सद्गुरु कबीर ज्ञानपीठ; बैनगंगा संगम बपेरा (महा.)
मेरी तीन ख्वाहिशें रही है-1 . कि मेरे गावं सालेबर्डी में बुद्ध विहार हो।
2 . कि बपेरा में गुरूजी ने जिस आश्रम की स्थापना की है, वह सामाजिक समरसता का केंद्र हो ।
3 . कि मेरे बड़े लड़के राहुल के नाम से स्कॉलरशिप हो जो किसी दलित समाज के बच्चे को आई आई टी या समकक्ष एकेडेमिक क्वॉलिफिकेशन प्राप्त करने स्पॉन्सर करे।
पहली ख्वाहिश ने तो मूर्त रूप ले लिया है। अब रही दूसरी ख्वाहिश की बात तो इस दिशा में प्रयास जारी है।
बात तब की है, जब मैं 4/ 5 वीं में पढ़ रहा होगा। बपेरा (महा.) के महंत बालकदास साहेब हमारे गावं सालेबर्डी आए हुए थे। बालकदास साहेब तब, उस क्षेत्र में एक बड़े संत के रूप में जाने जाते थे। कबीर पंथ के महंत कटंगी के गुरु ज्ञानदास साहेब के उत्तराधिकारी के तौर पर तब, उनकी बड़ी चर्चा थी।
हमारे यहाँ संत-महात्माओं को बड़े आदर की दृष्टी से देखा जाता है। समाज में संत-महात्माओं के प्रति आदर की यह भावना ही है कि लोग गुरु की शरण जाते हैं। और फिर, संतों की रहनी -गहनी भी तो आम लोगों से श्रेष्ठ होती है। उनका चरित्र समाज में मिशाल का काम करता है। दूसरी ओर, महंत भी इस प्रयास में होते हैं कि अधिक से अधिक लोग इस श्रेष्ठ समाज का अंग बने। इसके लिए वे लोगों की रूचि देख कर योग्य आम जन को शिष्य बनाते हैं।
लगता है, पिताजी को यह निर्णय लेना पड़ा कि उन्हें उस श्रेष्ठ समाज का हिस्सा होना चाहिए। उधर, बालकदास साहेब की भी कृपा हुई। उन्होंने पिताजी से कहा कि 'काल करे सो आज कर , आज करे सो अब--।' पिताजी ने घर पर आ कर अपने मन की बात बताई। माँ को भला इस में क्या आपत्ति हो सकती थी ? पिताजी ने हम दोनों भाइयों से पूछा था कि क्या हम उस में सम्मिलित हो रहे हैं ? हम ने अपनी स्वीकृति दी थी। मगर, मुझे ध्यान नहीं कि बहनों से भी पूछा गया हो ?
गुरूजी का मुझ पर काफी कर्ज था और मुझे हमेशा फ़िक्र रही थी कि मैं इस दिशा में कुछ करूँ। सन 1992 में प्रकाशित 'साक्षात्कार ' ग्रन्थ जो गुरूजी पर केंद्रित था, मेरी उसी कर्ज से उऋण होने की कोशिश थी।
गुरूजी मुझे बेहद चाहते थे। वे कभी मुझे अपना प्रमुख शिष्य बतलाते तो कभी कहते कि उनकी गद्दी का वारिश तो अमृत है, वह चाहे जो करे। मैं कबीर पंथ को लेकर प्राय: असमंजस में रहा हूँ। तमाम विरोधों के बावजूद कबीर पंथ जाने क्यों हिंदुइज्म से अलग स्थापित नहीं हो सका है। वह हिंदुइज्म का एक सम्प्रदाय बन कर रह गया है। अभिलाषदास साहेब जैसे विद्वान् लेखक और विचारक कबीर का अध्ययन उस तरह नहीं कर सके जैसे डॉ आंबेडकर ने बुद्ध का किया ?
खैर , कबीर के प्रति अपनी तमाम सदाशयता के बावजूद उसे आगे ले जाने मैं तैयार नहीं था जिस रूप में वह लोगों के बीच अवस्थित है। और फिर मैं, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की धम्म-देशना के विपरीत कैसे जा सकता था ? मगर , दूसरी तरफ, गुरूजी की जो सामाजिक समरसता की भूमिका है , उसे आगे बढ़ाना उतना ही जरुरी मैं आज भी समझता हूँ। नि:संदेह गुरूजी सामाजिक समरसता के लिए जाने जाते थे।
गुरूजी ने बपेरा(महा.) में एक आश्रम की स्थापना की थी। बपेरा , गुरूजी का जन्म स्थान है। गुरूजी का आश्रम बहुत ही सुन्दर जगह बना है। यह बैनगंगा और बावनथड़ी दो नदियों के ठीक संगम तट पर है। आश्रम स्थल से यह संगम का विस्तृत नजारा बड़ा ही मोहक लगता है। आश्रम से बपेरा गावं करीब एक कि मी की दूरी पर है। खेतों के बाद आश्रम और आश्रम के बाद जंगल लगता है। गुरूजी ने आश्रम के लिए जिस स्थल का चुनाव किया है , वाकई अद्भुत है।
आश्रम का नाम 'सद्गुरु कबीर ज्ञानपीठ; बैनगंगा संगम बपेरा (रजि. क्र 127 /96 ) है। गुरूजी के समय से ही यहाँ साल में दो बार संत-समागम के कार्यक्रम होते हैं । पहला कार्यक्रम कार्तिक पूर्णिमा को और दूसरा मकर संक्रांति को होता है। कार्यक्रम में संत, प्रवचनकार , कीर्तनकार और भजन मंडळी को आमंत्रित किया जाता है। कीर्तन /प्रवचन के बाद महाप्रसाद (भोजन दान ) होता है।
पिछली मर्तबा महंत कुमार साहेब (छति. ) की उपस्थिति में तय हुआ था कि आयोजन समिति में युवा साथी हो। महंत साखरे साहेब (कटंगी ) को साथ ले कर इस वर्ष मकर संक्रांति ( जन. 14 , 2014 ) का कार्यक्रम आयोजित किया गया। महंत सुबोध साहेब (लोधी खेड़ा) और धुन्दीलाल साहेब का सहयोग बराबर मिलता रहा है, इस बार भी मिला। पूरा कार्यक्रम बेहद उत्साहवर्धक रहा।
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