विपस्सना और गोयनकाजी
मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि विपस्सना के आचार्य गोयनकाजी है। गोयनकाजी के पहले विपस्सना को लोग बहुत कम जानते थे । यह गोयनकाजी थे, जिन्होंने इस पर काम किया। उनका जो भी हेतु हो(यहाँ व्यक्तिगत प्रॉब्लम पर मैं नहीं जाऊंगा), मगर, यह सच हैं कि उन्होंने इसे अपना बनाया। बात अपना बनाने तक ही सीमित रहती तो क्या बात थी, परन्तु गोयनकाजी ने उसे बुद्ध से जोड़ कर दिया। जाहिर है, अगर वे बुद्ध से न जोड़ते तो उनका इतना प्रचार न होता ?
ध्यानस्थ बुद्ध पहले से ही हमारे दिलो-दिमाग में विराजमान हैं। विपस्सना की ध्यान-साधना हमारे ह्रदय में बड़ी जल्दी बैठ गई। आज, विपस्सना के क्षेत्र में लोग बुद्ध को कम, गोयनकाजी को ज्यादा जानते हैं। दरअसल, बुद्ध का क्षेत्र यह है ही नहीं। विपस्सना को बुद्ध से जोड़ना वैसे ही है, जैसे बुद्ध को सर्वज्ञ कहना। बुद्ध ने इस तरह खुद को सर्वज्ञ कहे जाने, निखिल ज्ञान-दर्शन का ज्ञाता होने के प्रचार का कड़े शब्दों में खंडन किया (तेविज्जवच्छ गोत्त सुत्त: मज्झिम निकाय)। इसी प्रकार यह कहना कि ध्यान/तप-साधना से सिद्धार्थ, सम्यक-सम्बुद्ध हुए, बुद्ध को, उनके व्यक्तित्व और दर्शन को समझने में सम्यक दृष्टि का अभाव ही कहा जा सकता है। कुछ इसी तरह के कृत्यों के लिए निगंठनाथ पुत्तोंं को बुद्ध ने कड़ी-फटकार लगाईं थी(चूलदुक्खंध सुत्त: मझिम निकाय)।
बुद्ध का मार्ग विपस्सना का मार्ग नहीं है। बुद्ध का मार्ग ध्यान का मार्ग तो कतई नहीं है। ध्यानी संघर्ष में नहीं पड़ते। ध्यानी संघर्ष से बचते हैं। बुद्ध संघर्ष में पड़े। बुद्ध जबरदस्त संघर्ष में पड़े। यह समाधान खोजने का संघर्ष ही था, जो बुद्ध के अभिनिष्क्रमण का सबब बना। यह करुणा और मैत्री को स्थापित करने का ही संघर्ष था जब सिद्धार्थ अढ़ गए कि वे घायल पक्षी को हिंसक देवदत्त के हवाले नहीं करेंगे। वे चाहते तो संघर्ष से बच सकते थे। वे चाहते तो पतली गली से निकल सकते थे, जैसे कि विपस्सना वाले करते हैं। किन्तु तब, वे सम्यक सम्बुद्ध नहीं होते। जीवन, संघर्ष है(बुद्धा एंड धम्मा: खंड 3 भाग 5, पृ 318)। हमें अपनी अस्मिता के लिए लड़ते हुए अपने समाज से दूर क्यों भागना चाहिए ? ध्यान-साधना अथवा किसी एकान्तिक जगह महीनों बंद रहना, आए दिनों अपने समाज पर हो रहे अत्याचारों और सवर्ण हिन्दुओं द्वारा हमारी माँ-बहनों से किए जा रहे बलात्कारों को नजर-अंदाज करना है। बुद्ध का धम्म सामाजिक मसलों के लिए है। 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' का हर-एक शब्द अपनी हर अर्थ-व्यंजनाओं के साथ यह बात अपनी पूरी ताकत से प्रतिध्वनित करता है।
बुद्ध को ध्यान की मुद्रा में दिखाना बाद की कल्पना हैं। जो आदमी 40 वर्षों तक निरंतर चलते रहा, उसे ध्यानस्थ मुद्रा में कैसे दिखाया जा सकता है ? बाबासाहब डॉ अम्बेडकर को बुद्ध की यह मुद्रा कतई पसंद नहीं थी । वे उन्हें निरन्तर चरिका करते हुए देखते थे। और यही सत्य है। ध्यानस्थ मुद्रा चाहे बुद्ध की ही क्यों न हो, वह परिवर्तन का हेतु नहीं हो सकती। हमें परिवर्तन चाहिए। बुद्ध परिवर्तन के प्रतीक थे। परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव है। स्थायित्व जड़ता का प्रतीक है। ध्यानस्थ मुद्रा जड़ता का प्रतीक है। ध्यानस्थ मुद्रा ऋषि-मुनियों के लिए आम जन की कल्पना है। बुद्ध को भी इसी मानसिकता के चलते 'मुनिन्द्र' (मुनि-इंद्र) कहा गया! बुद्ध काल में सदैव मौन धारण करने वाले मुनि रहा करते थे। यह तपश्चर्या बुद्ध को पसंद नहीं थी (भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन,पृ. 116 )। दरअसल, ध्यान महायान की संकल्पना है। दूर नहीं, आप बुद्धगया स्थित तिब्बत, चाइना, वियतनाम, जापानी आदि बौद्ध-मठों में जाइए। वहां आपको महायान चिंतन का अविश्वनीय रूप दिखेगा। हम बाबासाहब के अनुयायी, जब इन बुद्धिस्ट मठों में जाते हैं, अजीब-सा अनुभव करते हैं(यहाँ, मुझे इससे अधिक कहने में संयत होना चाहिए)।
बहरहाल, बुद्ध वैसे नहीं है, जैसे आपको दिखाया जाता है। यह तो बाबासाहब डॉ अम्बेडकर की अनुकम्पा है, जिन्होंने 'बुद्धा एंड धम्मा' लिख कर बुद्ध को उनके सही व्यक्तित्व के परिप्रेक्ष्य में पढ़ने की दृष्टि दी। वरना, तिब्बतियों की तरह हम घुटनों के बल रेंगते ही रह जाते। यह 'बुद्धा एंड धम्मा' है, जो कर्म और पुनर्जन्म के मुद्दे को मानवीय गरिमा के साथ व्याख्यायित करता है। भदन्त आनंद कौसल्यायन तो यही कहते रह गए कि अगर हिन्दुओं की 'आत्मा' में बौद्धों का 'क्षण-प्रति-क्षण होने वाला परिवर्तन' स्वीकार कर लिया जाए तो दोनों के कर्म-सिद्धांत में कोई फर्क नहीं रह जाता(दर्शन, वेद से मार्क्स तक)। यह 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर के द्वारा विश्लेषित 'बुद्ध का कर्म सिद्धांत' (खंड 4 : भाग- 2 ) की असंगत व्याख्या है। प्रसंग-वश बतला दूँ कि मैं अपने वरिष्ठों पर टिपण्णी दांतों पर जीभ रख कर ही करता हूँ। उदाहरण के लिए, विपस्सना -चार्य जगदीश चंद्रजी का उतना ही सम्मान करता हूँ जितना कोई अपने वरिष्ठ का करता है। भदन्त आनंद कौसल्यायन अथवा राहुलजी को प्रश्नगत करने की तो बात ही क्या ? दरअसल, यह उस समाज की पीड़ा है, जिससे मैं पैदा हुआ, पला, बढ़ा।
चाहे सिद्धार्थ के जन्म और बचपन की अदभुत बाल-विलक्षणता के चमत्कार हो(अच्छरिय अब्भुत सुत्त:मज्झिम निकाय- 123/खुद्दक पाठ), महाअभिनिष्क्रमण के समय (पब्बज्जा सुत्त: सुत्त निपात) अथवा सम्बोधि प्राप्ति के समय 'मार' से सम्बंधित किंवदंतियां, अथवा प्रथम धम्मोपदेश (धम्मचक्कपवत्तन सुत्त ) या महापरिनिर्वाण की घटनाओं (महापरिनिब्बान सुत्त) का काव्यात्मक विवरण में बौद्ध-कवियों के बौद्धिक-उड़ान के दर्शन तो होते हैं किन्तु इससे आम-जन में बुद्ध का मानवीय रूप लुप्त हो जाता है। लोगों को उन में 'देवीय-गुण' देखने को विवश होना पड़ता है। और यही तो 'ब्राह्मणवाद' है। बारहवीं शताब्दी में एक और कवि जयदेव ने अपनी कृति 'दशावतार' में बुद्ध को विष्णु का अवतार बना दिया(राहुल सांकृत्यायन: पालि साहित्य का इतिहास, पृ 3 )।
सनद रहे, जब सिद्धार्थ 'नए प्रकाश की खोज में(बुद्धा एंड धम्मा, पृ. 105)' निकलते हैं तो आलार-काळाम और उद्दक रामपुत्त से ध्यान-साधना के तमाम गुरु सीखते हैं(अरिय परियेसन सुत्त : मज्झिम निकाय )। किन्तु वे उन्हें अन-उपयोगी जान आगे बढ़ जाते हैं(धर्मानंद कोसंबी :भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन, पृ. 145)। यह सच हैं कि बोधि-वृक्ष के नीचे बैठ वे उन तमाम समाधानों पर गौर करते हैं जिस के लिए उन्होंने गृह-त्याग किया था। इन समाधानों में ध्यान/तप साधना भी सम्मिलित थी। किन्तु इससे उन्हें समाधान मिला हो, 'बुद्धा एंड धम्मा' अथवा ति-पिटक ग्रंथों से प्रतिध्वनित नहीं होता। बड़ी अजीब-सी बात है कि गोयनकाजी ने इस ध्यान-साधना को तो पकड़ा किन्तु उससे आगे वाली सीढि जिसमें बुद्ध, अस्थि-पंजर नजर आते हैं, छोड़ दिया। शायद यह उन्हें 'आराम-दायक' न लगा हो ?
बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के शब्दों में, 'लगता है कि यह सारा का सारा(बाद के) बौद्ध धम्म में प्रक्षिप्त कर दिया गया है या कि किसी ऐसे द्वारा जो बौद्ध धम्म को हिन्दू धर्म सदृश्य ही बनाना चाहता था, या किसी ऐसे द्वारा जो यथार्थ बुद्ध धम्म से अपरिचित था('बुद्धा एंड धम्मा': पृ 351)।
कमोबेश सिंहल द्वीप को सांस्कृतिक रूप से भारत के करीब माना जाता है। आप में से कई लोग सिंहल द्वीप गए होंगे। आपका क्या अनुभव है। एक अम्बेडकराइट के रूप में आपकी क्या फिलिंग होती है। बुद्ध के दांत की पूजा अथवा समन्तकूट पर्वत पर अंकित बुद्ध के 'पाद-चरण पूजा' क्या अर्थ रखते हैं ? हम दीपावली के दिन दिए न जलाने की बात करते हैं, परित्राण-पाठ के दिन भंतेजी से धागा न बंधवाने की बात करते हैं, सिंहलद्वीप के इतिहास ग्रन्थ 'महावंस' में लिखित इस कथा पर कैसे विश्वास कर सकते हैं कि यक्ष-दमन और नाग-दमन के लिए बुद्ध तीन बार सिंहलद्वीप आए थे(सम्पादकीय: महावंस ) ?
बात, अकेले 'महावंस' या 'दीपवंस' की नहीं है, पूरा ति-पिटक इस तरह की कथा-कहानियों से भरा पड़ा है। 'ललित विस्तर' हो या अश्वघोष रचित 'बुद्धचरित", बुद्ध को मनुष्यों द्वारा तो ठीक है, 'देवताओं द्वारा पूजित' ( सत्था देव-मनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति ) बताया गया है। ये कल्पनाओं के आकाश में उड़ने वाले कवि और लेखक बुद्ध को नर और नारियों द्वारा पूजित भी कह सकते थे। किन्तु उन्हें अपने आराध्य देव को ब्राह्मणों के देवताओं द्वारा भी पूजवाना था। पूजा के इस भाव का तात्कालिक मकसद तो अपने आराध्य 'देव' को श्रेष्ठ बताना है, मगर, इसके दूरगामी परिणाम बड़े घातक हुए । हम तमाम ना-नुकर के बाद भी जो 'बुद्ध पूजा' अथवा 'चेत्य-पूजा' करते हैं, वह इसी का परिणाम है ? सनद रहे, गोयनकाजी विपस्सना भी इन्हीं देशों से लाए थे। और यह भी सही है कि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने महायानी विचारधारा और संस्कृति को नकार दिया था। हमें इस दिशा में बहुत ही सचेत और सावधान रहने की जरुरत है। 'सम्यक दृष्टि' पहले हैं, 'विचिकिच्छा' बाद में।
बुद्ध का भिक्खु-संघ एक आदर्श समाज-व्यवस्था का हेतु है। शायद, वे ऐसी स्थापना करना चाहते थे। समाज को दिखाने के लिए बुद्ध ने उसे समाज से अलग रखा। किन्तु धीरे-धीरे कुछ समण-परिव्राजकों की देखा-सीखी वह आबादी से दूर एकान्तिक जगह में रहने लगा। और बस, यही से वह ब्राह्मणों के उलट, अपने समाज से कटता गया। 'बुद्धा एंड धम्मा ' में बाबासाहब ने इसकी विस्तृत व्याख्या की है। हमें समाज से क्यों अलग रहना है ? भिक्खु हो या धम्म-प्रचारक जितना संघर्षरत होगा, समाज के कमजोर तबके को बल मिलेगा, उर्जा प्राप्त होगी। सामाजिक मसलों को दूर रखना समाज से गद्दारी ही कही जाएगी। अथवा कहीं ऐसा तो नहीं, यह ब्राह्मणिक चाल' बांटो और राज करो' की नीति का अंग हो, कि दलित समाज का एक तबका जिंदगी भर लड़ता-मरता रहे, और कतिपय समृद्ध तबका शुन्यगार में बैठ ध्यान-साधना में लीन, यह तमाशा देखता रहे !
सामाजिक मुद्दों पर विपस्सना से जुड़े लोगों की चुप्पी बेहद डरावनी है, जो समूह सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत है, उन्हें हतोत्साहित करने वाली है। इधर, बदलते राजनैतिक परिवेश हम देखते हैं कि हिन्दू-अतिवादियों के बढ़ते आतंक का मुकाबला करने जहाँ क्रिश्चियन और मुस्लिम बुद्धिजीवी गोलबंद हो रहे हैं, वहीँ हमारे समाज के बुद्धिजीवी पतली गली से निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं ! समाज से भागने की यह प्रवृति भयानक है। जिस समाज में आप पैदा हुए, उससे मुहं चुराने की यह प्रवृति समाज को नपुंशक बनाती है।
कुछ लोग यह कहते पाएं जाते हैं कि विपस्सना से आप चीजों को, समस्याओं को भली-भांति समझते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं, उनकी गहराई तक पहुंचते हैं। अगर यह बात है तो समस्याओं से भागने की क्या जरुरत है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि विश्लेषण करते-करते आप को एहसास हो जाता है कि 'यह तो अंतहीन सिलसिला है, इनसे संघर्ष करते-करते जिंदगी खप जाएगी। और इसलिए बेहतर है, उस पर डिस्कशन ही नहीं किया जाए, उसे जाति-बिरादरी से बाहर कर दिया जाए । काश, कि बाबासाहब अम्बेडकर ऐसा सोचते ? बाबासाहब को होश नहीं रहता था कि रमाबाई कहाँ हैं, यशवंत और रामरतन कहाँ हैं ? और इसलिए साथियों, हम यहाँ हैं। और इसलिए हम सफ़ेद-झक सफारी सूट पहन बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं ! यह उनका अथक प्रयास है। मगर, हम ! क्या हम इतने हरामी है ?
बुद्ध समस्याओं से कभी नहीं भागे। बुद्ध ने समस्याओं का डट कर सामना किया। चाहे बोधि प्राप्ति के बाद यशोधरा से मिलना हो या पुत्र राहुल से। बुद्ध ने कभी मुहं नहीं चुराया। ये वे पल थे, जब वे डगमगा सकते थे । सिद्धार्थ चाहते तो विलासिता का जीवन जी सकते थे। मगर, वे भागने वालों में से नहीं थे। विपस्सना वालों को राहुल सांकृत्यायन का लेख 'भागो, नहीं दुनिया को बदलो' पढ़ना चाहिए। राहुलजी जाति के ब्राह्मण थे। और यही कारण है कि खुल कर वे बाबासाहब अम्बेडकर के साथ खड़े नहीं हुए। तो भी धम्म के अध्ययन ने उन्हें इतना 'ईमानदार' बना दिया कि वे सामाजिक मुद्दों पर मैदान में कूदने तनिक भी नहीं हिचकते थे ।
दलित वायस के संपादक वी टी राजशेखर के शब्दों में- 'Vipassana is the Brahmanic poison to kill Buddhism' अर्थात विपस्सना एक बार फिर, बुद्धिज़्म को दफ़न करने का ब्राह्मणिक षडयंत्र है। वी टी राजशेखर को बुद्धिज़्म से कोई लेना-देना नहीं था। वे इस देश के दलित जातियों के शुभ-चिंतक थे। उनकी इस चेतावनी को हलके से नहीं लिया जा सकता। उन्होंने विपस्सना पर काफी शोध और बोध किया था। विज्ञानाचार्य अनिल रंगारी के इस बात में दम है कि गोयनकाजी अथवा उनके समर्थकों ने तब, उनके किसी आरोप का खंडन किया हो ।
वैसे, इस सम्बन्ध में विपस्सनावालों के साथ भिक्खुओं का गठ-जोड़ कम्प- कम्पाने वाला है। मैं उन भिक्खुओं की बात नहीं कर रहा हूँ जो अम्बेडकर मुव्हमेंट के साथ चलते हैं। मैं उन भिक्खुओं की बात कर रहा हूँ जो गोयनकाजी को आराध्य मानते हैं। और इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। बल्कि, इसके लिए खुद गोयनकाजी दोषी है। आप कभी मुंबई के अन्तर्राष्ट्रीय विपस्सना केंद में गए होंगे तो आपने गौर किया होगा 'शुन्यगार भवन' के धुप्प अँधेरे में बुद्ध नहीं, गोयनकाजी विराजमान है ! बुद्ध हो भी नहीं सकते। बुद्ध का विपस्सना से क्या काम ? सम्बोधि प्राप्ति के पूर्व, सारे प्रयोग कर, बुद्ध ने ध्यान-साधना की तमाम सीढियां आलार-कालाम और उद्दक राम्पुत्त के चेलों को ससम्मान लौटा दिया था।
यह कहना कि जो बिना विपस्सना किए इस पर बात करते हैं, वे बाल-बुद्धि हैं, ठीक वैसे ही है जैसे कन-फुंकवा गुरु लोगों को लालच देते हैं- पहले कान-फुंकवा तब 'रहस्य' बताऊंगा। यह वैसे ही है, जैसे यह कहना कि पहले सायनाइड खाओ, तब उस के गुण-दोष पर बात करो। शंकराचार्य को 'प्रच्छन्न बौद्ध' कहा जाता है, किन्तु इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्हें धम्म की उपसम्पदा मिली हो। अशोक के धम्म-शिलालेखों को पढ़ने वाले जेम्स प्रिंसेप बुद्धिस्ट नहीं थे। बंगाल एसियाटिक सोसायटी की पत्रिका में पालि-ग्रंथों को सर्वप्रथम प्रकाशित करने वाले सिंहलद्वीप सर्विस सेवा के प्रमुख जार्ज टर्नूर बुद्धिस्ट नहीं थे। सन 1882 में स्थापित 'पालि टेक्स सोसायटी' प्रकाशन संस्था के मार्फ़त सम्पूर्ण ति-पिटक को दुनिया के सामने रखने वाले टी. डब्ल्यु रीस डेविड्स बुद्धिस्ट नहीं थे(1. पालि साहित्य का इतिहास: राहुल सांकृत्यायन। 2. बौद्ध धर्म का इतिहास और साहित्य : रीस डेविड्स)। और फिर, किसी 'कला' को अपनी जागीर समझने का क्या तुक है ? बाबा रामदेव 'योगा' सिखाते हैं, दिल्ली के रामलीला मैदान सहित देश के कोने-कोने में शिविर लगाते हैं, किन्तु इसका उल्लेख नहीं मिलता कि उन्होंने किसी विपस्सना शिविर में 90-90 दिन गुजारे हो ? -अ ला उके