ति-पिटक ग्रंथों में ब्राह्मणवाद
एक समय, बुद्ध चरिका करते भिक्खु-संघ के साथ कौशल प्रदेश के शाला नामक गाँव में पहुंचे। यह ब्राह्मण बहुल गाँव था। ब्राह्मण-गृहस्थों ने सुना तो वे जहाँ बुद्ध ठहरे थे, वहां गए और उनका कुशल-क्षेम जाना। उनमें से कुछ ने बुद्ध से पूछा- हे गोतम ! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो कोई प्राणी काया छोड़ मरने के बाद अपाय/दुर्गति, पतन, नरक में उत्पन्न होते हैं ? हे गोतम ! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो कोई प्राणी काया छोड़ मरने के बाद सुगति, स्वर्गलोक में उत्पन्न होते हैं ?
बुद्ध ने कहा- गृहपतियों, अधर्माचरण के कारण कोई प्राणी------नरक में उत्पन्न होते हैं। धर्माचरण के कारण गृह्पतियों, कोई प्राणी-----सुगति, स्वर्गलोक में उत्पन्न होते हैं(सालेय्यक सुत्त: मज्झिम निकाय)।
उक्त प्रसंग में बुद्ध जैसे कि उनकी सैद्धांतिकी है, बिलकुल सही उत्तर देते हैं। अधर्माचरण के कारण, और धर्माचरण के कारण। बाद में विस्तार से बतलाने के अनुरोध पर वे अधर्माचरण के सम्बन्ध में कायिक, वाचिक और मानसिक अधर्माचरण की विस्तृत व्याख्या करते हैं। उसी प्रकार धर्माचरण के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार से समझाते हैं। ब्राह्मण-गृहस्थ, बुद्ध की देशना से संतुष्ट हो उनकी शरणागत होते हैं।
किन्तु , इस प्रसंग में आलोच्य विषय यह नहीं है। बल्कि बुद्ध की देशना में 'स्वर्ग', 'नरक' जैसे ब्राह्मण-बहु-प्रचारित शब्द और 'मरने के बाद प्राणी कहाँ उत्पन्न होता है'; जैसे आम-जन के दिमाग में उथल-पुथल मचाते प्रश्न हैं।
यहाँ, ध्यान देने की बात हैं कि प्रश्न-कर्ता ब्राह्मण हैं। सीधी-सी बात है, उनकी बोल-भाषा में स्वर्ग, नरक और इस तरह के प्रश्न स्वाभाविक हैं। किन्तु, क्या बुद्ध ने उसी रौ में उत्तर दिया, जैसे कि कई बार अनजाने में होता है। दूसरे, यह भी संभव है कि प्रथम संगति के बाद भाणकों के द्वारा सुनते-सुनाते और चतुर्थ संगति के बाद लिखते-लिखाते कथोपकथन ऐसा गया हो। क्योंकि, दोनों कार्य करने वाले ब्राह्मण ही थे।
और फिर, बुद्ध के समय इस तरह की बातें थी। वेद प्रश्नांकित हो रहे थे और ब्राह्मण इस पर से ध्यान हटाने, ब्राह्मण-ग्रन्थ और उपनिषद आदि लिख रहे थे । यही कारण है कि बुद्ध को हम जगह-जगह ब्राह्मण को कटघरे में लेते देखते हैं। यद्यपि बुद्ध ने भाषा को संयत रखा। हो सकता है, वजह उनको मिला राज-शाही प्रशिक्षण हो। डांंटोंं भी तो सम्मान से। वही, ब्राह्मण को हम 'भो' शब्द से बुद्ध को संबोधित करते देखते हैं, जो कटु वर्गीय हीनता से भरा है !
बुद्ध ने 'स्वर्ग' और 'नरक' जैसी चीजों का स्पष्ट खंडन किया है। बुद्ध ने कहा कि मरने के बाद क्या होता है, इससे उसके धम्म का कोई लेना-देना नहीं है। बुद्ध ने कहा कि उसके धम्म का केन्द्र आदमी है। उनके धम्म का केंद्र समाज है, समाज में उसे कैसे रहना है, इस तरह के सामाजिक संबंधों से है। 'मजहब' अथवा 'रिलीजन' के सर्वथा विरुद्ध 'धम्म' एक सामाजिक वस्तु है। वह प्रधान रूप से और आवश्यक रूप से सामाजिक है। धम्म का मतलब है सदाचरण, जिसका अर्थ है जीवन के सभी क्षेत्रों में एक आदमी का दूसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार(बुद्धा एंड धम्मा, खंड 4 भाग 1, पृ 325)।
एक समय, बुद्ध चरिका करते भिक्खु-संघ के साथ कौशल प्रदेश के शाला नामक गाँव में पहुंचे। यह ब्राह्मण बहुल गाँव था। ब्राह्मण-गृहस्थों ने सुना तो वे जहाँ बुद्ध ठहरे थे, वहां गए और उनका कुशल-क्षेम जाना। उनमें से कुछ ने बुद्ध से पूछा- हे गोतम ! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो कोई प्राणी काया छोड़ मरने के बाद अपाय/दुर्गति, पतन, नरक में उत्पन्न होते हैं ? हे गोतम ! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो कोई प्राणी काया छोड़ मरने के बाद सुगति, स्वर्गलोक में उत्पन्न होते हैं ?
बुद्ध ने कहा- गृहपतियों, अधर्माचरण के कारण कोई प्राणी------नरक में उत्पन्न होते हैं। धर्माचरण के कारण गृह्पतियों, कोई प्राणी-----सुगति, स्वर्गलोक में उत्पन्न होते हैं(सालेय्यक सुत्त: मज्झिम निकाय)।
उक्त प्रसंग में बुद्ध जैसे कि उनकी सैद्धांतिकी है, बिलकुल सही उत्तर देते हैं। अधर्माचरण के कारण, और धर्माचरण के कारण। बाद में विस्तार से बतलाने के अनुरोध पर वे अधर्माचरण के सम्बन्ध में कायिक, वाचिक और मानसिक अधर्माचरण की विस्तृत व्याख्या करते हैं। उसी प्रकार धर्माचरण के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार से समझाते हैं। ब्राह्मण-गृहस्थ, बुद्ध की देशना से संतुष्ट हो उनकी शरणागत होते हैं।
किन्तु , इस प्रसंग में आलोच्य विषय यह नहीं है। बल्कि बुद्ध की देशना में 'स्वर्ग', 'नरक' जैसे ब्राह्मण-बहु-प्रचारित शब्द और 'मरने के बाद प्राणी कहाँ उत्पन्न होता है'; जैसे आम-जन के दिमाग में उथल-पुथल मचाते प्रश्न हैं।
यहाँ, ध्यान देने की बात हैं कि प्रश्न-कर्ता ब्राह्मण हैं। सीधी-सी बात है, उनकी बोल-भाषा में स्वर्ग, नरक और इस तरह के प्रश्न स्वाभाविक हैं। किन्तु, क्या बुद्ध ने उसी रौ में उत्तर दिया, जैसे कि कई बार अनजाने में होता है। दूसरे, यह भी संभव है कि प्रथम संगति के बाद भाणकों के द्वारा सुनते-सुनाते और चतुर्थ संगति के बाद लिखते-लिखाते कथोपकथन ऐसा गया हो। क्योंकि, दोनों कार्य करने वाले ब्राह्मण ही थे।
और फिर, बुद्ध के समय इस तरह की बातें थी। वेद प्रश्नांकित हो रहे थे और ब्राह्मण इस पर से ध्यान हटाने, ब्राह्मण-ग्रन्थ और उपनिषद आदि लिख रहे थे । यही कारण है कि बुद्ध को हम जगह-जगह ब्राह्मण को कटघरे में लेते देखते हैं। यद्यपि बुद्ध ने भाषा को संयत रखा। हो सकता है, वजह उनको मिला राज-शाही प्रशिक्षण हो। डांंटोंं भी तो सम्मान से। वही, ब्राह्मण को हम 'भो' शब्द से बुद्ध को संबोधित करते देखते हैं, जो कटु वर्गीय हीनता से भरा है !
बुद्ध ने 'स्वर्ग' और 'नरक' जैसी चीजों का स्पष्ट खंडन किया है। बुद्ध ने कहा कि मरने के बाद क्या होता है, इससे उसके धम्म का कोई लेना-देना नहीं है। बुद्ध ने कहा कि उसके धम्म का केन्द्र आदमी है। उनके धम्म का केंद्र समाज है, समाज में उसे कैसे रहना है, इस तरह के सामाजिक संबंधों से है। 'मजहब' अथवा 'रिलीजन' के सर्वथा विरुद्ध 'धम्म' एक सामाजिक वस्तु है। वह प्रधान रूप से और आवश्यक रूप से सामाजिक है। धम्म का मतलब है सदाचरण, जिसका अर्थ है जीवन के सभी क्षेत्रों में एक आदमी का दूसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार(बुद्धा एंड धम्मा, खंड 4 भाग 1, पृ 325)।
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