भारत और चीन के सांस्कृतिक मेल का नूतन युग दो बौघ्द भिक्खु कस्यप मातंग और धम्मरक्खित(धम्मरत्न) ने स्थापित किया था जब वे 67 ईस्वी में बुध्द के उपदेशों को भारत से चीन ले गए (प्रस्तावनाः चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिम्बित बौध्द धर्म का एक अध्ययनः डॉ. अवधेश सिंह)।
कश्मीर के उत्तर में और चीन की पश्चिम सीमा पर प्राचीन खोतान, कुच, तुरफान आदि राज्य थे। खोतान में अशोक पुत्र ने शासन स्थापित किया था। वह राज 56 पीढ़ीयों तक चलता रहा था। बौध्द भिक्षु विरोचन यहां के एक ख्यात-प्राप्त विद्वान हुए हैं। ई. पू. 211 में खोतान में ‘गोतमी विहार’ नामक पहला विद्या केन्द्र स्थापित हुआ था। यहां पर खरोष्ठी लिपि में कुछ लेख प्राप्त हुए हैं। खोतान में बौध्द-संस्कृति का उत्कर्ष सातवें शतक में विशेष था।
बौध्द धर्म का प्रवेश कुचा में ई. पू. प्रथम शताब्दी में हुआ। तीसरी शती तक यह प्रमुख बुध्दिस्ट केन्द्र था। यहां के भिक्षु बौध्द-ग्रंथों का अनुवाद करने चीन गए थे। चौथी शताब्दी में फाह्यान और सातवीं शताब्दी में ह्वेन-सांग ने कुचा की यात्रा की थी। तनहांग में गुहा-विहार थे, जिन्हें ‘हजार बुध्दों की गुहाएं’ कहा जाता था(भ. बुध्द का इतिहास एवं धमम्दर्शन )।
पूर्वी चीन के हान-वंश के सम्राट मिंग(ईस्वी 58-75) ने भारत में धम्म-ग्रंथों की खोज के लिए दूत भेजे थे। सम्राट के दूत भारतीय धम्म-ग्रंथों के साथ बौध्द भिक्षु काश्यप मातंग को भी ले गए थे। इसी समय भारत में सम्राट कनिष्क (ईस्वी 78-101) का शासन था। ईस्वी 64 में बौध्द भिक्षु काश्यप मातंग चीनी सम्राट को भेट करने बुध्द की एक सुन्दर-सी मूर्ति भी ले गए थे।
इतिहास का यह वह काल-खण्ड था जब चीन के सम्राट को भेट करने के लिए बुध्द प्रतिमा सर्वप्रथम बनाई गई थी। इसके पहले बुध्द की पूजा वज्रासन आदि उनके प्रतीकों से होती थी। चीनी सम्राट ने उनका भव्य स्वागत किया था। भिक्षु सफेद घोड़ों पर चढ़ कर राजधानी लोयांग पहुंचे थे, इसलिए सम्राट ने जो विहार उनके लिए बनवाया था, उसका नाम श्वेताश्व (पइ-मा-स्से ) विहार पड़ा था।
चीन में बौध्द धर्म का प्रवेश हान वंश के सम्राट वू-ती (148-80 ई. पू.) में हुआ था। इसका उल्लेख यू-हुआन द्वारा 239-265 ईस्वी के मध्य लिखित ‘वाई लिआओ’ नामक इतिहास ग्रंथ में उपलब्ध है। चौथी शताब्दी में बौध्द धर्म वहां का प्रधान धर्म बन गया था(बौध्द संस्कृति-राहुल सांकृत्यायन)। ईस्वी 379 में चीन में बौध्द धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया गया था(भारत का इतिहास, रोमिला थापर पृ. 124)।
फाहियान 368 ई. में और बाद में ह्वेन-सांग, इत्सिंग चीनी यात्राी भारत आए थे। कुमारजीव, बोधिरुचि, रत्नमती, परमार्थ, बोधिधर्म आदि अनेक विद्वान भिक्षु धम्म-प्रचारार्थ चीन गए थे। अनेक भारतीय बौध्द ग्रंथ चीन लाए गए और उनका चीनी अनुवाद किया गया। स्मरण रहे, जो आज ग्रंथ भारत में अप्राप्त है, चीन में विद्यमान है।
सातवीं-आठवीं शती का बौध्द धर्म पूरे वैभव का रहा। उस समय चीन की राजधानी हेनान में बौध्द विद्यापीठ था। चीनी के सम्राट त-ऐ-त्सुंग ने अपनी कन्या कोंग-जो को विवाह में देकर तिब्बत नरेश गम्पो से मैत्री स्थापित की थी।
धर्मकीर्तिजी लिखते हैं, पहले चीन में कन्फ्यूशियन और ताओ स्थानीय सम्प्रदाय थे। बौध्द धर्म को उनके साथ संघर्ष करना पड़ा। बौध्द धर्म शीघ्र ही वहां जन-साधारण का धर्म बन गया। बौध्द धर्म ने कुछ बातों में चीनी धार्मिक विचारों का समर्थन किया और कुछ में उसमें जोड़कर पूरा किया।
चौथी शती के राजाओं ने बौध्द धर्म का राजाश्रय लिया था। चीनी सम्राट ऊ-ती (502-549) का शासन चीनी बौध्द धर्म के इतिहास का उत्कृष्ट युग है। तिपिटक का प्रथम प्रकाशन सम्राट ऊ-ती के काल में ही हुआ था।
चीन में बौध्द धर्म की नीव रखने का श्रेय पार्थियन राजकुमार अन्-शिकाउ (148-70 ईस्वी ) को दिया जाता है। उन्होंने कई भारतीय बौध्द ग्रंथों का वहां की भाषा में अनुवाद किया। चीनी बौध्द धर्म के इतिहास में अन्-शिकाउ का वही स्थान है जो सिंहल में महेन्द्र का है।
उस समय पर कई भारतीय बौध्द भिक्षुओं ने चीन की यात्रा की और यहां के बौध्द ग्रंथों का वहां चीनी भाषा में अनुवाद किया। आज भी जो ग्रंथ भारत में अप्राप्त है, वे चीन में विद्यमान हैं।
चीन में धर्म प्रचार की प्रगति ने सारे बौध्द जगत के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट किया और खोतान, भारत और सिंहल सभी जगह के उत्साही, धर्म प्रेमी विद्वान धर्म प्रचारार्था चीन की ओर जाने लगे।
चैथी शताब्दी के उत्तरार्ध में चीन के बौध्द प्रचारक कोरिया पहुंचे थे। ईस्वी 374 में कोरिया ने चीनी-लिपि स्वीकार की थी। कोरिया के बौध्द धर्म प्रचारकों ने इसके डेढ़ सौ वर्ष बाद यह धम्म-ज्योति जापान पहुंचाई थी।
चीनी बौध्द धर्म के इतिहास में कुमारजीव (ईस्वी 344-413 ) का असाधारण स्थान है। वे 401 ईस्वी में चीन गए थे। चीन के सम्राट ने उन्हें राजगुरू घोषित किया था।
चीन में जाने वाले काश्यप मातंग, धर्मफल, संघवर्मा, धर्मरक्ष, संघदेव, धर्मरत्न, कुमारजीव, गुणवर्मा, गुणभद्र, परमार्थ, गौतम प्रज्ञारुचि, नरेन्द्रयश, जिनगुप्त, दिवाकर, शिक्षानन्द, बोधिरुचि, अमोघवज्र, धर्मदेव, दानपाल आदि कितने ही विद्वान और बौध्दाचार्य हैं(बौध्द संस्कृति, पृ. 379)।
ताउ-आन एक प्रभावशाली भिक्षु थे। उनके बहुत सारे शिष्य थे। उनके प्रमुख शिष्य हुइ-युवेन को सुखावती, पुडरिक या अमिताभ सम्प्रदाय का प्रतिष्ठापक माना जाता है। इसी काल में एक दूसरा सम्प्रदाय छान (संस्कृत ध्यान, जापानी ‘जेन’) का प्रादुर्भाव हुआ। इसके संस्थापक चू-ताउ-सेंग(397-434 ईस्वी) नामक चीनी भिक्षु थे जो कुमारजीव की शिक्षा से प्रभावित हुए थे।
प्रकाण्ड विद्वान शंक वंशीय भिक्षु धर्मरक्ष जो 36 भाषाएं जानते थे, ने 29 वर्ष ईस्वी 284 से 313 की अवधि में बौध्द धर्म का प्रचार करते हुए प्रज्ञापारमिता, दशभूमिकसूत्रा, सध्दर्मपुण्डरिक, ललितविस्तर आदि कई बौध्द ग्रंथों का अनुवाद किया था। इन्होंने क्वन-इन (अवलोकितेश्वर) का प्रचार किया था। आदमी पर चाहे जैसी आपत्ति आए, यदि वह क्वन-सी-इन ( अवलोकितेश्वर) को पुकारे तो वे तुरन्त उसकी प्रार्थना सुन कर आपत्ति से
बचाएंगे; जैसे भक्तिभाव के उपदेश धर्मरक्ष लोगों को देते थे(भाग 5, चीन-बौध्द संस्कृति)।
सम्राट ऊ-ती का शासन(502-49) बौध्द धर्म के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। वह लिआंग राजवंश का था। ऊ-ती के शासनकाल में कोरिया के राजा ने दूत भेजकर बौध्द ग्रंथों को मंगवाया था। सम्राट जयवर्मा ने 503 ईस्वी में चीनी दरबार में मूंगे की बुध्द प्रतिमा सम्राट के लिए भेजी थी। इस प्रकार ईस्वी 538 में बुध्द की केश-धातु फुन्नान के राजा द्वारा सम्राट ऊ-ती को भेजी गई थी। उसने बड़े उत्सव के साथ केश-धातु का सत्कार किया था।
भोट सम्राट स्रोंग-चन्-स्गम्-पो ने जब आक्रमण किया(ईस्वी 641) तो चीनी थांग सम्राट ली ने राजकन्या भोटराज के पास विवाह के लिए भेजा था।
चीनी सम्राट काउ-चुंग का शासनकाल अपेक्षया ठीक था। इस सम्राट की एक रानी ने सम्राट की मुत्यु के बाद 20 वर्ष(684-704 ईस्वी) तक राज किया था। साम्राज्ञी वू-चो-तियान् ने इसके पहले की राजनैतिक अस्थिरता में बौध्द धर्म पर किए गए अत्याचारों और आघातों को मिटाने की कोशिश की थी। ईस्वी 854 में 4600 विहार और 40,000 मंदिर नष्ट किए गए थे, तथा 2 लाख 60 हजार पांच सौ भिक्खु-भिक्खुनियों को गृहस्थ बनने के लिए मजबूर किया गया था (बौध्द संस्कृति, पृ. 439)।
साम्राज्ञी वू-चो-तियान् के समय में आए एक दूसरे अनुवादक बोधिरुचि जिसे धर्मरुचि भी कहा जाता है, का उल्लेख करना प्रासंगिक है, जिसने अनुवाद ही का काम नहीं किया, बल्कि एक धार्मिक समप्रदाय की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बोधिरुचि ने कई भारतीय बौध ग्रंथों के साथ महायानी ग्रंथ ‘रत्नकूट’ का अनुवाद किया। इसमें सबसे अधिक पाठ किया जाने वाला सूत्रा ‘सुखावती-व्यूह’ है।
सुखावती-व्यूह चीन और जापान में एक प्रभावशाली बौध्द सम्प्रदाय है। इसमें अमिताभ बुध्द और उनके स्वर्ग सुखावती की विवेचना की गई है। जापान के जादो और शिन्सू सम्प्रदाय अमिताभ बुध्द के भक्त है और ‘नमियो अमिदा बुत्सु’(नमोअमिताभाय) उनके जप का महामंत्रा है।
इसी बीच चीन में तंत्रा-मंत्रों का महात्म्य बढ़ा। कई तांत्रिक आए और उन्होंने तांत्रिक ग्रंथों का अनुवाद किया। इनमें शुभाकर सिंह, पो-श्रीमित्रा, वज्रबोधि, अमोघबोधि आदि उल्लेखनीय हैं। यद्यपि वज्रयान को राज की ओर से बहुत सम्मान मिला, सुविधाएं भी मिली किन्तु चीन में कभी उसका प्रभाव अधिक नहीं बढ़ा। जापान में अवश्य उसका जोर अधिक रहा।
ईस्वी 906 में थांग-वंश का सितारा डूबने के साथ ही विद्रोह और अशांति फैलने लगी। मचुरिया और मंगोलिया को खित्तनों ने ले लिया।
नौवीं शताब्दी के अंत में चीन में छापे का रिवाज बढ़ा। इस काल में धार्मिक ग्रंथों की छपायी ने जोर पकड़ा। ईस्वी 868 में वज्रच्छेदिकासूत्रा को छापा गया । शायद छापे का प्रचार करने में बौध्द ही पहले थे। उन्हें अपने सर्वप्रिय धार्मिक ग्रंथों को बड़ी संख्या में छापने की आवश्यकता हुई। मुहर की तरह लकड़ी की पट्टियों पर अक्षरों को उलटे खुदवा कर बड़ी मात्रा में ग्रंथ छापे जा सकते थे।
चीन में कागज का आविष्कार हो चुका था। जबकि भारत इस मामले में पीछे था। वहां 12 वीं शताब्दी के अंत तक तालपत्रा और भोजपत्रा में आदान-प्रदान चलता रहा। ईस्वी 929 में लोयांग के राजवंश ने जेचुवान पर अधिकार कर लिया। वहां उसे छापखाने का पता लगा। ईस्वी 932 में कन्फूसी-संहिताओं को छापा गया। ईस्वी 971-83 की अवधि में सारा त्रिपिटक छापा गया। सनद रहे, कागज का नोट भी पहले पहल यही छपा था। यह अलग बात है कि अक्षरों को अलग-अलग करके उन्हें धातुओं में ढालकर फिर कम्पोज करके छापने का काम यूरोप ने किया। बारहवीं शती में चीन में पालि बौध्द धर्म भी पहुंच गया था।
सुंग-काल ईस्वी 960-1219 की अवधि में भारत में बौध्द धर्म अवनति की ओर बढ़ रहा था। इसलिए अब भारतीय बौध्द आचार्याें का धर्म प्रचारार्थ देश-देशांतर में कम होने लगा था। दूसरे, सिंघ तक इस्लाम ने पहुंच कर तीर्थ-यात्रियों की राह और मुश्किल कर दी थी। फिर भी कुछ भारतीय विद्वान चीन पहुंचे थे।
कश्मीर के उत्तर में और चीन की पश्चिम सीमा पर प्राचीन खोतान, कुच, तुरफान आदि राज्य थे। खोतान में अशोक पुत्र ने शासन स्थापित किया था। वह राज 56 पीढ़ीयों तक चलता रहा था। बौध्द भिक्षु विरोचन यहां के एक ख्यात-प्राप्त विद्वान हुए हैं। ई. पू. 211 में खोतान में ‘गोतमी विहार’ नामक पहला विद्या केन्द्र स्थापित हुआ था। यहां पर खरोष्ठी लिपि में कुछ लेख प्राप्त हुए हैं। खोतान में बौध्द-संस्कृति का उत्कर्ष सातवें शतक में विशेष था।
बौध्द धर्म का प्रवेश कुचा में ई. पू. प्रथम शताब्दी में हुआ। तीसरी शती तक यह प्रमुख बुध्दिस्ट केन्द्र था। यहां के भिक्षु बौध्द-ग्रंथों का अनुवाद करने चीन गए थे। चौथी शताब्दी में फाह्यान और सातवीं शताब्दी में ह्वेन-सांग ने कुचा की यात्रा की थी। तनहांग में गुहा-विहार थे, जिन्हें ‘हजार बुध्दों की गुहाएं’ कहा जाता था(भ. बुध्द का इतिहास एवं धमम्दर्शन )।
पूर्वी चीन के हान-वंश के सम्राट मिंग(ईस्वी 58-75) ने भारत में धम्म-ग्रंथों की खोज के लिए दूत भेजे थे। सम्राट के दूत भारतीय धम्म-ग्रंथों के साथ बौध्द भिक्षु काश्यप मातंग को भी ले गए थे। इसी समय भारत में सम्राट कनिष्क (ईस्वी 78-101) का शासन था। ईस्वी 64 में बौध्द भिक्षु काश्यप मातंग चीनी सम्राट को भेट करने बुध्द की एक सुन्दर-सी मूर्ति भी ले गए थे।
इतिहास का यह वह काल-खण्ड था जब चीन के सम्राट को भेट करने के लिए बुध्द प्रतिमा सर्वप्रथम बनाई गई थी। इसके पहले बुध्द की पूजा वज्रासन आदि उनके प्रतीकों से होती थी। चीनी सम्राट ने उनका भव्य स्वागत किया था। भिक्षु सफेद घोड़ों पर चढ़ कर राजधानी लोयांग पहुंचे थे, इसलिए सम्राट ने जो विहार उनके लिए बनवाया था, उसका नाम श्वेताश्व (पइ-मा-स्से ) विहार पड़ा था।
चीन में बौध्द धर्म का प्रवेश हान वंश के सम्राट वू-ती (148-80 ई. पू.) में हुआ था। इसका उल्लेख यू-हुआन द्वारा 239-265 ईस्वी के मध्य लिखित ‘वाई लिआओ’ नामक इतिहास ग्रंथ में उपलब्ध है। चौथी शताब्दी में बौध्द धर्म वहां का प्रधान धर्म बन गया था(बौध्द संस्कृति-राहुल सांकृत्यायन)। ईस्वी 379 में चीन में बौध्द धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया गया था(भारत का इतिहास, रोमिला थापर पृ. 124)।
फाहियान 368 ई. में और बाद में ह्वेन-सांग, इत्सिंग चीनी यात्राी भारत आए थे। कुमारजीव, बोधिरुचि, रत्नमती, परमार्थ, बोधिधर्म आदि अनेक विद्वान भिक्षु धम्म-प्रचारार्थ चीन गए थे। अनेक भारतीय बौध्द ग्रंथ चीन लाए गए और उनका चीनी अनुवाद किया गया। स्मरण रहे, जो आज ग्रंथ भारत में अप्राप्त है, चीन में विद्यमान है।
सातवीं-आठवीं शती का बौध्द धर्म पूरे वैभव का रहा। उस समय चीन की राजधानी हेनान में बौध्द विद्यापीठ था। चीनी के सम्राट त-ऐ-त्सुंग ने अपनी कन्या कोंग-जो को विवाह में देकर तिब्बत नरेश गम्पो से मैत्री स्थापित की थी।
धर्मकीर्तिजी लिखते हैं, पहले चीन में कन्फ्यूशियन और ताओ स्थानीय सम्प्रदाय थे। बौध्द धर्म को उनके साथ संघर्ष करना पड़ा। बौध्द धर्म शीघ्र ही वहां जन-साधारण का धर्म बन गया। बौध्द धर्म ने कुछ बातों में चीनी धार्मिक विचारों का समर्थन किया और कुछ में उसमें जोड़कर पूरा किया।
चौथी शती के राजाओं ने बौध्द धर्म का राजाश्रय लिया था। चीनी सम्राट ऊ-ती (502-549) का शासन चीनी बौध्द धर्म के इतिहास का उत्कृष्ट युग है। तिपिटक का प्रथम प्रकाशन सम्राट ऊ-ती के काल में ही हुआ था।
चीन में बौध्द धर्म की नीव रखने का श्रेय पार्थियन राजकुमार अन्-शिकाउ (148-70 ईस्वी ) को दिया जाता है। उन्होंने कई भारतीय बौध्द ग्रंथों का वहां की भाषा में अनुवाद किया। चीनी बौध्द धर्म के इतिहास में अन्-शिकाउ का वही स्थान है जो सिंहल में महेन्द्र का है।
उस समय पर कई भारतीय बौध्द भिक्षुओं ने चीन की यात्रा की और यहां के बौध्द ग्रंथों का वहां चीनी भाषा में अनुवाद किया। आज भी जो ग्रंथ भारत में अप्राप्त है, वे चीन में विद्यमान हैं।
चीन में धर्म प्रचार की प्रगति ने सारे बौध्द जगत के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट किया और खोतान, भारत और सिंहल सभी जगह के उत्साही, धर्म प्रेमी विद्वान धर्म प्रचारार्था चीन की ओर जाने लगे।
चैथी शताब्दी के उत्तरार्ध में चीन के बौध्द प्रचारक कोरिया पहुंचे थे। ईस्वी 374 में कोरिया ने चीनी-लिपि स्वीकार की थी। कोरिया के बौध्द धर्म प्रचारकों ने इसके डेढ़ सौ वर्ष बाद यह धम्म-ज्योति जापान पहुंचाई थी।
चीनी बौध्द धर्म के इतिहास में कुमारजीव (ईस्वी 344-413 ) का असाधारण स्थान है। वे 401 ईस्वी में चीन गए थे। चीन के सम्राट ने उन्हें राजगुरू घोषित किया था।
चीन में जाने वाले काश्यप मातंग, धर्मफल, संघवर्मा, धर्मरक्ष, संघदेव, धर्मरत्न, कुमारजीव, गुणवर्मा, गुणभद्र, परमार्थ, गौतम प्रज्ञारुचि, नरेन्द्रयश, जिनगुप्त, दिवाकर, शिक्षानन्द, बोधिरुचि, अमोघवज्र, धर्मदेव, दानपाल आदि कितने ही विद्वान और बौध्दाचार्य हैं(बौध्द संस्कृति, पृ. 379)।
ताउ-आन एक प्रभावशाली भिक्षु थे। उनके बहुत सारे शिष्य थे। उनके प्रमुख शिष्य हुइ-युवेन को सुखावती, पुडरिक या अमिताभ सम्प्रदाय का प्रतिष्ठापक माना जाता है। इसी काल में एक दूसरा सम्प्रदाय छान (संस्कृत ध्यान, जापानी ‘जेन’) का प्रादुर्भाव हुआ। इसके संस्थापक चू-ताउ-सेंग(397-434 ईस्वी) नामक चीनी भिक्षु थे जो कुमारजीव की शिक्षा से प्रभावित हुए थे।
प्रकाण्ड विद्वान शंक वंशीय भिक्षु धर्मरक्ष जो 36 भाषाएं जानते थे, ने 29 वर्ष ईस्वी 284 से 313 की अवधि में बौध्द धर्म का प्रचार करते हुए प्रज्ञापारमिता, दशभूमिकसूत्रा, सध्दर्मपुण्डरिक, ललितविस्तर आदि कई बौध्द ग्रंथों का अनुवाद किया था। इन्होंने क्वन-इन (अवलोकितेश्वर) का प्रचार किया था। आदमी पर चाहे जैसी आपत्ति आए, यदि वह क्वन-सी-इन ( अवलोकितेश्वर) को पुकारे तो वे तुरन्त उसकी प्रार्थना सुन कर आपत्ति से
बचाएंगे; जैसे भक्तिभाव के उपदेश धर्मरक्ष लोगों को देते थे(भाग 5, चीन-बौध्द संस्कृति)।
सम्राट ऊ-ती का शासन(502-49) बौध्द धर्म के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। वह लिआंग राजवंश का था। ऊ-ती के शासनकाल में कोरिया के राजा ने दूत भेजकर बौध्द ग्रंथों को मंगवाया था। सम्राट जयवर्मा ने 503 ईस्वी में चीनी दरबार में मूंगे की बुध्द प्रतिमा सम्राट के लिए भेजी थी। इस प्रकार ईस्वी 538 में बुध्द की केश-धातु फुन्नान के राजा द्वारा सम्राट ऊ-ती को भेजी गई थी। उसने बड़े उत्सव के साथ केश-धातु का सत्कार किया था।
भोट सम्राट स्रोंग-चन्-स्गम्-पो ने जब आक्रमण किया(ईस्वी 641) तो चीनी थांग सम्राट ली ने राजकन्या भोटराज के पास विवाह के लिए भेजा था।
चीनी सम्राट काउ-चुंग का शासनकाल अपेक्षया ठीक था। इस सम्राट की एक रानी ने सम्राट की मुत्यु के बाद 20 वर्ष(684-704 ईस्वी) तक राज किया था। साम्राज्ञी वू-चो-तियान् ने इसके पहले की राजनैतिक अस्थिरता में बौध्द धर्म पर किए गए अत्याचारों और आघातों को मिटाने की कोशिश की थी। ईस्वी 854 में 4600 विहार और 40,000 मंदिर नष्ट किए गए थे, तथा 2 लाख 60 हजार पांच सौ भिक्खु-भिक्खुनियों को गृहस्थ बनने के लिए मजबूर किया गया था (बौध्द संस्कृति, पृ. 439)।
साम्राज्ञी वू-चो-तियान् के समय में आए एक दूसरे अनुवादक बोधिरुचि जिसे धर्मरुचि भी कहा जाता है, का उल्लेख करना प्रासंगिक है, जिसने अनुवाद ही का काम नहीं किया, बल्कि एक धार्मिक समप्रदाय की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बोधिरुचि ने कई भारतीय बौध ग्रंथों के साथ महायानी ग्रंथ ‘रत्नकूट’ का अनुवाद किया। इसमें सबसे अधिक पाठ किया जाने वाला सूत्रा ‘सुखावती-व्यूह’ है।
सुखावती-व्यूह चीन और जापान में एक प्रभावशाली बौध्द सम्प्रदाय है। इसमें अमिताभ बुध्द और उनके स्वर्ग सुखावती की विवेचना की गई है। जापान के जादो और शिन्सू सम्प्रदाय अमिताभ बुध्द के भक्त है और ‘नमियो अमिदा बुत्सु’(नमोअमिताभाय) उनके जप का महामंत्रा है।
इसी बीच चीन में तंत्रा-मंत्रों का महात्म्य बढ़ा। कई तांत्रिक आए और उन्होंने तांत्रिक ग्रंथों का अनुवाद किया। इनमें शुभाकर सिंह, पो-श्रीमित्रा, वज्रबोधि, अमोघबोधि आदि उल्लेखनीय हैं। यद्यपि वज्रयान को राज की ओर से बहुत सम्मान मिला, सुविधाएं भी मिली किन्तु चीन में कभी उसका प्रभाव अधिक नहीं बढ़ा। जापान में अवश्य उसका जोर अधिक रहा।
ईस्वी 906 में थांग-वंश का सितारा डूबने के साथ ही विद्रोह और अशांति फैलने लगी। मचुरिया और मंगोलिया को खित्तनों ने ले लिया।
नौवीं शताब्दी के अंत में चीन में छापे का रिवाज बढ़ा। इस काल में धार्मिक ग्रंथों की छपायी ने जोर पकड़ा। ईस्वी 868 में वज्रच्छेदिकासूत्रा को छापा गया । शायद छापे का प्रचार करने में बौध्द ही पहले थे। उन्हें अपने सर्वप्रिय धार्मिक ग्रंथों को बड़ी संख्या में छापने की आवश्यकता हुई। मुहर की तरह लकड़ी की पट्टियों पर अक्षरों को उलटे खुदवा कर बड़ी मात्रा में ग्रंथ छापे जा सकते थे।
चीन में कागज का आविष्कार हो चुका था। जबकि भारत इस मामले में पीछे था। वहां 12 वीं शताब्दी के अंत तक तालपत्रा और भोजपत्रा में आदान-प्रदान चलता रहा। ईस्वी 929 में लोयांग के राजवंश ने जेचुवान पर अधिकार कर लिया। वहां उसे छापखाने का पता लगा। ईस्वी 932 में कन्फूसी-संहिताओं को छापा गया। ईस्वी 971-83 की अवधि में सारा त्रिपिटक छापा गया। सनद रहे, कागज का नोट भी पहले पहल यही छपा था। यह अलग बात है कि अक्षरों को अलग-अलग करके उन्हें धातुओं में ढालकर फिर कम्पोज करके छापने का काम यूरोप ने किया। बारहवीं शती में चीन में पालि बौध्द धर्म भी पहुंच गया था।
सुंग-काल ईस्वी 960-1219 की अवधि में भारत में बौध्द धर्म अवनति की ओर बढ़ रहा था। इसलिए अब भारतीय बौध्द आचार्याें का धर्म प्रचारार्थ देश-देशांतर में कम होने लगा था। दूसरे, सिंघ तक इस्लाम ने पहुंच कर तीर्थ-यात्रियों की राह और मुश्किल कर दी थी। फिर भी कुछ भारतीय विद्वान चीन पहुंचे थे।
धर्मकीर्तिजी लिखते हैं, चीन में हजारों बौध्द विहार हैं और उनमें बुध्द, बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, सामंतभद्र आदि मूर्तियों के साथ-साथ कुल-देवताओं की मूर्तियां रहती हैं। सूत्र-पाठ या पूजा के समय चीनी भिक्षु नगारे, झांज जैसे वाद्य बजाते हैं। चीन में ध्यान-भावना का विशेष महत्व है। इसके लिए विहारों में अलग स्थान रहता है।
चीन में 1949 में कम्युनिस्ट शासन आया। यह संविधान देश को धम्म-स्वातंत्रय घोषित करता है। जून 1953 में राजधानी पिकिंग में ‘बुध्दिस्ट एसोसिएशन आॅफ चाइना स्थापित की गई। इसके बाद सन् 1955 में बुदिस्ट अकेडेमी स्थापित की गई है। सन् 1956 में यहां 2500 वीं बुध्द जयंति विशाल पैमाने पर मनाई गई थी (भ. बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन)।
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