Friday, May 25, 2018

महावंस

महावंस, पालि भाषा में लिखित ऐतिहासिक महाकाव्य है। पालि वांगमय में, तिपिटक और उसकी अट्ठकथाओं के बाद ऐतिहासिक वर्णन की दृष्टि से दीपवंस और महावंस ग्रंथों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इन दोनों ही ग्रंथों में भगवान बुद्ध के काल से ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक सिंहलदीप/लंकादीप के बौद्ध राजाओं का तथा प्रसंगवश तत्कालीन भारतीय राजाओं का, बौद्ध स्थविरों का एवं महाविहारों का तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का प्रमाणिक विवरण सुरक्षित है जिसे इतिहासविदों और पुरातत्वविदों ने उत्खनन आदि प्रमाण स्रोतों से प्रमाणित कर दिया है।। इस समय के इतिहास का सम्यक अनुशीलन करने वाले किसी भी अनुसन्धाता के लिए इन दोनों ही ग्रंथों का अध्ययन अत्यावश्यक है।

महावंस का रचनाकाल स्पष्ट तौर पर ज्ञात नहीं है और न ही इसके रचयिता का नाम। यद्यपि महावंस का दूसरा भाग ‘चूळवंस’ जो बाद का प्रतीत होता है, के 38वें परिच्छेद का उल्लेख कर इसका खुलासा करने का प्रयास हुआ है। यह खुलासा महावंस के टीकाकार ने किया है। विदित हो कि महावंस की टीका 12 वीं सदी में लिखी गई थी। महावंस-टीकाकार के अनुसार ‘महावंस’ के रचियता का नाम महानाम स्थविर है। महावंस टीकाकार ने महानाम स्थविर को सिंहलदीप के शासक धातुसेन (460-478 ईस्वी)  के समकालीन बतलाया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि महावंस के कम-से-कम 150 वर्ष पहले सिंहलदीप का ऐतिहासिक ग्रंथ ‘दीपवंस’ लिखा गया था। दोनों ग्रंथों का वर्णित विषय एक है। शंका होती है कि तब, महावंस क्या आवश्यकता थी? इस प्रश्न का उत्तर महावंसकार ने ग्रंथ के प्रारम्भ में ही दे दिया है। उसके अनुसार, दीपवंस बहुत ही संक्षेप में था। दीपवंस के विषय को ही महावंस में विस्तार देकर उसे क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित बनाया गया है। ग्रंथ में सरलता से समझने वाली भाषा-शैली का प्रयोग किया गया है।

महावंस का अंग्रेजी अनुवाद 1837 ईस्वी में जार्ज टर्नर महोदय ने किया था। इसके बाद विल्हेल्स गायगर के सम्पादन में 1908 ईस्वी में इसका दूसरा प्रकाशन हुआ। भदन्त आनन्द कौसल्यायन के द्वारा इसी का अनुवाद 1942 ईस्वीं में  ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग’ से प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ का मूल (पालि) पाठ नागरी लिपि में हिन्दी अनुवाद के साथ महात्मा गांधी विद्यापीठ वाराणसी ने ‘बौद्ध आकर ग्रंथ माला’ के तहत 1996 ईस्वी में प्रकाशित हुआ।

महावंस अपने मौलिक रूप में 37वें परिच्छिेद की 50वीं गाथा पर ‘महावंसो निट्ठितो’ ऐसे लिखे हुए वाक्य पर समाप्त हो जाता हैॅ। किन्तु, बाद में , आगे चलकर इस ग्रंथ में अन्य लेखकों द्वारा परिवर्धन-संवर्धन भी होता रहा है। इस बाद के अंश को ‘चूळवंस’ कहते हैं।

महावंस के ततिय, चतुत्थ और 5 वें परिच्छेद में तीन बौद्ध संगीतियों का क्रमवार वर्णन है। छटवें से 10 तक के परिच्छेदों में लाड़ नरेश सिंहबाहु के पुत्र विजय का सिंहलदीप आगमन, राज्यभिषेेक एवं उनके वंश के राजाओं का वर्णन है। एकादस परिच्छेद से राजा देनानम्पिय तिस्स का वर्णन है। यही वह समय है जब बौद्ध धर्म यहां व्यवस्थित रूप से पहुंचा। इसी परिच्छेद से ज्ञात होता है कि राजा देवानम्पिय तिस्स ने सम्राट अशोक को बहुत से अमूल्य उपहार भेजे थे। बदले में सम्राट अशोक ने देवानम्पिय तिस्स को सिंहलदीप का राजा स्वीकार किया था। सिंहलदीप से पाटलिपुत्त तक का स्थल और जल-मार्गों का इसमें वर्णन है।

द्वादस परिच्छेद में मगध से विश्व के विविध देशों में जाकर बौद्ध स्थविरों द्वारा किए गए सद्धर्म प्रचार का क्रमानुसार वर्णन है। तेरहवें से चौदहवें परिच्छेदों में महिन्द स्थविर एवं संघमित्रा का सिंहलदीप में आगमन का विस्तार से वर्णन है। पन्द्रहवें से बीसवें परिच्छेदों में राजा देवानम्पिय तिस्स द्वारा बौद्ध धम्म के प्रचारार्थ किए गए कार्य, संघमित्रा द्वारा पाटिलपुत्त से सिंहलदीप में महाबोधि वृक्ष का आनयन, महिन्द स्थविर का परिनिर्वाण आदि वर्णित है।

इक्कीसवें परिच्छेद में देवानम्पिय तिस्स के बाद राजा वट्ठगामणी के पूर्व पांच राजाओं का वर्णन है। बावीसवें से बत्तीसवें परिच्छेदों में राजा वट्ठगामणी के कार्य-कलाप, द्रविड़ों का सिंहलदीप से निष्कासन आदि का  वर्णन है। संैतीसवें परिच्छेद की पचासवीं गाथा तक राजा महासेन के शासन-काल का वर्णन है।

महावंस में वर्णित सूचनाएं अन्य ग्रंथों तथा पुरातत्व के अनुसन्धानों से समर्थन प्राप्त कर चुके हैं। सम्राट अशोक के द्वारा सद्धम्म प्रचारार्थ विदेशों में भेजे गए बौद्ध-स्थविरों के नाम भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा सांची-स्तूप में किए गए अनुसन्धान से प्रमाणित हो चुके हैं। इसी प्रकार संघमित्रा द्वारा  सिंहलदीप में बोधि-वृक्ष जाने का वर्णन सांची स्तूप के नीचे वाले तथा बीच के द्वारों पर अंकित  है। महावंस में राम-रावण कथा ऐतिहासिक समर्थन करने वाली सामग्री का कोई उल्लेख नहीं है।

महावंस में घटनाओं का काल-निर्धारण बुद्ध महापरिनिर्वाण (ई. पू. 544) से किया गया है। यही कारण है कि सिंहलदीप में बुद्ध का महापरिनिर्वाण 544 ई. पू. माना जाता है। सभी बौद्ध देशों में काल-गणना किए जाने वाले बुद्धाब्द का प्रारम्भ भी यही तिथि है। बौद्ध देशों की उपरोक्त परम्परा की मान्य तिथि और भारतवर्ष में उपलब्ध अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से जो तिथि निश्चित की गई है, उसमें लगभग 60 वर्ष का अन्तर आता है।
 
महावंस में कवि की भगवान बुद्ध में अत्यधिक श्रद्धा-वश कहीं-कहीं  काल्पनिक कथानक भी आए हैं।उदाहर-णार्थ ग्रंथ के प्रारम्भ में ही प्रथम और दुतिय परिच्छेद में भगवान बुद्ध का सिंहलदीप में दो बार आगमन और उनके द्वारा यक्षदमन, नागदमन का वर्णन दिखाया गया है। इसी प्रकार कल्याणी नदी पर नागों पर कृपा करने हेतु बुद्ध का तीसरा आगमन वर्णित है। स्मरण रहे, इसी कथानक के आधार पर सिंहलदीप निवासी वहां के समन्तकूद पर्वत पर अंकित चरण-चिन्हों को भगवान बुद्ध का मानती है।

इसी प्रकार बुद्ध के जन्म आदि से संबंधित कई काल्पनिक और अविश्वनीय कथानकों ने बुद्ध के मानवीय पहलू और संदेश को ढंक दिया है। अन्य धर्म के लोगों द्वारा अपने-अपने इष्ट महापुरुषों को दैवीय और चमत्कारिक बतलाने का साफ असर यहां महावंस के रचनाकार पर दिखता है। निस्संदेह, महावंस में जो कुछ लिखा है, सारा का सारा मानने योग्य नहीं है, छननी से छान कर ही ग्रहण करने योग्य है(महावंसः सम्पादकीय एवं भूमिका)।

बुद्धघोस  के जीवन चरित का विवरण महावंस से प्राप्त होता है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ , 234  : डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय )। 

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