पटिच्च-समुप्पाद (Patticca- Samuppad)
एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति; बुद्ध ने इसे प्रतीत्य-समुप्पाद(पटिच्च-समुप्पाद) कहा। बुद्ध का प्रत्यय ऐसा हेतु है, जो किसी वस्तु या घटना के उत्पन्न होने के पहले क्षण सदा लुप्त होते देखा जाता है। प्रतीत्य-समुप्पाद कार्य-कारण नियम को अविच्छिन्न नहीं विच्छिन्न(discontinuous continuous) प्रवाह बतलाता है(राहुल सांकृत्यायन ; दर्शन-दिग्दर्शन पृ. 514)। बुद्ध के अनुसार सारे धर्म प्रतीत्य-समुप्पन्न है।
मनुष्य जीवन को पटिच्च-समुप्पाद से सम्बद्ध करते हुए बुद्ध ने कहा- अविज्जा(अविद्या) से संखार(संस्कार), संखार(संस्कार) से विञ्ञान (विज्ञान), विञ्ञान से नामरूप, नामरूप से सळायतन(षड़ायतन), सळायतन से फस्स(स्पर्श), फस्स से वेदना, वेदना से तण्हा(तृष्णा), तण्हा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति(जन्म), और जाति से जरा, मरण, सोक(शोक), परिदेवन, दुक्ख, दोमस्स(दौर्मनस्स), उपायास उत्पन्न होते हैं। पूर्ण वैराग्य से अविज्जा का निरोध करने पर संखारों का निरोध होता है। संखारों के निरोध से विञ्ञान का निरोध होता है। विञ्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है। नामरूप के निरोध होने से सळायतन का निरोध, सळायतन के निरोध से फस्स का निरोध, फस्स के निरोध उसे वेदना का निरोध, वेदना के निरोध से तण्हा का निरोध, तण्हा के निरोध से उपादान का निरोध, उपादान के निरोध से भव का निरोध, भव के निरोध से जन्म का निरोध, जन्म के निरोध से जरा, मरण शोक, परिदेवन, दोमनस्य, उपायास का निरोध होता है(संदर्भ- धर्मानन्द कोसम्बीः भगवान बुद्धः जीवन और दर्शन, पृ. 100) )।
‘शून्यता से नागार्जुन का अर्थ है, प्रतीत्य-समुप्पाद- विश्व और उसकी सारी जड़-चेतन वस्तुएं किसी भी स्थिर अचल तत्व से बिलकुल शून्य है(विग्रहव्यावर्त्तनी- कारिका 22)। अर्थात विश्व घटनाएं है, वस्तु समूह नहीं(दर्शन-दिग्दर्शन, पृ. 572)।
भदन्त आनन्द कौसल्यायन इसे बड़े सीधे और सरल अर्थ में बतलाते हैं- पटिच्च-समुप्पाद का अर्थ है; ऐसा होने पर ऐसा होता है, ऐसा नहीं होने पर ऐसा नहीं होता। उदाहरणार्थ, पानी होने पर भाप होती है, पानी नहीं होने पर भाप नहीं होती है। अथवा तेल होने पर दीपक जलता है, तेल न होने पर दीपक नहीं जलता। पटिच्च-समुप्पाद के नियम के अनुसार जो कुछ भी हमें दृष्टिगोचर होता है, हर वस्तु की, हर क्रिया की, हर धम्म की एक पूर्वावस्था होती है। यदि वह पूर्वावस्था न हो तो उसकी उत्तरकालीन अवस्था न हो। क्योंकि उसकी पूर्वावस्था होती है, इसलिए उसकी उत्तरावस्था होती है(संदर्भ- दर्शनः वेद से मार्क्स तक; डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन, पृ 55 )।
प्रतीत्य-समुप्पाद का अर्थ है; प्रवाह(प्रत्यय) में विनाश(अत्यय) के साथ उत्पाद(समुप्पाद)। पहली वस्तु के विनाश के साथ दूसरी वस्तु की उत्पत्ति। जैसे दूध से दही का बनना। दूध जब दही हो जाता है, तब वह दूध नहीं रहता। और यह भी कि दूध के अलावा दूसरी वस्तु से दही नहीं बनता। यदि दूध है तो उसका दही हो सकता है। कलि में ही फूल है; कहना अयर्थाथ है। यर्थाथ कलि से ही फूल होता है। इस प्रकार प्रतीत्य-समुत्पाद अविच्छिन्न नहीं, विच्छिन्न प्रवाह है(भदन्त धम्मकीर्ति : भगवान बुद्ध का इतिहास एवं धम्मदर्शन, पृ. 177-178)।
एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति; बुद्ध ने इसे प्रतीत्य-समुप्पाद(पटिच्च-समुप्पाद) कहा। बुद्ध का प्रत्यय ऐसा हेतु है, जो किसी वस्तु या घटना के उत्पन्न होने के पहले क्षण सदा लुप्त होते देखा जाता है। प्रतीत्य-समुप्पाद कार्य-कारण नियम को अविच्छिन्न नहीं विच्छिन्न(discontinuous continuous) प्रवाह बतलाता है(राहुल सांकृत्यायन ; दर्शन-दिग्दर्शन पृ. 514)। बुद्ध के अनुसार सारे धर्म प्रतीत्य-समुप्पन्न है।
मनुष्य जीवन को पटिच्च-समुप्पाद से सम्बद्ध करते हुए बुद्ध ने कहा- अविज्जा(अविद्या) से संखार(संस्कार), संखार(संस्कार) से विञ्ञान (विज्ञान), विञ्ञान से नामरूप, नामरूप से सळायतन(षड़ायतन), सळायतन से फस्स(स्पर्श), फस्स से वेदना, वेदना से तण्हा(तृष्णा), तण्हा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति(जन्म), और जाति से जरा, मरण, सोक(शोक), परिदेवन, दुक्ख, दोमस्स(दौर्मनस्स), उपायास उत्पन्न होते हैं। पूर्ण वैराग्य से अविज्जा का निरोध करने पर संखारों का निरोध होता है। संखारों के निरोध से विञ्ञान का निरोध होता है। विञ्ञान के निरोध से नामरूप का निरोध होता है। नामरूप के निरोध होने से सळायतन का निरोध, सळायतन के निरोध से फस्स का निरोध, फस्स के निरोध उसे वेदना का निरोध, वेदना के निरोध से तण्हा का निरोध, तण्हा के निरोध से उपादान का निरोध, उपादान के निरोध से भव का निरोध, भव के निरोध से जन्म का निरोध, जन्म के निरोध से जरा, मरण शोक, परिदेवन, दोमनस्य, उपायास का निरोध होता है(संदर्भ- धर्मानन्द कोसम्बीः भगवान बुद्धः जीवन और दर्शन, पृ. 100) )।
‘शून्यता से नागार्जुन का अर्थ है, प्रतीत्य-समुप्पाद- विश्व और उसकी सारी जड़-चेतन वस्तुएं किसी भी स्थिर अचल तत्व से बिलकुल शून्य है(विग्रहव्यावर्त्तनी- कारिका 22)। अर्थात विश्व घटनाएं है, वस्तु समूह नहीं(दर्शन-दिग्दर्शन, पृ. 572)।
भदन्त आनन्द कौसल्यायन इसे बड़े सीधे और सरल अर्थ में बतलाते हैं- पटिच्च-समुप्पाद का अर्थ है; ऐसा होने पर ऐसा होता है, ऐसा नहीं होने पर ऐसा नहीं होता। उदाहरणार्थ, पानी होने पर भाप होती है, पानी नहीं होने पर भाप नहीं होती है। अथवा तेल होने पर दीपक जलता है, तेल न होने पर दीपक नहीं जलता। पटिच्च-समुप्पाद के नियम के अनुसार जो कुछ भी हमें दृष्टिगोचर होता है, हर वस्तु की, हर क्रिया की, हर धम्म की एक पूर्वावस्था होती है। यदि वह पूर्वावस्था न हो तो उसकी उत्तरकालीन अवस्था न हो। क्योंकि उसकी पूर्वावस्था होती है, इसलिए उसकी उत्तरावस्था होती है(संदर्भ- दर्शनः वेद से मार्क्स तक; डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन, पृ 55 )।
प्रतीत्य-समुप्पाद का अर्थ है; प्रवाह(प्रत्यय) में विनाश(अत्यय) के साथ उत्पाद(समुप्पाद)। पहली वस्तु के विनाश के साथ दूसरी वस्तु की उत्पत्ति। जैसे दूध से दही का बनना। दूध जब दही हो जाता है, तब वह दूध नहीं रहता। और यह भी कि दूध के अलावा दूसरी वस्तु से दही नहीं बनता। यदि दूध है तो उसका दही हो सकता है। कलि में ही फूल है; कहना अयर्थाथ है। यर्थाथ कलि से ही फूल होता है। इस प्रकार प्रतीत्य-समुत्पाद अविच्छिन्न नहीं, विच्छिन्न प्रवाह है(भदन्त धम्मकीर्ति : भगवान बुद्ध का इतिहास एवं धम्मदर्शन, पृ. 177-178)।
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