ब्राह्मणवाद, दरअसल एक मानसिकता है, जो अपने वर्गीय हित के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। पिछले दिनों एक टीवी डिबेट में विश्व हिन्दू परिषद के प्रवक्ता खुले आम कह रहे थे कि गऊ माता की रक्षा के लिए उनके लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं ! यही ब्राह्मणवाद है।
यही वह ब्राह्मणवाद है जिसे बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने जम कर लताड़ा है। यह वह ब्राह्मणवाद है जिसकी 'कास्ट इन इण्डिया', 'रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म', 'हू वेयर शुद्राज' आदि कई अपने लेख और शोध-प्रबंधों में अच्छी खबर ली है। हालांकि, उन्होंने साफ कहा कि किसी ब्राह्मण अथवा जाति से उनका कोई लेना-देना नहीं है, यद्यपि शिक्षा के ठेकेदार होने के नाते उनकी आलोचना के लिए वे सीधे जिम्मेदार हैं।
बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के पहले, बुद्ध ने ब्राह्मणवाद की तीखी आलोचना की थी । वासेट्ठ सुत्त, अम्बट्ठ सुत्त, अस्सलायान सुत्त, एसुकारित सुत्त, ब्रह्मजाल सुत्त गोया सारा ति-पिटक ब्राह्मणवाद की आलोचना से भरा पड़ा है। और यही कारण है कि डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध के इस सामाजिक आंदोलन को ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खुला युद्ध कहा।
मगर यह जबरदस्त विरोधाभास है कि बुद्ध के अनेक प्रमुख शिष्य ब्राह्मण थे। सारिपुत्त मोग्गलायन हो या महाकाश्यप, भिक्खु-संघ के नियंता थे। जबकि बुद्ध की देशना ब्राह्मणों के विरुद्ध थी। बुद्ध का सारा दर्शन उनके वेद, उपनिषद और ब्राह्मण-ग्रंथों की जड़ें खोद रहा था।
सनद रहे, बुद्ध से भी घोर आलोचक ब्राह्मणवाद के आगे चलकर कबीर हुए। बुद्ध ने तो अपनी आलोचना में हद दर्जे की शालीनता बरती। उन्होंने हमेशा ब्राह्मण को समण के साथ रखा। किन्तु कबीर ने तो उसे सीधे ' पांडेजी निपुण कसाई' कहा। किन्तु तब भी कबीर गद्दी के आचार्य जहाँ भी आप देखेंगे, ब्राह्मण ही मिलेंगे ?
कबीर हो या बुद्ध, ब्राह्मणों ने इनसे निपटने का अनोखा रास्ता अपनाया। और वह है, इनके मठ अथवा विहार में आसीन हो कर, उनके मूल वचनो/उपदेशों में ब्राह्मणवाद घुसेड़ना। वरना, भदन्त आनंद कौसल्यायन को क्या गरज थी, डॉ अम्बेडकर की कृति 'बुद्धा एंड धम्मा' को 'भगवान बुद्ध और उनका धम्म' कहने की ? भदन्तजी यही नहीं रुके, उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद दर्शन में 'ब्राह्मणवादी पुनर्जन्म' को भी घुसेड़ दिया(दर्शन- वेद से मार्क्स तक)। बाबासाहब डॉ अम्बेडकर लाख कहते रहे कि 'इसकी कम-से-कम सम्भाबना है(बुद्धा एंड हिज धम्मा)' भंतेजी, राहुल सांकृत्यायन के सुर(दर्शन-दिग्ग दर्शन) में सुर मिलाते रहे।
यही वह ब्राह्मणवाद है जिसे बाबासाहब डॉ अम्बेडकर ने जम कर लताड़ा है। यह वह ब्राह्मणवाद है जिसकी 'कास्ट इन इण्डिया', 'रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म', 'हू वेयर शुद्राज' आदि कई अपने लेख और शोध-प्रबंधों में अच्छी खबर ली है। हालांकि, उन्होंने साफ कहा कि किसी ब्राह्मण अथवा जाति से उनका कोई लेना-देना नहीं है, यद्यपि शिक्षा के ठेकेदार होने के नाते उनकी आलोचना के लिए वे सीधे जिम्मेदार हैं।
बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के पहले, बुद्ध ने ब्राह्मणवाद की तीखी आलोचना की थी । वासेट्ठ सुत्त, अम्बट्ठ सुत्त, अस्सलायान सुत्त, एसुकारित सुत्त, ब्रह्मजाल सुत्त गोया सारा ति-पिटक ब्राह्मणवाद की आलोचना से भरा पड़ा है। और यही कारण है कि डॉ अम्बेडकर ने बुद्ध के इस सामाजिक आंदोलन को ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खुला युद्ध कहा।
मगर यह जबरदस्त विरोधाभास है कि बुद्ध के अनेक प्रमुख शिष्य ब्राह्मण थे। सारिपुत्त मोग्गलायन हो या महाकाश्यप, भिक्खु-संघ के नियंता थे। जबकि बुद्ध की देशना ब्राह्मणों के विरुद्ध थी। बुद्ध का सारा दर्शन उनके वेद, उपनिषद और ब्राह्मण-ग्रंथों की जड़ें खोद रहा था।
सनद रहे, बुद्ध से भी घोर आलोचक ब्राह्मणवाद के आगे चलकर कबीर हुए। बुद्ध ने तो अपनी आलोचना में हद दर्जे की शालीनता बरती। उन्होंने हमेशा ब्राह्मण को समण के साथ रखा। किन्तु कबीर ने तो उसे सीधे ' पांडेजी निपुण कसाई' कहा। किन्तु तब भी कबीर गद्दी के आचार्य जहाँ भी आप देखेंगे, ब्राह्मण ही मिलेंगे ?
कबीर हो या बुद्ध, ब्राह्मणों ने इनसे निपटने का अनोखा रास्ता अपनाया। और वह है, इनके मठ अथवा विहार में आसीन हो कर, उनके मूल वचनो/उपदेशों में ब्राह्मणवाद घुसेड़ना। वरना, भदन्त आनंद कौसल्यायन को क्या गरज थी, डॉ अम्बेडकर की कृति 'बुद्धा एंड धम्मा' को 'भगवान बुद्ध और उनका धम्म' कहने की ? भदन्तजी यही नहीं रुके, उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद दर्शन में 'ब्राह्मणवादी पुनर्जन्म' को भी घुसेड़ दिया(दर्शन- वेद से मार्क्स तक)। बाबासाहब डॉ अम्बेडकर लाख कहते रहे कि 'इसकी कम-से-कम सम्भाबना है(बुद्धा एंड हिज धम्मा)' भंतेजी, राहुल सांकृत्यायन के सुर(दर्शन-दिग्ग दर्शन) में सुर मिलाते रहे।
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