजी सकपाल लिखा करते थे है। मालोजी उनके पिता का नाम और सकपाल उनका पुश्तैनी उपनाम था।  प्रतीत होता है, दादा मालोजी अथवा पिता रामजीराव ने गांव से जुड़े उपनाम को अधिक तरजीह नहीं दी थी ( कुबेर, पृ. 9)।
सरकारी स्कूल में छुआछूत-
हिन्दू समाज की छुआछूत को भीमराव जन्म से ही झेल रहे थे। स्कूल में भी इस अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार का सामना भीमराव को लगभग प्रति दिन करना पड़ता था। महार जाति का होने से उसके सहपाठी छात्र और शिक्षक उससे दूरी बनाए रखते थे। उसे कक्षा में अलग बैठाया जाता था।
वह और उसका बड़ा भाई आनन्दराव घर से टाट का टुकड़ा लाकर उस पर बैठ पढ़ा करते थे। वह अन्य बच्चों के साथ खेल नहीं सकता था। अगर उसे प्यास लगती तो घड़े के  काफी दूर खड़े हो देखना पड़ता था कि कोई आएं और उन्हें पानी पिलाएं। पानी का बर्तन/घड़ा छूने की उन्हें मनाही थी। संस्कृत शिक्षक तो अछूत बच्चों को पढ़ाता ही नहीं था(कीर, पृ. 14 )।
 नाई द्वारा बाल नहीं काटना  -
सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अछूतों पर थोपी गई सामाजिक पाबंदियों में नाई द्वारा उनके बाल न  काटना भी था  । ऐसी स्थिति में  परिवार के सदस्य ही यह काम बखूबी कर देते थे। एक दिन भीम जाकर नाई की दुकान के सामने खड़ा हो गया और कहा - "बाल कटाने है।" नाई के पूछने पर उसने अपना नाम और जाति बताया। जैसे ही नाई ने जाना कि वह  महार है, उसने भीम को झिड़क कर भगा दिया। भीम रोता हुआ घर आया। बड़ी बहन तुलसी के पूछने पर उसने सारी बात बता दी।  तुलसी ने उसे प्यार से शांत किया और कहा कि  इसमें रोने की क्या बात है। आ, मैं तेरे बाल बना देती हूँ(जाटव, पृ 20 )।
कुंए से पानी खींचने पर पिटाई -
गर्मी के दिनों में स्कूल के रास्ते  पड़ने वाले एक सार्वजनिक कुए से कभी-कभी दोनों भाई पानी खींच कर अपनी प्यास बुझा लिया करते थे। एक दिन कुछ हिन्दुओं ने उन्हें देख लिया। महार जाति के बच्चें कुंए पर खड़े होकर पानी खींचे, भला उन्हें कैसे बर्दास्त हो सकता था। उन्होंने दोनों को जम कर पिटा और चेतावनी दी कि फिर कभी कुंए पर न दिखे(वही )।
साहसी और जिद्दी -
इस प्रकार के कटु अनुभवों से भीम साहसी और जिद्दी हो गया था। वह अपनी बात पर अड़ा रहता और उसे पूरी करता। एक दिन तेज बरसात हो रही थी। मूसलाधार बारिश देख बड़े भाई आनंदराव ने उसे स्कूल जाने मना किया।  किन्तु वह भींगता हुआ ही स्कूल पहुँच गया। अध्यापक पेंडसे ने जब यह देखा तो उसे भीम पर गुस्सा आया और दया भी। पेंडसे ने कक्षा में उपस्थित अपने पुत्र से कहा कि वह उसे घर ले जाए और उसके गीले कपडे बदलवा कर स्कूल ले आए (जाटव, पृ  20 )।
स्कूल की छुट्टी-
16 जन. 1901 को रानाडे की मृत्यु के कारण भीम के स्कूल में छुट्टी घोषित हुई थी, जैसे कि बाबासाहेब अपने स्मरणों में इसका उल्लेख करते थे । किन्तु तब, उन्हें और उनके साथी बच्चों को पता नहीं था कि रानाडे कौन है और उनकी मृत्यु से स्कूल में छुट्टी क्यों हुई ? तब उनकी अवस्था 9 वर्ष की थी और वे स्टेण्डर्ड- 2 में पढ़ते थे(कीर, पृ. 15 )
गाड़ीवान की छूत-
एक बार मसूर रेल्वे स्टेशन से भीमराव अपने भाई आनन्दराव के साथ पिताजी से मिलने गोरेगांव जा रहे थे। उनके साथ बहिन का एक बेटा भी था(कुबेर, पृ. 9 )। तब रामजी सूबेदार की ड्यूटी अकाल पीड़ितों की सहायतार्थ चलाए जा रहे कार्यों के निमित्त सतारा से कुछ दूर गोरेगांव में लगी थी( मून, पृ. 4)। सभी बच्चें खुश थे कि स्टेशन पर उनके पिताजी उन्हें लेने आएंगे, लेकिन बहुत देर इन्तजार करने के बाद भी कोई नहीं आया तो स्टेशन मास्टर की सहायता से उन बच्चों ने एक बैलगाड़ी भाड़े पर तय की। चलते-चलते जब गाड़ीवान को पता चला कि वे अछूत जाति के हैं तो वह फौरन गाड़ी से नीचे कूद गया। बमुश्किल से दूगना भाड़ा देने की कीमत पर वह राजी हुआ था इस शर्त के साथ कि वह गाड़ी पर नहीं बैठैगा और पीछे-पीछे चलेगा। इस बीच जैसे तैसे आनन्दराव बैलगाड़ी हांकते रहे (कुबेर, पृ. 9 )। 
चौथी कक्षा उत्तीर्ण-
भीमराव नव. 1904 में कक्षा 4 में उत्तीर्ण हुए। इस समय भीमराव करीब 13.5 वर्ष के हो चुके थे(कुबेर, पृ. 9 )।
सतारा से मुम्बई-
सन् 1904 में जब सतारा में रामजी सूबेदार की नौकरी जाती रही तो  वे काम की तलाश में और बच्चों की बेहतर शिक्षा के ख्याल से मुम्बई चले आए (कुबेर, पृ. 10 )। मुम्बई में वे परिवार सहित लोअर परल की डबल चाल में रहने लगे थे। यह मजदूर-कालोनियों वाला क्षेत्र था (कीर, पृ. 16 )। रामजी सूबेदार की दोनों विवाहित पुत्रियां भी मुंबई में ही रहा करती थी। यद्यपि रामजीराव को 50/- रुपये मासिक पेंशन मिलती थी किन्तु परिवार के भरण-पोषण और बच्चों की शिक्षा के लिए वह कहीं से भी पर्याप्त नहीं थी।
एलफिंस्टन स्कूल में दाखिला-
मुम्बई आने पर भीमराव को पहले मराठा हाई स्कूल में भर्ती किया गया था किन्तु फिर तुरन्त ही उसका नाम एलफिंस्टन हाई स्कूल में दाखिल किया गया। एलफिंस्टन हाई स्कूल में भीमराव की दाखिल तिथि 03.01.1908 अंकित है।
गोरा-चिट्टा और चौड़ी कद-काठी-
भीमराव एक फौजी सूबेदार का पुत्र होने के कारण पिता के समान ही वह बलिष्ट और चौड़ी कद-काठी का गोरा-चिट्टा लड़का था। लड़ाई-झगड़े में दूसरे लड़के उससे कभी भी जीत नहीं पाते थे। अकसर वह विरोधी लड़को को पीट-पाट कर आता था।
क्रिकेट का शौकीन-
भीमराव क्रिकेट का शौकीन था। एलफिंस्टन स्कूल में उसने अपनी टीम बना रखी थी और वह खुद उसका कैप्टन था। इस टीम से दूसरी टीमों के भी मैच होते थे जिसमें प्रायः भीमराव की टीम ही विजयी होती थी। एलफिंस्टन स्कूल में भीमराव का अपने सहपाठियों पर रोब छा गया था फिर भी अपने हिन्दू धार्मिक-संस्कारों के कारण वे उसका जातीय अपमान करते ही रहते थे(कीर, पृ. 18 )।
ब्लैक बोर्ड से छूत-
एक दिन भीमराव को ब्लैक-बोर्ड पर रेखागणित का एक प्रश्न हल करने को कहा गया। यह ब्लैक-बोर्ड दीवार के सहारे एक  तखत पर रखा हुआ था। किन्तु जैसे ही भीमराव ब्लैक-बोर्ड की ओर बढ़े, कक्षा के बच्चे एकदम से चिल्ला उठे कि उनका खाना दूषित हो जाएगा, पहले उन्हें अपने खाने के टिफिन वहां से हटाने दिया जाए। दरअसल, बच्चे अपने खाने के टिफिन  ब्लैक-बोर्ड के पीछे तखत पर रखा करते थे(कीर, पृ. 18 )। हलाकि भीमराव ने जिस सहजता से गणित को हल किया, सारे छात्र चकित थे। जाटव, पृ  25
इसी तरह एक ब्राह्मण अध्यापक बात-बात में उसकी जाति का नाम लेकर भीमराव को अपमानित करता था। एक दिन जब उसने कहा - ‘‘अरे! तू महार का छोकरा है। पढ़-लिख कर क्या करेगा?’’ इस पर  गुस्से से भीमराव ने उत्तर दिया- ‘‘सर! पढ़-लिख कर मैं क्या करूंगा, इससे आपको क्या मतलब है( कीर, पृ. 18)?’’
कानून की पढ़ाई कर छुआछूत दूर करूंगा-
एक और रोचक प्रसंग है। एक दिन उनके हेडमास्टर ने नम्र स्वर में पूछा- ‘‘भीम तू पढ़-लिख कर क्या करेगा?’’ भीमराव ने उत्तर दिया- ‘‘सर! मैं कानून की पढ़ाई कर वकील बनूंगा और छुआछूत को दूर करूंगा(बाबासाहेब और उनके संस्मरणः मोहनदास नैमिशराय, पृ 57 )।
बाह्य पुस्तकें पढ़ने का शौकीन-
भीमराव स्कूल की पाठ्य पुस्तकें कम ही पढ़ता था। पाठ्य पुस्तकें तो वह सरसरी तौर पर देख लेता था। उसे दूसरी  किताबें पढ़ने और संग्रह करने का बेहद शौक था। नई-नई पुस्तकें खरीदने के लिए वह अकसर पिता से जिद करता। रामजी भी पर्याप्त साधन न होते हुए भी बेटे की इच्छा पूरी करते थे। अक्सर वे अपनी दो विवाहित पुत्रियों से पैसा उधार लाते थे। वास्तव में, रामजी ने जान लिया था कि  उसका बेटा साधारण बच्चा नहीं हैं। वे उसमे बड़ा आदमी बनने की क़ाबलियत देख रहे थे।
 रामजी सूबेदार ने डबल चाल में केवल एक ही कमरा ले रखा था। उसमें पढ़ने के लिए जगह नहीं थी। भीमराव ने इस प्रकार की पुस्तकें पढ़ने के लिए चर्बी रोड़ गार्डन में एक स्थान बना लिया था। स्कूल से छुट्टी होने पर वह उसी अड्डे पर बैठकर पुस्तकें पढ़ा करता था(वही, नैमिशराय, पृ 57 )। ।
रामजी सूबेदार का रात दो बजे तक जागना-
सूबेदार रामजी को अपने बेटे की पढाई का बड़ा ख्याल रहता था। तब वे लोअर परल के एक ही कमरे में रहते थे। घर के बर्तनों के साथ अन्य सामान और परिवार के लोग उसी कमरे में रहते थे।  सूबेदार ने जगह की समस्या का ऐसा समाधान ऐसा निकाला कि वे सांय से लेकर दो बजे रात तक बेटे को सुला देते और दो बजे रात तक स्वयं जाग कर व्यतीत करते और तत्पश्चात भीम को नींद से जगाते और स्वयं सो जाते। दीपक की टिमटिमाती लौ में भीम पुस्तकों को प्रातः होते तक पढ़ता रहता(बाबासाहेब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के सम्पर्क में 25 वर्षः सोहनलाल शास्त्री, पृ. 234 )।
श्री कृष्णाजी केलुस्कर से मुलाकात-
चर्बी रोड गार्डन में जहां भीमराव गैर स्कूली पुस्तकें पढ़ा करते थे, यहीं उसका परिचय कृष्णाजी केलुस्कर से हुआ था। कृष्णाजी केलुस्कर ‘ सिटी विलसन हाई स्कूल’ में सहायक अध्यापक थे। वे तकरीबन प्रति दिन भीमराव को यहां घंटों बैठे पढ़ने में तल्लीन देखा करते थे। एक दिन कृष्णाजी ने पूछा- ‘‘बेटा! तुम किस जाति के हो?’’ भीमराव ने बिना झिझक कहा- ‘‘महार’’(नैमिशराय, पृ 57)। बालक भीम की स्पष्टता से कृष्णाजी बहुत खुश हुए और वे भीमराव को अच्छी-अच्छी पुस्तकें ला-ला कर देने लगें (कीर, पृ. 19 )।
मौसी  माँ जीजाबाई-
भीमाबाई की मृत्यु के पश्चात् परिवार अनाथ सा हो गया था। परिवार को अच्छी तरह संभालने के लिए, कोई स्त्री नहीं रही थी।  रामजी की बहिन मीराबाई पंगु थी।  सन 1898  में आखिर सूबेदार रामजी ने जीजाबाई नामकी महिला से दूसरा विवाह कर लिया।
मौसी मांँ जीजाबाई बालक भीमराव का जरा भी ध्यान नहीं रखती थी। जब वह भीम की माँ भीमाबाई के गहने पहनती तो उसे बहुत चिढ़ होती थी(कीर, पृ. 15 )। भीम अपनी सौतेली माँ को माँ के रूप में स्वीकार नहीं कर पाया था। अब भीम ने सोचा कि उसे आर्थिक रूप से अपने पिता पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। उसने अपनी बहिन से सुन रखा था कि सतारा के कई लड़के बम्बई के मिलों में काम करते हैं(कीर, पृ. 15 )।
घर से भागने का प्लान-

उसने एक दिन घर से भागने की सोची। इसके लिए भी उसे पैसे की जरूरत थी। उसने बुआ मीराबाई के पर्स से पैसा चुराने का सोचा और प्रयास भी किया किन्तु उतना पैसा नहीं मिला कि वह बम्बई जाने के टिकट खरीद सकें (कीर, पृ 15 )। इस घटना से सबक लेते हुए भीमराव ने भागने के स्थान पर घर में ही रहते हुए कड़ी मेहनत कर परिस्थितियों का सामना करने की ठानी।
हाई स्कूल परीक्षा पास-
इस प्रकार, कठीन परिस्थितियों से संघर्ष करने हुए भीमराव ने 1907 में हाई स्कूल की परीक्षा पास की। घर में और बिरादरी में खुशी की लहर छा हुई। उनके परिवार के लिए यह एक अभूतपूर्व दिन था। अछूत जाति के एक विद्वार्थी द्वारा मेट्रिक की परीक्षा पास करना एक बहुत बड़ी बात थी। भीमराव ने 750 पूर्णांक में से 282 अंक अर्जित किए थे। उन्हें परसियन भाषा में सर्वोत्तम अंक मिले थे(कीर, पृ. 19 )।
जाति बिरादरी में हर्षोल्लास-
भीमराव के अभिनन्दन के लिए जाति बिरादरी ने एक सभा की और बालक भीमराव को फूल-मालाओं से लाद दिया। इस अवसर पर कृष्णाजी केलुस्कर भी पधारे थे।
गौतम बुद्ध की जीवनी-
सत्यशोधक आन्दोलन के एक नेता एस. के. बोले के नेतृत्व में एक समारोह किया गया। इस अवसर पर के. ए. केलुस्कर ने भीमराव को गौतम बुद्ध की एक जीवनी भेंट की थी और इस तरह मात्रा 16 वर्ष की उम्र में भीमराव को बुद्ध से परिचित होने का मौका मिला था।
आगे पढ़ने कॉलेज भेजने की सलाह-
इस मौके पर केलुस्कर महोदय ने रामजी सूबेदार से भीमराव को कॉलेज में दाखिल कराने का अनुरोध किया।  सूबेदार रामजी  ने कहा कि वे खुद इसके लिए उत्सुक है, यद्यपि सामाजिक परिस्थितियां प्रतिकूल है। केलुस्कर ने कहा कि वे तत्संबंध में आवश्यक मदद करेंगे(कीर, पृ. 20 )।
आनंदराव की पढाई बंद - रामजी सूबेदार ने आनंद राव की पढाई बंद करवा कर उसको जी आई पी के वर्कशाप में नौकरी से लगवा दिया।  इससे परिवार को कुछ आर्थिक मदद मिली। रामजी ने थोड़े दिनों में आनंदराव का विवाह कर दिया गया। अब उन्हें भीमराव के विवाह की चिंता हुई. तब बचपन में ही विवाह कर देने की प्रथा थी।रमा से विवाह-
सन् 1908 में गोपालबाबा वाणंदकर  के एक रिश्तेदार दापोली के भीकू वाणंदकर की पुत्री  रामीबाई जिसकी तब आयु 9-10 वर्ष थी, भीमराव का विवाह हुआ। इस समय भीमराव बमुश्किल 17 वर्ष के थे। रामी एक अच्छी और सीधी सादी लड़की थी। वह गरीब परिवार से थी(कीर, पृ. 20-21 )।
रामी के माता-पिता बचपन में ही गुजर  गए थे। रामी की दो बहनें; जिसमे बड़ी का नाम गौरा और छोटी का नाम मीरा था तथा एक भाई शंकर जो चारों भाई-बहनों में सबसे छोटा था।  सभी बच्चें बॉम्बे में अपने मामा और चाचा के यहाँ रहते थे  (जाटव, पृ 25) ।
https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/3/32/Dr._Babasaheb_Ambedkar_with_wife_Ramabai_Ambedkar.jpg
रामी का परिवार -
रामी के पिता का नाम भिक्खु धुत्रे और माँ का नाम रुक्मिणी था। महाराष्ट्र में कहीं कहीं नाम के साथ गावं का नाम जोड़ने का चलन है। इस चलन के अनुसार उन्हें भीकू वाणंदकर के नाम से भी पुकारा जाता था।   पहले, रामी का परिवार वनंद  गावं (डाभोल) के महापुरा नामक स्थान में रहता था । उसके पिता कुली थे। वे सिर पर मछलियों से भरी टोकरी रख उसे दाभोल हार्बर से मछली मार्केट लाने का काम करते थे।
शादी का स्थान -
भीमराव की शादी बहुत ही सीधे-सादे ढंग से रात के समय भायखला मार्केट के खुले शेड में हुई थी। न कोई मेज थी न कोई कुर्सी। दुकानों के पत्थरों के प्लेटफार्मों  से बेंचों का काम लिया गया था। रामी विवाह के बाद अब रमा हो गई थी(कीर, पृ. 21 )।
बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ से भेंट-
जब इरादे बुलन्द होते हैं तो फिर, राह में सितारें बिछ जाते हैं।  इसके थोड़े समय पूर्व ही बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने घोषणा की थी कि अछूत जाति के जो विद्यार्थी पढ़ने में होशियार हैं, उन्हें उच्च शिक्षा के लिए वे आर्थिक मदद देंगे। सनद रहे, महाराजा सयाजीराव दबे-पिछड़ों की सामाजिक-शैक्षणिक उन्नति के लिए काम करने वाले युग-पुरुषों में गिने जाने जाते हैं।
इस बीच, किसी सिलसिले में महाराजा का मुम्बई आना हुआ तो केलुस्कर महादेय भीमराव को लेकर महाराजा के सामने उपस्थित हुए और उन्हें उनकी उस घोषणा की याद दिलायी। महाराजा ने भीमराव से कुछ प्रश्न पूछें और संतुष्ट होकर भीमराव को 25/- रुपये प्रति माह के छात्रवृति की स्वीकृति प्रदान कर उसे आगे पढ़ाई जारी रखने को कहा(कीर, पृ. 21 )।
एलफिंस्टन कॉलेज में दाखिला-
भीमराव ने आगे की पढ़ाई के लिए एलफिंस्टन कॉलेज में दाखिला ले लिया। कॉलेज में यद्यपि अंग्रेजी के प्रोफेसर म्युल्लर और पर्शियन के प्रो. ईरानी जैसे लेक्चरार थे जो भीमराव को पुस्तकें और कपड़ें भी देते थे, किन्तु बाकि लेक्चरार और सह-छात्र भीमराव से अतिशय छुआछूत का व्यवहार करते थे(कीर, पृ. 22 )। कॉलेज के होटल का मालिक एक ब्राह्मण था जो उन्हें न चाय देता था न पानी। भीमराव अम्बेडकर ने अपमान के कड़ुवे घूंट पिए और असुविधाओं के सामने घुटने नहीं टेके(कीर, पृ. 22 )।
संस्कृत के स्थान पर फारसी-
भीमराव संस्कृत पढ़ना चाहते थे किन्तु कॉलेज का कोई लेक्चरार  उन्हें संस्कृत पढ़ाने को तैयार नहीं हुआ। मजबूरन भीमराव को फारसी लेना पड़ा। फारसी के प्रोफेसर के. बी. ईराई ने उन्हें अध्ययन के लिए अपना कमरा दे रखा था।
इम्प्रूव्मेंट टस्ट चाल-
इसी बीच सूबेदार रामजी डबल चाल का कमरा छोड़ कर बॉम्बे के परल क्षेत्र में  इम्प्रूव्मेंट  ट्रस्ट चाल- 1  आ गए थे। यहां दूसरे तले पर उन्होंने दो कमरे; न. 50 और 51 लिए थे जो एक-दूसरे के आमने-सामने थे। एक में परिवार के लोग रहते थे और दूसरे में सामान। सामान वाले कमरे में बैठकर भीमराव पढ़ाई करते जबकि सूबेदार रामजी उसके सामने वाले कमरे में बैठ उन पर कड़ी नजर रखते थे(रत्तू, पृ. 23 )। रामजी चाहते थे कि भीम किसी तरह बी ए पास कर ले। वह भीम को जल्दी ही रात 9 बजे सुला देते और मध्य रात्री 2 बजे जगा देते थे(जाटव, पृ 25 )।  
बी. ए. उत्तीर्ण-
भीमराव अम्बेडकर ने लगन से पढ़ाई की और अंग्रेजी तथा फारसी विषयों के साथ बॉम्बे युनिवर्सिटी से नव. 1912 में  बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
Rajagriha, Bombay, February 1934: (L to R) Yashwant, BR Ambedkar, Ramabai, Laxmibai (widow of Ambedkar’s brother, Anandrao), Mukundrao, and (in the foreground) Tobby. The little girl on Laxmibai’s knee is unidentified.
पुत्र यशवन्त का जन्म-
इसी वर्ष दिस. 1912 में भीमराव को पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम यशवन्त रखा गया था।

नौकरी की तलाश-
स्नातक होने के बाद भीमराव को घर से कहा गया कि वह मुम्बई में कहीं नौकरी करें। किन्तु भीमराव की इच्छा थी कि वह बड़ौदा सरकार की नौकरी करके उनके ऋण से उऋण हो। पिता को भय था कि बड़ौदा राज्य में बड़े-बड़े सरकारी पदों पर कट्टर-पंथी सवर्ण हिन्दू आसीन थे और लिहाजा उसके पुत्रा को जगह-जगह अपमानित होना पड़ेगा। 
बड़ौदा नरेश के यहां नौकरी ज्वॉइन-
किन्तु इसकी परवाह न करते हुए भीमराव ने महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ को पत्र लिखा और बड़ौदा सरकार ने भीमराव को बड़ौदा बुलाकर अपनी फौज में लेफ्टिनेन्ट के पद पर नियुक्त कर लिया। भीमराव अम्बेडकर ने बड़ौदा सरकार की नौकरी 23 जन. 1913 को ज्वॉइन की थी(कीर, पृ. 24 )।
बड़ौदा नरेश की रियासत में छुआछूत का दंश-
भीमराव ने बड़ौदा नरेश के यहां नौकरी तो ज्वॉइन कर ली किन्तु लेफ्टिनेन्ट भीमराव को रियासत में रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी। यहां तक कि होटल वाले भी उन्हें कमरा देने को तैयार नहीं थे। उन्हें किराया का मकान नहीं मिल रहा था। बमुश्किल किसी आर्य समाजी पण्डित आत्माराम ने उन्हें कमरा दिया था।
वहां छूत का भय इस हद तक मौजूद था कि चपरासी तक उनकी मेज पर फॉइल रखने से बचते थे। वे उन्हें दूर से ही फेंका करते। बड़ौदा में सामाजिक परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल और अपमानजनक थी कि भीमराव को असहनीय पीड़ा हो रही थी। 
पिता सूबेदार रामजीराव की मृत्यु-
इसी बीच भीमराव को मुम्बई से तार मिला कि उनके पिताजी की तबीयत बेहद खराब है। अतएव वह आठ दिनों की छुट्टी लेकर आए। सूबेदार रामजी अंतिम सांसे ले रहे थे। भीमराव को देखकर उन्होंने उसकी पीठ पर ममता-मय हाथ फेरा और अंतिम सांस ली। यह 2 फर. 1913 का दुखद दिन था(जाटव, पृ  27 )।
उच्च शिक्षा के लिए अमरिका जाने का ऑफर-
वर्ष 1913 में महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ मुम्बई में उच्च शिक्षा दिलाने के लिए कुछ विद्यार्थियों को अमेरिका भेजने की व्यवस्था कर रहे थे। इसी समय भीमराव उनके पास बड़ौदा में अपने निवास की समस्या लेकर पहुंचे। भीमराव अभी कुछ कह पाते कि महाराजा ने उन्हें देखते ही पूछा- ‘‘क्या तुम उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका जा सकोगे?’’ भीमराव महाराजा के इस अप्रत्याशित प्रश्न से अचकचा गए। महाराजा को संदेह हुआ। वे दुबारा पूछने ही वाले थे कि भीमराव बोल उठे-  ‘‘ मैं सहर्ष तैयार हूँ , यदि महाराजा भेजने की कृपा करें(कुबेर, पृ. 11 )’’
महाराजा बेहद खुश हुए। उन्हें लगा कि सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जो वे काम कर रहे है, यह कदम उस दिशा में निर्णायक होगा। महाराजा ने परामर्श दिया- ‘‘तुम छात्रवृति के लिए शिक्षा-मंत्री को दरख्वास्त लिखो। मैं तुम्हारे लिए अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से लिखा-पढ़ी करता हूँ।’’ भीमराव, महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ को कृतज्ञता अर्पित करते हुए घर आए और निर्देशानुसार शिक्षा-मंत्री को दरख्वास्त भेज दी।
विदेश में उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृति-
भीमराव को 3 साल अर्थात 15 जून 1913 से 14 जून 1916 की अवधि के लिए 11.5 पौंड प्रतिमाह के हिसाब से छात्रवृति इस शर्त के साथ स्वीकृत हुई कि पढ़ाई पूरी होने पर भीमराव को 10 वर्ष तक बड़ौदा रियासत की सेवा करनी होगी। इस आशय का  एग्रीमेन्ट 4 जून 1913 को बड़ौदा राज्य के अधिकारियों के साथ  हुआ था।
बड़े भाई बालाराम की मृत्यु-
इसी बीच भीमराव के बड़े भाई बालाराम की असामयिक मृत्यु हुई। वे लम्बी बीमारी से ग्रस्त थे।
जहाज से यात्रा-

अमेरिका जाने का प्रबंध तो हो गया, पर भी राव को परिवार के खर्च की बड़ी चिंता हुई। केवल आनंद राव ही एकमात्र कमाने वाला व्यक्ति थे जबकि 10 -12  परिवार में खाने वाले सदस्य थें(जाटव, पृ  27 )। भीमराव ने विदेश जाने की तैयारी की। शिक्षा विभाग से कुछ रूपये पेशगी लेकर वे एस. एस. अकोना जहाज से अमेरिका के लिए रवाना हुए। भीमराव, जैसे कि पहले बतलाया जा चुका है, विविध पुस्तकें पढ़ने के शौकीन थे। जहाज पर सवार होते समय पढ़ने के लिए उन्होंने कई पुस्तकें रख ली थी। जहाज के दूसरे यात्री समुद्र की लहरों का आनन्द लेते किन्तु भीमराव पुस्तकें पढ़ने में तल्लीन होते। उनकी पुस्तकों में बुद्ध और उनके धर्म संबंधी ग्रंथों की भरमार हुआ करती थी।
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में दाखिला-
भीमराव ने 20 जुला. 1913 को अमेरिका पहुंचकर वहां के न्युयार्क स्थित कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में ‘गायकवाड़ स्कॉलर के रूप में दाखिला लिया। यहां एम. ए. के अध्ययन के लिए उन्होंने प्रमुख विषय के तौर पर अर्थशास्त्र और समाज-शास्त्र, राजनीति-शास्त्र, नृवंश-शास्त्र आदि सहायक विषय लिए थे।
यह एक अभूतपूर्व अवसर था कि किसी विदेशी विश्वविद्यालय में एक भारतीय और विशेष रूप से महार जैसी बहादूर और साहसी कौम का छात्र जिसे हिन्दू भारत में अछूत समझा जाता है, प्रवेश ले रहा था।
नवल भटेना रूम  मेट-

भीमराव एक सप्ताह तक इस यूनिवर्सिटी के छात्रावास में रहे। बाद में वे 554 वेस्ट, 114 स्ट्रीट स्थित एक  अंतर्राष्ट्रीय क्लब(कास्मोपॉलिटन) में जाकर रहने लगे, जहां कुछ भारतीय छात्र भी रहते थे। कुछ समय बाद वे नवल भटेना नाम के एक पारसी मित्र के साथ लिविंगस्टोन हॉल में रहने लगे थे(कीर, पृ. 27 )। भटेना, अम्बेडकर  का जीवन भर मित्र बना रहा।
स्वच्छ और प्रफुल्लित वातावरण-
अस्पृश्यता के अभिशाप से दूषित भारत के प्रदुषित वातावरण से निकल कर अमेरिका के समानता पर आधारित स्वच्छ और स्वतंत्र वातावरण में सांस लेते हुए भीमराव खुद को प्रफुल्लित और तरोताजा अनुभव कर रहे थे(कीर, पृ. 27 )। यहाँ जाति की घुटन और पीड़ा नहीं थी।
शिक्षा ही उत्थान का मूल मन्त्र -
अमेरिका से भीमराव ने अपने पिता के मित्र को पत्र लिखा- हमें इस विचार को पूर्णत: त्याग देना चाहिए कि माता-पिता बच्चें को जन्म देते हैं और कर्म नहीं।  वे बच्चे के भाग्य को बदल सकते हैं। शिक्षा उत्थान का मूल मन्त्र है।  हमें अपने सगे-सम्बन्धियों के बीच इसका अधिकाधिक प्रचार करना चाहिए ।
विविध प्रकार की पुस्तकें पढ़ने का जुनून-
अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में अध्ययन के दौरान  भीमराव को विविध प्रकार की पुस्तकें पढ़ने का एक प्रकार से जुनून था। वे यूनिवर्सिटी की लायब्रेरी में सबसे पहले पहुंच जाते और सबसे पीछे बाहर निकलते। वे हर रोज औसतन 16 से 17 घंटे अध्ययन में बिताते। अवकाश दिन यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी बंद रहने पर वे न्यूयार्क शहर के अन्य पुस्तकालयों की सैर करते। बाजार में पुस्तकों की अन्य दुकानों पर जाकर दुर्लभ ग्रंथों को जहां तक उनकी जेब साथ देती, खरीदते थे। वे प्राय: पुरानी पुस्तकें खरीदते थे।
प्रो. सेलिग्मेन का प्रेम-
भीमराव का पुस्तक प्रेम और उनकी अध्ययनशीलता देखकर कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एडविन आर. ए.  सेलिग्मेन उन्हे बहुत चाहते थे। प्रो.  सेलिग्मन कोलम्बिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी के अध्यक्ष थे।  वे भीमराव की प्रतिभा और श्रम-शीलता से  प्रसन्न थे। भीमराव अकसर प्रो. सेलिग्मेन के निवास पर जाते और विभिन्न विषयों पर उनसे वार्तालाप करते, अपनी शंकाओं का समाधान करते। जब भराव ने उन्हें रिसर्च मेथड के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा की उसे गहन अध्ययन करना चाहिए ताकि वह स्वयं अपनी पद्यति का विकास कर लें।
लाला लाजपत राय से भेट-
भीमराव अम्बेडकर अमेरिका में कम-से-कम समय में अधिक से अधिक शिक्षा अर्जित करने दिन-रात कड़ी मेहनत कर रहे थे, उन्हीं दिनों भारत के प्रसिद्ध राष्ट्र-भक्त लाला लाजपतराय अमेरिका के लोगों व भारत के विद्यार्थियों में भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने वहां  'इंडियन होम रूल लीग  ऑफ अमेरिका ' नामक संस्था की स्थापना की थी(जाटव, पृ  30 )।  लाला लाजपतराय ने भीमराव अम्बेडकर से अपने उस संगठन के लिए काम करने की अपील की किन्तु अम्बेडकर ने बड़ौदा नरेश के साथ हुए करानामे का हवाला देकर अपनी असमर्थता प्रगट की(कीर, पृ. 31)।
अमेकिा के महान अध्ययताओं के साथ तीन साल-
भीमराव न्यूयार्क में 1913 से 1916 तीन साल रहे। यह एक ऐतिहासिक अवसर था कि प्रो. जॉन डेव, जेम्स शाटवेल, एडविन सेलिग्मैन, जेम्स हारवे रॉबिनसन, फ्रेन्कलिंग गॉइडिंग्स और अलेक्जेंडर गोल्डनवियर जैसे ख्याति प्राप्त प्रोफेसरों के लेक्चरों का लाभ भीमराव अम्बेडकर ने विश्व प्रसिद्ध स्टेचू ऑफ लिबर्टी के पास रहते हुए उठाया था। सनद रहे, तत्कालीन अमेरिकी चिन्तन पर इन हस्तियों का बड़ा प्रभाव था। यह बहुत ही स्वाभाविक था कि अम्बेडकर पर इसका प्रभाव पड़ता। अम्बेडकर अपने वक्तव्यों में अकसर प्रो. सेलिग्मिेन को उद्धृत करते थे (मून. पृ. 10)।
प्रो. जॉन डेव (John Dewey) का प्रभाव-
‘डिमोनिशन ऑफ कास्ट सिस्टम’ में अम्बेडकर ने स्वीकार किया कि प्रो. जॉन डेव और लोकतंत्र पर उनके द्वारा किए गए कार्य से उन्होंने काफी कुछ सीखा है। समानता और  सामाजिक न्याय के तत्व उनसे गहराई से समझा था। यद्यपि, बाद में आंबेडकर ने साफ किया कि हक़ीक़त में ये मुलभूत सिद्धांत उनके अपने ही देश में पैदा हुए भगवान बुद्ध के थे जिसे पश्चिम के विद्वानों ने उन्हें अपने जीवन का हिस्सा बना लिया था।
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में भारत जैसा न था। यहां लोग एक-दूसरे से खुलकर मिलते थे। अमेरिकियों की तरह ही भीमराव हष्ट-पुष्ट और चौड़ी कद-काठी होने से शीघ्र ही वे उनमें घुल-मिल गए थे।
फिल्म देखने की फुर्सत नहीं-
भीमराव फिल्में नहीं देखते थे। अगर कभी मौका मिला तो कोई ऐतिहासिक फिल्म देखते थे। एक दिन उनके एक मित्र ने फिल्म देखने की बात कही। भीमराव ने उससे कहा कि जिस उद्देश्य से वह यहां आया है, वह पूरा नहीं हुआ तो  किस मुंह से वह अपने देश लौटेगा(नैमिशराय, पृ. 58 )।
एम. ए. की डिग्री प्राप्त-
जून 1915 में ‘प्राचीन भारतीय व्यापार’ (Accent Indian Commerce ) थीसिस पर भीमराव अम्बेडकर का कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से एम. ए. की डिग्री प्राप्त हुई।
शोध प्रबंध: दी कॉस्ट्स इन इण्डिया-
डॉ. अलेक्जेंडर गोल्डनवेयजर (Dr Alexander Goldenweiser) द्वारा नृवंश विज्ञान पर आयोजित विचार गोष्ठी में भीमराव अम्बेडकर ने मई 1916 में एक निबन्ध पढ़ा। उसका विषय था- ‘दी कॉस्ट्स इन इण्डिया; देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एण्ड डव्हॅलपमेंट’(Caste in  India, Their Mechanism , Genesis  and Development )। मई 1917 में ‘इण्डियन एंटीक्वेरी’ में इसका पुस्तक के रूप में प्रकाशन हुआ। इस लेख में भीमराव अम्बेडकर ने कहा कि जाति विहिन विवाहों पर प्रतिबन्ध ही हिन्दू धर्म का सार है।
मनु से भी पूर्व हिन्दुओं की जाति -
उनके विचार में जाति एक संकुल वृत है और इसका जन्म मनु से भी पूर्व हो चुका था जिसे वे एक ढीठ व्यक्ति और पिसाच मानते हैं। उनके विचार से मनु ने केवल पहले से मौजूद जाति संबंधी हिन्दू विधि विधान को संगृहित किया(कुबेर)।
पी. एच. डी. की सलाह-
अम्बेडकर की विषय में पकड़ और अध्ययनशीलता देखकर  प्रो. सेलिग्मेन ने उन्हें इसके बाद पी. एच. डी. करने की सलाह दी।
बड़ौदा के दीवान का षड़यंत्र-
इसी बीच भीमराव अम्बेडकर को एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि उनकी छात्रावृति बंद की जाती है। पत्र पर दीवान बड़ौदा रियासत की मोहर लगी थी। दरअसल, बड़ौदा के उच्च अधिकारियों को यह अच्छा नहीं लगता था कि महार जाति का लड़का विदेश में शिक्षा प्राप्त करें। इसलिए कुछ ऐसी ही संकुचित मानसिकता के अधिकारियों ने अम्बेडकर के पास लंदन में एक पत्र भेजा। पत्र देखकर भीमराव अम्बेडकर बहुत दुःखी हुए यह सोचकर कि अब उनके भविष्य का क्या होगा? उनकी पढ़ाई अधूरी रह जाएगी। खैर, मन शान्त हुआ तो उन्होंने बड़ौदा नरेश को पत्र लिखा। महाराजा गायकवाड़ पत्र पढ़कर अवाक रह गए। उन्होंने तुरन्त रियासत के दीवान को बुलाया और छात्रवृति के बारे में पूछा।  दीवान तो इस षढ़यंत्र में शामिल ही था। उसने माफी मांगते हुए कहा- ‘‘भूल हो गई, महाराज।’’ महाराजा सयाजीराव ने कहा- ‘‘तुम इसे भूल कहते हो? यह तो सरासर षड़यंत्र है, जो तुम सबने मिलकर अम्बेडकर के खिलाफ रचा है। तुरन्त उसकी छात्रावृति जारी कर उसे सूचित करो(नैमिशराय, पृ. 59 )।
पी. एच. डी. के लिए थीसिस-
प्रोफेसर सेलिग्मेन की सलाह मानकर भीमराव पी. एच. डी. की थीसिस के लिए जुट गए। भीमराव अब करीब करीब यूनिवर्सिटी की लायब्रेरी में ही रहने लगे। प्रोफेसर और चपरासी उनके अध्ययन और तन्मयता से दंग थे।
https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/3/31/Dr._B._R._Ambedkar_with_his_professors_and_friends_from_the_London_School_of_Economics_and_Political_Science%2C_1916-17.jpg
London School of economics(1916-17)
professors and  friends:Source Wikipedia   
जून 1916 में अम्बेडकर ने पी.एच. डी. के लिए ‘नेशनल डिविडेंड ऑफ इण्डियाः ए हिस्टोरिक एण्ड अनैलिटिकल स्टडी’(National Dividend of  India - A Historic and Analytical Study) शीर्षक  से थीसिस कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में प्रस्तुत की।
शोध-प्रबंध प्रकाशित करने के लिए पैसा नहीं -
पी.  एच.  डी.  के लिए शोध-प्रबंध को प्रकाशित कर उसकी कुछ निश्चित प्रतियां यूनिवर्सिटी में जमा की जाती है।  किन्तु अम्बेडकर के पास इतना पैसा नहीं था कि उसे प्रकाशित कर सकें(जाटव, पृ. 30 )।
पी. एच. डी. की डिग्री से विभूषित-
आठ साल बाद ‘दी इवाल्यूशन ऑफ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इण्डिया’(The  Evolution of Provincial Finance in British India ) के नाम से यह थीसिस मेसर्स ‘पी. एस. किंग एण्ड संस (लंदन) के द्वारा एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई(कुबेर)। प्रकाशित ग्रन्थ की प्रतियां अम्बेडकर ने जमा की और यूनिवर्सिटी ने वर्ष 1924  में विधिवत उन्हें पी.  एच. डी. की डिग्री से विभूषित किया (जाटव, पृ. 30 )।
महाराजा सयाजी राव को समर्पण-
अम्बेडकर ने यह पुस्तक बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ को समर्पित की थी। पुस्तक की प्रस्तावना प्रो. सेलिग्मैन ने लिखी जिसमें उन्होंने लिखा- ‘‘मेरे विचार में अधोगत सिद्धांतों का इतना विस्तृत विवेचन कहीं और नहीं मिलेगा।’’ इस ग्रंथ में भीमराव अम्बेडकर ने कहा कि अंग्रेजों की पूरी आर्थिक नीति ब्रिटिश उद्योगों और उद्योगपतियों के हित साधन के लिए है(कुबेर) ।
भारत का बुकर-टी वाशिंगटन-
अर्थशास्त्र के विद्वानों और विद्यार्थियों ने भीमराव की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। इस उपलक्ष्य में भोज देकर भीमराव को सम्मानित किया। बड़ौदा के महाराजा सयाजी गायकवाड़ ने उन्हें ‘‘भारत का बुकर टी. वाशिंगटन’’ बतलाया था (कुबेर, पृ. 17 )। उनका तात्पर्य था कि जैसे निग्रो जाति के उद्धारक ‘‘बुकर टी. वाशिंगटन’’ हुए हैं, वैसे ही भारत के दलित-शोषित समाज का उद्धार करने के लिए भीमराव अम्बेडकर हुए हैं। बूकर टी. वाशिंगटन अमेरिका में निग्रो जाति के महान समाज सुधारक और मार्गदर्शक हुए हैं। इस महापुरुष ने ‘तुस्केगी सस्थान’ की स्थापना की थी जिसने निग्रो लोगों में शिक्षा प्रसार किया और उन्हें सदियों की दासता के शिकंजे से मुक्त किया। इनका निधन 1915 में हुआ था(कुबेर, पृ. 19 )।
हिल्टन यंग आयोग के हर सदस्य के पास उनकी पुस्तक संदर्भ ग्रंथ के रूप-
इस थीसिस की महत्ता इससे ही आंकी जा सकती है कि तब बजट अधिवेशन के दौरान हर भारतीय विघायक इसका उद्धरण दिया करते थे। विद्यार्थियों के लिए तो यह ज्ञान की कुंजी थी। 18 नव. को जब भारतीय मुद्रा के बारे में भीमराव अम्बेडकर हिल्टन यंग आयोग के सामने वक्तव्य देने गए तो यह देख कर उनकी छाती गर्व से फूल गई कि आयोग के हर सदस्य के पास उनकी यह पुस्तक संदर्भ ग्रंथ के रूप में मौजूद थी(वही, डब्लू एन. कुबेर )।
ज्ञान पिपासा अधूरी-
अमेरिका के कोलम्बिया जैसे विश्व प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से एम. ए. और पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त करने के बाद भी  अम्बेडकर की ज्ञान पिपासा शांत नहीं हुई। उन्हें अभी अपने सवालों के जवाब मिले नहीं थे।
लंदन यूनिवर्सिटी के लिए प्रस्थान-
भीमराव ने फैसला किया कि लन्दन जैसे अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र से अर्थशास्त्र में विशेषज्ञता और बैरिस्टरी की उपाधि प्राप्त करना चाहिए। किन्तु इधर उनके छात्रवृति की अवधि समाप्त हो रही थी। भीमराव ने प्रो. सेलिग्मेन की सिफारिश के साथ बड़ौदा महाराजा को एक प्रार्थना-पत्र भेजा। महाराजा ने इस पर छात्रवृति की अवधि केवल एक वर्ष और बढ़ा दी।
जहाज की डेक पर पुस्तकें पढ़ने में तल्लीन -
डॉ. भीमराव अम्बेडकर लंदन के लिए जहाज से रवाना हुए। अमेरिका में रहते हुए उन्होंने जो बहुमूल्य पुस्तकें संग्रह की थी, उनमें से कुछ तो वे अपने साथ लिए थे और बाकि को उन्होंने वहीं अपने एक मित्र को सौंप दी।
स्मरण रहे, सन् 1914 में द्वितीय युद्ध छिड़ गया था जो सन् 1916 तक भयंकर रूप धारण कर चुका था। उस समय इंग्लैंड पर भी गोलीबारी हो रही थी। डॉ. अम्बेडकर का जहाज जब इंग्लैंड के निकट पहुंचा तो गोलों की आवाज से यात्री घबराने लगे थे किन्तु डॉ. अम्बेडकर पुस्तकें पढ़ने में तल्लीन थे(कुबेर)।
पुस्तक प्रेमी डॉ अम्बेडकर -
डॉ. अम्बेडकर  को पुस्तकें बहुत प्रिय थी। उनकी पुस्तकों के अध्ययन से तृप्ति नहीं होती थी। वे विश्व की लगभग एक दर्जन भाषाएं जानते थे।  कहा जाता है कि उनका निजी पुस्तकालय एशिया में सबसे बड़ा वैयक्तिक पुस्तकालय था। यह उनका पुस्तक प्रेम ही था कि बाद के दिनों में उन्होंने 'पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी' की स्थापना की और बम्बई और औरंगाबाद में महाविद्यालय खोले(डॉ. सूर्यभान सिंह : भारतरत्न डॉ अम्बेडकर ; व्यक्तित्व एवं कृतित्व ; पृ  79 )।
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लन्दन के प्रो. एडविन कैनान और प्रो. सिडनी वेब से परिचय -
सन् 1916 में जब अम्बेडकर अमेरिका से ब्रिटेन स्थित ‘लंदन स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स एण्ड पॉलिटिकल साइंस’ में अध्ययन के लिए रवाना हुए तब प्रो. सेलिग्मैन ने उनका परिचय उस संस्थान के प्रो. कैनान और प्रो. सिडनी वेब से कराने के लिए उन्हें दो पत्र दिए थे(कुबेर)।
बैरिस्टरी के लिए लन्दन के ‘ग्रेज इन में दाखिला-
अम्बेडकर ने अक्टू. 1916 में कानून की पढ़ाई हेतु लन्दन के ‘ग्रेज इन में दाखिला लिया(कुबेर )।
एम. एस. सी. के लिए अध्ययन-
‘ग्रेज इन में प्रवेश के साथ ही अम्बेडकर ने 'लन्दन स्कूल आफ इकनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस' में प्रवेश ले लिया। चूँकि अम्बेडकर एम. ए. ,  पी. एच. डी. थे अतएव लंदन यूनिवर्सिटी ने उन्हें सीधे एम. एस. सी. की परीक्षा में  बैठने की अनुमति दे दी(जाटव, पृ  31 )। डॉ. अम्बेडकर के रिसर्च का विषय था- ‘रूपये का प्रश्न’(जिज्ञासु )। अर्थशास्त्र में अम्बेडकर की पैठ देख कर लन्दन के प्रोफेसरों ने उन्हें डी. एस. सी. के अध्ययन की भी अनुमति दे दी।
लन्दन की लाइब्रेरियों में अध्ययन-
एम. एस. सी. , डी.  एस.  सी.  और बार-एट-लॉ के अध्ययन की अनुमति प्राप्त होते ही डॉ. अम्बेडकर ने इण्डिया आफिस लायब्रेरी, लंदन स्कूल लायब्रेरी, ब्रिटिश म्यूजियम की विज्ञान लायब्रेरियों में अध्ययन करने और नोट्स लेने का काम शुरू  किया। सनद रहे, पूर्व में इन्हीं लायब्रेरियों में विश्व के बड़े-बड़े विचारकों ने बैठकर अध्ययन किया था और अब, उस लिस्ट में भारत में अछूत माने जाने वाली कौम में पैदा हुए डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम जुड़ रहा था।
छात्रवृति की अवधि समाप्त-
इसी बीच उनके छात्रवृति की अवधि समाप्त हो गई । अम्बेडकर ने महाराजा बड़ौदा को पुनः प्रार्थना-पत्र भेजा। किन्तु उनकी छात्रवृति स्वीकृत नहीं हुई बल्कि उन्हें स्मरण कराया गया कि शिक्षा समाप्त करने के बाद वे 10 साल बड़ौदा रियासत में नौकरी करने के लिए बाध्य है(जिज्ञासु )
डॉ. अम्बेडकर मन मसोस कर रह गए। एम. एस. सी., डी.  एस.  सी. और बार-एट-लॉ के लिए वर्ष भर किए गए उनके अध्ययन का कोई परिणाम नहीं निकला था।
चार वर्ष तक की मोहलत-
प्रो. कैनान की सिफारिश से उन्हें अक्टू. 1917 से अधिकतम चार वर्ष तक लंदन विश्वविद्यालय में अपना अध्ययन जारी रखने की अनुमति प्राप्त हो गई(कुबेर )। डॉ. अम्बेडकर ने निश्चय किया कि भारत लौट कर महाराजा सयाजीराव गायकवाड़  से उऋण होना उनका कर्त्तव्य है।
भारत रवाना-
डॉ. अम्बेडकर लंदन से भारत के लिए रवाना हुए। उन्होंने  जिन बहुमूल्य ग्रंथों का संग्रह अपने अध्ययन के लिए किया था, उनका बीमा करा कर ‘ मेसर्स थामस बुक एण्ड संस ’ के सुपुर्द कर दिया। उन दिनों महायुद्ध जोरों पर था। समुद्री यात्रा खरनाक समझा जाता था। टॉरपिडों से जहाज डुबोये जाते थे। इंग्लैड से भारत आने वाले जहाज अफ्रिका होकर आते थे।
दुर्लभ ग्रंथों का जहाज के साथ डूबना-
एक दिन भारतीय अखबारों में खबर छपी कि  इंग्लैड से भारत आने वाला जहाज टारपीडो से डुबो दिया गया है। इस खबर से डॉ. भीमराव अम्बेडकर के परिवार और जाति बिरादरी में हाहाकार मच गया। किन्तु बाद में पता चला कि  जिस जहाज पर डॉ. अम्बेडकर सवार थे, वह सुरक्षित है बल्कि वह जहाज डुबा है जिस पर उनके बहुमूल्य और दुर्लभ ग्रंथ थे।
मुम्बई पोर्ट पर स्वागत-
डॉ. अम्बेडकर 21 अग. 1917 को कोलम्बो होते हुए मुम्बई पहुंचे। पोर्ट पर उनका स्वागत करने परिवार के लोगों के साथ बहुत सारे उनके इष्ट-मित्र थे। सब हर्ष उल्लास में थे। किन्तु अम्बेडकर चिन्तित थे क्योंकि बड़ौदा जाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे।
इधर सूचना पा कर बड़ौदा के महाराजा ने अपने आदमियों को आदेश दिया था कि अम्बेडकर को लेने स्टेशन पर पहुंचे और सम्मान के साथ ले आए, परन्तु उनके अछूत होने के कारण कोई भी स्टेशन नहीं आया(रत्तू, पृ. 31)।
बड़ौदा के लिए रवाना-
यह अच्छी बात थी कि उन्होंने जिस सामान का बीमा कराया था, उससे उन्हें 600/- रूपये मिले थे। डॉ. अम्बेडकर अगले ही दिन  20  सित।  1917 को बड़ौदा के लिए रवाना हो गए(जाटव, पृ  32 )।
बड़ौदा रियासत के सैनिक सचिव नियुक्त-
जुला. 1917 में डॉ. अम्बेडकर को महाराजा बड़ौदा का सैनिक सचिव बनाया गया ताकि आगे चलकर उन्हें उनकी  योग्यता तथा अनुभव के आधार पर रियासत का वित्त-मंत्री बनाया जा सकें।
अपमान की पराकाष्ठा-
बड़ौदा में यह बात आम जनता में फैल चुकी थी कि महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ एक पढ़े-लिखे महार लड़के को बड़ौदा लाए हैं। सचिवालय के सभी छोटे-बड़े पदाधिकारी डॉ अम्बेडकर को उपेक्षा और तिरस्कार की दृष्टि से देखने थे। वे किसी से छू न जाए, इसलिए सभी लोग कतराते थे। चपरासी तक उन्हें फाइल फ़ैंक कर देते थे।
एक दिन की घटना का वर्णन करते हुए बाबासाहेब स्वयं लिखते हैं- ‘‘मैं भोजन आदि से निवृत होकर ऑफिस जाने के लिए होस्टल से बाहर निकला ही था कि हाथों में लट्ठ लिए पन्द्रह-बीस पारसी लोग मुझे मारने के लिए वहां आए। उन्होंने पहले मुझसे पूछा- ‘‘तुम कौन हो?’’ मैंने उत्तर दिया- ‘‘हिन्दू हूँ।’’ परन्तु इस उत्तर से उनका समाधान नहीं हुआ। उन्होंने तू-तू मैं-मैं करके कहा- ‘‘होटल से फौरन निकल जाओ।’’ मैंने आठ घंटे की मोहलत मांगी और उन्होंने वह दी। मैं दिन भर निवास के लिए स्थान प्राप्त करने की कोशिश करता रहा, परन्तु मुझे कहीं भी जगह नहीं मिली। मैं कई मित्रों से मिला। उन्होंने कई बहाने बना कर मुझे टरका दिया। मैं नहीं सोच पा रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। आखिर मैं एक जगह नीचे बैठ गया। मेरा मन उद्विग्न हुआ और मेरी आंखों में आंसू बहने लगे(नैमिशराय)।
अम्बेडकर का अपमान हिंदू धर्म के लिए शर्म की बात -
भीमराव ने महाराजा को तत्संबंध में अवगत कराने नोट भेजा किन्तु उनके दीवान ने कहा कि इस बारे में वे कुछ नहीं कर सकते(कुबेर, पृ. 13)। बड़ौदा में डॉ अम्बेडकर के साथ जो अमानवीय व्यवहार हुआ, जो उनका अपमान किया गया, वह न केवल समस्त बड़ौदा राज्य वरन समस्त हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के लिए बड़ी लज्जा की बात थी (जाटव , पृ  36 )।
बड़ौदा छोड़ना पड़ा-
सवर्ण हिन्दुओं के इस दमघोटू दुर्व्यवहार के कारण डॉ. भीमराव अम्बेडकर को बड़ौदा छोड़ना पड़ा। नव. 1917 में वे बड़ौदा से मुम्बई आ गए(कुबेर, पृ. 13 )।
बड़ौदा में मिले अपमान से सबक -
बड़ौदा के अमानवीय व्यवहारों से उन्हें सबक मिला और उन्होंने अपने जीवन के लक्ष्य को निर्धारित किया। उनके मन में यह विचार आया कि यदि उन जैसे शिक्षित और संस्कृत व्यक्ति के साथ, एक अछूत होने के कारण ऐसा व्यवहार होता है तो उन अछूत भाइयों का क्या हाल होगा जो अकिंचन और अपढ़ हैं। उन्होंने दृढ सकल्प हो निश्चय किया कि हिन्दू समाज में फैले अत्याचार और अन्याय का प्रतिरोध कर छुआछूत समाप्त करने के लिए जल्दी ही आंदोलन करेंगे(जाटव, पृ  36 )।
प्रथम अखिल भारतीय दलित जाति सम्मेलन-
यह वह समय था जब भारत की सवर्ण जातियों में अछूत और दबी-पिछड़ी जातियों के लिए सामाजिक सुधार जैसे कार्य-क्रमों की शुरूआत हुई(कुबेर)। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पद-दलितों के अस्तित्व को पहचानने लगी थी। दलित वर्गों के प्रति कांग्रेस का यह प्रेम दूरस्थ उद्देश्य से प्रभावित था(जाटव, पृ  36 )। दरअसल, वह 'कांग्रेस-लीग स्कीम' के लिए उनका समर्थन चाहती थी।
अम्बेडकर की कांग्रेस से दूरी -
इस बात पर विचार के लिए दलित जातियों ने  नव.  1917 में बॉम्बे में दो सम्मलेन किए गए। इन में दो मुख्य प्रस्ताव पास हुए। प्रथम, दलितों ने मांग की कि अछूतों के हितों की रक्षा सरकार द्वारा होनी चाहिए और द्वितीय,  कांग्रेस-लीग स्कीम को समर्थ प्रदान किया जाए । अम्बेडकर ने दोनों में भाग नहीं लिया क्योंकि दोनों गैर दलित जातियों द्वारा प्रायोजित थे(जाटव, पृ  36 )। वे समय की प्रतीक्षा में थे ताकि सही रूप में अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकें। दूसरे, अभी उनकी प्राथमिकता कुछ पैसा इकठ्ठा कर अपनी अधूरी शिक्षा पूरी करना था।
दलित जाति सम्मेलन-
Related imageमार्च 23-24, 1918 को मुम्बई में प्रथम अखिल भारतीय दलित जाति सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता महाराजा बड़ौदा ने की।  इसमें अनेक प्रमुख नेताओं ने भाग लिया था(कुबेर, पृ. 14 )।
सीडेनहम कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति-
डॉ. अम्बेडकर की नियुक्ति मुम्बई के ‘सीडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एॅण्ड इकानॉमिक्स’ में  राजनैतिक अर्थ-व्यवस्था के प्राध्यापक के पद पर हुई। नव.10, 1918 को उनकी नियुक्ति एक वर्ष के अस्थायी पद के लिए 450/- प्रति माह पर हुई थी( मून, पृ. 18)। डॉ. अम्बेडकर ने यह नौकरी इसलिए की ताकि इससे कुछ धन इकट्ठा हो तो वे पुनः यूरोप जाकर अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी कर सकें(सोहनलाल शास्त्री, पृ. 239 )। सीडेनहम कालेज की स्थापना बॉम्बे के बहुत पूर्व गवर्नर लॉर्ड सीडेनहम के नाम पर हुई थी। भीमराव का परिचय उनसे लन्दन में पहले ही हो चुका था(जाटव, पृ  37 )।
दूसरे कालेज के छात्र अम्बेडकर  की कक्षाओं में -
सिडेनहम कॉलेज में डॉ. अम्बेडकर के लेक्चर इतने प्रभाव पूर्ण होते थे कि दूसरे कॉलेजों के छात्र उनकी कक्षाओं में अर्थशास्त्र के बेसिक समझने आया करते थे(कुबेर पृ. 14 )।
आनंद राव की मृत्यु - इसी समय भीमराव के बड़े भाई आनंदराव की मृत्यु हो गई ।  बड़े भाई का साथ होने से वे अब तक घर-परिवार की चिंता से मुक्त थे।
सीडेनहम कॉलेज में छुआछूत-
सिडेनहम कॉलेज में सवर्ण जातियों के प्राध्यापकों ने इस बात का विरोध किया कि प्राध्यापकों को जिन बर्तनों में पानी दिया जाता है, उन्हीं से अम्बेडकर को पानी क्यों पिलाया जाता है(कुबेर पृ. 14 )? इस तरह के अपमानजनक वातावरण में डॉ. अम्बेडकर ने 11 नव. 1918 से 11 मार्च 1920 तक काम किया।
अछूत होने से बिजनेस भी नहीं-
डॉ. अम्बेडकर ने इस बीच दो पारसी विद्यार्थियों को पढ़ाने प्राइवेट टयूटर का काम किया था। उन्होंने स्टॉक मार्केट में शेयर ब्रोकर्स को सलाह देने का काम भी शुरू किया। किन्तु जब लोगों को मालूम हुआ कि वे अछूत जाति के हैं तो लोगों ने उनके पास आना ही बंद कर दिया (मून, पृ. 17)।
स्माल होल्डिंग्स इन इण्डिया एॅण्ड देयर रिमैडिज’-
इस समय डॉ. अम्बेडकर ने ब्रिटेन के प्रसिद्द दार्शनिक बर्टेन्ड रसेल की पुस्तक ‘रिकन्स्ट्रक्शन ऑफ सोसाइटी’ पर एक आलोचनात्मक लेख लिखा जो 'इण्डियन इकानॉमिक्स सोसाइटी’ की पत्रिका में प्रकाशित हुआ। उनका एक और ग्रन्थ- ‘स्माल होल्डिंग्स इन इण्डिया एण्ड देयर रिमैडिज’ इसी समय प्रकाशित हुआ था(मून, पृ. 17 )।
मताधिकार पर अपना पक्ष रखने साउथबरो आयोग का डॉ. अम्बेडकर को निमंत्रण-
 साऊथबरो आयोग ने विभिन्न हितों और वर्गों के प्रतिनिधियों की राय पर विचार किया। बाद में इसी आयोग की सिफारिशों पर मोंटफोर्ड सुधार लागू किए गए थे(कुबेर, पृ. 14-15 )। आयोग 'गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919' के लिए काम कर रहा था।  27 जन. 1919 को मताधिकार के लिए बयान देने के लिए डॉ. अम्बेडकर और बी. आर. शिंदे को बुलाया गया था(मून, पृ. 20)।
स्वराज्य की मांग के पूर्व सामाजिक समानता सुनिश्श्चत हो-
आयोग के सामने डॉ. अम्बेडकर ने मांग रखी कि दलित जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में स्थान सुरक्षित रखे जाएं और उनकी मतदाता सूचियां हो। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि स्वराज्य की मांग के पूर्व सामाजिक समानता सुनिश्चत की जाएं(कुबेर, पृ. 15 )।
मूकनायक का प्रकाशन-
31 जन. 1920 को ड़ॉ. अम्बेडकर ने एक ‘मूकनायक’ नामक मराठी पाक्षिक शुरू किया(जाटव पृ  39 ) इसका उद्देश्य दलित जातियों के हितों को  उनकी आवाज देना था। अम्बेडकर इसके अधिकृत सम्पादक नहीं थे किन्तु पत्रिका के अग्रलेख वे ही लिखते थे।  महार जाति के पांडुरंग नन्दराम भटकर इसके सम्पादक थे(वही)।
 अम्बेडकर दलित जातियों की बेड़ियां तोड़ने में कामयाब होंगे-
सन् 1918 और 21 मार्च 1920 को नागपुर और कोल्हापुर में दलित जातियों के सम्मेलन हुए जिनकी अध्यक्षता शाहू महाराज ने की। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इनमें भाग लिया था(कुबेर, पृ. 15)। 21 मार्च 1920 को कोल्हापुर राज्य के मानेगांव के सम्मलेन में छत्रपति शाहू महाराज ने अपने उद्बोधन में कहा था- ‘‘आपको अम्बेडकर के रूप में आपका मुक्तिदात मिल गया है। मुझे विश्वास है कि वह आपकी बेड़ियां तोड़ देंगे। यही नहीं, मेरा अन्तकरण कहता है कि एक समय आएगा, जब अम्बेडकर एक अखिल भारतीय ख्याति और अपील वाले अग्रिम श्रेणी के नेता के रूप में चमकेंगे(रत्तू, पृ. 42)।
गैर-दलितों को दलित के बारे में बात करने का अधिकार नहीं-
मई 1920 के नागपुर सम्मेलन में अम्बेडकर ने बी. आर. शिंदे और उनके ‘डिप्रेस्ड क्लासेज मिशन’ की आलोचना की। अम्बेडकर ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि अगर कोई संस्था गैर-अछूतों की है तो उन्हें अछूतों के हितों के बारे में मांग करने का कोई अधिकार नहीं है (कुबेर, पृ. 15 )। सम्मेलन की अध्यक्षता कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज ने की थी। सम्मेलन के अन्त में पारित प्रस्ताव में कहा गया था कि अछूतों के प्रतिनिधि अछूत समाज में से ही निर्वाचित किए जाए। नागपुर सभा ने भीमराव को एक ऐसा मंच प्रदान किया जिसने लोगों का ध्यान उनकी ओर मोड़ दिया(जाटव, पृ 40  )। अम्बेडकर ने दलित जातियों से अनुरोध किया कि  वे संगठित हो जाए ताकि अन्याय और अत्याचार का  सामना अच्छी तरह किया जा सकें।
कानून और अर्थशास्त्र की पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रस्थान-
डॉ. अम्बेडकर को इस बीच मराठी ज्ञानकोश तैयार करने, सिडनहम कॉलेज की गोष्ठी में निबन्ध पढ़ने आदि के निमंत्रण मिलते रहे(कुबेर, पृ. 16 ) किन्तु उनका ध्यान लंदन में अधूरी रह गई पढ़ाई की ओर जहाँ से उन्होंने अछूतों की दृष्टि को, था। दृढ़ संकल्प हो अम्बेडकर ने लंदन में कानून और अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने प्रस्थान किया।
Image result for ambedkar photoलंदन यूनिवर्सिटी में दाखिला-
सित. 1920 में अम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स एॅण्ड पोलिटिकल साइंस में फिर दाखिला ले लिया और बैरिस्टर की उपाधि प्राप्त करने के लिए ग्रेज इन (Gray's Inn ) में नाम लिखाया(कुबेर, पृ. 16 )।
कोल्हापुर के छत्रापति साहू महाराजा सहायक-
इस संबंध में उनके पारसी मित्र नवल भटेना और कोल्हापुर के छत्रपति साहू महाराजा ने आर्थिक सहायता की(रत्तू. पृ. 32 )। कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहू महाराज(1874-1922 ) छुआछूत मिटाने और दलित वर्गों के कल्याण में गहरी रुचि रखने वाली जानी-मानी एक दूसरी हस्ती थे। वे निम्न वर्गों में शिक्षा का प्रसार करने के लिए हर सम्भव प्रयास करते थे। भीमराव अम्बेडकर का परिचय उनके पाक्षिक अखबार ‘मूकनायक’ के लिए महाराज से मांगी गई आर्थिक सहायता के दौरान हुआ था(रत्तू, पृ. 42 )।
लंदन में नए सिरे से अध्ययन-
लंदन में अम्बेडकर ने नए सिरे से अध्ययन शुरू किए। वे कई पुस्तकालयों के सदस्य बने जैसे लंदन यूनिवर्सिटी जनरल लायब्रेरी, गोल्डस्मिथ लायब्रेरी ऑफ इकानॉमिक्स लिटरेचर, ब्रिटिश म्यूजियम लायब्रेरी तथा दी इण्डिया ऑफिस लायब्रेरी आदि।
पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई-
इन पुस्तकालयों में वे सारे-सारे दिन बैठ पढ़ा करते थे। दिन में भोजन तक के लिए नहीं जाया करते थे। दरअसल भोजन के लिए उनके पास पैसे होते नहीं थे। वे अपना ध्यान अध्ययन में केन्द्रित रखने के उद्देश्य से इधर-उधर की गतिविधियों से अलग ही रहते थे।
एक प्याला चाय और एक टोस्ट-
उन दिनों उन्हें खाने पीने की बड़ी असुविधा और कष्ट रहा। जिस अंग्रेज बुढ़िया के घर में वह पेइंग-गेस्ट रहते थे, वह स्वभाव की तीखी और कंजूस थी। डॉ. साहब को नास्ते में एक प्याला चाय और एक टोस्ट के अलावा खाने को कुछ नहीं मिलता था। उस दौरान उन्हें जितना भूख ने सताया, उसे वह सारा जीवन भूल न सकें (शास्त्री, पृ. 240 )। वे रात-रात भर अध्ययन करते थे। उनके आस-पास क्या हो रहा है, इसका उन्हें होश नहीं होता था। उनका रूम-मेट साथी असनोडकर जो मुम्बई का था,  एक अच्छी नींद के बाद अचानक उठता, वह भीमराव को पढ़ते ही देखा करता था।  तब वह उनसे प्रार्थना करता कि भाई साहब, अब तो सो जाइए; लेकिन डॉ  साहब का निवेदन होता कि गरीबी के कारण, उसके पास इतना समय नहीं है कि वह लन्दन में पड़ा रहे। उसे यथा-शीघ्र अपने अध्ययन का काम पूरा करना है(जाटव, पृ 43 )।
नवल भटेना सदैव मददगार -
यदा-कदा जब-जब  भीमराव को पैसे की कमी होती वह मित्र भटेना को पत्र लिखता और भटेना भी उसकी स्थिति को समझ भरसक सहायता करता था। भटेना, सचमुच एक सच्चा मित्र था।
विदेश में रहकर भी घर-परिवार और समाज की चिन्ता-
विदेश में अध्ययन के दौरान अम्बेडकर लगातार अपने मित्रों के सम्पर्क में रहे। शिवतारकर को लिखे पत्र में अम्बेडकर ने अपने पुत्र यशवंत और भतीजे मुकुंदराव की पढ़ाई के बारे में अपनी चिन्ता जताई थी। निस्संदेह भीमराव उच्च शिक्षा की प्राप्ति में लीन थे; किन्तु वे अपने सामाजिक दायित्व को उसी सिद्दत से महसूस करते थे. लन्दन में आने के बाद, उन्होंने उस समय के भारतीय मामलों के विदेश मंत्री मांटेग से मुलाकात कर भारत में रहने वाले अछूतों की दयनीय स्थिति के बारे में अवगत कराया था। वे वहां रह कर 'मूकनायक' को भी संभालने का प्रयास करते रहे। वे अपने समाज के नेताओं के स्वास्थ्य के  बारे में भी पूछ-ताछ करते रहते थे (जाटव, पृ  43 )।
पत्नी रमा अम्बेडकर( 7 Feb 1898- 27 May 1935) -
कहा जाता है की प्रत्येक महापुरुष की सफलता के पीछे उसकी जीवन संगिनी का बड़ा हाथ होता है। जीवन संगिनी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो शायद, वह व्यक्ति, महापुरुष ही न बने। रमाबाई  जिनको लोग आदर से 'आई साहेब' कहते हैं, इसी कथन का मूर्त रूप था।
रमो-
रमाबाई को भीमराव प्यार से 'रमो' कह कर बुलाते थे। जबकि रमाबाई उन्हें 'साहब' कह कर सम्बोधित करती थी। विवाह के समय वह बिलकुल अनपढ़ थी।  बाद में भीमराव ने उन्हें साधारण पढ़ना-लिखना सीखा दिया था(जाटव, पृ  78  )। परन्तु पति की पढ़ाई में किसी प्रकार की उसकी तरफ से दिक्कत न हो, इसका वह ध्यान रखती थी(मून, पृ. 21)  .
पति भूखा हो और वह भोजन कर ले, उसे मंजूर नहीं -
बाबासाहब पढ़ते समय अकसर अंदर से दवाजा बंद कर देते थे। रमा कई बार जोर-जोर से दरवाजा खटखटाती परन्तु दरवाजा खुलता ही नहीं।  तब, थक हार कर वह लौट आती।  इस चक्कर में वह कई बार भूखे ही रह जाती थी।  पति भूखा हो और वह भोजन कर ले, उसे मंजूर नहीं था।  डा. की सलाह अनुसार बाबासाहब भी रमा से दूरी बना कर ही रहते थे।  कई बार घर नहीं आते थे, आफिस में ही रहते थे।
तंगहाली और अभावों की प्रतीक
रमा के घर-गृहस्थी का जीवन लम्बी आर्थिक तंगी का रहा था।  हृदय के संतोष, मन की उदात्तता और चरित्र की पावनता की प्रतीक रमाबाई ने अभाव और चिन्ताओं के उन प्रारम्भिक मित्र-विहिन दिनों में अपने उन पर आने वाली कठिनाईयों और दुःखों को शांत-चित्त रहते हुए धैर्य के साथ सहन कर लिया। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन घोर गरीबी में काट दिया। उन्होंने रात-दिन अपने पति की सुरक्षा और स्वास्थ्य की चिन्ता की, शनिवारों को केवल पानी और उड़द की दाल ग्रहण करते हुए कठोर उपवास रखे और अपने साहेब के लिए आशिष पाने के उद्देश्य से देवता की पूजा की। वह बोलने में मर्यादित, व्यवहारिक दृष्टिकोण वाली और व्यवहार में उदार थी। उनकी आंखें हमेशा अपने पति पर लगी रहती थी(रत्तू, पृ. 54 )।
इलाज के अभाव में चार बच्चों की मौत-
रमाबाई के तीन संतानें हुई- यशवंत, रमेश और गंगाधर। बड़े पुत्र यशवंत का जन्म 12 दिस. 1912 को हुआ था। रमेश और गंगाधर की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी। आगे चल कर दो संतानें; पुत्री इन्दु और पुत्र राजरत्न  पैदा हुए थे ।  लेकिन दुर्भाग्यवश इन्दु की मृत्यु भी बाल्यावस्था में हो गई थी । माता रमाई का स्वास्थ्य खराब रहने लगा।  इसलिए उन्होंने दोनों पुत्र यशवंत और राजरत्न सहित रमा को वायु परिवर्तन के लिए धारवाड़ भेज दिया। लेकिन सबसे छोटा पुत्र राजरत्न की मृत्यु 19 जुला 1926 को हो गई।
चारों बच्चों की मृत्यु का कारण आर्थिक तंगी थी। तब, डा अम्बेडकर स्वतन्त्र जोविकोपार्जन के काम की तलाश में मारे-मारे फिर रहे थे। जब पेट ही भर न रहा हो तो तो बच्चों की बिमारी के इलाज के लिए पैसे कहाँ से लाते ? रमाबाई बड़े पुत्र यशवन्त नाम के बच्चे के लिए ज्यादह चिन्तित रहती थी क्योंकि वह स्वास्थ्य से कमजोर था
https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/c/c1/Dr_Babasaheb_Ambedkar_standing_near_the_dead_body_of_his_wife_Ramabai.pngबच्चे के कफ़न के लिए माँ रमा ने अपनी साड़ी को फाड़कर कपड़ा दिया था- 
पुत्र गंगाधर की मृत्यु की ह्रदय विदारक घटना का जिक्र करते हुए बाबा साहेब ने अपने मित्र को बतलाया-  'ठीक से इलाज न हो पाने से जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढकने के लिए गली के लोगों ने नया कपड़ा लाने को कहा।  मगर, उनके पास उतने पैसे नहीं थे। तब रमा ने अपनी साड़ी का कपड़ा फाड़कर दिया था। वही कपड़ा मृत देह को ओढ़ाकर श्मशान घाट ले गए थे।
तीन परिवारों की जिम्मेदारी-
रामजी सकपाल के परिवार में भीमराव के दो बड़े भाई आनंद राव, बलराम तथा  तुलसा और मंजुला दो बहने थी. बालाराम की पत्नी का नाम लक्षी था। मुकुंदराव, बालाराम का पुत्र था। रमा की बड़ी बहन गौरा, छोटा भाई शंकर, विधवा जेठानी लक्ष्मी और उसका पुत्र मुकुंदरॉव साथ में ही रहते थे। शंकर कपड़ा  मिल में मजदूरी करता था
गरीबी और अभावों की जिन्दगी में रमाबाई को अपने बच्चों के साथ अकसर भूखों रहना पड़ता था। रमाबाई के भाई शंकरराव और उनकी छोटी बहन गौरा मजदूरी से 8 से 10 आने प्रतिदिन कमा पाते थे। इससे बमुश्किल उनके घर का खर्च चलता था(मून, पृ  25 )। रमा को अपने जेठ के परिवार की भी पूर्ति करनी होती थी।
अपने गहने बेंच डालो-
बाबा साहब डा अम्बेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने अकेले ही बहुत आर्थिक विपन्नता के दिनों का सामना किया।  जब इन परिस्थितियों को रमाबाई ने अम्बेडकर को अवगत कराया तो उन्होंने रमाबाई से कहा कि मैं भी यहां भूखा रहता हूं। क्योंकि मेरे पास पैसे नहीं हैं। फिर भी जो कुछ मेरे पास है,  भेज रहा हूं। अगर तुम इसे समय पर प्राप्त न कर सको तो अपने गहने बेंच डालो। जब मैं आऊंगा तो उन आभूषणों को बदल दूंगा। उनके कई प्रशंसकों ने रमाबाई को सहायता के प्रस्ताव किए लेकिन उन्होंने कोई मदद नहीं ली(मून, पृ. 25 )।
रमा के साथ साथ अनाथ और असहाय सात करोड़ अछूतों की भी चिंता -
रमा का स्वास्थ्य लगातार गिर रहा था।  उधर डा. अम्बेडकर, अपने कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने के  कारण रमाबाई और घर पर ध्यान नहीं दे पाते थे।  एक दिन उनके पारिवारिक मित्र उपशाम गुरूजी से रमाताई ने दुखड़ा सुनाया।  गुरूजी ने अम्बेडकर को यह बात बताई तो उन्हें बहुत दुःख हुआ।  पुस्तक से ध्यान हटाते बाबासाहब ने कहा -रमो के इलाज के लिए मैंने अच्छे डाक्टरों और दवा की व्यवस्था की है। दवा आदि देने के लिए उनके पास उनका लड़का, मेरा भतीजा और उनका अपना भाई भी हैं। फिर भी वह चाहती है कि मैं उनके पास बैठा रहूं।  यह कैसे संभव है ? मेरी पत्नी की बिमारी के अलावा इस देश के सात करोड़ अछूत हैं, जो उनसे भी ज्यादा सदियों से बीमार हैं। वे अनाथ और असहाय हैं. उनकी देख भाल करने वाला कोई नहीं है।  मुझे रमा के साथ-साथ उनकी भी चिंता है। रमा को इस बात का ध्यान रखना चाहिए।  और यह कह कर उनका गला भर आया था ।
पुत्र यशवंत से नाखुश -
डॉ साहब की एकमात्र संतान यशवंतराव अम्बेडकर जीवित रहे। डा साहब, पुत्र यशवंत से खुश नहीं थे क्योंकि उसने न तो ऊँची शिक्षा प्राप्त की और न ही जीविकोपार्जन के लिए कोई धंधा शुरू किया था (जाटव, पृ  79 )।
'थॉट्स ऑफ़ पकिस्तान' रमो को समर्पित -
 दिस 1940 में लिखी अपनी पुस्तक  'थॉट्स ऑफ़ पाकिस्तान ' डा अम्बेडकर ने अपनी पत्नी 'रमो' को समर्पित किया था- मैं यह पुस्तक रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख को झेलने में, अभाव और परेशानी के दिनों में जबकि हमारा कोई सहायक नहीं था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरूप भेट करता हूँ।
लंदन विश्वविद्यालय से एम. एस. सी.-
जून 1921 में लंदन विश्वविद्यालय ने डॉ. अम्बेडकर की थीसिस स्वीकार कर ली गई।  एम. एस. सी.(अर्थशास्त्र ) की डिग्री के लिए इस थीसिस का विषय था- ‘प्रोविंशियल डिसेन्ट्रलाइजेशन ऑफ इम्पीरियल फॉइनेंस इन ब्रिटिश इण्डिया’(Provincial Decentralization of Imperial Finance in British India)(कुबेर, पृ. 16)।
बॉन विश्वविद्यालय(जर्मन)-
सन् 1922-23 के दौरान डॉ. अम्बेडकर ने यूरोप के प्रसिद्द शिक्षा केंद्र बॉन विश्वविद्यालय(जर्मनी ) में कुछ महिनों तक अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। यहाँ उन्होंने जर्मन और फ्रेंच भाषाएं भी सीखी।
लन्दन यूनिवर्सिटी से डी.  एस.  सी. -
डी. एस. सी. (अर्थशास्त्र ) के लिए उन्होंने मार्च 1923 में अपनी थीसिस ‘दी प्रॉब्लम ऑफ दी रूपी; इट्स ओरिजन एण्ड इट्स सोल्यूशन’(The Problem of the Rupee; Its Origin And its Solution) प्रस्तुत की। इस पुस्तक की भूमिका प्रो. एडविन कैनन द्वारा लिखी गई(कुबेर, पृ  16 )। प्रो कैनन वैसे कई बातों से सहमत नहीं थे किन्तु ग्रन्थ की उन्होंने प्रशंसा की क्योंकि उसमे विचार एवं दृष्टिकोण की ताजगी थी जो सामयिक रूप से महत्वपूर्ण थी। भीमराव ने इस ग्रन्थ को अपने माता-पिता को समर्पित किया था। (जाटव, पृ  45 )। इस पुस्तक का पुनर्प्रकाशन मई 1947 में बम्बई की ठाकर एण्ड कम्पनी ने ‘हिस्टरी ऑफ इण्डियन करेंसी एण्ड बैंकिंग खण्ड-1’ (History of Indian currency And Banking, Part 1) नाम से किया था(कुबेर, पृ. 16 )।
Related imageबार-एट-लॉ. के सदस्य-
डॉ. अम्बेडकर अप्रेल 1923 में बार के सदस्य बनाए गए(कुबेर, पृ. 16 )। उन्होंने इसके लिए 'ग्रे-इन (Gray's  Inn ) में अक्टू  1916 में दाखिला लिया था।
शैक्षणिक उच्चत्तम डिग्रियों से लैस-
अब डॉ  अम्बेडकर शिक्षा की दृष्टि से पूर्णत: परिपक्व हो गए थे। उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एम.  ए., पी.  एच.  डी. , लन्दन यूनिवर्सिटी से एम. एस.  सी. ,  डी. एस. सी.  और ग्रेज-इन से  बार-एट-लॉ की डिग्रियां प्राप्त कर लीं। अब वे दलितों की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनितिक समस्याओं पर अधिकार पूर्वक विचार कर सकते थे और उनका मार्ग दर्शन भी कर सकते थे। अत: अब उनका ध्यान  वकालत द्वारा परिवार के भरण पोषण एवं समाज-सुधार की ओर गया(जाटव, पृ 45 )।
शिक्षा के प्रति डॉ  अम्बेडकर की आधिकारिक सोच  -
उच्चत्तम शैक्षणिक डिग्रियों से लैस डॉ आंबेडकर ने शिक्षा को समाज की उन्नति के लिए आवश्यक बताया ।  फर. 27,  1927 को बम्बई लेजिस्लेटिव कौंसिल में अम्बेडकर ने कहा- शिक्षा एक ऐसी वस्तु है जो प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचना चाहिए। शिक्षा सस्ती से सस्ती हो ताकि निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी शिक्षा ग्रहण कर सकें(डॉ अगनेलाल: डॉ अम्बेडकर, व्यक्तित्व एवं कृतित्व;  पृ  111 )।  जुला. 27,  1927  को उसी लेजिस्लेटिव कौंसिल में डॉ अम्बेडकर ने मांग की थी कि विश्वविद्यालय की सीनेट(कार्यकारिणी परिषद) में पिछड़े वर्ग को प्रतिनिधित्व दिया जाए। सनद रहे , के एम  मुंशी आदि ने अम्बेडकर की इस मांग का विरोध किया था(वही,  पृ  115 )। एक और अवसर पर अम्बेडकर ने कहा- जो अध्यापक यह प्रचार करते हैं कि अछूत तो केवल सेवा करने के लिए पैदा हुए हैं और शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार एक वर्ग विशेष का है, उन्हें शिक्षा विभाग में भर्ती नहीं किया जाना चाहिए(वही पृ  117 )।
नौकरी के अनेक ऑफर किन्तु समाज सुधार प्राथमिकता-
लन्दन से आने के बाद यद्यपि अम्बेडकर को सरकार की तरफ से डिस्ट्रिक्ट जज, एल्फिंस्टन कालेज में प्रोफेसर का पद आदि के ऑफर मिले थे किन्तु वे ऐसी नौकरी नहीं करना चाहते थे जिससे समाज सुधार के आंदोलन में बाधा उत्पन्न हो।
परल की इम्प्रूव्हमेंट ट्रस्ट चाल में कोठरीनुमा दफ्तर-
विद्यार्थी काल में अम्बेडकर का परिवार परल की इम्प्रूव्हमेंट ट्रस्ट चाल न. 1 में रहता था। प्रोफ़ेसर और बैरिस्टर बनने के पश्चात भी वह इसी चाल में निवास करते थे। पास की ही एक बिल्डिंग में, जो बॉम्बे की सोशल सर्विस लीग की थी, भीमराव का एक छोटे से कमरे में आफिस था। बड़े-बड़े लोग उनसे मिलने वहां आया करते थे।  एक दिन कोल्हापुर के महाराजा यों  ही अचानक आ टपके। अचानक महाराजा को सामने देख भीमराव सिटपिटा गए।  इसी तरह एक दिन मुस्लिम नेता मौलाना शौकत अली भी एकाएक उनके इस कमरे में आ गए थे(जाटव, पृ  50 )।
हाई कोर्ट और डिस्ट्रिक कोर्ट में प्रेक्टिस-
एक बैरिस्टर के रूप में डॉ. अम्बेडकर ने जुला. 1923 में हाई कोर्ट बाम्बे में मामलों में पैरवी करने की प्रेक्टिस   प्रारम्भ की थी। यद्यपि उनकी जाति के कारण अन्य सॉलिसिटर उन्हें को-ऑपरेट नहीं करते थे। उन्होंने डिस्ट्रिक कोर्ट का भी सहारा लिया था(मून, पृ. 26 )। वकालत के प्रारम्भिक दिनों में अम्बेडकर ने बड़े बुरे दिन देखे। अन्य साथी वकील ऐसा वातावरण पैदा करते थे कि कोई मुवक्किल उनके पास नहीं आता था।  कोर्ट में बैठने उन्हें कुर्सी भी नहीं मिलती थी। उनके पास ऐसे मुकदमे आते थे जिसे दूसरे वकील लड़ना पसंद नहीं करते थे।
अदालती मुकदमों की महत्वपूर्ण तिथि -
इसी बीच कुछ मुकदमे उनके पास ऐसे आए जिससे उनकी वकालत चमक उठी।  पूना के कुछ ब्राह्मणों ने तीन गैर ब्राह्मण नेताओं बागड़े, जेधे तथा जवालकर पर मुकदमा दायर किया कि उन्होंने एक पर्चा प्रकाशित करवा कर, जिसमें लिखा है कि ब्राह्मणों ने भारत को तबाह कर दिया, ब्राह्मण समाज का अपमान किया है। मुकदमा सेशन जज के सामने आया। अम्बेडकर ने बड़ी योग्यता पूर्वक अभियुक्तों की वकालत की और मुकदमे में विजयी हुए( (जाटव, पृ 49 )। अक्टू  1926, भारतीय अदालती मुकदमों के इतिहास की महत्त्वपूर्ण तिथि है। महत्वपूर्ण इसलिए कि बैरिस्टर अम्बेडकर ने कोर्ट में यह साबित कर दिया कि ब्राह्मणों ने भारत को तबाह कर दिया; कहना ब्राह्मण का अपमान नहीं है। यह और इस तरह के मुकदमों ने बैरिस्टर डॉ. भीमराव अम्बेडकर  को बॉम्बे हाई कोर्ट में पिछली कतार से प्रथम कतार में ला  कर खड़ा कर दिया ।
फांसी से छुड़वाया-
मुकदमे की एक और घटना रोचक है। एक दिन एक व्यक्ति बैरिस्टर अम्बेडकर को ढूंढते हुए उनके घर आ पहुंचा।  अम्बेडकर को देख वह व्यक्ति रोने लगा।  उस व्यक्ति ने बतलाया कि उसे सेशन जज द्वारा फांसी सुनाई जा चुकी है। कोई वकील उसकी पैरवी नहीं कर रहा है।  वे कहते हैं कि इस मुकदमे में कोई जान नहीं है । डॉ अम्बेडकर ने ध्यान से सुना और उन्हें लगा कि उसे बचाया जा सकता है। अम्बेडकर ने उस मुकदमे को चैलेंज के रूप में लिया। कई पेशियाँ हुई। अम्बेडकर के तर्क सुन जज प्रभावित हुए।  जिस में कोई दम नहीं था, उसे अम्बेडकर ने जीत कर दिखाया।  हाई कोर्ट के वकील और जज चकित रह गए (जाटव, पृ 50 )।
अप्रकाशित ग्रन्थ -
अर्थशास्त्र भीमराव अम्बेडकर का प्रिय विषय था। उन्होंने दो पुस्तकें- ‘स्टडीज इन हिस्टरी’(Studies in History) और इकानॉमिक्स इन पब्लिक लॉइफ’ (Economics in Public Life) पर काम भी किया था। किन्तु वे प्रकाशित न हो पाई (मून, पृ. 26 )।
अंशकालिक लेक्चरार -
जिन दिनों वकालत अच्छी नहीं चल रही थी और समाज सुधार कार्यों में अधिक समय व्यतीत हो रहा था, उन दिनों डॉ अम्बेडकर  'बाटलीबॉयज एकाउंटेंसी ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट बम्बई' में अंशकालिक लेक्चरार के तौर पर जून 1925 से मार्च 1928 तक कार्य करते रहे थे (जाटव, पृ  46 )।  
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में सम्मान-
जून 1, 1952 को कोलम्बिया यूनिवर्सिटी ने अपने एक विशेष दीक्षांत समारोह में अम्बेडकर को डॉक्टर ऑफ लॉज की मानद उपाधि से विभूषित किया और उन्हें ‘संविधान का निर्माता, मंत्रिमंडल तथा राज्य परिषद(काउंसिल ऑफ स्टेट्स ) का सदस्य, भारत का एक अग्रणी नागरिक, एक महान समाज सुधारक और मानव अधिकारों का एक साहसी समर्थक’ बताया(रत्तू पृ. 25 )
डॉक्टर  ऑफ लिट्रेचर(एल. एल. डी.)- सन 1952 में  कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने अम्बेडकर को डॉक्टर  ऑफ लिट्रेचर(एल. एल. डी.) की उपाधि प्रदान की। 
उस्मानिया हैदराबाद द्वारा डी. लिट.-
12 जन. 1953 को उस्मानिया यूनिवर्सिटी हैदराबाद दकन ने उनकी विशिष्ट स्थिति और उपलब्धियों के लिए डॉ. अम्बेडकर को डी. लिट. की मानद उपाधी प्रदान की(रत्तू. पृ. 25 )।
इंग्लैंड और अमेरिका में प्राप्त शिक्षा का प्रभाव-
लंदन और अमेरिका में शिक्षा प्राप्त कर डॉ. अम्बेडकर को समझ आ गया कि भारत की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों पर पश्चिम, अपने प्रभाव का असर छोड़ता जा रहा है। उन्होंने जान लिया था कि पाश्चात्य प्रणालियों के प्रभाव से ही अछूत अपनी जंजीरें तोड़ सकते हैं(कुबेर, पृ. 19 )। अम्बेडकर पर अमेरिका और ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में प्रचलित लोकतान्त्रिक परम्पराओं और संविधानवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। राज्य के द्वारा शक्ति के प्रयोग की मर्यादाओं, मानवीय अधिकारों तथा उनके लिए संरक्षण के विधिक उपचारों की व्यवस्था, विधि का शासन आदि के प्रति आस्था अम्बेडकर की कार्यशैली का एक अंग बन गई(डॉ महेश नारायण निगम : भारतरत्न डॉ. अम्बेडकर; व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ  10 )।  
जाति-व्यवस्था के विरुद्ध खुला युद्ध-
विद्यार्थी-काल से ही हिन्दू समाज के अन्याय के विरुद्ध डॉ. अम्बेडकर अपने मित्रों से पत्र-व्यवहार में रोष प्रगट करते रहे। कभी-कभी अपने मित्र-मण्डल में उन्होंने हिन्दुओं की इस मनोवृति पर अपने क्रान्तिकारी उद्गारों के जरिए शास्त्रार्थ किए। कई पत्र-पत्रिकाओं में अछूतों पर किए जा रहे अमानवीय व्यवहारों के विषय में लेखों द्वारा अपना आक्रोश प्रगट किया और कभी-कभी क्रियात्मक रूप में भी इस अमानवीय बर्ताव के विरुद्ध आवाज उठाई। डॉ. साहब सन् 1924 में इन सामाजिक अत्याचारों के विरुद्ध  खुले तौर पर युद्ध करने इस क्षेत्र में कूद पड़े(शंकरानन्द शास्त्री, पृ. 241 )।
बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना -
20 जुला 1924 को 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की स्थापना कर डॉ अम्बेडकर ने  इस धर्म-युद्ध का शंख नाद किया।
-अ. ला. ऊके
फॉरचुन सोम्या हेरिटेज, होशंगाबाद रोड़, भोपाल
सम्पर्क- 96 30 826 117
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संदर्भित ग्रंथ-
1. बाबासाहेब और उनके संस्मरणः मोहनदास नैमिशराय। संगीता प्रका. दिल्ली; संस्करण- 1992
2. बाबासाहेब का जीवन संघर्षः चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु। बहुजन कल्याण प्रका. लखनऊ;संस्करण- 1961-82
3. आधुनिक भारत के निर्माताः भीमराव अम्बेडकरः डब्लू. एन. कुबेर। प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार नई दिल्ली; संस्करण- 1981
4. डॉ. अम्बेडकरः लॉइफ एॅण्ड मिशनः धनंजय कीर। पॉपुलर प्रका. बाम्बे, संस्करण- 1954- 87
5. डॉ. अम्बेडकर; कुछ अनछुए प्रसंगः नानकचन्द रत्तू। सम्यक प्रका. दिल्ली, संस्करण- 2003-16.
6. बाबासाहेब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के सम्पर्क में 25 वर्षः सोहनलाल शास्त्री बी. ए.। सिद्धार्थ साहित्य सदन दिल्ली, संस्करण 1975।
7. डॉ. बाबासाहब अम्बेडकरः वसन्त मून। अनुवा.- आशा दामले। नेशनल बुक टस्ट इण्डिया। संस्करण- 2002
8. डॉ.  बी. आर. आंबेडकर: व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ.  15  ; डॉ. डी.  आर. जाटव। समता साहित्य सदन , जयपुर (राज. ) संस्करण 1984
9. भारतरत्न डॉ. अम्बेडकर , व्यक्तित्व एवं कृतित्व।  सम्पादक डॉ रामबच्चन राव, सागर प्रकाशन मैनपुरी , संस्करण-1993    

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