Friday, May 25, 2018

ईत्चिंग( 635-713 ईसवीं )

 ईत्सिंग का जन्म  635 ईसवीं में चीन के चो-शांग (ची-ली प्रांत) में हुआ था । वह सिर्फ  14 वर्ष की आयु में  सामनेर बन गया था। ईस्वी 713 में 79 वर्ष की उम्र में वे परिनिब्बुत्त हुए थे। 

इत्सिंग चीनी यात्री ह्वेन-सांग की भारत यात्रा से बहुत प्रभावित थे। तब, चीन के यात्री भारत आया करते थे। ईत्चिंग भी इन्हीं के एक दल में शामिल हो गए और कांतन में जहाज पकड़ कर दक्षिण के सामुद्रिक मार्ग से उस समय के बौद्ध धर्म केंद्र सुमात्रा (श्रीविजय) पहुंचे। सुमात्रा में कुछ महिने ठहर कर वे ईस्वी 673 में ताम्रलिपि (बंगाल) पहुंचे। भारत पहुँच कर इत्सिंग ने यहाँ कई तीर्थ-स्थानों की यात्रा की। यद्यपि उनका अधिक समय नालन्दा में विद्या-अध्ययन में बिता। 

ईत्चिंग ने अपनी 25 वर्षों की यात्रा में करीब 130 देशों की यात्रा की।  उसने 25 में से 19 वर्ष (ईस्वी 671-90) भारत, गान्धार और कश्मीर में बिताए थे।
   
ईत्चिंग ईस्वी 685 में तामलपि से चलकर सिंहल में कई वर्ष बिताने के बाद ईस्वीं  689 में सुमात्रा पहुंचे। वहां 6 वर्ष रह कर उन्होंने अध्ययन और अनुवाद का कार्य किया और ईस्वी 695 में वे स्वदेश लौटे। सुमात्रा उस समय संस्कृत का केन्द्र था।  वहां बहुत से संस्कृत के विद्वान भिक्खु रहते थे। ईस्वी 695 में जब ईत्चिंग चीन लौटे, वे अपने साथ 400 संस्कृत ग्रंथ और वज्रासन विहार(बुध्दगया महाबोधिविहार) का एक नमूना ले गए थे।

ईत्चिंग ने 1200 शब्दों का एक संस्कृत कोश बनाया। उसने पहले शिक्षानन्द के साथ और फिर स्वतंत्र रूप से अनुवाद भी किए थे। उनके अनुवादित 56 ग्रंथ हैं।

ईत्चिंग की भारत यात्रा का प्रयोजन विनय का संग्रह था। उसने मूलसर्वास्तिवादी पिटक का चीनी अनुवाद किया। चीनी त्रिपिटक में इसकी 12 जिल्दें हैं। इसी तरह तिब्बति त्रिपिटक में भी इसकी इतनी ही जिल्दें हैं। इसके अनुवाद में ईत्चिंग की अध्यक्षता में 54 विद्वान 7 वर्ष (ईस्वी 703-10)तक लगे रहे थेे। विनयपिटक के अतिरिक्त ईत्चिंग ने जिनमित्र द्वारा रचित मूलसर्वास्तिवाद विनयसंग्रह और विशाख का मूलसर्वास्तिवाद निकाय विनयगाथा का भी अनुवाद किया। उन्होंने इस विषय पर दो स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे हैं। ईत्चिंग के अनुवादों में एक छोटा-सा ग्रंथ अध्यर्धशतक है, जिसे कनिष्क कालीन आचार्य मातृचेट ने बुध्द-स्रोत के रूप में लिखा था।
भारत में रहते हुए ईत्चिंग को कितने ही कोरियावासी बौध्द भिखु मिले थे। उसी प्रकार नालन्दा में उन्हें तुषार के भिक्षु मिले थे। तुषार या तुखार उस समय, उजबेकिस्तान के दरबंद और हिन्दूकुश पर्वतमाला के बीच के प्रदेश को कहा जाता था(बौध्द संस्कृति, पृ. 428)।  

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