Wednesday, February 6, 2019

सिंहलद्वीप

सिंहलद्वीप-
सिंहल-द्वीप ही रावण की लंका है, ऐसा प्रचारित किया जाता है। किन्तु सिंहल-द्वीप की परम्परा में न रावण का उल्लेख है, न राम का। हां, यहां परम्परा से यह विश्वास जरूर है कि बुध्द ने तीन बार यहां आकर लोगों को दर्शन दिया था।

परम्परा के अनुसार, लाट (गुजरात) देश के राजा सिंह्बाहु  के विद्रोही पुत्र राजकुमार विजय सिंह (ई. पू. 483) ने सिंहलद्वीप की स्थापना एक उपनिवेश के रूप में की थी। विजयसिंह अपने साथियों के साथ भरुकच्छ, सोपारा बंदरगाह होते हुए ताम्रपर्णी बंदरगाह (वर्तमान जाफना द्वीप) पहुंचे थे।  ऐसा माना जाता है कि सिंह्बाहु या सिंह नाम की प्रधानता के कारण इनका नाम 'सिंहलद्वीप' प्रसिद्द हुआ। जिस समय भारत में चक्रवर्ती सम्राट अशोक राज्य करते थे, उसी समय सिंहल में राजा विजय का वंश सिंहासनारूढ़ था।

सिंहलद्वीप की पहचान थेरवादी बौध्द धर्मीय देश के रूप में है। सनद रहे, अशोक और सिंहल के शासक तिष्य के बीच मैत्री संबंध थे। इस मैत्री-संबंध का ही तकाजा था कि वहां के शासक तिष्य ने अपने नाम के साथ 'देवानांपिय'  उपनाम लगाया था। पुरातात्विक खोजों और चीनी यात्रियों के वर्णनों में भी ये दोनों राजा समकालीन माने जाते हैं। 

देवानापिय-तिष्य का शासनकाल(ई. पू. 247-207) सिरिलंका के इतिहास में विशेष महत्व रखता है। यह वही समय था जब सिंहल जाति ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। इसी शासनकाल में अशोक पुत्र महामहिन्द एक बड़े प्रतिनिधि मंडल के साथ धर्म प्रचारार्थ सिंहल द्वीप पधारे थे। उस प्रतिनिधि मंडल में भिक्खु  इट्ठिय, उत्तिय, सम्बल, भद्दसाल शामिल थे (दीघनिकायः पाद टिप्पणी-2 पृ. 36 )। राजा देवानापिय-तिष्य के साथ वहां की  जनता ने इस नए धर्म को ग्रहण किया था। कृतज्ञ राजा ने अपने पिता के द्वारा निर्मित महामेघवन उद्यान भिक्षु-संघ को समर्पित किया । स्थविर महिन्द ने द्वीप के अधिवासी युवकों को प्रव्रजित किया।

अन्तःपुर और देश की अन्य स्त्रियां भी बौध्द धर्म में प्रव्रजित होने को उत्सुक थी। अतः भिखुणी संघमित्रा को जम्बूद्वीप(भारत) से निमंत्रित किया गया। सिंहली लोग उत्तरी भारत को इसी नाम से पुकारते थे। संघमित्रा अपने साथ बुध्दगया के बोधिवृक्ष की एक शाखा लेकर आयी थी। वह शाखा महामेघवन में रोपी गई जो आज भी महाबोधिवृक्ष के नाम से अनुराधापुर में प्रतिष्ठित है। यह वृक्ष अति प्राचीन वृक्षों में आज बौध्द जगत के साथ विश्व की धरोहर है।

राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार, ‘लंका’ नाम बहुत पीछे सिंहल में रामायण की परम्परा के प्रचार-प्रसार में  चिपकाया गया। आजकल यद्यपि निवासियों और भाषा का नाम सिंहल है, किन्तु देश का नाम सिंहल की अपेक्षा लंका या सिरिलंका अधिक प्रसिध्द है। अशोक के शिलालेख में यह द्वीप ताम्रपर्णी द्वीप के नाम से उल्लिखित है(राहुल सांस्कृत्यायनः बौध्द संस्कृतिः लंका में बौध्द धर्म)।
 
सिरिलंका के इतिहास में राजा तिस्स के बाद काकवर्णतिस्स के बड़ा पुत्र दुट्ठगामणी(101-77 ई. पू ) ऐसा शासक था जिसके राज्य में सिंहल जाति और बौध्द धर्म ने गर्व से सिर उठाया। उसने विहार और चैत्यों का निर्माण कराया। उसने लोहमहाप्रसाद का निर्माण कर संघ को दान दिया था। यह 1600 शिलास्तम्भों पर खड़ा 9 मंजिला प्रसाद था जिसके दीवारों पर रत्नों के कमल और स्वर्ण तलाओं के बीच जातक कथाएं चित्रित थी। इसमें 900 कमरे थे। उसने रुवणवैलि सैय(चैत्य) का निर्माण कराया था जिसमें बुध्द-धातु स्थापित की गई थी। महावंश के अनुसार, दुट्ठग्रामणी राजा 99 वर्ष तक जीवित रहा और उसने इतने ही विहार बनवाए।

राजा दुट्ठगामणी के बाद कनिष्ठ भ्राता सद्धातिस्स के चौथे पुत्र राजा वट्टगामणी अभय  (ई. पू. 29-17) के शासन काल में विनय, सूत्र, अभिधर्म और उनकी अट्ठकथाओं का परायण कर सिंहल भाषा में लेखबध्द किया गया था। चतुर्थ शताब्दी में आचार्य बुध्दघोष ने सिरिलंका जाकर वहां ति- पिटक की अट्ठकथाओं का पालि में अनुवाद किया। आज का पालि ति-पिटक और उनकी सारी अट्ठकथाएं सुरक्षित रखने का गौरव सिरिलंका को ही है।

ईसा की तीसरी शताब्दी में बुध्द का एक दांत भारत से लाकर सिरिलंका स्थित क्याडी विहार में सुरक्षित रखा गया है (भगवान बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन, पृ. 388ः धर्मकीर्तिजी )।

चुलवग्ग के अनुसार पराक्रमबाहु का शासनकाल (1153-1186) सिंहल इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। सम्राट ने पोलन्नरुव को सिंहल द्वीप की राजधानी बनाया था। इस काल में पाली साहित्य की खासी अभिवृध्दि हुई और कई टीकाएं लिखी गई। अट्ठकथाएं बन चुकी थी, उन पर टीकाएं लिखने का कार्य सारिपुत्त ने किया।

पराक्रमबाहु की दो रानियां थी, भद्दवती और रूपवती। पोलन्नरुव के भद्दवती चैत्य और रूपवती चैत्य से दोनों की उदारता और धार्मिकता ज्ञापित होती है(एशिया के महान बौध्द सम्राटः डॉ. भिक्षु सांवगी मेधंकर)।

सोलहवीं शताब्दी में पोर्तुगीज, डच और अंग्रेज सत्ता पर काबिज हुए। बौध्द स्थविर मिगेत्तुवते गुणानंद ने क्रिश्चियन विद्वानों को धम्म-चर्चा में परास्त किया। यह ऐतिहासिक धम्म-चर्चा(शास्त्रार्थ) कोलम्बो से 16 मील दूर स्थित ‘पानादुरे’ स्थान पर हुई थी। इस धम्म-चर्चा से इंग्लेंड स्थित थियोसाफिकल सोसायटी के अध्यक्ष कर्नल आल्कॉट बौध्द धर्म की ओर आकर्षित हुए। कर्नल आल्कॉट ने ईस्वी 1880 में श्रीलंका जाकर खुले आम बौध्द धर्म स्वीकारा (बौध्द संस्कृति, पृ. 81, राहुल सांस्कृत्यायन )।

उन्नीसवीं शताब्दी में अनागरिक धम्मपालजी का उदय हुआ। उन्होंने न केवल सिलोन में बल्कि भारत में भी बौध्द धम्म में नए प्राण फूंके ।

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