Wednesday, May 23, 2018

ललितविस्तर

ललितविस्तर-
यह सर्वास्तिवादियों का ग्रन्थ है, जो आगे चल कर महायान के रूप में परिणत हुआ । यह किसकी रचना है, अभी तक ज्ञात नहीं है।  इसका रचना काल ईस्वी 3 सदी के आस-पास माना जाता है।  यह संस्कृत महाकाव्य बुद्ध-जीवनी पर केंद्रित  है ।

ललितविस्तर का प्रारम्भ और उपसंहार स्पष्ट रूप से महायानिक है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ललितविस्तर नाम के वैपुल्य सूत्र के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्खुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है। अंत में 'ललितविस्तर' का महामात्य गान किया गया है। बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि से अनन्तर धम्म चक्क पवत्तन तक का वृतांत निरूपित किया गया है।  प्राचीन विवरण से अधिकांश स्थलों में विशेषत: अभिनिष्क्रमण के अनन्तर मेल खाते हुए अनेक नवीन उद्भावनाएँ की गई हैं। वर्णन शैली में एक व्यापक महायानिक 'वैपुल्य' अथवा विस्तार की प्रवृति देखी जा सकती है'(डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय: महायान का उदगम  और साहित्य: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ. 327 )।

स्मरण रहे, इसी तर्ज पर कुछ समय बाद अस्वघोस ने 'बुद्धचरित' की रचना की। ललितविस्तर में संस्कृत के साथ-साथ पालि भाषा बहुतायत में प्रयोग हुई है । पाली के साथ साथ ग्रन्थ पर भोट (तिब्बती) भाषा का प्रभाव   है।  इसमें  27 अध्याय(परिवर्त ) हैं। प्रत्येक अध्याय गद्य और पद्य; दोनों में है। ग्रन्थ में बुद्ध के प्रारंभिक जीवन से लेकर धम्मचक्क पवत्तन तक की घटनाओं का विवरण है।

बुद्ध अपने जीवन काल में ही धम्म के उपदेशक तथा संघ के प्रतिष्ठापक होने के कारण अपने शिष्यों द्वारा पूजे जाते थे।  जिस प्रकार कोई अपने शिक्षक, माता-पिता, गुरु की सेवा करता है, उसी प्रकार बुद्ध के शिष्य उन्हें लौकिक जीवन के शास्ता/मार्गदाता के रूप में देखते थे। बुद्ध के समय में वैदिक साहित्य देवी-देवता, इश्वर-ब्रह्मा और उनके चमत्कारों से भरा था। ब्राह्मण इसका नेतृत्व  करता था। ब्राह्मण ने आम जन के अन्दर स्वयं को धर्म के रक्षक के तौर पर प्रतिष्ठापित कर रखा था (प्रस्तावना:ललितविस्तर: अनुवादक शांति भिक्षु शास्त्री: मानव संसाधन विकास मंत्रालय उ. प्र. हिंदी संस्थान लखनऊ) ।

बुद्ध तो ब्राह्मण व्यवस्था के विरुद्ध खड़े थे। किन्तु धीरे-धीरे उनके अनुयायी उन्हें भी दिव्य रूप से देखने लगे और कालांतर में यह दिव्यरूपता उनके मानवीय जीवन में घुल-मिल गई । बुद्ध जो भिक्खु-संघ के पथ-प्रदर्शक तथा सारिपुत्त और मोग्ग्ल्लान जैसे ब्राह्मण शिष्यों से घिरे रहते थे, वे कथा और गाथाओं में देवताओं से घिरे दिखने लगे। उन्हें लोकोत्तर का दर्जा दिया जाने लगा और उनके जीवन पर रागदरबारी कवियों द्वारा काव्य-ग्रन्थ लिखे जाने लगे( वही)।           

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