सध्दम्मपुण्डरिक
‘पुण्डरिक’ का अर्थ है, ‘कमल का फूल’। सद्धम्मपुण्डरिक को ‘सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र’ भी कहा जाता है। सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र को बुद्ध के करुणा और शांति का दूत कहा जाता है। वह बुद्ध को, जो ऐतिहासिक महापुरुस हैं, अलौकिक और लोकोत्तर बतलाता है।
यह महायानी ग्रंथ है। महायान परम्परा में ‘वैपूल्य-सूत्र’ का बड़ा महत्व है। ‘वैपुल्य’ का अर्थ है, ‘विपुलता’। महायानी विचारधारा में इन वैपुल्य-सूत्र ग्रंथों को पवित्र समझा जाता है, उन्हें पूजा जाता है। इस वैपूल्य-सूत्र में नौ ग्रंथ आते हैं- प्रज्ञा-पारमिता सूत्र, सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र, ललितविस्तर, लंकावतार -सूत्र, सुवर्णप्रभास-सूत्र, गण्डव्यूह-सूत्र, तथागत गुह्य-सूत्र, समाधिराज-सूत्र और दसभूमिक-सूत्र।
सद्धम्मपुण्डरिक के रचयिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। यह ईसा की पहली सदी का प्रतीत होता है। यद्यपि इस ग्रंथ की रचना भारत में हुई थी, किन्तु यह अन्य बौद्ध-ग्रंथों की तरह भारत से लुप्त हो गया था। किन्तु भारत के बाहर चीन, तिब्बत, नेपाल, भूटान, जापान, ताईवान, मंगोलिया आदि देसों में इसके अनुवाद प्राप्त हुए हैं।
ग्रन्थ की भासा पालि-संस्कृत है। इस ग्रंथ में, निदान, उपाय कोसल, आदि कुल 27 परिवर्त अर्थात अध्याय हैं।
सद्धम्मपुण्डरिक का चीनी अनुवाद 223 ईस्वी में प्राप्त हुआ था। चीन में, वसूबन्धु कृत ‘सद्धम्मपुण्डरिक-टीका’ 508 ईस्वी में प्राप्त होने का उल्लेख है। जापान में सद्धम्मपुण्डरिक पर टीका वहां के राजपुत्र सी-तोकु-ताय द्वारा 615 ईस्वी में लिखी गई थी। जापानी बौद्ध भिक्खु फयूजी गुरूजी ने प्रथम च द्वितीय विश्व युद्ध की त्रासदी को देखकर ही जापान, भारत सहित दुनिया के कई देशों में ‘विश्व शांति-स्तूपों’ का निर्माण किया है। फयूजी गुरूजी के इन कार्यों के मूल में सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र ही रहा है।
सद्धम्मपुण्डरिक सूत्र का धार्मिक महत्व ही नहीं है, वरन इस ग्रंथ का सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्व भी है। यही नहीं, इसमें अंक गणितीय और औसधि-विज्ञान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां हैं।
‘एव मया सुतं’ अर्थात ‘ऐसा मैंने सुना’ से सद्धम्मपुण्डरिक का प्रत्येक सूत्र आरम्भ होता है। ग्रंथ में बोधिसत्व जीवन तथा बुद्धत्व प्राप्ति के महत्व का वर्णन है। इसमें दुक्ख, दुक्ख से मुक्त होने का मार्ग आदि बौद्ध-संकल्पनाओं को समझाया गया है। यदि कोई व्यक्ति मुसीबत में उलझ गया तो किस तरह से रास्ता निकाला जाए और समस्या हल हो, इसे ग्रंथ के दूसरे परिवर्त ‘उपाय कौशल्य’ में बतलाया गया है(स्रोत- प्रस्तावनाः सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्राः प्रो. डॉ. विमलकीर्ति) ।
सद्धर्म पुंडरिक सूत्र के पंद्रहवे परिवर्त में आया है - 'असंख्य कल्प पहले ही बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त कर लिया था। उनकी आयु अपरिमित है तथा उन्होंने वस्तुत: अभी परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं किया है। अथवा यह कहा जाए कि उन्होंने संसार और परिनिर्वाण के भेद से व्यतीत सत्य का साक्षात्कार किया है। तथापि वे नाना रूपों में प्रकट हो कर लोक-हिट के लिए उपदेश करते हैं(डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय, पृ 351 )।
‘पुण्डरिक’ का अर्थ है, ‘कमल का फूल’। सद्धम्मपुण्डरिक को ‘सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र’ भी कहा जाता है। सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र को बुद्ध के करुणा और शांति का दूत कहा जाता है। वह बुद्ध को, जो ऐतिहासिक महापुरुस हैं, अलौकिक और लोकोत्तर बतलाता है।
यह महायानी ग्रंथ है। महायान परम्परा में ‘वैपूल्य-सूत्र’ का बड़ा महत्व है। ‘वैपुल्य’ का अर्थ है, ‘विपुलता’। महायानी विचारधारा में इन वैपुल्य-सूत्र ग्रंथों को पवित्र समझा जाता है, उन्हें पूजा जाता है। इस वैपूल्य-सूत्र में नौ ग्रंथ आते हैं- प्रज्ञा-पारमिता सूत्र, सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र, ललितविस्तर, लंकावतार -सूत्र, सुवर्णप्रभास-सूत्र, गण्डव्यूह-सूत्र, तथागत गुह्य-सूत्र, समाधिराज-सूत्र और दसभूमिक-सूत्र।
सद्धम्मपुण्डरिक के रचयिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। यह ईसा की पहली सदी का प्रतीत होता है। यद्यपि इस ग्रंथ की रचना भारत में हुई थी, किन्तु यह अन्य बौद्ध-ग्रंथों की तरह भारत से लुप्त हो गया था। किन्तु भारत के बाहर चीन, तिब्बत, नेपाल, भूटान, जापान, ताईवान, मंगोलिया आदि देसों में इसके अनुवाद प्राप्त हुए हैं।
ग्रन्थ की भासा पालि-संस्कृत है। इस ग्रंथ में, निदान, उपाय कोसल, आदि कुल 27 परिवर्त अर्थात अध्याय हैं।
सद्धम्मपुण्डरिक का चीनी अनुवाद 223 ईस्वी में प्राप्त हुआ था। चीन में, वसूबन्धु कृत ‘सद्धम्मपुण्डरिक-टीका’ 508 ईस्वी में प्राप्त होने का उल्लेख है। जापान में सद्धम्मपुण्डरिक पर टीका वहां के राजपुत्र सी-तोकु-ताय द्वारा 615 ईस्वी में लिखी गई थी। जापानी बौद्ध भिक्खु फयूजी गुरूजी ने प्रथम च द्वितीय विश्व युद्ध की त्रासदी को देखकर ही जापान, भारत सहित दुनिया के कई देशों में ‘विश्व शांति-स्तूपों’ का निर्माण किया है। फयूजी गुरूजी के इन कार्यों के मूल में सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्र ही रहा है।
सद्धम्मपुण्डरिक सूत्र का धार्मिक महत्व ही नहीं है, वरन इस ग्रंथ का सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्व भी है। यही नहीं, इसमें अंक गणितीय और औसधि-विज्ञान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां हैं।
‘एव मया सुतं’ अर्थात ‘ऐसा मैंने सुना’ से सद्धम्मपुण्डरिक का प्रत्येक सूत्र आरम्भ होता है। ग्रंथ में बोधिसत्व जीवन तथा बुद्धत्व प्राप्ति के महत्व का वर्णन है। इसमें दुक्ख, दुक्ख से मुक्त होने का मार्ग आदि बौद्ध-संकल्पनाओं को समझाया गया है। यदि कोई व्यक्ति मुसीबत में उलझ गया तो किस तरह से रास्ता निकाला जाए और समस्या हल हो, इसे ग्रंथ के दूसरे परिवर्त ‘उपाय कौशल्य’ में बतलाया गया है(स्रोत- प्रस्तावनाः सद्धम्मपुण्डरिक-सूत्राः प्रो. डॉ. विमलकीर्ति) ।
सद्धर्म पुंडरिक सूत्र के पंद्रहवे परिवर्त में आया है - 'असंख्य कल्प पहले ही बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त कर लिया था। उनकी आयु अपरिमित है तथा उन्होंने वस्तुत: अभी परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं किया है। अथवा यह कहा जाए कि उन्होंने संसार और परिनिर्वाण के भेद से व्यतीत सत्य का साक्षात्कार किया है। तथापि वे नाना रूपों में प्रकट हो कर लोक-हिट के लिए उपदेश करते हैं(डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय, पृ 351 )।
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